शनिवार, 22 अक्तूबर 2022

हुमायूँ की विफलता के कारण

जिस साम्राज्य की स्थापना बाबर ने पानीपत तथा घाघरा के युद्धों में अफगानों को परास्त करके की थी, उसे हुमायूँ ने चौसा तथा कन्नौज के युद्धों में शेरशाह से पराजित होकर खो दिया। हुमायूँ अनुभवी सेनानायक था, फिर भी वह शेरशाह के समक्ष असफल हो गया।

चुनौतियां 

(1.) मिर्जाओं तथा भाइयों का असहयोग:

मुहम्मद जमान मिर्जा, मुहम्मद सुल्तान मिर्जा, मेंहदी ख्वाजा आदि तैमूरवंशीय मिर्जा वर्ग के अमीर, बाबर के सहयोगी रहे थे तथा स्वयं को बाबर के समान ही मंगोलों के तख्त का अधिकारी समझते थे। उनमें से अधिकतर मिर्जाओं ने हुमायूँ का साथ नहीं दिया। हुमायूँ ने अपने राज्य का बहुत बड़ा हिस्सा अपने भाइयों को दे दिया था किंतु भाइयों ने समय पर हुमायूँ की सहायता नहीं की।

(2.) रिक्त राजकोष:

इतिहासकारों ने हुमायूँ के रिक्त राजकोष को भी हुमायूँ की असफलताओं के लिये जिम्मेदार माना है। बाबर ने दिल्ली एवं आगरा से प्राप्त बहुत सारा धन समरकंद, बुखारा एवं फरगना में अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों को भिजवा दिया। जिससे सेना के लिये धन की कमी हो गई। जब हुमायूँ को शेर खाँ से लड़ने के लिये सेना के रसद एवं आयुध की आवश्यकता थी, तब हुमायूँ को कहीं से आर्थिक सहयोग नहीं मिला।

(3.) हुमायूँ की धर्मान्धता:

हुमायूँ ने उस काल के मुस्लिम शासकों की तरह धार्मिक कट्टरता का परिचय दिया तथा राजपूतों के साथ मित्रता करने का प्रयास नहीं किया। जब मेवाड़ की राजमाता कर्णावती ने राखी भिजवाकर हुमायूँ की सहायता मांगी तो हुमायूँ के लिये बड़ा अच्छा अवसर था कि वह मेवाड़ की सहायता करके राजपूतों का विश्वास जीत लेता किंतु उसने काफिरों की मदद करना उचित नहीं समझा। यदि उसने राजपूतों को मित्र बनाया होता तो इन राजपूतों ने न केवल गुजरात के बादशाह बहादुरशाह के विरुद्ध अपितु अफगानों एवं शेर खाँ के विरुद्ध भी हुमायूँ की बहुत सहायता की होती

(4.) शेर खाँ तथा बहादुरशाह का एक साथ सामना:

हुमायूँ की विफलता का सबसे बड़ा कारण यह था कि नेपोलियन की तरह ही उसके शत्रु पूरब और पश्चिम दोनों तरफ थे, उसे दो विपरीत मोर्चों पर लड़ना था। उसे पूरब में शेरशाह तथा पश्चिम में बहादुरशाह के विरुद्ध एक साथ संघर्ष करना पड़ा था। हुमायूँ में दोनों के विरुद्ध एक साथ लोहा लेने की क्षमता नहीं थी।

(5.) तोपखाने के कुशल प्रयोग का अभाव:

हुमायूँ की विफलता का एक यह भी कारण था कि वह अपने पिता बाबर की भाँति तोपखाने का कुशल प्रयोग नहीं कर सका क्योंकि अफगानों के पास भी तोपखाना था और वह मुगलों के तोपखाने से कहीं अधिक अच्छा हो गया था। इसीलिये लाख प्रयत्न करने पर भी हुमायूँ का तोपची मुस्तफा रूमी खाँ पाँच महिने तक चुनार के दुर्ग को नहीं भेद सका। शेर खाँ को अपनी स्थिति दृढ़ करने के लिये समय मिल गया तथा परिस्थितियाँ हुमायूँ के हाथ से निकल गईं।

 हुमायूँ की भूलें

हुमायूँ जीवन भर एक के बाद एक भूल करता रहा जिनके गंभीर परिणाम निकले।

(1.)  साम्राज्य के बटवारे में कामरान को पंजाब, काबुल तथा कांधार

राज्य का विभाजन करने में सबसे बड़ी भूल यह हुई कि दगाबाज़ कामरान के अधिकार में ऐसा हिस्सा दे दिया गया जो बाबर के राज्य का प्राण था। इससे यह हुआ कि हुमायूँ के पास केवल नया राज्य रह गया और जिन साधनों द्वारा यह राज्य प्राप्त किया गया था और जिनके द्वारा इस पर अधिकार रखा जा सकता था, वे उसके हाथ से जाते रहे।

(2.) आर्थिक अपव्यय

हुमायूँ ने आगरा में एक जलसा किया जिसमें बारह हज़ार आदमियों को दावत और खिलअत दी गई। इस समय यह अपव्यय उचित नहीं था। रशब्रुक विलियम ठीक ही कहता है कि इसके साथ ही पुरानी कहानी शुरू हो गई- आर्थिक ह्रास, प्रपंच और राजवंश का अंत।

(3.) चित्तौड़ की सहायता नहीं करना:

गुजरात के शासक बहादुरशाह के विरुद्ध चित्तौड़ की सहायता का प्रस्ताव स्वीकार नहीं करना, हुमायूँ की बड़ी भूल थी। इससे उसने राजपूतों को मित्र बनाने का अवसर खो दिया।

(4.)  हमीदा बानू से विवाह:

हमीदा बानू, हिन्दाल के धर्मगुरु की पुत्री थी। इसलिये हिन्दाल नहीं चाहता था कि हुमायूँ उससे विवाह करे किंतु हुमायूँ ने उसकी बात नहीं मानी और हिन्दाल नाराज होकर हुमायूँ का साथ छोड़ गया। हुमायूँ की लम्पटता देखकर अन्य साथी भी हुमायूँ का साथ छोड़ गये। इसका परिणाम यह हुआ कि हुमायूँ को उसके ही भाइयों ने भारत से बाहर भाग जाने पर विवश कर दिया।

(5.) सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाना:

शेर खां के बहकावे में आकर हुमायूँ ने कन्नौज में अपना सैनिक शिविर निचले स्थान पर लगाया। उसके दुर्भाग्य से मई के महीने में भी तेज बारिश हो गई और उसका सैनिक शिविर पानी से भर गया।

हुमायूँ का भारत से पलायन फारस प्रवास

अपनी पराजय के पश्चात् हुमायूँ आगरा आया किन्तु वह केवल एक रात आगरा में रहा तथा दूसरे दिन अपने परिवार और कुछ खजाने के साथ दिल्ली के लिए प्रस्थान कर दिया। रोहतास में हिन्दाल भी उससे आ मिला। अब दोनों भाइयों ने लाहौर के लिए प्रस्थान किया। लाहौर में मिर्जा अस्करी भी उनसे आ मिला।

सिंध प्रवास

हुमायूँ ने हिन्दाल के साथ लाहौर से प्रस्थान कर सिन्ध में प्रवेश किया परन्तु दोनों भाई वहाँ अधिक दिनों तक एक साथ नहीं रह सके। हुमायूँ हिन्दाल के धर्मगुरु की कन्या हमीदा बानू पर आसक्त हो गया जिसके साथ उसने 31 अगस्त 1541 को विवाह कर लिया। इससे हिन्दाल हुमायूँ से अप्रसन्न हो गया और उसका साथ छोड़कर कन्दहार चला गया। हुमायूँ के साथियों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी। इसलिये हुमायूँ का सिन्ध में रहना खतरे से खाली नहीं रहा। हुमायूँ ने मारवाड़ के शासक राजा मालदेव के यहाँ जाने का निश्चय किया परन्तु जब वह जोधपुर के निकट पहुँचा तब उसे यह ज्ञात हुआ कि मालदेव शेरशाह से मिल गया है और हुमायूँ को कैद कर लेने का वचन दे चुका है। इस सूचना से हुमायूँ आतंकित हो उठा और वहाँ से जैसलमेर होता हुआ अमरकोट की तरफ भाग खड़ा हुआ।

अमर कोट प्रवास

22 अगस्त 1542 को हुमायूँ अत्यंत दयनीय दशा में अमरकोट पहुँचा। अमरकोट के राणा ने हुमायूँ का स्वागत किया और उसे हर प्रकार से सहायता देने का वचन दिया। हुमायूँ लगभग डेढ़ महीने तक अमरकोट में रहा। यहीं पर 14 अक्टूबर 1542 को हमीदा बानू की कोख से अकबर का जन्म हुआ। कई महीने तक सिन्ध में भटकने के बाद हुमायूँ ने जुलाई 1543 में कन्दहार के लिए प्रस्थान किया। भारत से निष्कासन हुमायूँ अभी कन्दहार के मार्ग में था कि उसे सूचना मिली की मिर्जा अस्करी, कामरान की आज्ञा से उसे कैद करने आ रहा है। इस पर हुमायूँ ने अपने नवजात शिशु को अपने विश्वसनीय आदमियों के संरक्षण में छोड़कर अपनी पत्नी तथा बाईस स्वामिभक्त अनुचरों के साथ दिसम्बर 1543 में गजनी के मार्ग से फारस के लिए प्रस्थान कर दिया

फारस प्रवास

हुमायूँ ने मार्ग में ही एक पत्र फारस के शाह तहमास्प को भिजवाकर अपने फारस आने की सूचना भिजवाई। इस पर तहमास्प ने अपने अफसरों तथा सूबेदारों को आदेश भिजवाया कि हुमायूँ का फारस राज्य में हर स्थान पर राजसी स्वागत किया जाय। जुलाई 1544 में हुमायूँ फारस के शाह तहमास्प से मिला। यहाँ इसने शिया परंपरा का पालन किया।

शाह द्वारा सैनिक सहायता

शाह ने हुमायूँ को 13 हजार अश्वारोही दिये ताकि हुमायूँ कन्दहार पर आक्रमण कर सके। इस सहायता के बदले में हुमायूँ से यह वचन लिया गया कि वह शाह की बहिन की लड़की से विवाह करेगा और जब फारस की सेना कन्दहार, गजनी तथा काबुल जीत कर हुमायूँ को सौंप देगी, तब हुमायूँ कन्दहार फारस के शाह को लौटा देगा। तथा शिया मत तथा फ़ारसी संस्कृति का प्रसार करेगा।

हुमायूँ की भारत वापसी

उसने सबसे पहले कन्दहार पर आक्रमण किया। कंदहार की सुरक्षा कामरान ने मिर्जा अस्करी को सौंप रखी थी। कन्दहार का घेरा लगभग पाँच माह तक चला। 3 सितम्बर 1545 को अस्करी ने कन्दहार का दुर्ग हुमायूँ को समर्पित कर दिया। फारस के शहजादे ने हुमायूँ से यह माँग की कि वह कन्दहार को, कन्दहार से प्राप्त कोष तथा अपने भाई अस्करी के साथ फारस के शाह को समर्पित कर दे जो नहीं दिया गया।

काबुल तथा बदख्शाँ पर अधिकार

हुमायूँ ने कन्दहार को आधार बनाकर काबुल की ओर ध्यान दिया। उन दिनों हिन्दाल काबुल में था। वह कामरान का साथ छोड़कर हुमायूँ से आ मिला। कामरान के अन्य साथी भी कामरान का साथ छोड़कर हुमायूँ की तरफ आ गये। इससे कामरान भयभीत हो गया और काबुल से सिन्ध भाग गया। नवम्बर 1545 में हुमायूँ ने काबुल में प्रवेश किया जहाँ पर वह अपने तीन वर्षीय बालक अकबर से मिला। हुमायूँ ने बदख्शाँ पर भी अधिकार कर लिया। यहाँ पर हुमायूँ बीमार हो गया। कुछ लोगों ने उसकी मृत्यु की अफवाह उड़ा दी। जब कामरान को यह सूचना मिली तो वह सिन्ध से चला आया और उसने फिर से काबुल पर अधिकार कर लिया। अप्रैल 1547 में हुमायूँ ने पुनः काबुल पर अधिकार कर लिया। दिसम्बर 1551 में कामरान को अन्धा कर दिया गया। इसके बाद उसे अपनी पत्नी तथा नौकर के साथ मक्का जाने की आज्ञा दे दी गई जहाँ 5 अक्टूबर 1557 को कामरान की मृत्यु हो गई। मिर्जा अस्करी को भी मक्का जाने की अनुमति दे दी गई।

भारत की परिस्थितियाँ अब हुमायूँ के अनुकूल हो गई थीं क्योंकि शेर खाँ की मृत्यु हो चुकी थी तथा उसके निर्बल उत्तराधिकारियों के शासन में अफगान राज्य पतनोन्मुख हो चला था। अब हुमायूँ ने अपने पूर्वजों के खोये हुए साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगा।

हुमायूँ का शेर खाँ से संघर्ष

शेर खाँ हुमायूँ का सबसे प्रबल शत्रु सिद्ध हुआ। वह अफगानों का नेता था। उसने उत्तर भारत में हुमायूँ की अनुपस्थिति का लाभ उठा कर दक्षिण बिहार पर अधिकार स्थापित करके चुनार का दुर्ग भी जीत लिया। यह दुर्ग आगरा से पूर्व की ओर जाने वाले स्थल तथा नदी के मार्ग में पड़ता था। इस कारण उसे पूर्वी भारत का फाटक कहा जाता था तथा सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।

शेर खां के प्रति आरंभिक चिंता : हिन्दू बेग की रिपोर्ट तथा आमोद प्रमोद

हुमायूँ ने हिन्दू बेग को जौनपुर में नियुक्त करने के बाद उसे अतिरिक्त दायित्व यह दिया कि वह शेर खां पर नज़र रखे। हिन्दू बेग ने जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसके अनुसार शेर खां निष्ठावान था, वह हज़रत बादशाह का नाम ख़ुत्बे में पढता था, उसके साम्राज्य विस्तार का क्षेत्र पूर्व में था, उसने खुद का सिक्का नहीं चलाया था। इस रिपोर्ट के अनुसार हुमायूँ भ्रम में पड़ गया तथा आमोद प्रमोद में लग गया। जिसका लाभ उठा कर शेर खां बंगाल में अपनी स्थिति मजबूत करता रहा।

हुमायूँ का बंगाल अभियान : शेर खां का प्रतिवाद

बाद में हुमायूँ को जैसे ही शेर खां की गतिविधियों की सूचना मिली उसने राजधानी का प्रबंध करके पूरे लाव लश्कर के साथ 27 जुलाई 1537 को बंगाल की तरफ रवाना हो गया। यह खबर मिलते ही शेर खां ने हुमायूँ को कहलवा भेजा कि वह अभी भी हुमायूँ का सेवक है तथा उसने मुगल क्षेत्र पर हमला नहीं किया है, अतः उसे यह करने की जरूरत नहीं है

हुमायूँ द्वारा चुनार का घेरा : शेर खां का गौड़ और रोहतास पर कब्ज़ा

नवम्बर  1537 में जब हुमायूँ चुनार का घेरा डाले था उसी समय शेर खां भी गौड़ का घेरा डाले हुए था। दरअसल यहाँ हुमायूँ के खेमे में दो पक्ष थे पहले पक्ष का मानना था कि शेरशाह गौड़ पर कब्ज़ा करे उससे पहले हमें गौड़ पर हमला करके उसे हासिल कर लेना चाहिए क्योंकि वहां पर बंगाल का कोष है। दूसरे पक्ष का मानना था कि पहले चुनार को जीत लिया जाए इसे पीछे छोड़ना ठीक नहीं है। हुमायूँ ने खान खाना युसूफ खेल से राय पूछी, जवाब मिला कि नौजवानों कि राय है कि चुनार जीता जाए जबकि वृद्धों की राय है कि गौड़ की तरफ प्रस्थान किया जाए। हुमायूँ ने कहा कि मैं नौजवान हूँ। लेकिन अगले छः महीने तक हुमायूँ चुनार जीत नहीं पाया और उधर शेरखां ने गौड़ पर कब्ज़ा कर लिया। हुमायूँ जब तक चुनार को जीता तबतक शेर खां ने धोखे से रोहतास का किला भी प्राप्त कर लिया।

हुमायूँ की बनारस विजय, संधि प्रस्ताव का असफल होना तथा बंगाल में प्रवेश, फंसना और वापसी

चुनार के बाद हुमायूँ ने बनारस पर कब्ज़ा कर लिया। इसके बाद हुमायूँ और शेर खां के बीच में संधि वार्ता चली जो शीघ्र ही टूट भी गई। मई 1538 ई. में वह तेलियागढ़ी पहुँचा। यहाँ उसे पता लगा कि शेरखाँ के पुत्र जलालखाँ ने गौड़ जाने वाली सड़क बन्द कर दी है। वहाँ उसे युद्ध करना पड़ा और जलाल खाँ वापिस चला गया। अगस्त, 1538 ई. में हुमायूँ गौड़ पहुँचा। यहाँ फिर हुमायूँ ने रंगरेलियाँ मनाने में लगभग 8 महीने नष्ट कर दिए। इस समय में उसने युद्ध की पूर्णतया उपेक्षा कर दी और इसी अवकाश में शेरखाँ ने अपनी स्थिति को सुदृढ़ कर लिया तथा दिल्ली और बंगाल के मध्य यातायात के साधनों को नष्ट कर दिया। उसने कारा, कन्नौज और सम्भल को भी अपने अधीन कर लिया और जनवरी, 1539 ई. तक कोसी और गंगा के मध्य का समस्त प्रदेश शेरखाँ के हाथों में आ गया। हिन्दाल बिहार छोड़ कर आगरा चला गया। जब हुमायूँ ने अपने को ऐसी भयंकर स्थिति में पाया तो उसने तुरन्त आगरा लौटने का निश्चय किया। और मार्च 1539 ई. में पुनरागमन की यात्रा प्रारम्भ की।

चौसा का युद्ध सन् 1539 ई.

शेरखाँ ने आगरा जाने वाली सड़क को रोक दिया क्योंकि शेरखाँ पर एक निश्चित विजय ही हुमायूँ को आगरा पहुँचाने में सहायता दे सकती थी। हुमायूँ और शेरखाँ की सेनाएँ तीन महीने तक अप्रैल 1539 ई. से जून 1539 ई. तक एक दूसरे के सम्मुख डटी रहीं, किन्तु किसी ने भी युद्ध प्रारम्भ नहीं किया। यह विलम्ब शेरखाँ के हित में है, इस विषय पर हुमायूँ ने विचार नहीं किया। फलस्वरूप तीन महीने पश्चात् वर्षा प्रारम्भ हो गई, मुगल शिविर में जल भर गया, इससे हुमायूँ की सेनाओं में गड़बड़ी फैल गई। शेरखाँ को अच्छा अवसर हाथ लगा और 26 जून, सन् 1539 ई. को चौसा का युद्ध हुआ। हुमायूँ पराजित हुआ और एक भिश्ती की सहायता से उसने अपना जीवन कठिनता से बचाया। उसे अपनी पत्नियाँ भी खोनी पड़ीं।

कन्नौज का युद्ध सन् 1540 ई.

चौसा की पराजय के पश्चात् हुमायूँ आगरा पहुँचा यहाँ उसने अपने सभी भाइयों को मंत्रणा के लिये बुलाया। कामरान ने 20,000 सैनिकों के साथ शेरखाँ के विरुद्ध युद्ध करने का प्रस्ताव किया किन्तु हुमायूँ ने इसको अस्वीकार कर दिया क्योंकि उसे अपने भाई पर विश्वास नहीं था। उसने यह प्रस्ताव रखा कि यदि कामरान उसे अपनी सेना की सहायता दे तो वह सहायता स्वीकार कर लेगा। दोनों भाइयों का परस्पर मतभेद मिट न सका और कामरान अपनी सेना सहित लाहौर वापिस चला गया। किसी प्रकार से हुमायूँ एक सेना बनाने में सफल हुआ। मुगल सैनिकों की युद्ध करने वाली इस सेना की संख्या लगभग 40,000 थी। मई 1540 ई. में कन्नौज का युद्ध हुआ। इस युद्ध में मुगल तोपखाना युद्ध में न लाये जाने के कारण व्यर्थ सिद्ध हुआ। कन्नौज में भी हुमायूँ ने पूरे एक महीने तक आक्रमण प्रारम्भ नहीं किया। कन्नौज के युद्ध में हुमायूँ पुनः पराजित हुआ। हुमायूँ एक भगोड़ा बन गया और शेरखाँ आगरा और दिल्ली का स्वामी बन गया।

 

बुधवार, 19 अक्तूबर 2022

ANCIEN REGIME OF FRANCE


The term Ancien Regime was commonly used by journalists and politicians in France after 1789, to refer to the situation in pre-revolutionary France. The British started using it after 1794. The ancient system was institutionally torpid, economically immobile, culturally exploitative and socially stratified. This system was completely incapable of self-modernization. Therefore, its improvement was possible only through a big violence.

Political situation

The main feature of the political situation of the ancient system was the irregularities prevailing in it, that is why the words 'prodigal anarchy', and 'debris of powers' have been used for it.

1. Rights of the King

Before the revolution in France, there was an autocratic monarchy, whose supreme authority was the king. The king, because of his belief in 'divine rights', did not consider himself responsible to any person or institution and wanted to rule autocratic, as in the statement of Louis XVI, 'Since I will, it is legal'. It is clear. It is the king who makes laws, levies, taxes, spends according to his own will, declares war and makes treaties with other nations of his own free will. The king could imprison any person without indictment. The State General and the Parlement were two institutions to control the powers of the king, but the States General was not a regular institution and its session was called only on the wish of the king. The second institution in France was the Parlement which was not a representative body but like a Supreme Court.

2. King's extravagency

The rulers of France lived very luxuriously and lived a very luxurious life. The capital of France was Paris, but the king lived in Versailles, which was located 12 miles from Paris. His luxurious palace was built in Versailles, which was built by Louis XIV spending millions of dollars. In that palace there were hundreds of rooms, churches, theaters, dining halls, hospitality rooms, innumerable guest-houses and hundreds of rooms for the servants to stay. Many gardens, sculptures, fountains and artificial lakes were built in this palace itself. The king and the people of the royal family used to live in ecstasy. This kind of wastage by the people of the royal family had a serious effect on the treasury. For this reason people in France called the court as 'the grave of the nation'.

 3. Inefficient Administrative System

The administrative system of France was very faulty and inefficient. There was a complete lack of planning and order in the administration. The distribution of works among the departments was also not rational. There were many such tasks, the responsibility of which was divided into many departments, due to which no department did that work. There were five committees to advise the king, who also took up the making of laws, issuing orders and other domestic and foreign affairs. From the point of view of administration, France was divided into 36 parts, which were called generalities. The head of each generalite was called an Intendant. Intendant was generally of the middle class. It was appointed by the king himself. Its job was to follow the orders of the capital and to send the report of its work to the capital. These Intendant were, in fact, the means of carrying out the misgovernance, the real power of which was in the hands of the aforesaid five committees. Therefore, they also used to administer in an autocratic manner.

4. Law

There were different laws for different places in France. In France, there was no restriction on trade in the thirteen provinces, but the other provinces were as separate from each other as there are different countries. Taxes had to be paid on goods being sent from one province to another. The judicial system in France was also very complex and faulty. There were about 400 types of judicial legislation in France. The king could have imprisoned any person without any prior notice. Not only the king but any of his benefactors could arrest anyone with the help of 'lettre de chachet'. Voltaire and Mirabo were also imprisoned for some time by this malpractice.

 ECONOMIC CONDITION

   1. Deteriorating Economic Condition

In France, the principles of tax system based on the will of the taxpayers were not propounded. Finance-administration was also autocratic and autocratic like the administration of justice system and other departments of the government. The unplanned economic policy of the French government had left France financially hollow. About 50% of the national income was used to pay interest on the national debt. The government was forced to take loans again as the expenditure was always more than the total income of the state. Hezen has written that state finance policy generally operates on the principle that expenditure should be commensurate with income, but the principle of the French government was the opposite. It fixed the income commensurate with the expenditure.

2. Selling the Post

The government thought of a way to get rid of the increasing debt, that it should take more loans and collect money by selling the posts. Apart from this, another method was also adopted by the French government. Under this, a group of wealthy people gave money to the king and in return they got the right to collect taxes. This system was called 'farming out the taxes'. This was a very faulty system, as they used to charge more than the actual tax due which oppressed the people and reduced the income of the state. During the time of Louis XVI, that debt increased so much that people stopped lending, due to which the government was caught in a serious financial crisis.

3. Lack of budget

Another serious drawback of French fiscal policy was the lack of budget. In the absence of budget, the income and expenditure account of the state could not be maintained properly. The king used to spend the state money arbitrarily considering it as personal money. The money that should have been spent on providing the necessary facilities for the nation was spent on the personal needs and luxuries of the king. In such a situation, it was natural to have an adverse effect on the economic condition of the country.

4. Faulty Tax System

Taxes are the main source of income of any country. The taxation systems in France were very faulty. There were two types of taxes – direct and indirect. Direct taxes had to be paid on personal property, income and land, but most of the taxes were such from which feudal and church officials, etc. How surprising that the class which was able to pay taxes did not have to pay taxes and the bones of the body were also asked from those who were hungry. This is the reason why it was said in France at that time, “The nobles fught, the clergy worship and the common people pay taxes. Thus the tax system was completely based on partiality”.

SOCIAL STATUS

The classification of French society was as follows. First, there was the privileged class and the second was the unprivileged class, who did not have any kind of facilities and their life was very painful. 

1. First Estate/Clergy

The clergy were the the first estate and they held the highest position in the society. He was very powerful and wealthy. About 1/5th of the total land of France was under them. They used to get huge income from this land. Apart from this, they also collected religious taxes (tithes) from the farmers. The annual income of the church was about ten million dollars, which should have been spent for the construction and repair of religious buildings, religious services, hospitals and schools, but the actual situation was not like this. Like other institutions of France, there was a lot of corruption in the Church, which hurt the moral sense of the country. The major part of the church's income went to the personal accounts of the senior officials. The moral character of some of these virtuous people was very reprehensible and ideology was of low standard. The position of church officials also differed greatly. The position of the high priests was very good and they were omnipotent in every matter of church and religion, but the position of the smaller officials of the church was very bad. There was not much difference between him and the condition of the common people. They were fully acquainted with the unjust system, due to which these people helped the common people at the time of revolution.

2. Second Estate/Elite

The second privileged class was the nobility, who were under the 'Second Estate'. The feudal lords, courtiers and big government officials came under this class. Before the revolution, their number in France was about four lakhs. Although Richelieu and Louis XIV had significantly reduced the power of the feudatories, this class was still powerful. A quarter of the total land of France was under them, with the income of which these people lived a luxurious life. There were also two classes among the feudatories: Nobles of sword and the Nobles of the robes. Those feudal lords who were related to old military families came under the category of 'Nobles of sword'. There were also two types of military feudal lords - court nobles and provincial nobles. Court feudal lords were few in number, but they lived a life of great opulence and luxury. Being in the court, he got the opportunity to come near the king, due to which he became very powerful. He had a monopoly on most of the high offices of the state. The number of provincial feudatories was very large, but they were not so influential. Being in their respective provinces, they did not have special relations with the kings. Therefore, their influence could not increase. He did not get any special respect in the society. Nor was his financial condition very good. The hatred of the feudal class in the heart of the people of France was actually only for the selfish and greedy court nobles.'

The second class of feudatories was the Nobles of robes. In the ansien regime of France, posts could be bought. By purchasing such a post, he would get a certificate of being feudal from the government. Thus this class of feudatories was born. These people were not the descendants of medieval feudatories. Most of them were judges or members of higher tribunals, hence they were called 'Judge nobles'. This class was liberal in comparison to other feudal lords and from time to time they opposed the laws of the king and the government, but they had a special attachment to their privileges, they were not ready to leave them.

3. Common Public / Third Estate

Apart from the clergy and the feudal classes, the rest of the people of France used to come in this class which was called the third Estate. This class did not have any rights. There was huge inequality even in this class. The richest man or the brilliant litterateur or laborer and farmer, whoever was not in the clergy and the nobility, belonged to this third class. This class was also mainly divided into three parts-middle class, craftsmen and farmers.

(i) Middle class (Bourgeoise) In France, the middle class was called 'bourgeois'. People of this class lived in cities and were rich, educated, teachers, litterateurs, engineers and other intellectuals who did not have to do physical work. The people of this class, being intelligent, hardworking, educated and financially prosperous, were vehemently opposed to the ancient system. The behavior of the clergy and the nobility was not good towards them, due to which they felt inferior. Many wealthy merchants of the middle class had given loans to the government, but seeing the condition of the government, they started worrying about their money. It is noteworthy that the most intelligent, rich, civilized and progressive people of France were middle class, but they did not get any political rights. The middle class wanted to get political rights. He was agitated by the ideas of Voltaire, Rousseau, Montesquieu and many other economists.

(ii) Artisons - The second class living in the cities was the craftsmen. At that time in France their number was about 2.5 million. Before the Great Revolution in France, the industries could not be fully developed, so their number was less. The craftsmen were divided into several categories and each category had its own rules. The relations between the categories were very poor and there were frequent quarrels among them. These craftsmen were not provided any kind of facility by the government. 

(iii) Peasants- In France, the third class had the highest number of farmers. Overall, France also had the largest number of farmers. Farmers were 9/10th of the total population of France, but still they had the most deplorable condition. The entire burden of taxes was also on the shoulders of these poor people. Farmers had to pay more than half of their total income as taxes. The feudal lords had to pay land tax to them and tithes to the church. The result of all this was that the farmers were always suffering from financial crisis. Farmers had to pay taxes at every step. Taxes were collected from them for the use of even bridges and roads, they were also prohibited from using their own feudal mill or crusher for flour mill and wine making, crusher. Even if he had to go 4-5 miles for that. They had to pay tax on the use of mill or crusher. Due to the above reasons, the feeling of dissatisfaction of the farmers was getting stronger. Leo Garcian wrote, “The peasants had become so sad that they themselves turned into a revolutionary element. He needed only a signal to make the revolution and his major role made the revolution of 1789 AD successful.

Thus, In the words of Arthur Young, it was a museum of economic mistakes. The privileged class here had become extremely adept in the enjoyment of worldly pleasures and was marching fearlessly towards its destruction.

प्रबोधन का फ्रांस की क्रांति में योगदान


18 वीं शताब्दी की प्रमुख विशेषता यूरोप में बौद्धिक क्रांति का होना था। इस युग में यूरोप में अनेक ऐसे विद्वानों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने अपनी लेखनी का प्रयोग करके तृतीय वर्ग की सोई हुई आत्मा को जागृत किया तथा उन्हें अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए प्रेरित किया। इसने फ्रांस की क्रांति में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

ज्ञान मीमांसीय मोड़ तथा तत्व मीमांसा की उपेक्षा

प्राकृतिक विज्ञान में हो रही प्रगति ने 18वीं सदी आते आते ज्ञान मीमांसा में एक बड़ा मोड़ ला दिया। अब ज्ञान के एक साधन के तौर पर धार्मिक पुस्तकों तथा व्यक्तित्वों का महत्व जाता रहा। उसके स्थान पर ज्ञान अब अनुभवात्मक हो गया। शुरुआत करते हुए रेने डेकार्ट ने जहां संशयवाद पर जोर दिया वहीं बेकन ने चूहे के बक्से की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि मेरे ज्ञान का स्रोत यह है। दरअसल ज्ञान मीमांसा ने धार्मिक अटकलों, आध्यात्मिक चरणों के बाद प्रत्यक्षवादी स्तर को प्राप्त कर लिया। इस बदलाव के बाद लोगों में तत्व मीमांसा के प्रश्नों अर्थात आत्मा, परमात्मा तथा ईश्वर के प्रति उदासीनता उत्पन्न हुई। कहा गया कि अब प्रकृति के रहस्यों से पर्दा हट गया है कोई ईश्वर प्रकृति को नहीं चलाता बल्कि प्रकृति अपने नियमों से स्वयं चलती है। अब चर्चा और बहस के केंद्र में नए विषय शामिल हो गए। जैसे स्वतंत्रता, समानता, प्रगति, सहिष्णुता, तर्क और बंधुता इत्यादि।

प्रबोधन के मुख्य विचारक

इमैनुअल कांट ने प्रबोधन को परिभाषित करते हुए कहा कि प्रबोधन स्व-आरोपित अपरिपक्वता से मुक्ति का नाम है, यह जानने का साहस है। मनुष्य आलस्य और कायरता के कारण हमेशा अपरिपक्कव बना रहता है। उसने परंपरागत संस्थाओं और व्यवस्थाओं पर निर्भरता की मुखालफत की। रूसो ने अपने "सामाजिक समझौते" के सिद्धांत के द्वारा राज्य और समाज की उत्पत्ति के दैवी सिद्धांत को नकार दिया तथा इसे एक समझौता कहा जिसे तोड़ा भी जा सकता था। नेपोलियन अक्सर कहा करता था कि यदि रूसो न होता तो क्रांति भी नहीं होती। मोंटेसक्यू ने अपनी पुस्तक "कानून की आत्मा" सत्ता के विभाजन का सिद्धांत दिया। वाल्टेयर जिसे फ्रांसीसी क्रांति का सच्चा प्रतिबिंब कहा जाता है उसने कहा कि मैं जानता हूं कि तुम्हारी बात गलत है फिर भी मैं तुम्हारे इस कहने के अधिकार के लिए अपनी जान तक दे दूंगा।

प्रबोधन का सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक पक्ष

चूंकि प्राकृतिक विज्ञान ने रहस्य से पर्दा हटा दिया है कि प्रकृति किसी ईश्वर से नहीं चलती बल्कि वह स्वयं अपने नियमों से चलती है तो समाज और राजनीति में भी किसी दैवी व्यक्ति या किसी दैवी सिद्धांत की आवश्यकता नहीं रह गई है। अतः समाज में न किसी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की आवश्यकता है न चर्च की और न ही शासन के लिए किसी दैवी राजा की। एडम स्मिथ के तर्क के बाद अर्थव्यवस्था में भी राज्य के हस्तक्षेप को दरकिनार कर शाश्वत प्राकृतिक नियमों की भांति बाजार के शाश्वत नियमों अर्थात मांग पूर्ति के अदृश्य नियम को मान्यता प्रदान की गई।

प्रबोधन : फ्रांसीसी क्रान्ति का आधार

इस प्रकार यूरोप जो तमाम कारणों से एक सामाजिक आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा था और इन परिवर्तनों के कारण शक्ति के दो केंद्र उभर आए। पहला निरंकुश राजतंत्र और दूसरा महत्वाकांक्षी मध्य वर्ग। प्रबोधन के तर्कों के कारण मध्य वर्ग में शक्ति और आत्म विश्वास आ चुका था। उसने राजतंत्र पर इस बात के लिए दबाव डाला की वह मध्य वर्ग को भी शक्ति में भागीदारी दे। राजतंत्र मध्यवर्ग की बढ़ती महत्वाकांक्षा से चिंतित हो गया और उसने अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए कुलीन वर्ग और चर्च के साथ एक बार फिर निकटता स्थापित करने का प्रयास किया अतः मध्यवर्ग के द्वारा राजतंत्र, कुलीन वर्ग और चर्च तीनों पर हमला बोला गया।

Contribution of Enlightenment to the French Revolution



The 18th century was a period of profound intellectual and cultural transformation in Europe, a time when the Enlightenment movement reshaped the way people thought about society, politics, and human nature. The Enlightenment, with its emphasis on reason, individualism, and skepticism of traditional authority, played a critical role in paving the way for the French Revolution. This intellectual revolution questioned the established social and political order, inspiring the masses to seek freedom, equality, and justice. The Enlightenment’s ideas challenged the foundations of the Ancien Régime and ultimately contributed to the revolutionary upheaval that reshaped France.

Epistemological Shift and the Rejection of Metaphysics

One of the most significant contributions of the Enlightenment was the epistemological shift that occurred in the 18th century. With the advancement of natural sciences, the traditional sources of knowledge—religious texts and metaphysical doctrines—began to lose their authority. The Enlightenment thinkers emphasized empirical evidence and rational inquiry over faith and superstition. René Descartes’ philosophy of skepticism and Francis Bacon’s advocacy for the scientific method epitomized this shift. Descartes famously declared, "I think, therefore I am," placing doubt and reason at the center of knowledge, while Bacon emphasized experimentation as the path to understanding the world.

This shift in epistemology had profound implications for how people viewed the world. The mysteries of nature, once attributed to divine intervention, were now understood as governed by natural laws. This new perspective diminished the role of religious authorities in explaining the world and led to a growing indifference toward metaphysical questions about the soul, heaven, and God. Instead, Enlightenment thinkers focused on tangible, worldly concerns such as liberty, equality, progress, tolerance, reason, and fraternity—concepts that would become central to the French Revolution.

Key Thinkers of the Enlightenment

The Enlightenment was marked by the contributions of several key thinkers whose ideas directly influenced the revolutionary spirit in France. Immanuel Kant, for instance, defined Enlightenment as the courage to use one's own reason without the guidance of others. He argued that Enlightenment was about freeing oneself from self-imposed immaturity, which was the result of laziness and cowardice. Kant’s ideas encouraged people to question traditional institutions and beliefs, promoting a sense of autonomy and critical thinking.

Jean-Jacques Rousseau was another pivotal figure whose ideas had a profound impact on the French Revolution. In his work "The Social Contract," Rousseau challenged the divine right of kings and the traditional notion of the state's origin. He proposed that society was a social contract that could be reformed or even broken if it no longer served the people’s interests. Rousseau’s ideas about popular sovereignty and the general will inspired revolutionary leaders and became a cornerstone of revolutionary thought. Napoleon Bonaparte famously remarked that without Rousseau, the French Revolution might never have occurred, highlighting the philosopher's influence on the movement.

Baron de Montesquieu, in his book "The Spirit of the Laws," introduced the theory of the separation of powers, advocating for a system of government where power was divided among different branches to prevent tyranny. Montesquieu’s ideas were instrumental in shaping the revolutionary demand for constitutional government and the establishment of checks and balances in governance.

Voltaire, often regarded as the voice of the Enlightenment, fiercely criticized the injustices and inequalities of the Ancien Régime. His advocacy for freedom of speech, religious tolerance, and separation of church and state resonated with the growing discontent among the French populace. Voltaire’s famous declaration, "I disapprove of what you say, but I will defend to the death your right to say it," encapsulates the Enlightenment’s commitment to individual rights and the importance of open dialogue.

Social, Political, and Economic Aspects of the Enlightenment

The Enlightenment not only transformed the intellectual landscape of Europe but also had profound social, political, and economic implications. The scientific revolution had demystified the workings of nature, leading to the conclusion that no divine force was required to govern the universe. This realization was extended to human society and politics, where Enlightenment thinkers argued that no divine right or privileged class was necessary to govern. The idea that all individuals were capable of reason led to the belief that all people were entitled to participate in the governance of society.

In the realm of economics, Adam Smith’s ideas about free markets and the "invisible hand" challenged the traditional role of the state in regulating the economy. Smith argued that just as natural laws governed the physical world, market forces such as supply and demand should be allowed to operate freely, without state interference. This economic liberalism resonated with the burgeoning middle class in France, who sought to break free from the restrictive practices of mercantilism and feudal privileges.

The Enlightenment’s emphasis on reason, progress, and individual rights laid the intellectual foundation for challenging the Ancien Régime. The growing awareness of natural rights and the belief in human equality fueled demands for political and social reforms. The Enlightenment’s critique of absolute monarchy, aristocratic privilege, and the alliance between church and state created a powerful ideological framework for the French Revolution.

The Enlightenment as the Catalyst for the French Revolution

As Europe underwent significant socioeconomic changes, the Enlightenment provided the ideological tools for the emerging middle class to challenge the established order. The autocratic monarchy, which had long maintained its dominance through a combination of divine right and coercive power, found itself increasingly at odds with an ambitious and self-confident bourgeoisie. The Enlightenment empowered this middle class with the intellectual justification for demanding a share in political power.

The monarchy, in an attempt to preserve its authority, sought to consolidate its position by forming closer ties with the aristocracy and the church. However, this alliance only served to alienate the middle class further and intensified the conflict between the monarchy and those seeking reform. The Enlightenment’s arguments for liberty, equality, and fraternity inspired the middle class to press for changes that would dismantle the existing social and political structures.

The French Revolution was not merely a spontaneous uprising but the result of decades of intellectual ferment. The Enlightenment had gradually eroded the legitimacy of the Ancien Régime by exposing its contradictions and injustices. The widespread dissemination of Enlightenment ideas through pamphlets, books, and salons helped create a revolutionary consciousness among the French people. By the time the revolution erupted in 1789, the intellectual groundwork had already been laid, and the ideas of the Enlightenment provided the blueprint for the new society that the revolutionaries sought to create.

The Role of Enlightenment Thinkers in the Revolution

During the French Revolution, the ideas of the Enlightenment were put into practice in ways that would have been unimaginable in the previous century. The revolutionaries drew heavily on the writings of Rousseau, Montesquieu, Voltaire, and other Enlightenment thinkers as they sought to establish a new political order. The Declaration of the Rights of Man and of the Citizen, adopted in 1789, was directly influenced by Enlightenment principles, proclaiming that "men are born and remain free and equal in rights." This document became the foundation of the new French Republic and reflected the Enlightenment’s emphasis on natural rights and the sovereignty of the people.

The revolution also saw the implementation of Montesquieu’s theory of the separation of powers, as the National Assembly sought to create a government that would prevent the concentration of power in the hands of a single ruler. The creation of the legislative, executive, and judicial branches was a direct application of Montesquieu’s ideas, aimed at ensuring a balanced and fair government.

Voltaire’s advocacy for religious tolerance was reflected in the revolution’s move towards secularism and the reduction of the church’s power in state affairs. The Civil Constitution of the Clergy, which brought the church under state control, and the eventual de-Christianization campaigns during the radical phase of the revolution, were influenced by Enlightenment critiques of the church’s role in society.

The revolutionary leaders, inspired by Rousseau’s concept of the general will, sought to create a republic that represented the collective will of the people. The radical phase of the revolution, particularly during the Reign of Terror, was marked by an intense focus on achieving a society based on equality and virtue, as envisioned by Rousseau. However, the revolution also highlighted the challenges and contradictions inherent in applying Enlightenment ideals to the complex realities of governance.

The Enlightenment’s Legacy in the French Revolution

The French Revolution ultimately represented both the fulfillment and the limits of Enlightenment thought. While the revolution succeeded in dismantling the Ancien Régime and establishing a republic based on principles of liberty, equality, and fraternity, it also exposed the difficulties of translating abstract ideals into practical governance. The revolution’s descent into violence and the eventual rise of Napoleon as an authoritarian ruler suggested that the path from Enlightenment to a stable democratic society was fraught with challenges.

Nonetheless, the Enlightenment’s contribution to the French Revolution cannot be overstated. The revolution marked a decisive break from the past and laid the groundwork for the modern nation-state. The ideas of the Enlightenment continued to influence political thought long after the revolution, inspiring subsequent movements for democracy, human rights, and social justice around the world.

In conclusion, the Enlightenment was not just a backdrop to the French Revolution; it was its intellectual engine. The revolution was the practical manifestation of Enlightenment ideals, as the French people sought to create a society based on reason, equality, and justice. While the revolution’s outcomes were complex and sometimes contradictory, its legacy as a pivotal moment in the history of human rights and political freedom remains enduring. The Enlightenment provided the intellectual tools that enabled the French Revolution to challenge the old order and envision a new world, one where the principles of liberty, equality, and fraternity could become a reality.

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2022

IMPORTANCE OF FRENCH REVOLUTION


The French Revolution, spanning from 1789 to 1799, stands as a pivotal event in world history, marking the beginning of a new era in political, social, and economic thought. Its impact was not confined to France alone; it reverberated across the globe, laying the groundwork for the modern world. The revolution not only dismantled feudalism in France but also set the stage for the rise of republics and liberal democracies, shaping the trajectory of global history. This essay explores the significance of the French Revolution by examining its major outcomes, including the end of Bourbon rule, changes in land ownership, the decline of the French Catholic Church, the birth of ideologies, the rise of modern nationalism, the spread of liberalism, the foundation of communism, the inspiration for the Haitian Revolution, and the ushering in of the Age of Revolution.

1. The End of Bourbon Rule in France

The French Revolution dealt a decisive blow to the House of Bourbon, a French dynasty that had ruled France for over two centuries. The revolution culminated in the abolition of the monarchy in 1792, paving the way for the establishment of a republican form of government. Although the Bourbon monarchy was briefly restored after the fall of Napoleon Bonaparte in 1815, it was permanently overthrown in the July Revolution of 1830. The revolution also led to the replacement of the royal guard with the National Guard, a revolutionary army dedicated to protecting the gains of the revolution. By the end of 1793, the National Guard had grown to 300,000 well-trained soldiers, safeguarding the interests of the people and their property. This marked the beginning of the end for absolute monarchies, not only in France but across Europe.

2. Transformation in Land Ownership

One of the most significant changes brought about by the French Revolution was the redistribution of land. Prior to the revolution, land ownership was concentrated in the hands of the Church and the nobility. However, the revolution dismantled these feudal land rights, transforming France into a nation of small, independent cultivators. This shift gave rise to a new ruling class of landowners, fundamentally altering the social structure of the country. The abolition of the tithe, a tax amounting to one-tenth of annual agricultural produce paid to the Church, brought immense relief to the peasantry, who constituted two-thirds of the population. This redistribution of land played a crucial role in the establishment of a more equitable society and laid the foundation for modern agrarian reforms.

3. Decline in the Power of the French Catholic Church

The French Revolution also led to a significant decline in the power of the French Catholic Church, which had been the official religion of France and a powerful institution. The revolution nearly destroyed the Church, as its clergy were expelled, its leaders executed or exiled, and its property seized by the state. The tithe was abolished, further weakening the Church's influence. Although the Concordat of 1801, an agreement between Napoleon and the Church, restored some of its privileges, the Church never regained its former dominance. The revolution thus marked a turning point in the relationship between religion and state, contributing to the secularization of society and the rise of religious pluralism.

4. Birth of Ideologies

The French Revolution was instrumental in the birth of modern political ideologies. The very term "ideology" was coined during this period. The revolution challenged the legitimacy of governments, insisting that they be justified by reason and principles. It gave rise to a multitude of ideological alternatives, including nationalism, liberalism, socialism, and eventually communism. These ideologies provided new frameworks for understanding and organizing society, influencing political thought and action for centuries to come. The French Revolution thus played a crucial role in shaping the ideological landscape of the modern world.

5. The Rise of Modern Nationalism

Nationalism, an ideology that transcends social and religious divisions to express allegiance to the nation, found its first expression in the French Revolution. The revolution initiated the movement towards the modern nation-state, which became a driving force behind the spread of nationalism across Europe. As Napoleon's armies conquered vast territories, they carried the ideology of nationalism with them, inspiring nationalist movements across the continent. The struggle for national liberation became one of the most significant themes in European and global politics during the 19th and 20th centuries. The French Revolution thus laid the groundwork for the rise of nation-states and the modern international system.

6. Spread of Liberalism

Liberalism, a political and moral philosophy based on liberty and equality, was another major outcome of the French Revolution. The revolution overthrew the hereditary aristocracy, adopting the slogan "Liberty, Equality, Fraternity," and made France the first state in history to grant universal male suffrage. Two key events marked the triumph of liberalism during the revolution: the abolition of feudalism on August 4, 1789, and the passage of the Declaration of the Rights of Man and Citizen later that month. These events signaled the decline of feudal rights and privileges and the rise of individual rights and freedoms. The French Revolution thus played a pivotal role in the spread of liberalism, which became a dominant political philosophy in the 19th and 20th centuries.

7. Foundation of Communism

While the French Revolution did not directly give rise to socialism and communism, it created the intellectual and social environment in which these ideologies could develop. French communist philosophers of the late 18th century criticized private property and advocated for its abolition, calling for a society based on egalitarian ownership. François-Noël Babeuf, a French political agitator and journalist, became one of the earliest proponents of communism, advocating for violent revolutionary action to achieve socialization of wealth. The revolution thus laid the intellectual foundations for the later development of communism, which would have a profound impact on global history.

8. Inspiration for the Haitian Revolution

The French Revolution also had a significant impact beyond Europe, inspiring the Haitian Revolution, the only successful slave revolt in history. At the time of the French Revolution, Haiti was a French colony known as Saint Domingue. The revolution inspired slaves in Saint Domingue to rise up against their masters, leading to a civil war and eventually to the independence of Haiti in 1804. The Haitian Revolution not only ended slavery in the colony but also established Haiti as a free state ruled by non-whites. It is now recognized as a defining moment in the history of racism and a significant consequence of the French Revolution.

9. The Age of Revolution

The French Revolution set off a series of revolutions across the globe, marking what historian Eric Hobsbawm called the "Age of Revolution." These included the Irish Rebellion of 1798, the Haitian Revolution, the Italian Wars of Independence, the Sicilian Revolution of 1848, the Revolutions of 1848 in Italy, and the independence movements in Latin America. The French Revolution thus served as a catalyst for revolutionary movements worldwide, spreading the ideals of liberty, equality, and fraternity far beyond the borders of France.

In conclusion, the French Revolution was a transformative event with far-reaching consequences. It reshaped the political, social, and economic landscape of France and the world, laying the foundation for modern ideologies, nation-states, and democratic governance. Its legacy continues to influence global history, making it one of the most important events in the history of humanity.

फ्रांसीसी क्रांति का महत्त्व


फ्रांसीसी क्रांति विश्व इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी जो 1789 से 1799 तक चली। अन्य बातों के अलावा, इसने फ्रांस में सामंतवाद को समाप्त कर दिया ; राजशाही को एक गणतंत्र में  बदला ; समानता और स्वतंत्रता के सिद्धांत पर आधारित संविधान का निर्माण किया ; और सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार देने वाला पहला राज्य बन गया। फ्रांसीसी क्रांति के नतीजों में धर्म के महत्व को कम करना शामिल है; आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय; उदारवाद का प्रसार और क्रांति के युग को प्रज्वलित करना महत्वपूर्ण है । सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि क्रांति ने आधुनिक इतिहास की  विषय वस्तु को बदल दिया, निरंकुश राजतंत्रों की वैश्विक गिरावट को गति दी और उन्हें गणराज्यों और उदार लोकतंत्रों के साथ बदल दिया।

1. फ्रांस में बुर्बो शासन का अंत

बुर्बो एक फ्रांसीसी राजवंश है जिसने 200 से अधिक वर्षों तक फ्रांस पर शासन किया था। इसका शासन फ्रांसीसी क्रांति से बाधित हो गया। 1792 में फ्रांस में राजशाही को समाप्त कर दिया गया और सरकार के गणतंत्रात्मक स्वरूप के साथ बदल दिया गया। हालाँकि 1815 में नेपोलियन बोनापार्ट के पतन के बाद बुर्बो राजशाही को बहाल किया गया था, लेकिन यह केवल 1830 तक चला जब इसे अंततः जुलाई क्रांति में उखाड़ फेंका गया। इसके अलावा, क्रांति के दौरान, बूर्बो राजशाही के शाही रक्षक को नेशनल गार्ड, क्रांतिकारी सेना द्वारा प्रतिस्थापित किया गया था, जिसकी भूमिका फ्रांसीसी क्रांति की उपलब्धियों की रक्षा करना थी। 1793 के अंत तक, नेशनल गार्ड में 300,000 अच्छी तरह से प्रशिक्षित सैनिक शामिल थे जो लोगों और उनकी संपत्ति की रक्षा करते थे।

2. फ्रांस में भूमि के स्वामित्व में परिवर्तन

क्रांति के दौरान चर्च और कुलीनों द्वारा नियंत्रित भूमि अधिकारों के टूटने के साथ, फ्रांस मुख्य रूप से छोटे स्वतंत्र किसानों की भूमि बन गया। यह कहा जा सकता है कि क्रांति ने देश को "जमींदारों का एक शासक वर्ग" दिया। चर्च द्वारा लिया गया दशमांश वार्षिक उपज का दसवां हिस्सा था। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान इन करों को समाप्त कर दिया गया था। फ्रांस का दो-तिहाई हिस्सा कृषि में लगा हुआ था और इन करों को समाप्त करने से किसानों को बड़ी राहत मिली।

3. फ्रेंच कैथोलिक चर्च की शक्ति में गिरावट

फ्रांसीसी क्रांति से पहले, कैथोलिक धर्म फ्रांस में आधिकारिक धर्म था और फ्रांसीसी कैथोलिक चर्च बहुत शक्तिशाली था। क्रांति के दौरान फ्रांसीसी कैथोलिक चर्च लगभग नष्ट हो गया था। इसके पुजारियों और ननों को बाहर निकाल दिया गया, इसके नेताओं को मार डाला गया या निर्वासित कर दिया गया, राज्य द्वारा नियंत्रित इसकी संपत्ति और दशमांश समाप्त कर दिया गया। हालांकि, नेपोलियन और चर्च के बीच 1801 के एक समझौते ने इस अवधि को समाप्त कर दिया और चर्च और फ्रांसीसी राज्य के बीच संबंधों के लिए नियम स्थापित किए।

4. विचारधाराओं का जन्म

एक विचारधारा को सामाजिक और राजनीतिक संगठन का सबसे अच्छा रूप माना जाता है। फ्रांसीसी क्रांति ने विचारधाराओं को जन्म दिया। वास्तव में विचारधारा शब्द क्रांति के दौरान ही गढ़ा गया था। फ्रांसीसी क्रांति के बाद, किसी भी सरकार को बिना औचित्य के वैध के रूप में मान्यता नहीं दी गई थी। फ्रांसीसी क्रांति ने राष्ट्रवाद, उदारवाद, समाजवाद और अंततः साम्यवाद सहित कई वैचारिक विकल्पों को जन्म दिया।

5. आधुनिक राष्ट्रवाद का उदय

राष्ट्रवाद एक विचारधारा है जो सभी सामाजिक और धार्मिक विभाजनों से परे है और राष्ट्र के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करती है। फ्रांसीसी क्रांति ने आधुनिक राष्ट्र-राज्य की ओर आंदोलन शुरू किया जिसने पूरे यूरोप में राष्ट्रवाद के जन्म में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जैसे ही नेपोलियन बोनापार्ट के अधीन फ्रांसीसी सेनाओं ने क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया, राष्ट्रवाद की विचारधारा पूरे यूरोप में फैल गई। राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्ष 19वीं और 20वीं सदी की यूरोपीय और विश्व राजनीति के सबसे महत्वपूर्ण विषयों में से एक बन गया।

6. उदारवाद का प्रसार

उदारवाद स्वतंत्रता और समानता पर आधारित एक राजनीतिक और नैतिक दर्शन है। फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, वंशानुगत अभिजात वर्ग को "स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व" के नारे के साथ उखाड़ फेंका गया और फ्रांस सार्वभौमिक पुरुष मताधिकार देने वाला इतिहास का पहला राज्य बन गया। क्रांति के दौरान उदारवाद की विजय को चिह्नित करने वाली दो प्रमुख घटनाएं थीं। पहला 4 अगस्त 1789 को फ्रांस में सामंतवाद का उन्मूलन था। इसने सामंती और पुराने पारंपरिक अधिकारों और विशेषाधिकारों के पतन को चिह्नित किया। दूसरा अगस्त 1789 में मनुष्य और नागरिक के अधिकारों की घोषणा का मार्ग था।

7. साम्यवाद की नींव रखना

फ्रांसीसी क्रांति ने सीधे तौर पर 19वीं सदी की विचारधाराओं को पैदा नहीं किया जिन्हें समाजवाद और साम्यवाद के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, इसने एक बौद्धिक और सामाजिक वातावरण प्रदान किया जिसमें ये विचारधाराएँ और उनके प्रवक्ता फल-फूल सकें। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध के फ्रांसीसी कम्युनिस्ट दार्शनिकों ने न केवल निजी संपत्ति की आलोचना की, बल्कि इसके उन्मूलन और संपत्ति के समतावादी  स्वामित्व पर आधारित समाज की स्थापना का भी आह्वान किया। फ्रांसीसी राजनीतिक आंदोलनकारी और पत्रकार फ्रांकोइस-नोएल बाबेफ ने धन के समाजीकरण के नाम पर हिंसक क्रांतिकारी कार्रवाई की वकालत की।

8. हाईटियन क्रांति को प्रेरित किया

फ्रांसीसी क्रांति के समय, हैती एक फ्रांसीसी उपनिवेश था जिसे सेंट डोमिंगु कहा जाता था। फ्रांसीसी क्रांति ने सेंट डोमिंगु में दासों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया और फ्रांसीसी नेताओं को अपनी क्रांति के पूर्ण अर्थ को पहचानने के लिए मजबूर किया। हाईटियन क्रांति 22 अगस्त 1791 को शुरू हुई जब सेंट डोमिंगु के दासों ने कॉलोनी को गृहयुद्ध में फंसा कर अपने आकाओं को मारना शुरू कर दिया। हाईटियन क्रांति 1804 में हैती की स्वतंत्रता के साथ समाप्त हुई। यह एकमात्र गुलाम विद्रोह था जिसने एक ऐसे राज्य की स्थापना की जो गुलामी से मुक्त था, और गैर-गोरों द्वारा शासित था।  यह अब व्यापक रूप से नस्लवाद के इतिहास में एक निर्णायक क्षण के रूप में माना जाता है।

9. क्रांति के युग में प्रवेश

फ़्रांसिसी क्रांति ने क्रांतियों की एक श्रृंखला को शुरू कर दिया, जिसे एरिक हाब्स बाम ने क्रांतियों का युग नाम दिया।इनमें 1798 का आयरिश विद्रोह शामिल था; हाईटियन क्रांति; स्वतंत्रता का पहला इतालवी युद्ध; 1848 की सिसिली क्रांति; इटली में 1848 की क्रांतियां; और लैटिन अमेरिका में स्पेनिश और पुर्तगाली उपनिवेशों के स्वतंत्रता आंदोलन।

इस तरह फ्रांसीसी क्रांति के परिणाम इतने दूरगामी थे कि इसका एक साधारण आकलन भी फ्रांस के पूरे इतिहास को यूरोप के इतिहास में बदल देता है। इसने विश्व स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, राष्ट्रवाद और लोकप्रिय शासन की भावना सिखाई।

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...