रविवार, 13 सितंबर 2020

पुनर्जागरण

सीमित अर्थ में पुनर्जागरण यूनान और रोम की प्राचीन सभ्यता के ज्ञान विज्ञान के प्रति फिर से पैदा हुई रूचि थी। चौदहवीं से सोलहवीं सदी के कालखण्ड में दिखने वाली जैकब बर्कहार्ड की इस 'इटालियन सच्चाई' ने उस व्यापक अर्थ वाली मनोवृत्ति का प्रसार पूरे विश्व में किया जिसे जूल्स मिशलेट 'विश्व एवं मानव की खोज' के रूप में पहचानते हैं, जो मध्ययुग में धर्म के वर्चश्व में कहीं दब सी गई थी।

यह मनोवृति जिस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की उत्पाद थी, वह दावतों के बाद अकालों को धारण कर रही थी। लगातार युद्धों तथा कृषि पर मौसम की मार को अभी जनसंख्या झेल ही रही थी कि ब्लैक डेथ जैसी महामारी ने दस्तक दी तथा यूरोपीय समाज और अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से बाधित कर दिया। परिणामों ने जिस संतुलन का निर्माण किया वह सिर्फ अर्थव्यवस्था के नए रूप और उसकी तकनीकी पर ही नहीं बल्कि समाज और उसकी मनोवृति के विस्थापन पर भी निर्भर था। इसने उन साहसिकों को भौगोलिक खोजों और यात्राओं के लिये उत्साहित किया जिन्हें राजसत्ता सहयोग कर रही थी और 'गॉड गोल्ड और ग्लोरी' प्रेरित कर रहे थे।

इस पूर्वी संपर्क ने यूरोप में न केवल व्यापार, उद्योग, बैंकिंग तथा शहरों के  विकास को प्रेरित किया बल्कि अरबों के माध्यम से यूरोप को कागज, कुतुबनुमा, पुस्तकालय तथा बारूद से परिचय कराया। लेकिन पोप का निवास स्थान इटली इन सबसे अलग था। भूमध्यसागरीय देशों में इटली की अनुकूल व्यापारिक स्थिति ने वहां मिलान, नेपल्स, फ्लोरेंस तथा वेनिस जैसे शहरों का निर्माण किया। जिसका प्रभाव सिर्फ नवोदित व्यापारिक वर्ग के उदय के रूप में ही नहीं हुआ बल्कि इसने इटली में एक ऐसे मध्यवर्ग का निर्माण किया जिसे न तो सामंतो की परवाह थी न पोप की,जो मध्यकालीन मान्यताओं को ताख पर रखता था तथा उसकी व्यावसायिक जरूरते शिक्षा में लौकिकता पर बल देती थीं । फ्लोरेंस का यही समाज दांते, पेट्रार्क, बुकासियो, एंजेलो तथा मैकियावेली जैसों का प्रश्रयदाता बना ।

1453 ईसवी में तुर्कों द्वारा कुस्तुन्तुनिया के पतन से नए व्यापारिक मार्गों की खोज एक जरूरत बन गई वहीं कुस्तुन्तुनिया से विद्वानों का पलायन इटली की तरफ होने लगा। अकेले कार्डिनल बेसारियोन 800 पांडुलिपियों के साथ इटली पहुंचा। परिणाम यह हुआ कि यूनानी तर्क और विद्या ने अपने पतन को दरकिनार कर इटली में प्रव्रजन कर लिया। कागज़ पर छपाई की शुरुआत ने ज्ञान पर विशेषाधिकार को खत्म कर दिया तथा अब यह कहने का घमण्ड टूटने लगा कि किताबों में यह लिखा है। छापेखाने ने बौद्धिक अपवादों को विस्तार दे कर अब उसे जनसामान्य का व्यवहार बना दिया।

पुनर्जागरण की आरंभिक अभिव्यक्ति इटली के जीनियस लियोनार्डो द विंची की 'द लास्ट सपर' तथा 'मोनालिसा', माइकल एंजेलो की 'द लास्ट जजमेंट' तथा 'फाल ऑफ मैन', और राफेल की सर्वश्रेष्ठ कृति 'मां मेडोना' के चित्रों में दिखती है। स्थापत्य में मध्यकालीन गोथिक शैली का अवसान हो गया तथा उसकी जगह विशुद्ध गैर धार्मिक भावों की प्रधानता वाला सेंट पीटर का गिरजाघर नई शैली का सर्वोत्तम नमूना बन गया। जिसके वास्तुकारों में ब्रुनलेस्की, एंजेलो तथा राफेल का नाम आता है। हालांकि रैनेसाँ मूर्तिकला का पथप्रदर्शक दोनातेला था किंतु सर्वश्रेष्ठ कृति एंजेलो की 'पेता', जिसका निर्माण रोम में सेंट पीटर गिरजाघर के मुख्य द्वार पर हुआ है तथा 'डेविड' की मूर्ति है जिसे फ्लोरेंस के नागरिकों ने बनवाया था।

इस काल में जनता की देसी भाषा में साहित्य लेखन होने लगा था। यूरोप की आधुनिक भाषा में लिखी गई पहली महत्वपूर्ण कृति इतावली कविता के पिता दांते की 'डिवाइन कॉमेडी' है जो स्वर्ग नरक की कल्पना है जबकि उसका 'वितानोआ' प्रेम गीत है तथा 'मोनार्कीया' पोप विरोधी रचना जिसे जलाया गया। दांते के बाद पुनर्जागरण की भावना को प्रश्रय देने वाला दूसरा व्यक्ति पेट्रार्क था जिसे मानवता वाद का संस्थापक तथा पुनर्जागरण साहित्य का पिता कहा जाता है यह अपने 'सॉनेट' के कारण प्रसिद्ध है। हॉलैंड के इरास्मस को मानवतावादीयों का राजकुमार कहा जाता है जिसने 'मूर्खता की प्रशंसा में' लिखी है, यह 2500 प्रतियों के साथ अपने समय की बेस्ट सेलर बनी। स्पेन के सर्वांतेस ने 'डॉन क्विजोट' में नाइटों का माखौल उड़ाते हुए कहा कि हर कुत्ते का एक दिन होता है। फ्लोरेन्स के मैकियावेली ने आधुनिक राजनीति पर अपनी 'द प्रिंस' लिखी।

आधुनिक विज्ञान के पिता बेकन ने अपनी पुस्तक 'द एडवांसमेन्ट ऑफ लर्निंग' में बताया कि ज्ञान सिर्फ चिंतन से नहीं बल्कि प्रकृति के अन्वेषण से प्राप्त किया जा सकता है। पोलैंड निवासी कॉपरनिकस ने टॉलमी के जियो सेंट्रिक धारणा का खंडन किया जिसके लिए एक समय ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया था। जान कैप्लर ने अपने गणितीय प्रमाणों से कोपरनिकस के विचारों का समर्थन किया। जिसका प्रत्यक्ष अनुभव गैलीलियो की दूरबीन ने किया। इसी दौर में न्यूटन ने गुरुत्वाकर्षण तथा हार्वे ने रक्तपरिसंचरण तंत्र की खोज की। इन वैज्ञानिक उपलब्धियों ने ज्ञान के प्रत्यक्षवादी अभिगम को सराहा।

वैज्ञानिकता का व्यावहारिक पक्ष दैवी मामलों से मानव के मामलों में स्पष्ट झुकाव के रूप में दिखा। यह झुकाव पुनर्जागरण की सबसे महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति मानवतावाद है। तकनीकी अर्थ में मानववाद अध्ययन का कार्यक्रम है जिसके द्वारा मध्ययुग की रूढ़िवादी तर्क शास्त्र और अध्यात्म के अध्ययन के स्थान पर भाषा, साहित्य और नीति शास्त्र के अध्ययन पर जोर दिया गया। साहित्य और इतिहास को अब मानविकी कहा जाने लगा। साधारण अर्थ में यह एक ऐसी विचारधारा है जिसके द्वारा मानव का गुणगान, उसके सारभूत मान मर्यादा पर बल, उसकी अपार सृजनशक्ति में अटूट आस्था और व्यक्ति के अहरणीय अधिकारों की घोषणा ही मानववाद का सार है। 'इस बेमतलब दुनिया का कोई अर्थ नहीं है अगर मनुष्य इसे अर्थ न दे' यह विचार रखने वाले ग्रीक दार्शनिक प्रोटागोरस की अनुगूँज हमें इतावली मानवतावादी पिकाडेल्ला की कृति 'ऑन द डिग्निटी ऑफ मैन' में दिखती है जब वह कहता है कि 'आदमी से अद्भुत कोई नहीं है, मानव एक चमत्कार है।' इसके विचारों को 'मैनिफेस्टो ऑफ रिनेसाँ' कहा जाता है। शेक्सपियर इसे दुहराता है, 'कितनी अनुपम कृति है मानव,....ईश्वर के समतुल्य है मानव।'

इस प्रकार पुनर्जागरण, काण्ट की उस प्रबोधन की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है जो जानने का साहस करती है, स्वआरोपित अपरिपक्वता से मुक्ति का आवाह्न करती है तथा आधुनिक राजनीति का उद्गम बनती है। दीर्घकाल में यह जो असर छोड़ती है उसे हम भौतिक और बुद्धिवादी दृष्टिकोण के विकास, अभिव्यक्ति की प्रतिष्ठा, राज्य का धर्म से पृथक्करण, राष्ट्रीयता की भावना का विकास में देख सकते हैं। हालांकि साथ ही पी स्मिथ जिस पुनर्जागरण के रूप को प्रतिगामी कहतें है वह आगे चल कर अपने परिपक्व रूप में रूसो के पुरातन के प्रति मोह में दिखता है ।

शनिवार, 5 सितंबर 2020

सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन

सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन


अर्थ : असंतोष की अभिव्यक्ति

राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलन की संज्ञा दी जाती है। सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में सामाजिक आंदोलन स्थापित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध सामूहिक असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में उभरतें हैं जो सामाजिक परिवर्तन के कारक बन जाते हैं। यह परिवर्तन कभी कभी अपनी व्यापकता, प्रभाविता और तीव्रता में क्रांति बन जाता है।



संदर्भ : देश काल की अपनी विशिष्ट अनुभूति

यह सामाजिक विकास क्रम की अहम कड़ी होते हैं। यह किसी विशेष ऐतिहासिक तथा सामाजिक संदर्भ को धारण करते हैं जिनके अनुरूप आंदोलन की अपनी समझ तथा अनुभूति होती है उदाहरण के लिए देखें तो पश्चिमी देशों में जहां सामाजिक आंदोलन श्रमिक सुधार आंदोलन जैसे चार्टिस्ट आंदोलन के रूप में सामने आता है वही भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलन के साथ ही जाति विभेद के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन अस्तित्व में आते हैं। जो परिवर्तन के रूप में पश्चिम में श्रम सुधार तथा भारत में स्वाधीनता के साथ समतावादी समाज की आकांक्षा वाली बंधुता को लेकर आता है।



उत्पत्ति और प्रभाव : भिन्न अनुभव की विचारपद्धतियाँ

सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति की विचार पद्धतियां इसके कारणों के विभिन्न प्रकारों की खोज करती हैं।

1- जब जन समुदाय को विशिष्ट जन प्रजातांत्रिक व्यवस्था से बेदखल कर सोद्देश्य  विस्थापित तथा विघटित कर देते हैं तो यह परायापन सामाजिक आंदोलन की अपील को बढ़ा देता है।

2- व्यक्तियों के श्रेणीकरण की विषयनिष्ठ असंगतियां तनावों को उत्पन्न कर असंतोष तथा विरोध को प्रकट करती हैं।

3- कोई भी गंभीर संरचनात्मक तनाव जैसे विघटन, व्याकुलता तथा शत्रुता सामाजिक आंदोलन को अभिव्यक्त करने में सहायक हो सकता है।

4- मार्क्सवादी विश्लेषण में संपन्न विपन्न का संघर्ष आंदोलन है जिसका कारण आर्थिक अभाव है।

5- सांस्कृतिक पुनर्जीवन आंदोलन अपने लिए अधिक संतोषजनक संस्कृति निर्मित करने के लिए होते हैं।



घटक : आन्दोलन के आधार

पारंपरिक रूप से सिद्धांतवाद, सामूहिक लामबंदी, संगठन तथा नेतृत्व की पहचान सामाजिक आंदोलनों के प्रमुख घटकों के रूप में की गई है। जबकि नए सामाजिक आंदोलनों के उभरने से मूल्यों, संस्कृति, वैयक्तिकता, आदर्शवाद, नैतिकता ,पहचान, सामर्थ्य आदि के मुद्दों से इन प्रयासों में नई पहचान तथा अतिरिक्त प्रभाविता मिलती है।



प्रकार : संघर्षों की भिन्न अभिव्यक्तियाँ

अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की भिन्न स्थितियों के तनाव से उत्पन्न संघर्ष सामाजिक आंदोलनों को भिन्न प्रकारों में बांटते हैं।

1- औद्योगिक असंतोष, श्रमिक हड़ताल, कर्मचारियों का आंदोलन तथा कृषक आंदोलन अपने सामूहिक हितों के प्रतिस्पर्धात्मक प्रयास होते हैं।

2- झारखंड, उत्तराखंड तथा तेलंगाना के आंदोलन सांस्कृतिक तथा राजनीतिक पहचानो के पुनर्निर्माण से जुड़े थे।

3- जाट आंदोलन, छात्र आंदोलन तथा राजनीतिक दलों के आंदोलनों में जाम, हड़ताल तथा बंदी जैसी कार्यवाईयां, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्रदर्शन द्वारा दबाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से होते हैं।

4- कई बार समाज के अभिजन समूह के आंदोलन अपने विशेष अधिकारों की प्रतिरक्षा से जुड़े होते हैं।

5- खास सांस्कृतिक पैटर्न की निर्माण, प्रसार या जुड़ाव के द्वारा समाज पर नियंत्रण या उसे नए सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है जैसे स्त्री आंदोलन या जाति आंदोलन के द्वारा।

6- ऐतिहासिक संघर्ष अपने चरम रूप में राष्ट्रीय संघर्ष आंदोलन होते हैं जैसे भारत का स्वतंत्रता संघर्ष का आंदोलन।



निष्कर्ष : लोकतांत्रिक समाज के लिए

सामाजिक आंदोलनों ने हाशिया ग्रस्त समूहों और अधिकार वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है तथा सामाजिक परिवर्तन का कारण बना है इसी वजह से यह माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।


                      

       सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त 


समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अन्तर्गत होता है, उनकी गति एवं दिशा क्या होती है, इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से आज तक विद्वान अपने-अपने मत व्यक्त करते रहे हैं ।

1. चक्रीय सिद्धान्त : ओस्वाल्ड स्पेंगलर

सामाजिक परिवर्तन के बारे में अपना चक्रीय सिद्धान्त जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंगलर ने अपनी पुस्तक ‘The Decline of the West’ में प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिर कर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं । अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्पेंगलर ने विश्व की आठ सभ्यताओं यथा अरब, मिश्र, मेजियन, माया, रूसी एवं पश्चिमी संस्कृतियों आदि का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया । पश्चिमी सभ्यता के बारे में स्पेंगलर ने कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी है । उनके अनुसार पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है, वह भविष्य में समाप्त हो जायेगा और उनकी सभ्यता एवं शक्ति नष्ट हो जायेगी । दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए कमजोर एवं सुस्त हैं वे अपनी आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढेंगे तथा पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जायेंगे ।

अंग्रेज इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टॉयनबी ने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया । टॉयनबी के सिद्धान्त को ‘चुनौती एवं प्रत्युतर का सिद्धान्त’ भी कहते है । उनके अनुसार प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है । इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है इस चुनौती के प्रत्युत्तर में व्यक्ति सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है ।


2. रेखीय सिद्धान्त : कॉम्टे

रेखीय सिद्धान्तकारों, में कॉम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है तथा इसके तीन स्तरों की पहचान की है।

(a) धार्मिक स्तर:
यह समाज की प्राथमिक अवस्था थी । इसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न करता था विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना जाता था उस समय अलग- अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे बहुदेतवाद, एकदेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थे ।

(b) तात्विक स्तर:
इसमें घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर की जाती थी । इस अवस्था में अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना गया ।

(c) वैज्ञानिक स्तर:
यह वर्तमान में विद्यमान है । इसमें मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म ईश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता वरन् वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है । वह कार्य और कारण के सह-सम्बन्धों को ज्ञात कर नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है ।


3. आर्थिक सिद्धान्त : कार्ल मार्क्स

कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारकों से जनित माना है । अतः उनके सिद्धान्त को आर्थिक निर्धारणवाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक सिद्धान्त कहा जाता है । उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो परिवर्तन हुए है वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारकों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं हैं । निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक अर्थात् उत्पादन-प्रणाली ही है ।

उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है जब उत्पादन के उपकरणों (प्रौद्योगिकी) उत्पादन के कौशल, ज्ञान उत्पादन के सम्बन्ध आदि में परिवर्तन आता है तो सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक अधि-संरचना में भी परिवर्तन आता है जो सामाजिक परिवर्तन कहलाता है ।

मार्क्स के अनुसार इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग रहे है । मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है । उन्होंने समाज के विकास को पाँच युगों में बाँटा और प्रत्येक युग में पाये जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया एक वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा जीवनयापन करता है । इन दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता रहा है । प्रत्येक वर्ग-संघर्ष का अन्त नये समाज एवं नये वर्गों के उदय के रूप में हुआ है । वर्तमान में भी पूँजीपति और श्रमिक दो वर्ग हैं जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्षरत है ।



4. प्रौद्योगिक सिद्धान्त : वेबलिन

वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं । प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । इसलिए उनके सिद्धान्त को ‘प्रौद्योगिक निर्णयवाद’ भी कहा जाता है ।

वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया है:

(i) स्थिर विशेषताएँ- जिनका सम्बन्ध मानव की मूल प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं से है जिनमें बहुत कम परिवर्तन होता है ।

(ii) परिवर्तनशील विशेषताएँ- जैसे आदतें, विचार एवं मनोवृत्तियाँ आदि । सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव की इन दूसरी विशेषताओं विशेष रूप से मानव की विचार करने की आदतों से है ।

मनुष्य अपनी आदतों द्वारा नियन्त्रित होता है और उनका दास है । ये आदतें किस प्रकार की होंगी यह मानव के भौतिक पर्यावरण विशेषकर प्रौद्योगिकी पर निर्भर है जब भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें भी बदलती है मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्रविधि द्वारा जीवनयापन करता है, उसी प्रकार की उसकी आदतें एवं मनोवृतियाँ होती हैं जीवनयापन के लिए मनुष्य जिस प्रकार की प्रविधि को अपनाता है, अपनी आदतों को भी वह उनके अनुकूल ढालता है ।

कृषि कार्य के आधार पर ही मानव की आदत एवं मनोवृत्तियाँ बनी हुई थीं । किन्तु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो मानव का भौतिक पर्यावरण बदला प्रौद्योगिकी बदली, काम की प्रकृति बदली और उसके साथ-साथ मानव की आदतों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आया ।

आदतें ही धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृढ़ होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं संस्थाएँ ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण करती हैं । अतः आदतों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं एवं ढाँचे में परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं ।

सामाजिक संरचना में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है । इस प्रकार वेबलिन सामाजिक परिवर्तन को नवीन प्रविधियों एवं प्रौद्योगिक कारकों से उत्पन्न मानते हैं । इसलिए उन्हें प्रौद्योगिक निश्चयवादी कहा जाता है ।



5 - सांस्कृतिक सिद्धान्त : वेबर

वेबर में सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक कारक विशेषतया धर्म को उत्तरदायी माना है । विश्व के प्रमुख धर्मों का विशद् अध्ययन करके वेबर ने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि धर्म व आर्थिक-सामाजिक घटनाओं में क्या सम्बन्ध है। 

उन्होंन अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया कि आधुनिक पूंजीवाद केवल पश्चिमी देशों में सबसे पहले क्यों आया, अन्य देशों में क्यों नहीं ? धर्म एवं आर्थिक जीवन के सम्बन्धों के अध्ययन को आपने ‘दी प्रोटेस्टेण्ट स्प्रिट एण्ड इथिक दि ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है।

अपनी पद्धतिशास्त्रीय अन्तर्दृष्टि के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उन आचारों को ढूँढा जिन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की आत्मा को विकसित किया । उन्होंने धर्म को एक परिवर्तनीय तत्व माना और यह दर्शाया कि धर्म किस प्रकार मानव के सामाजिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित करता है ।

धार्मिक और आर्थिक कारकों के सम्बन्धों को जानने के लिए वेबर ने विश्व के छ: प्रमुख धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कन्फ्युशियस, इस्लाम तथा यहूदी धर्म) का अध्ययन किया और प्रत्येक धर्म में पाये जाने वाले उन आर्थिक विचारों को ज्ञात किया जो उस धर्म से सम्बन्धित लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं अपने अध्ययन के आधार पर वेबर ने यह प्रकट किया कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म में ही कुछ ऐसे आर्थिक विचार पाये जाते है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया, यद्यपि इसके लिए अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे है ।

वेबर कहते है कि यूरोप में जब रोमन कैथोलिक धर्म प्रचलित था तो पूँजीवाद नहीं पनपा किन्तु धार्मिक सुधार आन्दोलन के कारण जब प्रोटेस्टैण्ट धर्म का उदय हुआ तो आधुनिक पूँजीवाद का भी उदय हुआ ।

प्रोटेस्टेण्टवाद वह धार्मिक विचारधारा है जो पोप के अधिकार को स्वीकार नहीं करता और जिसमें विवेक का तत्व विशेष रूप से पाया जाता है । नैतिकतावादी दृष्टिकोण, संग्रह की प्रवृत्ति, ईमानदारी, श्रम के प्रति निष्ठा, ये सभी प्रोटेस्टेट धर्म के प्रमुख तत्व हैं जिनके कारण यूरोप के विभिन्न देशों में आर्थिक विकास, विशेषत: पूँजीवाद का विकास हुआ ।

प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीति के रूप में सेण्ट पॉल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया गया- “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा, वह रोटी नहीं खायेगा तथा निर्धन की तरह धनवान भी ईश्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे ।”


वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पाये जाने वाले उन आचारों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया बेंजामिन फ्रेंकलिन ने आधुनिक पूँजीवाद की उन शिक्षाओं एवं उपदेशों का उल्लेख किया है जो सफल व्यवसायी एवं पूँजीपति बनने के लिए आवश्यक हैं । वे हैं- “समय ही धन है” “धन से धन कमाया जाता है”, “एक पैसा बचाना एक पैसा कमाना है”, “ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है”, “जल्दी सोना और जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ, धनी और बुद्धिमान बनाता है”, “कार्य ही पूजा है ।” प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना दुनियाँ के दूसरे धर्मों से करके वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म ही ऐसा हे कि जिसके, आर्थिक परिणाम अधिक स्पष्ट एवं दूरगामी हैं ।

यह धर्म लोगों को ईमानदार एवं उत्साही होने, परिश्रम करने, मितव्ययिता बरतने एवं पैसा बचाने पर जोर देता है जो पूँजीवाद लाने के लिए आवश्यक है । यदि ये सिद्धान्त एवं उपदेश न होते तो आधुनिक पूँजीवाद भी सम्भव नहीं होता ।

अपनी बात की पुष्टि करने के लिए वेबर ने यूरोप के विभिन्न देशों से ऐतिहासिक प्रमाण जुटाये । इटली व स्पेन में जहाँ पर कैथोलिक धर्म के अनुयायी अधिक हैं, पूँजीवाद का विकास इंग्लैण्ड, अमेरीका व हालैण्ड की अपेक्षा कम हुआ ।

हिन्दू धर्म भौतिकवाद के स्थान पर आध्यात्मवाद पर अधिक जोर देता है । कर्मवाद के सिद्धान्त के आधार पर पिछले जन्म के कर्म के आधार पर ही इस जन्म में फल मिलता है । इसी प्रकार से, जाति के कठोर नियम व्यक्ति को अपनी जाति के व्यवसाय को त्यागने की इजाजत नहीं देते और प्रत्येक जाति के लिए एक व्यवसाय भी निश्चित है । हिन्दू धर्म एक ऐसी समाज-व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें सामाजिक गतिशीलता सम्भव नहीं है । 

इस प्रकार वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट आचार और आधुनिक पूँजीवाद के विकास को कार्य-कारण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और प्रोटेस्टेण्ट आचारों को पूँजीवाद के विकास के लिए एक प्रभावशाली कारक माना यद्यपि अन्य कारक भी इसके विकास के उत्तरदायी रहे है ।


                                  
 
सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक विचार




सामाजिक विचार, विचार की वह शाखा है जो मुख्य रूप से मानव के सामान्य सामाजिक जीवन और उसकी समस्याओं के साथ संबंधित है, जो मानव अंतर्संबंधों और अंतःक्रियाओं द्वारा निर्मित और व्यक्त है। ई.एस. बोगार्डस ने सामाजिक विचारों को यह कहकर परिभाषित किया है कि, "सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं के बारे में एक या कुछ व्यक्तियों की मानव इतिहास में या वर्तमान में उनकी सोच रहा है।"



सामाजिक प्रश्नों के बारे में विचार करने वाले समूह के अर्थ में अधिकांश सामाजिक विचारों ने ज्ञान में भले ही बहुत कम योगदान दिया हो लेकिन इनके आन्दोलनकारी तथा परिवर्तनकामी प्रभाव व्यापक रहे हैं। चर्चा-समूह की सोच अपने उच्च स्तरों पर सामाजिक सोच को दर्शाती रही है, लेकिन चर्चा-समूह की सोच अभी तक व्यापक नहीं है। हालांकि, हालफिलहाल के वर्षों में सोशल मीडिया ने जिस तरह चर्चा समूह जैसे फेसबुक ग्रुप और वाट्सएप्प ग्रुप के रूप में न केवल चर्चा समूहों का आसान निर्माण संभव किया है बल्कि प्रभावी  कार्यवाहियों के लिए प्रेरित किया है, को देखते हुए जो परिदृश्य उभर रहे हैं, भविष्य में इससे काफी हद तक उम्मीद की जा सकती है। वास्तव में यह "मुखरता" सामाजिक आन्दोलन बन चुकी है जो समाज के मुख्य प्रकार का परिवर्तनकामी विचार बन जाने का वायदा करता है।



सामाजिक जीवन के बारे में व्यक्तियों की सोच तीन श्रेणियों में आती है:

1. पहली श्रेणी उन समूहों के रूप में सामने आती है जो मानव समुदायों की उन्नति को अपना उद्देश्य बनाते हैं। जैसे सरोकारी बुद्धिजीवी यथा फुले, अम्बेडकर तथा गांधी।

2. दूसरी श्रेणी किसी विशेष समूह या समूह के लाभ के लिए मानव के जोड़तोड़ का जिक्र करता है। जैसे सत्ता या पद की आकांक्षा वाला राजनीतिक समूह या राजनीतिक नेता या कार्यकर्ता।

3. तीसरी श्रेणी का उद्देश्य अंतर्निहित सामाजिक प्रक्रियाओं और कानूनों का विश्लेषण करना है, बिना किसी उपयोग या प्रभाव की आकांक्षा किये । निरपेक्ष बुद्धिजीवी यथा सामाजिक विश्लेषक, विचारक, शिक्षक।



सामाजिक विचारों की विशेषताएं: 

सामाजिक विचार मुख्य रूप से सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं।

बोगार्डस के अनुसार, सामाजिक विचारों की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:

1. सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं। जैसे जाति विभेद से समतावादी समाज का विचार।

2. सामाजिक विचार मानव के सामाजिक जीवन से संबंधित हैं। जाति उच्छेद का विचार, जातीय दमन से जुड़ा है।

3. यह सामाजिक संबंधों और अंतर्संबंधों का परिणाम है। जैसे जाति व्यवस्था, वर्णव्यवस्था ।

4. सामाजिक विचार समय और स्थान से प्रभावित होते हैं। जैसे महाराष्ट्र की विशेष पृष्टभूमि और फुले अम्बेडकर।

5. विचारक अपने सामाजिक जीवन और व्यक्तिगत अनुभवों से बहुत प्रभावित होते हैं। माली और महार जीवन की त्रासदी फुले, अम्बेडकर।

6. यह सभ्यता और संस्कृति के विकास को प्रेरित करता है। जैसे आधुनिकता और लोकतंत्र के मूल्य स्वतंत्रता समता और बंधुता।

7. सामाजिक विचार अमूर्त सोच पर आधारित होते हैं। सामाजिक धारा के प्रतिकूल सोच। तिलक के दौर में फुले, राष्ट्रवादी समय में "जाति" की मुखरता

8. यह सामाजिक उपयोगिता का एक अभिन्न अंग है। जैसे भारत को एक योग्य संविधान निर्माता मिला, समतावादी लोकतांत्रिक मजबूत समाज और राष्ट्र का निर्माण।

9. यह सामाजिक रिश्तों को बढ़ावा देने में मदद करता है। बंधुता।

10. यह न तो निरपेक्ष है और न ही स्थिर है। यह विकासवादी है।



सामाजिक विचारों के स्तर:

प्रत्येक समाज में सामाजिक चिंतन के तीन चरण या स्तर होते हैं:


1. सामाजिक रूप से लाभकारी चिंतन:

यह आमतौर पर प्रगतिशील या रचनात्मक सामाजिक प्रस्तावों से युक्त होती है, जिन्हें स्पष्ट रूप से समाज में प्रगतिशील बदलाव लाने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। इससे समाज का कल्याण होता है। विचारक मानवता के कानून से प्रेरित होते हैं।


2. नकारात्मक सामाजिक चिंतन:

इसमें स्वार्थ, सामान्य कल्याण की अवहेलना आदि की विशेषता होती है। यह प्रकृति में पारलौकिक और प्रतिगामी है। इस नकारात्मक प्रकार की सामाजिक सोच में बहुसंख्यकों के कल्याण पर ध्यान नहीं दिया जाता है। सत्ता या विशेष अधिकार प्राप्त लोग अपने हित को साधते हैं तथा परिस्थिति को अपने पक्ष में हेरफेर कर स्थिति का लाभ उठाते हैं।


3. वैज्ञानिक सामाजिक चिंतन:

यह वर्तमान का प्रगतिवादी लोकतांत्रिक तर्कवाद है। यह वर्तमान समाज की चाहत है। यह सोच निष्पक्ष और उदार होने का दावा करती है। यह एक प्रकार की ऐसी सोच है जो सामूहिक कल्याण को बढ़ावा देती है। इस प्रकार की सोच का वैज्ञानिक रूप से विचार या विश्लेषण किया जा सकता है।



सामाजिक चिंतन का इतिहास

परिवर्तन की शाश्वतता को धारण करने वाले मानव समाज के आरंभिक दौर से ही सामाजिक चिंतन अपने आदिम स्वरूप में एक शक्ति के रूप में रहा है। समाज में उभर आई समस्याओं के हर निदानों में सामाजिक चिंतन व्याप्त रहा है। कवियों, शिक्षकों, संतों, सुधारकों तथा उपदेशकों की बातों में तथा धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की प्रत्येक कार्यवाईयों में इसे साफ तौर पर अपने समय के मुहावरों में देखा जा सकता है।

प्लेटो के समय से ही दिखने वाला सामाजिक चिंतन , इब्न खल्दून की मुक़द्दीमा में सामाजिक एकता और सामाजिक संघर्ष के सामाजिक-वैज्ञानिक विचारों को आगे  लाता है। जबकि रुसो और वाल्तेयर के आंदोलन से प्रेरित फ्रांसीसी क्रांति की व्याकुलता के शीघ्र बाद ही लिखते हुए, ऑगस्ट काम्टे ने प्रस्थापित किया कि सामाजिक निश्चयात्मकता के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। 19वी सदी में उभरती आधुनिकता की चुनौतियों, जैसे औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वैज्ञानिक पुनर्गठन की शैक्षणिक अनुक्रिया, आरंभिक समाजवादियों के चिंतन में दिखती है। परिवर्तन की तीव्रता और बदलती सामाजिक संरचना की भिन्न समझ सामाजिक विचारों की असंख्य लहर निर्मित करती है।

आधुनिक भारत में जाति विभेद की सामाजिक संरचना के अनुभव ने फुले, अम्बेडकर को जन्म दिया जिन्होंने इससे निज़ात के लिए आंदोलन किया तथा इससे  और लोगों को जोड़ कर इसे और मजबूत किया बल्कि इनके चिंतन ने इसे और धार प्रदान किया तथा सामाजिक परिवर्तन को जन्म दिया। इस प्रकार भारत एक समतावादी समाज की तरफ अग्रसर हुआ।

                                  
                                       


    सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:-सामाजिक वर्ग

सामाजिक वर्ग, सामाजिक स्तरीकरण से जुड़ी अवधारणा है। क्लासिक सामाजिक आंदोलनों को सामान्यतः उनके वर्ग घटकों के आधार पर समझा जा सकता है क्योंकि ये अधिकत्तर 'वर्ग बद्ध' आंदोलन होते हैं। सरलतम शब्दों में यहां सामाजिक वर्ग का अर्थ है:-

1-  जनसंख्या का असमान समूह में विभाजित होना।

2-  संसाधनों में विभेदी वितरण के कारण समूहों के बीच आर्थिक असमानता का होना।

3- अभिजन समूहों को आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व तथा नियंत्रण में उनकी आवश्यकता से अधिक भाग का मिलना तथा इसके परिणाम स्वरूप बहुजनों को कम भाग का मिलना।

4- संपत्ति तथा संसाधनों के इस असमान वितरण की दोषपूर्ण प्रणाली के कारण अमीर गरीब तथा मध्यवर्गी तथा श्रमजीवी वर्गों का जन्म होना।

5-  गरीबों में 'एक ही नाव में सवार होने' यानी एक सी स्थिति के कारण वर्ग एकता का बोध विकसित कर लेना तथा अपने से उच्च वर्ग के साथ एक विरोधी संबंध बना लेना।

6- भारत में जाति व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं में एक वर्ग भी है। जाति व्यवस्था एक "बंद वर्ग" है जो इसे और जटिल, कठोर, परिवर्तनहीन तथा सुधार से परे बनाता है। इसलिए इससे जुड़े सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन के रूप में संरचनाओं को उलट देना चाहतें हैं।


सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक संरचना

सामाजिक आंदोलन सामाजिक संरचनाओं में उभर आए दोषों, उनके तनाव या उनकी ईकाईयों के बीच प्रतिस्पर्धा के परिणाम होते हैं सामाजिक संरचना की विशेषताएं इनकी कारक बन जाती हैं। सामाजिक संरचना शारीरिक अंगों तथा उनकी पारस्परिक निर्भरता की तरह होती है सामाजिक संरचना का अभिप्राय समाज की इकाइयों के क्रमबद्धता तथा उनके आपसी संबंधों से होता है। समूह समिति, संस्थान परिवार तथा सामाजिक प्रतिमान और उनके संबंधों को सामाजिक संरचना कहते हैं।

1- सामाजिक संरचना अमूर्त होती है तथा अनेक उप संरचनाओं से मिलकर बनती है।

2 - संरचना की इकाइयां परस्पर संबंधित होकर एक ढांचे का निर्माण करती है जिससे उनके स्वरूप का बोध होता है।

3- संरचना की इकाइयों के आपसी संबंधों तथा क्रमबद्धता में आई किसी कमी से संरचना कायम नहीं रह पाती है।

4-  इकाइयों का पद और स्थान पूर्व निर्धारित होता है जिन्हें प्रतिस्थापित करने की कोशिश  परिवर्तन को जन्म देती है।

5- प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है अतः संस्कृति द्वारा निर्धारित प्रतिमान में भिन्नता के कारण संरचना भी भिन्न-भिन्न होती है।

6- सामाजिक संरचना स्थानीय विशेषताओं से प्रभावित होती है प्रत्येक समाज की संस्कृति स्थानीय परिवेश के अनुकूलन के परिणाम स्वरूप विकसित होती है।

7- सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण पक्ष है। समाज में सहयोग व्यवस्थापक्ष, अनुकूलन, प्रतिस्पर्धा जैसी प्रक्रिया चलती रहती है।

8-  सामाजिक संरचना में अनुकूलन की क्षमता होती है।


इस प्रकार अगर हम उदाहरण के तौर पर फ्रांस, रूस, ब्रिटेन तथा भारत की सामाजिक संरचना को गौर से देखें तो  यहां के आंदोलनों पर न केवल असर डालती हैं बल्कि परिवर्तन के स्वरूप को भी प्रभावित करती हैं ।

गुरुवार, 3 सितंबर 2020

सत्ता और युवा

युवा हित राजनीतिक चिंता का विषय नहीं रहा।

राजनीति का केंद्र सत्ता है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। 

इन जुड़ावों में सबसे ताकतवर ऊर्जा "युवा" की चाहत भी उसे सबसे ज्यादा रहती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को बिखरावों में ढूढ़ लिया है। 

युवा भी अब एक समरस "ताकत" नहीं रह गया है। सत्ता के दावेदारों ने एक तरफ जहां उसे बांट रखा है वहीं दूसरी तरफ सत्ता ने उसकी ऊर्जा को डेटा खर्च करने के नशे की तरफ मोड़ रखा है । जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है।  

कभी कभार उभर आई युवा व्याकुलता को सत्ता अपनी ऊपरी शराफत तथा इंतज़ार कराने की अद्भुत क्षमता से मात देने में सफल हो रही है। सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं।

लोकतंत्र में नागरिक को हमेशा सावधान रहना चाहिए और सरकार को संवेदन शील ...लोकतंत्र की यही ताकत है ..यही सफलता की शर्त है ...

आखिर कब तक साहब भोंपू पर मुहँ और फरियादी कान लगाए रहेंगे।

अगर अभी भी अपने भविष्य की चिंता के दायित्व को लेकर सजग नहीं हुए और सिर्फ बातों और भंगिमाओं में उम्मीद और आनंद तलासते रहे तो दोषी  स्वयं होंगे।

अपने भविष्य के प्रति असंवेदनशीलता को देखते हुए अब नौजवानों को शक्तिशाली, चालाक और धूर्त शत्रु से लड़ने के लिए अपने समर्पण के साथ - साथ नई तकनीकी और बुद्धि को जोड़ते हुए असाधारण क्षमता वाली शक्ति बनना चाहिए जिसे कोई उपेक्षित न कर सके।

वो अपना हित बख़ूबी सोच रहे हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन देश के युवा विशेषकर बेरोजगार युवा अपना हित कब सोचेंगे ? कब तक  सुनियोजित बर्बादी को त्याग, धैर्य और संघर्ष की कहानियों के तौर पर उन्हें परोसा जाता रहेगा ?

रविवार, 9 अगस्त 2020

इतिहास पर कहीं कही कुछ बातें..

जब मेरे दोस्त का उसकी पत्नी से तनाव होता है तो वह याद करता है कि ससुराल में उसकी पर्याप्त इज्ज़त नहीं होती है जबकि प्रेम के क्षणों में उसे मार्च अप्रैल का वह महीना याद आता है जब वह फूलों से लदे पार्क में पहली बार उससे मिला था और वह पीले रंग के सूट में किसी तितली सी दिखी थी हाँ उसकी नेलपॉलिश भी तो सुग्गा पंखिया थी।

गुस्से में याद आया कि यही नामुराद दोस्त था जो मेरी बाइक को तोड़ आया था लेकिन साथ में चाय की चुस्की लेते हुए मैंने याद किया कि कैसे उसने मेरी अनुपस्थिति में मेरी माँ को यह हॉस्पिटल ले गया था।

किसानों की बढ़ती आत्महत्याएं इतिहास के शोध की दिशा को उस तरफ मोड़तीं हैं जहाँ कृषि संरचना तथा वैश्वीकरण के प्रभावी शर्तों और उसके कारणों को उजागर करना जरुरी हो जाता है।

आध्यात्मिक डूबन की उपयोगितावादी प्रदत्त छवि से आच्छादित समाज से उबरने के लिए केपी जायसवाल इन्डियन पॉलिटी लिख कर स्व शासन के औचित्य को जोरदार तर्क प्रदान किया।

सामाजिक बुराइयों से दुःखी लोगों ने न सिर्फ इसके ख़िलाफ़ वैज्ञानिक तर्क दिए बल्कि बुराइयों के विपक्ष में पौराणिक तर्कों को भी ढूंढ निकाला।

कोरोना का दौर इतिहासकारों को महामारियों के इतिहास की तरफ मोड़ चुका है जहाँ ब्लैक डेथ से स्पेनिश फ्लू के दौर के सामाजिक राजनीतिक तथा चिकित्सकीय उपायों को ढूढ़ा जा रहा है।

चूँकि कोई भी इतिहास अपने समकालीन समय में ही लिखा जाता है क्योंकि इतिहासकार लिखते समय जीवित होता है और वह अपने समाज, समय, और परिस्थितियों का दास होता है जाने अनजाने वह समकालीन समय में घट रही घटनाओं से प्रभावित होता है अतः उसके लिखत पर समकालीनता का प्रभाव होता है। कार के शब्दों में इतिहास अतीत और वर्तमान तथा इतिहासकार और उसके तथ्यों के बीच संवाद है।

अतः क्रोचे का यह कथन कि सारा इतिहास समकालीन होता है सत्य प्रतीत होता है।


यह स्वीकार्यता इस कथन की सीमा से बंधा है, जिसके अनुसार "अतीत के विस्तार की कठिनाई को देखते हुए हमारा वह अतीत जिसका वर्तमान में महत्व है, इतिहास है।" अन्यथा इंसानी ज्ञान और समझ की सीमा के कारण कोई भी "सर्वव्यापी कथन" (यहाँ all शब्द का प्रयोग है) ज्ञान मिमांसीय तर्कशास्त्र में दोषपूर्ण ही माना जाता है। 

अतः उपेक्षित अतीत, सेंसर अतीत, और भविष्य में महत्वपूर्ण बन जाने वाला अतीत, आउट डेटेड अतीत इत्यादि कभी भी इतिहास की मुख्यधारा में आ सकते हैं। 

दरअसल इतिहास का "दस्तावेज़ी स्वरुप" इसका मुख्य अवयव और विशेषता है इसके अभाव में इतिहास शब्द की हम कल्पना भी नहीं कर सकते।

दरअसल क्रोचे उस दौर का इतिहासकार है जब "व्याख्या" और "विचार" ऐतिहासिक "तथ्यों" पर हावी थे। तथ्यों को स्वतंत्र नहीं माना जा रहा था और कहा जा रहा था कि तथ्य हमेशा दिमाग से छन
कर आतें हैं। लेकिन इतिहासकारों के आत्मविश्वास को बढ़ाने वाले इस विचार का खुमार चिरस्थाई नहीं माना जा सकता।

अतः "सारा" इतिहास प्राथमिक रूप से "दस्तावेज़" है जो समकालीन होने के इंतज़ार में रहता है।

चूँकि संघर्षों, तनावों, टकरावों और युद्धों के परिणामों के उदाहरण और अनुभव यह दर्शातें हैं कि आधुनिक युद्धों के विभिन्न स्वरूपों में कोई विजेता नहीं होता बल्कि उत्तरजीवी होते हैं। 

 "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर  में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके आख्यान सोशल और नई मिडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर इतिहासकार के लिए एक गुमनामी का भय रच सकता है।

अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने वाली है।

बुधवार, 22 जुलाई 2020

भोजपुरी फ़िल्म संगीत के आईने में स्त्री अस्मिता

भोजपुरी फ़िल्म संगीत के आईने में स्त्री अस्मिता

कृतिका पाण्डेय
                                                                                                                                                       
सिनेमा शास्त्री जेम्स मोनाको का कहना है कि 'कला यह बताती है कि हमारी सभ्यता क्या कर रही है ।' साथ ही यह इस पर यकीन करना सिखाती है, यह न केवल छवियों के माध्यम से अस्मिता का निर्माण करती है बल्कि उसका प्रसार भी करती है । फ़िल्म संगीत इसका सबसे सरल एवं प्रभावी माध्यम है । भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत से ही स्त्री इसके केंद्र में रही है । भारतीय सिनेमा का विशिष्ट लक्षण फ़िल्म संगीत भोजपुरी फिल्मों का भी मुख्य अंग है ।
भोजपुरी लोकगीतों की भांति ही भोजपुरी फ़िल्म संगीत में स्त्री की आरंभिक सामान्य छवि विरहणी तथा एक संघर्षशील स्त्री की है जिसे 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबे' तथा 'बिदेशिया' जैसी फिल्मों में देखतें हैं । इनमें उपस्थित दृश्य-श्रव्य संगीत स्त्री से अपेक्षित सामाजिक बंधनों तथा मर्यादाओं का बयान करतें हैं । इसका नमूना 'सोनवा के पिजरा में बंद भइली चिरई के जियवा उदास' जैसे गाने हैं  । यहाँ स्त्री अपने सभी रूपों तथा समयों को जीती है और रास्ते में आये परम्पराओं और मान्यताओं  से लड़ती और संवाद करती है ।
कालचक्र का सामाजिक आर्थिक बदलाव, स्त्री अस्मिता की अपनी समझ और उसके प्रदर्शन के रूप में फ़िल्म संगीत में भी दिखता है । मीड के दावे के अनुरूप स्त्री की अस्मिता भी दूसरों के दृष्टिकोण को आत्मसात करने पर निर्भर करती है । यह  उतनी हद तक ही आत्म सचेत है जितनी कि वह समझ पाती है कि दूसरे उसे किस रूप में देख पा रहे हैं । हालाँकि भूमंडलीय दौर में एंथनी गिडेंस इसे एक चिन्तनशील परियोजना के तौर पर देखतें हैं जिसमें देह, स्वास्थ्य, सौन्दर्य से सम्बंधित आयामों और उनके विवरणों के माध्यम से अस्मिता की कहानियां सामने आती हैं । यह यूँ ही नहीं है कि हाल के भोजपुरी फ़िल्म संगीत में स्त्री अस्मिता काम्यता के आयामों में सिमटती जा रही है और संगीत चुम्मा चोली से साया की डोरी तक की यात्रा करती है । बल्कि उपभोक्तावादी बाज़ार की नैतिकता का तर्क ना नूकुर के बावजूद  स्त्री को यह समझाने कि लगातार कोशिश करता  दिख रहा है कि नारी तुम सिर्फ देह हो ।
उत्तर भारत के ग्रामीण अंचल में गायन रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा है । चाहे वो फसल की बुवाई हो, विवाह हो, त्योहार हो,  मौसम हो या बच्चे का जन्म हो, हर अवसर पर एक गीत है । हजारों लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहें हैं । भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इस तरह के गीतों की  एक समृद्ध परम्परा है । इन विविधताओं को सबसे पहले हिन्दी फिल्मों में जगह मिली । आगे चल कर इन गीतों ने परंपरागत रूप से भोजपुरी फिल्मों में एक केंद्रीय भूमिका निभाई है और अक्सर उनकी सफलता असफलता की कुंजी रही है । भोजपुरी फ़िल्म पत्रकार मुन्ना प्रसाद पाण्डेय कहतें हैं कि 'भोजपुरी गाने भोजपुरी फिल्मों की जान हैं ।'  पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' भले ही पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' के 31 साल बाद बनी हो परंतु भारतीय सिनेमा में भोजपुरी बोली की दस्तक उस वक्त ही हो चुकी थी जब भारतीय सिनेमा को चुप्पी तोड़े  लगभग एक वर्ष ही हुआ था, यानी सन 1932 में बनी संभवत भारत की दूसरी बोलती फिल्म 'इंदरसभा' जिसमें 72 गाने थे इनमें से दो गाने भोजपुरी महक के साथ उसी लोक शैली में गाय बजाए गए थे । गाने के बोल थे ' सुरतिया दिखाय जाओ बाँके छैला' तथा 'ठाड़े हूँ तोरे द्वार बुलाले मोरे साजन रे' । इंदरसभा संपूर्ण रूप से सांगीतिक फ़िल्म थी । बनारस की रहने वाली भोजपुरी भाषी  ठुमरी गायिका जद्दनबाई के भाषा और कला प्रेम ने महबूब खान को मजबूर किया था कि उनकी पसंद की एक ठुमरी फ़िल्म 'तकदीर' 1943 में रखा जाय । जिसके बोल थे-
'बाबू दरोगाजी कवने करनवा बन्हल पियवा मोर
ना मोरा पियवा लुच्चा लंगटवा, ना मोर पियवा चोर 
मोर पियवा त मदिरवा का माता, रहे सड़किया पर सोय'

इस ठुमरी की लोकप्रियता ने उन्हें यह सोचने पर विवश किया कि फ़िल्म में एक भोजपुरी ठुमरी इतनी धूम मचा सकती है तो अगर पूरी फिल्म भोजपुरी में हो तो कितनी धूम मचेगी ।

हालांकि यह वह दौर था जब संभ्रांत परिवार की महिलाओं का फिल्मों में प्रवेश का लगभग निषेध था । ऐसे प्रतिकूल समय में नायिकाओं की अभाव की पूर्ति के लिए कितनी ही बाइयों ने हिंदी सिने जगत में अपने पांव रखे । बाइयों की इस कतार में प्रमुख थीं  कमला बाई, जोहरा बाई, गौहर बाई, लीलाबाई, ताराबाई, हीराबाई, आजम बाई और जद्दनबाई इत्यादि । उत्तर भारत की सामाजिक संस्कृति में रचा बसा 'पूर्वी गीत संगीत' इन्हीं बाइयों के गले में खिलकर और पांव में बंधकर हिंदी सिनेमा के संगीत को अपने लोकरस-रंग से भिगाने आ गया । 1962 में अपनी शुरुआत से ही भोजपुरी सिनेमा ने कई प्रतिभाशाली गीतकार और संगीतकारों जैसे चित्रगुप्त,एस एन त्रिपाठी, तथा शैलेंद्र को आकर्षित किया तथा बॉलीवुड की मुख्यधारा की गायिकाओं जैसे लता, आशा, उषा तथा सुमन कल्याणपुरी ने भोजपुरी फिल्मों में अपनी आवाज दी । 

हालांकि, अब भोजपुरी फ़िल्म गीतों का चरित्र भी नाटकीय रूप से बदल गया है । 1960 के दशक में, गीत मुख्य रूप से राग और माधुर्य के आसपास बुना जाता था, लेकिन  अब ताल और गति महत्वपूर्ण है । पहले भोजपुरी फिल्मों में डांस नंबर आज की तरह नहीं थे । भोजपुरी फिल्मों के पुनरुत्थान के दौर में  संगीत निर्देशन की कमान  लाल सिन्हा ने संभाली वहीं गीत रचा  विनय बिहारी ने जिसे राधेश्याम रसिया ने गाया । इस दौर की खास बात यह रही की पहले से एल्बम संगीत में लोकप्रिय गायकों - गायिकाओ ने अभिनय के क्षेत्र में भी लोकप्रियता हासिल की । मनोज तिवारी  सबसे सफल उदाहरण हैं । इस दौर की महिला गायिकाओं में बड़ा नाम असमी मूल की कल्पना पटवारी का है जिनकी समृद्ध, शक्तिशाली और कामुक आवाज़ किसी  फ़िल्म की सफलता की शर्त हो सकती है । दिनेश लाल यादव 'निरहुवा' के अनुसार 'वह भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के लिए अनमोल उपहार हैं ।' संगीत कल्पना की रगो में दौड़ता है ।

एक आम उक्ति कि 'सिनेमा समाज का दर्पण है ।' के उलट थियोडोर एडोर्नो और मैक्स होरखाइमर ने फ़िल्म संबंधित अपने अध्ययन में यह दावा किया कि "हमारा जीवन पर्दे पर दिखाये जाने वाले यथार्थ से भिन्न नहीं रह ।" यह दावा मार्टिन इसलिन की इस चेतावनी के दौर में आया कि "टेलीविजन  हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है, यह समस्याओं के बारे ठीक से सोचने और समझने कि हमारी क्षमता में कमी लाता है तथा  यह स्त्रियों के बारे में हमारे मन में गलत राय निर्मित करता है ।'' यह चेतावनी यह मांग करती है कि सिनेमा के विभिन्न अवयवों निर्माण प्रक्रिया, निर्माता, दृश्य, गीत तथा कैमरे के कोण इत्यादि के अंदर तथा बाहर स्त्री की उपस्थिति को समझा जाय । इस पर  गंभीर बहस पश्चिम की नारीवादियों की देन है । 70 के दशक में नारीवादियों ने फिल्मों में जेंडर के निरूपण का प्रश्न उठाया । पहली नारीवादी पत्रिका 'वूमेन एंड फ़िल्म' प्रकाशित हुई । इसका पहला प्रभाव यह पड़ा कि बहस सिर्फ वर्ग के इर्द - गिर्द ही सीमित न रह कर जेंडर के आसपास भी होने लगी । नारीवादियों ने यह आलोचना की कि फिल्मों में स्त्री के एक निश्चित सार में आस्था का परिणाम पितृसत्ता को पिछले दरवाजे से वैधता प्रदान करना होगा । जांस्टन ने अपने निबंध 'विमेन सिनेमा एज़ काउंटर सिनेमा' में विस्तृत दलील दी है कि स्त्री को अगर पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ा होना है तो व्यवसायिक फिल्मों में स्त्री की बनावट को खोल कर देखना होगा : उसके बिम्ब को कैसे फ्रेम किया गया है, उसे कैसी पोशाक पहनाई गई है, उस पर किस कोण से प्रकाश फेका गया है, कथांकन में वह किस जगह स्थित है, कैमरा - लाइटिंग तथा फ़िल्म में उपस्थित पुरुष की स्वैर कल्पनाएँ  स्त्री को किस तरह के केंद्र में लाती हैं । अगर ये सब बातें निकल कर सामने आएँगी तो फिल्मों के पाठ से उसकी विचारधारा को अलग किया जा सकता हैं तथा सिनेमा में स्त्री को समझा जा सकता है ।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में आजादी की जो समझ ग्रामीण अंचल में बुनी गई थी वह सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक भी थी, स्त्री मुक्ति तथा उसके प्रश्न इसके केंद्र में थे । भोजपुरी सिनेमा की शुरुआती फिल्में इन्हीं प्रश्नों के इर्द गिर्द घूम कर स्त्रीप्रधान हो जातीं हैं। 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबे' की सुमित्री का संसार इसी की जद्दो जहद है ।

फ़िल्म के गीतों में बचपन है, प्रेम है, शिकायत है । फ़िल्म का एक गीत जिसके रचयिता शैलेन्द्र हैं, और जिसे रफी ने दुल्हन की विदाई के समय गाया है, यह चिरई के रूपक में उस समय की स्त्री की स्थिति का बयान है-

सोनवा के पिंजरा में बंद भईली हाय राम 
चिरई के जियवा उदास 
टूट गईल डलियाँ छितर गईल खोतवा 
छूट गईल नील रे आकाश  
छल-छल नैंना निहारे चुप चिरई
चलली बिदेसवा रे मईया के दुलरुई
आँसुओं के मोतियाँ  निसानी मोरे बाबुला
धरी गईनी हम तोहरे पास
बिलखत रह गईली संग कि सहेलिया
ले गईल बाँध के निठुर रे बहेलिया
मोरे मन मितवा भुला दे अब हमरा के 
छोड़ दे मिलन के तू आस

चुनौतीपूर्ण  रूढ़ि वादी समाज के बीच पुष्पित व पल्लवित यह फ़िल्म प्रेम, रोमांच के साथ कुपोषित समाज में इलाज की भाँति पुरजोर दखल देती है । बेमेल विवाह, विधवा विवाह, दहेज़ प्रथा ,नशा खोरी सामंती विचार धारा, धन बल का बोलबाला एवं जातीय भेदभाव आदि से ग्रसित मानसिकताओं को पराजित करती सुमित्री आज भी दर्शकों को विशेष प्रेरणा और ऊर्जा देती है ।

'धरती मैया' फ़िल्म के लिए लक्षमण शाहाबादी का लिखा यह गीत अभी भी भोजपुरी समाज की स्त्री के 'आदर्श दुल्हन' के रूप में समाजीकरण का जहाँ एक तरफ 'उपक्रम' है  वहीं यह उसे यह भी समझाता है कि स्त्री का स्वर्गिक ठहराव उसका ससुराल है । हालाँकि फिल्मों में उसकी असली चुनौतियाँ यहीं से शुरू होती हैं ।

जल्दी जल्दी चल रे कहार
सुरूज डुबे रे नदिया
------
चाहे कहीं दाना चुगे पानी पिए सुगवा
संझिया के बेरिया उ खोजे आपन खोतवा
वैसे ही दुल्हनिया के ललचावे परनवां
छोडि़के पहुंच जाए पिया के अंगनवां
--------
जाके ससुररिया गरब जनि करिह
सबके बिठाके तू पलक पर रखिह
बर के आदर दिह छोट के सनेहिया
इहे बा सुफल जिनगी के ह सनेसवा
दोनो कुल के इज्जत रखिह
बोलिह जनि तीत बोलिया
---------
आगे आगे पिया संग बंधले गेठरिया
दउरा में डेग धरि चलबु डगरिया
ऐसे ही संभर के ए गोरी
चलिह जिनगी के रहिया

'बिदेसिया' जनकवि भिखारी ठाकुर की कालजयी कृति से ओतप्रोत थी जिसमें परदेश कमाने जाने वाले भोजपुरियों की समस्याओं का वर्णन है । 'बिदेसिया' के गीतों में नायिका के विरही छवि का दर्शन होता है जिसका पति उससे दूर चला जाता है । 

हसी हसी पनवा खियवले बेइमनवा
की अपना बसे रे परदेश 
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गईले 
मारी रे करेजवा में ठेस

एक दूसरा गीत है 
दिनवा गिनत मोरे घिसली अंगुरिया
की रहिया ताकत नैना घूरे रे बिदेसिया
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बाउर लागे अमवा बाउर भइले  जियरा
उमंग आस अंसुवा में चूर रे बिदेसिया 

भोजपुरी की पहली  और दुसरे चरण की फिल्म गीतों में स्त्री के हर रूप का दर्शन होता है वह माँ है, बेटी है, प्रेमिका है, पत्नी है,सहेली है, भौजाई है, ननद है  और स्वयं में भी एक संघर्षशील अस्तित्व है । गीतों में उसकी कुछ भिन्न छवियाँ इस प्रकार हैं -

राजदार के रूप में भौजाई -
जाने कहाँ बिंदिया हेराई अईली भउजी रे 
केहू से नजरिया लड़ाई अईली भउजी रे 

संकोची प्रेमिका -
का बोली सैयां बतावलो न जाये

सुन्दरता की मानक -
गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा
जियरा उड़ी उड़ी जाय
 
बाल विवाह का दर्द -
हम त खेलत रहनी अम्मा जी की गोदिया 
कर गईल तबहीं बियाह रे बिदेसिया

भारत में भूमण्डलीकरण ने संस्कृति के नाम पर बाजार की संस्कृति व उपभोक्तावाद की संस्कृति को जन्म दिया है । महिला साहित्यकार प्रभा खेतान का मानना है कि 'भूमण्डलीकरण जीवन के हर कोने में अस्तित्व के हर रूप का वस्तुकरण करता है ।' मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी इस प्रवृत्ति की व्यंगात्मक व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि विज्ञापनों, गीतो, फिल्मों और सीरियलों इत्यादि तमाम सांस्कृतिक रूप में स्त्री की देह का आखेट किया जाता है । कैमरे की नजर स्त्री की देह पर इसलिए चलती है ताकि दर्शक को स्त्री नए ढंग से दिखाई जा सके । स्त्री के सेक्स केंद्रों को हमारे फिल्मी गीतों में जिस कलात्मक छल के साथ सक्रिय किया जाता है वह स्त्री देह को समूचे समाज का क्रीडा स्थल बना देना चाहता है । इस प्रक्रिया में आर्थिक लाभ द्वारा स्त्री का शोषण होता है । विडंबना यह है कि वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति नारी देह का इतना दुरुपयोग करती है लेकिन महिलाओं ने भी इसके विरुद्ध आवाज बुलंद कराने की बजाय इसे अपनी नियति मान लिया है । 
भोजपुरी फ़िल्म संगीत भी अपने को इस मोहपाश से बचा नहीं पाया । भोजपुरी फिल्मों में द्विअर्थी और अस्पष्ट गीतों की एक महामारी फैल चुकी है जहां गीतकार अपनी कल्पनाशीलता  को अक्सर महिला शरीर रचना के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रखतें हैं । 1991की एक फ़िल्म 'गंगा से नाता बा हमार' के गीत का बोल इस प्रकार है -

कहीं निम्बुवा त कहीं पे अनार सजनी
निम्बुवा बेचारी किसी गिनती में न आये 
ये जमाना है अनारों का बीमार सजनी 

निश्चित तौर पर यहाँ गीतकार किसी फलों की चर्चा नहीं कर रहा है । लेकिन इसके बाद के गानों पर चर्चा सार्वजनिक संकोच और लज्जा का विषय है ।
 
हालाँकि दिनेश लाल यादव 'निरहुवा' का कहना है कि भोजपुरी सिनेमा अश्लील नहीं है जो ऐसा कहता है वह भोजपुरी सिनेमा का दर्शक नहीं होगा यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। सेंसर बोर्ड में न केवल पुरुष बल्कि महिलाएं भी फिल्मों को देखती हैं फिर प्रमाण पत्र निर्गत किया जाता है ऐसा कहना भारत सरकार  द्वारा बनाई गई प्रणाली पर अंगुली उठाना है । अक्षरा सिंह का कहना है की मैं भोजपुरी सिनेमा की बुराई नहीं कर सकती क्योंकि इसी भोजपुरी सिनेमा से मेरा घर चलता है । परन्तु भोजपुरी के पचास वर्ष पर पद्म भूषण शारदा सिन्हा जी कि शिकायत है कि 'वास्तविक ख़ुशी तो तब मानते जब भोजपुरी सिनेमा हमारे समाज का सही और सच्चा आइना बनने का काम करता मुझे नहीं लगता है की इन पचास वर्षों में हमारा पूर्वांचल का समाज फूहड़ हो गया है, मन यह भी नहीं मनाता की भोजपुरी समाज के सभी देवर अपनी भाभियों को सिर्फ और सिर्फ घटिये मजाक से संबोधित करना पसंद करतें हैं ।'
जो भी हो, मिट्टी की सुगन्ध को धारण करने वाली मधुर भोजपुरी गीतों और उसके सामाजिक सरोकारों की जरुरत को दरकिनार नहीं किया जा सकता, और न ही लोक गीतों में 'अभिव्यक्त खुलेपन' को फिल्मों में स्वीकार करने पर किसी को आपत्ति होनी चाहिए परन्तु लोक व्यवस्था और नारी की गरिमा का ख्याल रखना  प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य है यह फिल्मों द्वारा राष्ट्र निर्माण की शर्त है ।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 
अभय कुमार दुबे - भारत का भूमण्डलीकरण, समाज विज्ञान कोश
अभिजीत घोष - भोजपुरी सिनेमा 
रविराज पटेल - भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा 
अंशु त्रिपाठी - भोजपुरी सिनेमा का सफ़र
मनोज भावुक - भोजपुरी सिनेमा की विकास यात्रा

बुधवार, 15 अप्रैल 2020

शोध आलेख - भूमण्डलीकरण के दौर में भोजपुरी सिनेमा का सामाजिक सन्दर्भ

प्लेगरिज्म से बचने के लिए संदभ दें - 
Pandey, Rajiv Kumar. “भूमण्डलीकरण के दौर में भोजपुरी सिनेमा का सामाजिक संदर्भ.” भारत  का क्षेत्रीय सिनेमा, संपादक - डॉ अनिता मन्ना, डॉ मनीष कुमार मिश्रा, कनिष्क पब्लिशिंग हाउस, दरिया गंज नई दिल्ली (2020): 175–183. Print.
राजीव कुमार पाण्डेय                                                                                            

समाज को उसके "सान्दर्भिक जकड़" से मुक्त करता भूमण्डलीकरण एक "युगबोधक सच्चाई" है । भोजपुरी सिनेमा के इतिहास में यह "सपनों के पुनर्जीवन" का समय है जिसे भोजपुरी सिनेमा के जानकार "तीसरी तरंग" कहते हैं । यह वह समय है जब भोजपुरी जैसे क्षेत्र अंतरराष्ट्रीय अर्थतंत्र और वैश्विक संस्कृति की "उत्तेजक लहरों" के बीच फंसे हुए हैं । अर्थव्यवस्था की तेजी पर सवार भोजपुरी जनता का एक धड़ा विकास के टापुओं की तरफ रुख करता है और अपने ही देश में प्रवासी होने का सुख-दुःख भोगता है ।
भोजपुरी सिनेमा भूमण्डलीकरण से अपना आरंभिक परिचय मनोज तिवारी और रानी चटर्जी अभिनित "ससुरा बड़ा पइसा वाला" 2004 से करता है । वर्चस्व की भूमण्डलीय भाषा के रूप में अंग्रेजी इस फ़िल्म के माध्यम से भोजपुरी समाज में अपनी स्वीकृति पाना चाहती है जबकि नायक नायिका के जींस के मार्फत वैश्विक संस्कृति । अभाव वाले गाँव में रचे बसे मूल्य "धन के वैभव" के शहरी स्वार्थ से प्रतिरोध करते दिखतें हैं । नायक एक जगह कहता है कि "हमार ससुर के इज्जत इज्जत, काहें की हमार ससुर बड़ा पइसा वाला हवें । और हमार इज्जत कोठा के रण्डी की जेकर मन आवे नंगा कर के चल जावे ।" इस फ़िल्म में अपने आयामों की भिन्नता के साथ परम्परा और आधुनिकता तथा अभाव और वैभव आपस में संवाद करते दिखतें हैं । भोजपुरी सिनेमा का यह दौर इस समाज के मन और देह के सन्दर्भो के पुनर्परिभाषित होने और नया आख्यान गढ़ने का है ।
प्रक्रिया और परियोजना के तौर पर भोजपुरी सिनेमा में एक तरफ तो पहचाने और उम्मीदें अपनी अस्मिता के लिए जूझ रहीं हैं तो दूसरी तरफ इनकी सांस्कृतिक सीमाएं टूट रही हैं । समुदाय, वर्ग, जाति, परिवार, जेण्डर, नागरिक सरोकार और रूचि की विविधता नए परिभाषाओं के अंतर्गत खुद को पुनर्स्थापित कर रही  हैं ।
भूमण्डलीकरण के दौर में भोजपुरी फिल्म उद्योग के शानदार पुनरुत्थान को समझने की कोशिश करना आसान काम नहीं है । इसके कारण बहुस्तरीय और जटिल दोनों हैं । तेजी से बदलते राष्ट्र की परिस्थितियों को  सामाजिक-आर्थिक परिघटना के कारणों और प्रभावों की एक श्रृंखला के रूप में समझना भी अपर्याप्त होगा । इसके बजाय इसे विभिन्न अंतरसंबंधों के साथ एक प्रक्रिया के रूप में देखना चाहिए, जो कुछ बिंदुओं पर पूरक हैं तो अन्य अवसरों पर, एक दूसरे के साथ विपरीत हैं ।  
भोजपुरी फिल्मों के पुनरुत्थान को 1991 में उपग्रही टेलीविजन के आगमन के बाद बॉलीवुड ने अपनी सिनेमाई भाषा और परिदृश्य को जिस तरह से परिवर्तित किया, उसकी प्रतिक्रिया के रूप में माना जा सकता है । डॉलर से समृद्ध एनआरआई बाजार और मल्टीप्लेक्स के विकास के साथ जहाँ शहरी भारत में नए  मनोरंजन के मंदिर तैयार हुये, वहीं हॉलीवुड की संवेदना वाले युवा निर्माताओं ने अपने को "लीक" से अलग किया । इससे जल्द ही, मध्य भारत के विशाल क्षेत्रों से हिंदी वाणिज्यिक सिनेमा का अलगाव हो गया । इस घटना ने इस क्षेत्र में सिनेमाई खालीपन पैदा किया । इन फिल्मों को जिस संवेदना और पटकथा शैली के साथ लाया गया था उससे सिंगल-स्क्रीन सिनेमाघरों में फिल्मों को देखने वाला निम्नवर्ग अपने को जोड़ पाने में असमर्थ था । यह अजनबी सौंदर्यशास्त्र उससे अलग था जिससे भोजपुरी सिनेमा भरा हुआ था । हिंदी सिनेमा की अमिताभ बच्चन मॉडल जन संवेदनशीलता का दौर जिसमें शहरी, कस्बाई और ग्रामीण दर्शकों तक समान रूप से पहुंच की क्षमता थी, कम हो रहा था । करण जौहर रूपी बदलाव ने फील-गुड, अपर क्लास, शहर-केंद्रित सिनेमा को अपने हाथ में ले लिया जिससे ग्रामीण, बूढ़े और वंचितों को फ्रेम से बाहर करने में आसानी हुई ।
2004 और 2006 के बीच के वर्षों में मुख्य धारा की शीर्ष फिल्मों में गैर-शहरी विषयों के लिए उदासीनता देखी ​​गईयहां तक ​​कि गीतों और नृत्यों से सजी पटकथा की पारंपरिक बॉलीवुड शैली में भी कई बदलाव हुए । अब हॉलीवुड से प्रेरित, कई मुख्यधारा की फिल्में या तो बिना गीत की थीं या केवल दो या तीन गाने थे इसके झण्डाबरदार निर्माता-निर्देशक राम गोपाल वर्मा की 'स्कूल' से उभरने वाली कई फिल्में, जैसे कि 'कंपनी' (2002), 'एक हसीना थी' (2004) और 'अब तक छप्पन' (2004), के साथ ही साथ अन्य वैकल्पिक फिल्में जैसे 'भेजा फ्राई' (2007) थीं । ऐसा प्रतीत होता था कि सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के आर्थिक रूप से कमजोर दर्शकों को लुभाने की कोई जरूरत नहीं समझी गई  है, जिसे ये बालकनी टिकट 15 रुपये में खरीद कर देख सकें । ध्यान देने कि जरूरत है कि पूरे उत्तर भारत में लाखों प्रवासी मज़दूर, जिनकी फिल्मी संवेदनाएँ गीत, नाटक और एक्शन से बुनी जाती हैं का हिंदी सिनेमा ने नजरअंदाज किया । भोजपुरी सिनेमा के पुनरुद्धार का एक हिस्सा इन्हीं कारकों की प्रतिक्रिया थी । भोजपुरी का दर्शक, जहाँ कहीं भी है, वह फिल्मों में  लोकेशन के रूप में गावँ जवार और अपनी भोजपुरी आवाज़ चाहता है । इन दर्शकों को टोन्ड बॉडी और जीरो फिगर वाली हीरोइनें नहीं चाहिए बल्कि हीरोइन के रूप में उन्हें ''अपनी औरते'' चाहिए जो मांसल हो तथा जिनके उभार रंगीन चोलियों द्वारा उकेरे गए हों । भोजपुरी सिनेमा इस क्षेत्रीय संवेदनशीलता को पूरा करने के लिए वैकल्पिक सौंदर्यशास्त्र प्रदान करता है ।
वैश्वीकरण के इस समय में, समाज का हर भाग आकांक्षात्मक है । भले ही यह पुराने मूल्यों और मानदंडों को बनाए रखने की कोशिश कर रहा है परन्तु साथ ही यह इसके वैभव के आकर्षण से खुद को नहीं बचा पा रहा है । परिणामस्वरूप भोजपुरी सिनेमा ने बॉलीवुड की शैली का अपना संस्करण बना लिया है हालाँकि इन चीजों का वह आरम्भ में विरोध करता था । इसकी वजह से भोजपुरी सिनेमा ने ग्रामीण पारिवारिक नाटकों से परे जाने की इच्छा को खोल दिया है । जिससे क्षेत्रीय फिल्म की विशिष्ट पहचान धुंधली हो गई है । फिल्म 'जनम जनम के साथ' (2007) के शुरूआती शॉट में, नायक मनोज तिवारी को गिटार बजाते हुए दिखाया गया और पीछे की तरफ मुड़कर चोटी के साथ एक स्मार्ट टोपी पहने हुए दिखाया गया । यह एक क्षेत्रीय फिल्म में एक फैशन स्टेटमेंट के रूप में आकर्षक लग सकता है, लेकिन यह एक सामाजिक आकांक्षा की पुष्टि करता है । उपग्रह टेलीविजन और इंटरनेट ने मनोरंजन के हर पहलू को प्रभावित किया है और यह आशा करना अवास्तविक होगा कि भोजपुरी सिनेमा  इसका एक 'अजनबी द्वीप' बना रहेगा।
भोजपुरी सिनेमा की लोकप्रियता एक जटिल सवाल है क्योंकि भोजपुरी फिल्मों के दर्शकों में काफी बदलाव आया है ।  1960 और 1970 के दशक में, दर्शक काफी हद तक पूर्वी उत्तर प्रदेश और मध्य और पश्चिमी बिहार के लोगों तक ही सीमित थे ।  अब, पुरे बिहार और आधे यूपी  में फिल्में देखी जाती हैं यही कारण है कि हिंदी फिल्में जो कि एक समय पश्चिमी और मध्य बिहार तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिनेमा हॉलों पर राज करती थीं, अब उन्हें भोजपुरी फिल्मों के साथ प्रतियोगिता करना पड़ता है ।  'बंटी और बबली' (2005) जो  महानगरीय दिल्ली में एक बड़ी हिट थी, वहीं यह बिहार में दर्शकों के बीच जोश नहीं पैदा कर पाई जो कि मसाला फ़िल्म 'पंडितजी बटाईन ना बियाह कब होई', ने पैदा किया । स्टार और निर्माता आमिर खान की 'तारे ज़मीन पर' (2007), जो एक बच्चे की सीखने की विकलांगता पर बनी फिल्म थी, को लेकर बिहार में थिएटर मालिकों को दिलचस्पी नहीं दिखाई इसकी बजाय  प्रदर्शक भोजपुरी सितारों मनोज तिवारी और रवि किशन की फिल्मों की स्क्रीनिंग करना पसंद करते थे क्योंकि वे बॉक्स-ऑफिस पर बेहतर कमाई सुनिश्चित करती थीं ।
बिहार और उत्तर प्रदेश के प्रवासियों ने महाराष्ट्र और पंजाब में, और कुछ हद तक बंगाल, गुजरात और राजस्थान में भोजपुरी सिनेमा के लिये 'जगह' बनाया है । देश के भीतर का यह डायस्पोरा एक महत्वपूर्ण बाजार बन गया है । वितरकों और प्रदर्शकों का अनुमान है कि भोजपुरी फिल्म बाजार का लगभग तीस प्रतिशत बिहार और उत्तर प्रदेश के बाहर स्थित है ।  यह बाजार काफी हद तक प्रवासी पैसे से संचालित होता है । एक स्तर पर, प्रवासी दर्शकों के लिए, भोजपुरी फिल्में घर के बने भोजन के स्वाद के समकक्ष हैं । उनके लिए ये फ़िल्में याद, तड़प, साहचर्य और एकजुटता लाती हैं । कुछ घंटों के लिए ही सही सिनेमा हॉल घर से दूर उनका घर बन जाता है । गर्वीले नायक, धूर्त जमींदार या बाहुबली, अहंकारी पिता और कुटिल तथा कड़क ससुरजी ये सभी दर्शकों को आश्वस्त करते हैं कि उनकी दुनिया नहीं बदली है । लेकिन प्रवासी मजदूर भी बदलती दूसरी दुनिया के संपर्क में है । वह इस विस्तृत और अमीर दुनिया का भी एक टुकड़ा चाहतें  है, वह इसे फिल्मों में भी देखना चाहतें है जैसे 'निरहुवा चलल लंदन' परन्तु बॉलीवुड शैली में नहीं, जिसे वह पूरी तरह से अलग-थलग पातें है, बल्कि कुछ ऐसा जो उसे उसकी शर्तों पर दिया जाय । दूसरे शब्दों में, उसकी ज़रूरतें घर और दुनिया का मिश्रण हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह नाजुक मिश्रण का सही होना आसान नहीं है । शीर्ष भोजपुरी स्टार रवि किशन दर्शकों की बदलती जरूरतों के बारे में सजग हैं, और उसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि ''देहात अब देहात ना रहा ।'' किसान अभी भी खेतों के मालिक हैं लेकिन उनके पास मोबाइल फोन, इलेक्ट्रॉनिक उपकरण और डीवीडी भी हैं । काफी लोग समाचार पत्र पढ़ रहे हैं और उपग्रही टीवी देख रहे हैं । जागरूकता का स्तर बहुत अधिक है । पहले लोकप्रिय संगीत लंबे समय के बाद छोटे शहरों और गांवों तक पहुंचता था । आज के गांव के लड़के मुंबई के किशोर के समान संगीत पर नृत्य करते हैं।
भोजपुरी सिनेमा के नए लक्षित दर्शक कमउम्र युवा हैं । वे गाँव के खेतों को देखना चाहते हैं, गंगा माँ को और अपने पिता के पैर छूने वाले नायक कोलेकिन वे भरपूर मनोरंजन भी चाहते हैं । आज हीरो जींस पहन सकता है । लेकिन भोजपुरी का स्वाद प्रदान करने के लिए, कुर्ता पर एक गमछा रखता है और तिलक लगता है । नए दर्शक, विशेष रूप से प्रवासी हिस्सा, अब ऐसी फिल्में चाहते हैं जो न केवल उसके सौंदर्यशास्त्र और मनोरंजन के विचार के अनुकूल हों, बल्कि उनकी क्षेत्रीय पहचान को भी पुष्ट करें । मुंबई में भोजपुरी फिल्मों को वितरित करने वाले राजेश कुमार सिंह कहते हैं, "जनता अपनी भाषा में तमाशा चाहती है और अब वे इसे प्राप्त कर रही हैं ।" भोजपुरी सिनेमा का विकास यह भी दर्शाता है कि कैसे यह क्षेत्र सामाजिक रूप से विकसित हुआ है ।  मिसाल के तौर पर, रवि किशन से लेकर मनोज तिवारी तक की सबसे टॉप भोजपुरी फिल्म हीरो-सवर्ण हिंदू हैं।  लेकिन ऐसे समय में जब लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव बिहार और उत्तर प्रदेश के दो महत्वपूर्ण नेता हैं, जातिगत प्रभाव में परिवर्तन हुआ  है,  एक स्पष्ट मामला, निश्चित रूप से, दिनेश लाल  यादव 'निरहुआ', का उदय है । धीरे-धीरे लेकिन निश्चित रूप से, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलित  उपस्थिति को अब महसूस किया जा रहा है ।  बीरेंद्र पासवान, जिन्होंने एगो चुम्मा दे दा राजाजी के संवाद लिखे हैं, ऐसे ही लोगों में से एक हैं । दशकों में, यहां तक ​​कि सामग्री और प्रस्तुति में नाटकीय रूप से बदलाव आया है ।  कई शुरुआती भोजपुरी फिल्मों में, शहर को एक खतरनाक जगह के रूप में प्रस्तुत किया गया था, जहाँ गाँव के आदर्श, नैतिकता और मूल्य खो गए हैं । गांव अब भी आदर्श बना हुआ है, लेकिन नायक के लिए अब बड़े शहर दुनिया में बुरी जगह नहीं है । बल्कि, वह इसे जीतने के लिए उत्सुक है । समय के साथ, खलनायक का  रूप और शैली बदल गई हैं । जमींदार और साहूकार अब पसंदीदा बुरे लोग नहीं हैं इनका स्थान अब स्थानीय विधायक या राजनीतिक संरक्षण से युक्त बाहुबली ने ले लिया है।
हाल के वर्षों के सुपरहिट्स- 'ससुरा बड़ा पइसा वाला', 'पंडितजी बताई न बियाह कब होई' और 'निरहुआ रिक्शावाला' अपने शुरुआती ब्लॉकबस्टर से काफी अलग हैं । 'ससुरा बड़ा पइसावाला' पारिवारिक नाटक के साथ कॉमेडी का मिश्रण है । फिल्म में पारिवारिक मूल्यों की बात करते हुए यह सुनिश्चित किया गया है कि पाश्चात्य संस्कारों की नायिका को अंग्रेजी बोलने वाले नायक से टकराव हो जिसकी आत्मा भोजपुरी है ।  'पंडितजी बताई ना बियाह कब होई' में शोले के तत्व और एक ग्राफिक बलात्कार का दृश्य है । निरहुआ रिक्शावाला में, नायक उस लड़की को चूमता है जिसे वह प्यार करता है, जो भोजपुरी फिल्म के लिए क्रांतिकारी है । भोजपुरी फिल्मी गाने भी नाटकीय रूप से बदल गए हैं । 1960 का दशक माधुर्य लिए हुये था, लेकिन 1980 के दशक तक, ताल ने अपनी उपस्थिति महसूस कराई । 'ससुरा बड़ा पइसावाला' (2004) की मेगा सफलता के बाद, ताल  ने पूरी तरह से माधुर्य पर वर्चस्व कायम कर लिया है और हर फिल्म में कम से कम चार या पांच आइटम सोंग्स  हैं ।  निर्माता और निर्देशक व्यापक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए लगातार प्रयोग कर रहे हैं । उदाहरण के लिए, निर्देशक जावेद सैय्यद का कहना है कि 'एगो चुम्मा दे दा राजाजी' में, उन्होंने एक गैर-भोजपुरी गीत शामिल किया है जिसका शीर्षक झाडूवाली बाई तुझे हिरोइन बना दूंगा है । भोजपुरी फिल्मों में द्विअर्थी और अस्पष्ट गीतों की एक महामारी फैल चुकी है जहां गीतकार अपनी कल्पनाशीलता  को अक्सर महिला शरीर रचना के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रखतें हैं । अभिनेत्रियों को कपड़े  और आइटम लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले ब्लाउज अक्सर रूमाल से छोटे होते हैं ।  निस्संदेह, उत्तेजक दृश्यों  और अश्लील  गीतों के साथ नृत्य भंगिमावों ने भोजपुरी फिल्मों की छवि पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, हालांकि, दिलचस्प बात यह है कि, भोजपुरी फिल्मों में बहुत कम सेक्स है ।  लव-मेकिंग दृश्य लगभग अनुपस्थित हैं क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि दर्शक विज़ुअल सेक्स देखने के बारे में असहज महसूस करते हैं । वे स्पष्ट रूप से ऑडियो ट्रैक्स को स्वीकार कर रहे हैं क्योंकि होली जैसे त्योहारों और शादियों के दौरान इस तरह  के लोक गीत पारंपरिक रूप से इन भागों में गाये जाते हैं । भोजपुरी फिल्मों की नायिकाएँ इस  युग में कहीं अधिक शहरी हो गई हैं । अक्सर, उन्हें शहर में रहने वाली लड़कियों के रूप में चित्रित किया जाता है जो पश्चिमी कपड़े पहनती हैं । 'ससुरा बड़ा पैसावाला', 'दरोगा बाबू आई लव यू' और 'निरहुआ रिक्शावाला' जैसी हिट की नायिकाएं इस स्टीरियोटाइप का प्रतिनिधित्व करती हैं । दरोगा बाबू में नायिका रिंकू घोष एक तंग टी-शर्ट और तंग पतलून में शुरुआती शॉट में दिखाई देती है । नायिका आंगन और गन्ने के खेतों तक ही सीमित नहीं है - 'पंडित' में, नायिका नगमा एक पत्रकार की भूमिका निभाती है । जैसा कि शीर्षक से पता चलता है, 'सास रानी बहू नौकरानी' (2007), घर  की राजनीति के बारे में है जिसमें एक सास और बहू शामिल हैं, लेकिन अतीत के विपरीत, नायिका कमजोर होने से इनकार करती है ।  1960 की दशक की नायिका अब नियम के बजाय स्पष्ट रूप से अपवाद है ।
लेकिन यह सिक्के का एक पहलू है ।  1960 के दशक में, कुमकुम जैसी नायिकाएं बॉक्स-ऑफिस की स्टार थीं । उनके चरित्र के इर्द-गिर्द कहानियां लिखी गईं । 1980 के दशक में भी, पद्मा खन्ना और गौरी खुराना जैसी नायिकाएँ अपने आप में स्टार थीं । लेकिन समय बीतने के साथ, स्टारडम ने भोजपुरी फिल्मों में एक जेंडर कोण हासिल कर लिया है । अब यहाँ  पुरुष सितारे हैं - निरहुआ, किशन, तिवारी- जो स्क्रिप्ट के साथ-साथ कीमत के मामले में भी  कमान संभालते हैं । पटकथा उनके व्यक्तित्व के अनुरूप लिखी जाती है । लेन देन के इस सांस्कृतिक परिदृश्य में, परंपरावादी विलाप करते हैं कि नई शैली ने अपनी आत्मा खो दी है और इस तथ्य पर शोक व्यक्त करतें हैं कि क्षेत्रीय स्वाद मर रहा है । 'दगाबाज़ बलमा' (1988) के साथ भोजपुरी फिल्मों की पहली महिला निर्देशक बनी आरती भट्टाचार्य का कहना है कि निर्माता उनकी फिल्मों में दो या तीन उत्तेजक आइटम नंबर मांगते हैं ।  वे कहती हैं, लोग कहते कि ''जब हम एक हिंदी फिल्म देखते हैं, तो वह एक हॉलीवुड फिल्म की तरह लगती है । जब हम किसी भोजपुरी फिल्म के लिए जाते हैं, तो यह हिंदी फिल्म देखने जैसा है ।  हमारी फिल्म कहाँ है? भट्टाचार्य कहती  हैं, ''पूर्वी उत्तर प्रदेश की यात्रा के दौरान, गाँव के युवा लड़कों ने हमें बताया कि पारिवारिक शादियों में वे डीवीडी पर पुरानी भोजपुरी फ़िल्में ही दिखाते हैं क्योंकि वे एकमात्र ऐसी फ़िल्में हैं जिन्हें पूरी तरह से देखा जा सकता है । 1980 के दशक के पारिवारिक सुपरहिट अब भी दुबारा रिलीज़ के दौरान अच्छा कारोबार करते हैं । नैहर की चुनरी नवंबर 2002 में फिर से रिलीज़ हुई थी । पूरा हॉल महिलाओं से भरा था । आलोचकों ने कई नई फिल्मों में 'भोजपुरियत' की अनुपस्थिति का भी उल्लेख किया है । जानेमाने बॉलीवुड निर्माता इंदर कुमार और अशोक ठाकेरिया द्वारा बनाई गई फिल्म 'सब गोलमाल हा' (2007) की समीक्षा करते हुए, फिल्म समीक्षक डॉ शंकर प्रसाद ने हिंदुस्तान में लिखा कि इन फिल्मों में भोजपुरी धरती की एक भी  झलक नहीं है । भीड़, सीटी और झगड़े थे लेकिन कहीं भी भोजपुरी नहीं थी । '
यह भी एक दृढ़ता से आयोजित विचार है कि भोजपुरी बोलने वाले भी भोजपुरी फिल्में नहीं देखते हैं ।  उन्हें  लगता है कि भोजपुरी फिल्में देखना पिछड़ेपन की निशानी है । हीरो कुणाल सिंह ने 25 नवंबर1993 को हिंदूस्तान में प्रकाशित एक साक्षात्कार में कहा था, भोजपुरी फिल्मों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि भोजपुरी का अभिजात वर्ग और आधुनिक परिवार अपने घरों में भोजपुरी में बातचीत करते हैं, मगर उनका मानना है कि सिनेमा घरों में जाकर भोजपुरी  फिल्म देखना उनके गौरव के विपरीत है जबकि सच यह है कि 70 और 80 के दशक में भी अभिजात वर्ग भोजपुरी सिनेमा को बड़े पैमाने पर देखता रहा
लोग अपने अंदर की ओर झांकने और कठिन सवाल पूछने के लिए तैयार नहीं हैं, क्या भोजपुरी भाषी निर्माताओं द्वारा बनाई जा रही फिल्में इससे बेहतर नहीं हो सकतीं भोजपुरी फिल्में लोरिकायन जैसे लोकप्रिय क्षेत्रीय लोक कथाओं पर क्यों नहीं बनाई जा सकती हैं और विजय मल, शोभनायक बंजारा, सोरठी ब्रिजभार, सती बिहुला, राजा भरथरी और गोपीचंद पर भी । यहां तक ​​कि जगदीशपुर के जमींदार बाबू कुंवर सिंह का जीवन भी, जिन्होंने 1857 के विद्रोह के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी, एक भोजपुरी फिल्म के लिए एक दिलचस्प विषय होगा मांग में यह भी बताया गाया है कि विभिन्न प्रकार के लोक गीतों जैसे कि सोहर, खलवना, बारहमासा, चैती, कजरी, फगुआ और विवाह के दौरान गाए जाने वाले गीतों का इस्तेमाल फिल्मों में कैसे किया जा सकता बिहार और उत्तर प्रदेश साहित्य के भंडार हैं । फणीश्वर नाथ रेणु’, भिखारी ठाकुर और नागार्जुन जैसे कवियों और लेखकों ने महान साहित्य का निर्माण किया है । हम उनके कार्यों को क्यों नहीं अपना सकते हैं और बेहतर भोजपुरी फिल्में क्यूँ नहीं बना सकते हैं? एक नव-यथार्थवादी फिल्म के बारे में हम क्यूँ नहीं सोच सकते जो इक्कीसवीं सदी के प्रवासी अनुभव को कैप्चर करता है? या बिहार के कई भोजपुरी भाषी जिलों को प्रभावित करने वाली नक्सल समस्या? परन्तु निर्माता और फाइनेंसर मसाला फिल्में चाहते हैं क्योंकि सिंगल स्क्रीन सिनेमाघरों के मुख्य दर्शक यही चाहते हैं । व्यापक दर्शकों को आकर्षित करने के लिए एक अलग सिनेमा बनाने के लिए, पहले बेहतर बुनियादी ढांचे की आवश्यकता होती है । यह इसमें यह साबित कर दिया की जिम्मेदारी के साथ समाज के सन्दर्भों के अनुकूल सिनेमा की शैली और सामग्री को मौलिक रूप से बदल सकता है । ऐसा फिलहाल नहीं लग रहा है, लेकिन उम्मीद तो रहती ही है  जिसको पूरा करने का प्रयास जारी है, अभय सिन्हा और टी पी अग्रवाल निर्मित 'रणभूमि' जैसे सोद्देश्य फ़िल्म को रखा जा सकता है, उन्होंने भोजपुरी में नक्सलवाद जैसी गंभीर सामाजिक समस्या पर पहली बार भोजपुरी में फ़िल्म बनाने का साहस किया निरहुवा ने  यह साबित कर दिया कि वह बहुरंगी आयाम वाला समर्थ अभिनेता है इसी प्रकार सन 1996 में किरण कान्त वर्मा निर्देशित 'हक के लड़ाई' फ़िल्म बनी जिसका यह टाइटल पटकथा-संवाद लेखक आलोक रंजन ने सन  1990 के बाद उभरी ग्रामीण और शहरी छात्र राजनीति को केंद्र में रख कर रखा था
भूमण्डलीय तालमेल ने आज यह माहौल जरुर बनाया है कि भोजपुरी सिनेमा की चर्चा राष्ट्रीय -अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होने लगी है कई भारतीय भाषाओं में प्रकाशित मान्य पत्रिका 'संडे इंडियन' द्वारा भोजपुरी पर भी प्रकाशन शुरू हुआ किशन खदरिया द्वारा प्रकाशित भोजपुरी सिनेमा की पहली ट्रेड पत्रिका 'भोजपुरी सिटी' कुछ वर्षो से लगातार सक्रिय है पी के तिवारी के संचालन में चल रहा पहला भोजपुरी चैनल महुवा भी सफल है मुंबई यूनिवर्सिटी की छात्रा सुभद्रा ने भोजपुरी म्यूजिक इंडस्ट्री के विकास पर रिसर्च पेपर तैयार किया है और यह असाइंमेंट उन्हें न्यूयार्क विश्वविद्यालय के मीडिया एंड कल्चर स्टडीज डिपार्टमेंट की तरफ से मिला है अमेरिका की श्रीमती कैथरीन सी हार्डी ने फिलाडेल्फिया यूनिवर्सिटी द्वारा डाक्टरेट की उपाधि के लिए भोजपुरी सिनेमा पर अपना शोध संपादन पूरा किया है भोजपुरी सिनेमा की इन जगमगाती रोशनियों ने अपनी उपयोगिता को बनाये रखा है इसने भोजपुरी की आत्मा को  विकसित किया है, सपनों को आकार दिया है, और राष्ट्रनिर्माण के लिए कर्तव्य का बोध कराया है



सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
गुरुचरण दास - उन्मुक्त भारत
सुनील खिलनानी -भारत नामा
अभय कुमार दुबे - भारत का भूमण्डलीकरण
अभिजीत घोष - भोजपुरी सिनेमा
रविराज पटेल - भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा
अंशु त्रिपाठी - भोजपुरी सिनेमा का सफ़र
मनोज भावुक - भोजपुरी सिनेमा की विकास यात्रा  


History of Urdu Literature

  ·        Controversy regarding origin Scholars have opposing views regarding the origin of Urdu language. Dr. Mahmood Sherani does not a...