गुरुवार, 31 दिसंबर 2015

समझदारों का गीत/ गोरख पाण्डेय



समझदारों का गीत

हवा का रुख कैसा है,हम समझते हैं
हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं,हम समझते हैं
हम समझते हैं ख़ून का मतलब
पैसे की कीमत हम समझते हैं
क्या है पक्ष में विपक्ष में क्या है,हम समझते हैं
हम इतना समझते हैं
कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं।

चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं
बोलते हैं तो सोच-समझकर बोलते हैं हम
हम बोलने की आजादी का
मतलब समझते हैं
टुटपुंजिया नौकरी के लिये
आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं
मगर हम क्या कर सकते हैं
अगर बेरोज़गारी अन्याय से
तेज़ दर से बढ़ रही है
हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के
ख़तरे समझते हैं
हम ख़तरों से बाल-बाल बच जाते हैं
हम समझते हैं
हम क्योंबच जाते हैं,यह भी हम समझते हैं।

हम ईश्वर से दुखी रहते हैं अगर वह
सिर्फ़ कल्पना नहीं है
हम सरकार से दुखी रहते हैं
कि समझती क्यों नहीं
हम जनता से दुखी रहते हैं
कि भेड़ियाधसान होती है।

हम सारी दुनिया के दुख से दुखी रहते हैं
हम समझते हैं
मगर हम कितना दुखी रहते हैं यह भी
हम समझते हैं
यहां विरोध ही बाजिब क़दम है
हम समझते हैं
हम क़दम-क़दम पर समझौते करते हैं
हम समझते हैं
हम समझौते के लिये तर्क गढ़ते हैं
हर तर्क गोल-मटोल भाषा में
पेश करते हैं,हम समझते हैं
हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी
समझते हैं।

वैसे हम अपने को किसी से कम
नहीं समझते हैं
हर स्याह को सफे़द और
सफ़ेद को स्याह कर सकते हैं
हम चाय की प्यालियों में
तूफ़ान खड़ा कर सकते हैं
करने को तो हम क्रांति भी कर सकते हैं
अगर सरकार कमज़ोर हो
और जनता समझदार
लेकिन हम समझते हैं
कि हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हम क्यों कुछ नहीं कर सकते हैं
यह भी हम समझते हैं।

गोरख पाण्डे

शुक्रवार, 25 दिसंबर 2015

पवित्र

संसार में आंसुओं से पवित्र कुछ भी नहीं है क्योंकि यही सबसे बेहतरीन पुस्तक है यही सर्वश्रेष्ठ आइना है जो हमारा और हमारी दुनिया का सच बताता है।

बुधवार, 23 दिसंबर 2015

सजा और समाज

ईसा के साथ विश्वासघात जूडस के बचपन में हुआ था। आवारा के जग्गा पर छुरा राज के बचपन में चला था। औरतों से जब भी बात करो एक हाथ में डंडा लेकर बात करो यह बात नीत्से के बचपन ने कही है। हां वही बचपन जिसे बड़ा करने में हमारा पूरा समाज लगता है। वही समाज जहाँ कुछ तंदूरी मुर्गिया भी बनाई जाती हैं जो अल्कोहल से गटक लेने का निमंत्रण देतीं हैं। वह कौन सी फैक्ट्री है जहाँ से ऐसे हैवान पैदा होते हैं। समाधान वहीँ से निकलेगा। लेकिन बस नाम तो लीजिये आप सबसे पिछड़े मानसिकता के घोषित कर दिए जायेंगे। स्थाई समाधान समस्या की जड़ पर ध्यान देना है न की सिर्फ उसके कुछ लक्षण को ख़त्म कर देने पर।

मंगलवार, 17 नवंबर 2015

हँसता जीवन

कोमल तन-मन के भीतर
हँसता जीवन देखा मैंने।
नन्हे हाथो-पाँवो की लय गति में
अपना खोया बचपन देखा मैंने।
शैलों पर उगते सूरज की
प्रथम रश्मि को आगे बढ़ते देखा मैंने।
ममता में खोये बचपन को,
अहसासों में घुलते देखा मैंने।
स्वप्नदर्शिनी बचपन को कर्मज्योति के नयनो से,
स्नेह बरसते देखा मैंने।
खुशियों में खिलते नीलकमल को
प्रेम सिंधु में बहते देखा मैंने।
हृदय गह्वर के कोने में,
छिपी हुई लहरों को देखा मैंने।
मानवता को पालने में सोये,
उज्जवल दीप चमकते देखा मैंने।
श्रीप्रकाश पाण्डेय 17nov.2015

रविवार, 1 नवंबर 2015

नन्ही परी

रेशम पट से लिपट-लिपट कर,
उन बाहों में झूल-झूल कर,
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
उस आंगन में घूम-घूम कर,
दहलीज की मिट्टी चूम चूम कर,
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
मासूम सवालों को पूछ पूछ कर,
अक्षर शब्दों को सीख सीख कर,
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
लोरी गीत पर झूम झूम कर,
हर कथा-कहानी को टोक-टोक कर,
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
चाभी वाली गाड़ी ऐंठ-ऐंठ कर,
बरसात में भीग भीग कर,
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
हर गली मोहल्ले में खो खो कर,
पिछले दरवाजे धीरे से आ-आ कर,
तू भी इसी मोड़ पर आ जाना।
स्कूल से चौराहा तक जा जा कर,
सजी दुकाने देख-देख कर,
तू भी इसी मोड़ पर आ जाना।
हर दरवाजे पर दीप जला जला कर,
उजियारा राहो में फैला फैलाकर,
तुम भी इसी राह पर आ जाना।
सब के आंसु पोंछ-पोंछ कर,
हर खुशियों को बांट बांट कर,
तुम भी इसी राह पर आ जाना।
और हां सारा बचपन मत छोड़-छोड़कर आना।
छोटी-छोटी जेबो में कुछ चुरा चुरा कर लाना।
कुछ रातो में नींद छोड़ छोड़ कर जाना।
बड़ा जरुरी है उन जेबो का आ कर जाना।
तुम भी इसी मोड़ पर आ जाना।
--श्रीप्रकाश पान्डेय 30oct 2015

मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

हमारे आर्थिक इतिहास का भ्रमित वर्तमान



हाल के महीनो में साइबर स्पेस और संसद में दो अलग अलग महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुऐ जो एक तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पहला है ऑक्सफोर्ड यूनियन में कांग्रेस सांसद शशि थरूर का भाषण जो सोशल साइट्स पर वायरल हुआ और दूसरा है भूमि अधिग्रहण विधेयक का संसद में लगातार विरोध फिर चुनावी चुप्पी, और राष्ट्र द्वारा उसका देखा जाना। पहला हमारा इतिहास है और दूसरा हमारे इस इतिहास का भ्रमित वर्तमान।

सांसद शशि थरूर का तर्क न तो नया है और न ही भावुक। भारतीय इतिहासकारों के साथ ही पाल बरुच और एंगस मैडिसन जैसे गैर भारतीय आर्थिक इतिहासकारों ने भी इस स्टीरियोटाइप को ध्वस्त कर दिया था कि भारत सदैव से गरीब रहा और यूरोप धनी रहा। जब अंग्रेज भारत आये तब विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत का अंश 23 प्रतिशत था जो उनके जाने के समय 4 प्रतिशत रह गया। प्रश्न यह है की इस तर्क और तथ्य का का क्या अर्थ है वह भी तब जब इतिहास के एक विद्यार्थी रह चुके इलेक्ट्रानिक मिडिया के जाने माने पत्रकार यह लिखें कि इतिहास का गौरवगान मध्यमवर्गीय ऐय्यासी है।

जब भी हम इतिहास की बात करतें हैं इससे हमारा तात्पर्य हमारे उस अतीत से होता है जिसका वर्तमान में महत्व हो और उससे भी जिसका अभाव दिमागी खालीपन पैदा करता है। हमारा वर्तमान हमारे इतिहास से अलग नहीं हो सकता। इसका स्वरुप इस बात से निर्धारित होता है कि हम अपने इतिहास को किस रूप में लेतें हैं। थरूर के आकड़ों के पीछे की महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटिश राज के आरम्भ के समय दुनिया के तमाम तैयार मालों के लगभग चौथाई भाग की आपूर्ति भारत करता था जो निर्यात का प्रमुख घटक था। स्वाभाविक रूप से भारत की कार्यकारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र में लगा था। परन्तु साम्राज्यवादजनित विऔद्योगिकरण के कारण अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्रों पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या गिरी। अकेले बुनकरों की संख्या 62 प्रतिशत से गिर कर 15 प्रतिशत तक जा पहुंची। यहाँ से विस्थापित जनसँख्या प्राथमिक क्षेत्र , कृषि अर्थव्यवस्था पर बोझ बनी और उसे भी तबाह किया।

भारत के लगभग साथ ही मुक्त हुआ चीन एक बर्बाद अर्थव्यवस्था था। तमाम थपेड़े सहने के बाद भी चीन विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने के पूर्व तक लगभग भारत के साथ ही चलता रहा। लेकिन 70 के दशक में जहाँ चीन ने यथार्थवादी दृष्टि अपनाई वहीँ भारत ने सिर्फ भावुक नारे का प्रयोग किया। जहाँ चीन आगे निकलता गया वहीँ भारत पिछड़ता गया। 90 के दशक के सुधारो ने पुनः भारत को पटरी पर लाया लेकिन समय घाटे के साथ।

वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई भी नामकरण असंगत होगा। जनसँख्या की दृष्टि से यह कृषि अर्थव्यवस्था है जबकि उत्पादन की दृष्टि से यह सेवा अर्थव्यवस्था है। कार्यकारी जनसँख्या के 49 प्रतिशत लोग प्राथमिक क्षेत्र में हैं , जिनका योगदान मात्र 18.7 प्रतिशत है, द्वितीयक क्षेत्र में 20 प्रतिशत लोग हैं जो 31.7 प्रतिशत का योग कर रहें हैं  जबकि तृतीयक क्षेत्र में 31प्रतिशत लोग लगे हैं , जो अर्थव्यवस्था में 49.6 प्रतिशत का योगदान दे रहें हैं।

हम भारत के लोग ऐतिहासिक और खुद की कमियों के कारण अक्सर चूक जाने के लिए कुख्यात रहें हैं। इतिहास गवाह है कि हम निहायत जरूरत के समय भी एकता प्रदर्शित नहीं कर पाये। ऐतिहासिक कारणों से  हम तकनिकी, कृषि , औद्योगिक क्रांतियों में चूक गए। वर्तमान बौद्धिक क्रांति का युग है इसका उत्पाद सेवा क्षेत्र है और सेवा क्षेत्र का आधार उद्योग और आधारसंरचना क्षेत्र है। भारत के पास जनसांख्यिकी लाभांश भी मौजूद है। फिर भी हम अपनी भावुकता और राजनीतिक आग्रहों के कारण चूक सकतें हैं।

भारत जैसे जनसँख्या घनत्व वाले देश में कृषि क्षेत्र में जनसँख्या का बोझ इसको अल्पविकास से निकलने नहीं देगा। जरुरत है कि यहाँ की अतिरिक्त जनसँख्या को अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में स्थानांतरित होने की परिस्थितियां पैदा की जाये। भारत के द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र में जहाँ अभी असीम संभावनाएं है वहीँ कृषि क्षेत्र में जनसँख्या बोझ की अनुपस्थिति सुधारों का बेहतर परिणाम देगी। यह तभी संभव होगा जब हम उद्योगों और सेवा क्षेत्रों के लिए जरुरी जमीनों को किसानों को विश्वास में लेकर प्राप्त करें। अगर हम कृषि की उतनी जमींन लेतें हैं जिसमें दस लोगों को आजीविका चलती है तो हम उसी जमीन में उद्योग और सेवा क्षेत्र में सौ या हज़ार लोगों की आजीविका पैदा कर सकतें हैं। जिससे प्रति व्यक्ति कृषि भूमि भी बेहत्तर होगी। जरुरत इस बात की भी है की हम अंग्रेजो के समय के उन कानूनों को बदले जिनका उपयोग अंग्रेजो ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिये किया।

हाल में आई थॉमस पिकेटी की किताब "21वीं सदी में पूंजी" की कुछ बातें यहाँ गौर करने लायक है। पहली बात की वर्तमान दौर में पूंजीवाद जितनी बड़ी सच्चाई है उतनी ही बड़ी सच्चाई इससे उत्पन्न पूंजी का संकेन्द्रण और सामाजिक विषमता है। दूसरी जो इससे भी महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि जहाँ कमजोर और पिछड़ी अर्थव्यवस्थायें अपने ही लोगों का शोषण कर रही हैं और विषमता पैदा कर रहीं हैं वहीँ मजबूत और विकसित अर्थव्यवस्थायें अपने से कमजोर अर्थव्यवस्थाओं के साथ ऐसा कर रहीं हैं। यह असमानता बेहद घातक सिद्ध होगी। यथार्थ यही है कि या तो हम मजबूत बने या अपने ही लोगों का शोषण करें और फिर उन पर आंसू बहायें।

निष्कर्ष यह है कि अंग्रेजो ने अपने लाभ के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को द्वितीयक क्षेत्र से प्राथमिक क्षेत्र में धकेल दिया। और हम अब भी भारत एक कृषि प्रधान देश है का रट लगाये हुए हैं। किसानो के हित के नाम पर भूमि अधिग्रहण का विरोध राजनीतिक पाखंड है। कृषि में लगी जनसँख्या हमारे लिए एक बड़ा वोट बैंक है अतः हम उसे यथास्थितिवाद का मीठा जहर दे रहें हैं। हम भले ही कृषि में ज्यादा निवेश करे, सुधार करे या सब्सिडी दें परंतु यह तब तक बेहतर नहीं हो सकती जब तक हम कृषि क्षेत्र से अतिरिक्त जनसँख्या को अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रो में स्थानांतरित न करें। इसके साथ ही ऐसे औपनिवेशिक कानूनों में ढ़ील की  भी जरुरत है जो इसके लिए उचित माहौल पैदा करें। ऐसा न कर के हम न केवल किसानो का अहित कर रहें हैं बल्कि उस जनसांख्यिकी लाभांश से भी अपने को वंचित कर रहें हैं जो सेवा और औद्योगिक क्षेत्र में क्रांति ला सकता है। कृषि जमीनों के प्रति लोकलुभावन राजनीति और भावुकता हमें अल्पविकसित और श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं की मात्र सहायक बनाये रखेगी।

मंगलवार, 19 मई 2015

संसार चलता रहे इसके लिए दैहिक प्रेम जरुरी है लेकिन यह शांति पूर्वक चलता रहे इसके लिये आध्यात्मिक प्रेम जरुरी है।
.............................रीडिंग ....प्रेम की समझ
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बर्बादी का ग्लैमराइज़ेशन तो फिल्मो और साहित्य में होता था। कमाल है राजनीती और मिडिया की युगलबंदी की जिसने इससे भी आगे बर्बादी से उपजे दर्द का भी बाज़ारीकरण कर दिया। दर्द भी अब बेइंतहां मुनाफे वाला उत्पाद है। हम सब लूटते हुए विवश खरीददार हैं। तय एजेंडे पर बाजार में मिलेजुले विक्रेताओं का एकाधिकारी वर्चश्व है।
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