बुधवार, 19 जनवरी 2022

चुनावी विमर्श की नई परिभाषाएं रचती सत्ता


“जब हमें सबसे ज्यादा जरुरत है तब हमारी स्मृति से उस "धोखे" उस "बेईमानी" को हमसे छीन लिया गया जिसे स्वयं राज्य और सत्ता ने हमारे साथ किया. सरकार किसी की भी बने ये धोखे जारी रहेंगे.”

सत्ता हमारे समय के विमर्श को नए सिरे से परिभाषित कर रही है। एक विशिष्ट प्रक्रिया तथा अनुभव ने हमारी सामाजिक कल्पना के हर रूप का अभूतपूर्व सीमा विस्तारण तथा सघनीकरण किया है जहाँ स्थानीयताओं के दायरे में होने वाले विमर्शों की शक्ल-सूरत उनसे बहुत दूर चल रहे विमर्श से बन रही है। धारणाओं, प्रवृतियों, सक्रियता के तरीकों, आस्थाओं और आचरणों से मिल कर बने विमर्श के जिस रूप को सत्ता रच रही है उसने न सिर्फ आत्मपरकताओं बल्कि विभिन्न सामाजिक संसारों को अपने हित में उद्देश्यपूर्ण आवाज़ दिया है। साथ ही इसने जीवन के हर कोने तथा अस्तित्व के हर रूप को अपनी कहानियों से भर दिया है। विमर्श का पक्ष-विपक्ष तथा उसका क्षेत्र भी, सचेत सत्ता के इस अदृश्य और अचेतन दायरे से मुक्त नहीं है।

चुनावी विमर्श की सामाजिक जगह ''जटिलताओं की सामान्य स्थिति'' में रहने को अभिशप्त है, जहाँ पर “सच” अपनी “नवीनता का समारोह मनाता” उद्देश्यपूर्ण शब्दों और छवियों की बाज़ीगरी है। सभी प्रकार के विमर्श की रचना और खोज सत्ता और प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। टेलीविजन और अब स्मार्ट फोन को विमर्श की जगहें हैं। सत्ता की सेवा में डटा हुआ टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास ला रहा  है यह विमर्शो के बारे ठीक ढंग से सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला रहा है। अब हमारा सच परदे और मोबाइल स्क्रीन पर रचे गए यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह की चिन्ता, असंतोष और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला सोशल मीडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है। सामाजिक कलह को बोने और जनमत को आकार देने के लिए सोशल मीडिया एक राजनीतिक युद्ध का मैदान बन गया है।

दुनिया के स्वरुप की निर्धारक तथा राजनीति का केंद्र होने के कारण “सत्ता” ने “विमर्श का विजयी नायक” स्वयं को रखा है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को मनोरंजक बिखरावों में ढूढ़ लिया है। जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है। अपने एजेंडे की कार्यसूची को विमर्श में सेट करने में सफल सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं। और हम लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहें हैं। एक ओर रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ‘वस्तुनिष्ठ वास्तविकता’ है। वहीं दूसरी तरफ राष्ट्र, धर्म, जाति, भगवान, प्रौद्योगिकी जैसी ‘कल्पित वास्तविकता’ है। समय गुजरने के साथ ‘कल्पित वास्तविकता’ शक्तिशाली हो कर अब ‘कल्पित सत्ता’ है। हमारा ‘वस्तुनिष्ठ जीवन’ इसी ‘कल्पित सत्ता’ के रहमों करम पर निर्भर है। जिसकी कहानियों का हर स्वरूप एक ‘उद्देश्य’ रचता है। वह उससे हमें सहमत करना चाहता है तथा हितैषी होने का एहसास कराता है। ‘रचयिता’ पक्ष और उसका अधिवक्ता दोनों है। लोककहानियाँ अब कल्पनायें हैं जबकि हम सत्ता रचित ‘महाआख्यान’ की अच्छी बुरी परछाइयाँ हैं। अब एक बार का झूठ हमेशा के लिए सच है। लोगों को एकजुट करने वाली ‘झूठी कहानियों’ को ‘सच’ पर स्वाभाविक वर्चस्व प्राप्त है। इन सफल कहानियों का अन्त खुला है इसलिये यह जवाब नहीं हैं जीवन कहानी नहीं है अलबत्ता सफल कहानियाँ नियंत्रण हैं। हमारी रचनाएं न केवल हमें रच रहीं हैं बल्कि हमारी जगह से हमें विस्थापित भी कर रही हैं।

हालाँकि "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके आख्यान सोशल और नई मीडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर के लिए एक गुमनामी का भय रच सकता है। अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने वाली है परन्तु छवियों और आवाजों के इस एचडी दौर में पराजय का वैभव भी सिद्ध बहुरूपिए सत्ता के नाम ही है ।

सही और गलत का निर्णायक तथा उसको पहचानने की क्षमता के लिए सराहे जाने वाले विवेक का स्थान कट्टरता ले रही है, वह केवल आज्ञापालक चाहती है। सत्ता की कामना को निष्ठा और श्रद्धा चाहिए, वह आलोचनामूलक विवेक और उत्तरदायित्व को भी घातक यत्न कह कर हटा रही है। वह जनता को दासत्वपूर्ण आज्ञापालन का सुख प्रदान करना चाहती है तथा उनसे स्वतंत्रता तथा विवेक यह कह कर छीन लेना चाहती है कि यह एक बोझ है। वह उसके त्याग और कष्ट को प्रभावशाली कहानियों में बदल रही है। दरअसल हम एक ‘सच से परे’ की दुनिया में रह रहें हैं जहां हम अभी विकास और अन्याय को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं। हम उस स्पष्ट सीमा को भी नहीं पहचान सकतें हैं जो वास्तविकता को कहानी से अलग करती है। किसी बदलाव के पहल की अपेक्षा, वर्तमान राजनीतिक परिवेश उदारवाद और लोकतंत्र के बारे में किसी भी चिंता को तानाशाही और अनुदारवादी आंदोलनों द्वारा अपहरण कर रहा है, जिसका भुगतान सिर्फ यह नहीं है कि उदारवादी लोकतंत्र मरीचिका बन रहा है बल्कि यह नागरिक को उसके भविष्य के बारे में एक खुली चर्चा में संलग्न होने के अवसर को खत्म कर उत्तेजनायुक्त गैरजरूरी बहसों की तरफ मोड़ कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध का भान पैदा कर रहा है।

 


बुधवार, 12 जनवरी 2022

शोध आलेख - भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास और उसका सामाजिक प्रभाव

प्लेगरिज्म से बचने के लिए सन्दर्भ दें - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास और उसका सामाजिक प्रभाव.” राधाकमल मुकर्जी : चिंतन परंपरा जुलाई-दिसंबर .वर्ष 23 अंक 2 (2021): 133–139. Print.

सार

वर्ष 1991 भारतीय अर्थव्यवस्था का प्रस्थान बिंदु है क्योंकि यहीं से भारत में आर्थिक सुधारों का नया दौर आरम्भ हुआ जिसे आर्थिक क्रांति कहा गया जो कुछ समीक्षकों की राय में जवाहरलाल नेहरू द्वारा की गई 1947 की राजनीतिक क्रांति की अपेक्षा ज्यादा महत्त्व रखती है। यह आर्थिक संकट का दौर था जब अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी द्वारा निर्देशित ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम अपनाने का निर्णय लिया गया, जिसका मतलब था लोकहितकारी राज्य की संरचना को बदलकर आयात प्रतिस्थापक की जगह निर्यातोन्मुख विकास-नीति पर आधारित बाज़ारोन्मुख नीतियाँ अपनाना, बड़े पैमाने पर निजीकरण का कार्यक्रम चलाना, विदेशी पूँजी को प्रोत्साहन देने वाली नीतियाँ बनाना, लाइसेंस-परमिट राज को ख़त्म कर वाणिज्य और उद्योगनीति में भारी बदलाव करना। इन परिणामी सुधारों से अर्थव्यवस्था के विविध संकट टल गए। सम्प्रति भारत विश्व की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का गर्व देता है हालाँकि असमानता जनित गरीबी अभी भी भारी चिंता का विषय बना हुआ है तथा भुस्थानिक संकटों के भिन्न प्रारूप संरक्षणवाद को प्रेरित कर रहे हैं

बीज शब्द

भूमण्डलीकरण, अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, भारत, आर्थिक इतिहास, असमानता

पृष्ठभूमि : राज्य के लौह सिकंजे में खुलेपन का मिमियाना

उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में, जिसे कभी वैश्वीकरण का पहला चरण कहा गया था, भारतीय अर्थव्यवस्था महज़ एक से डेढ़ प्रतिशत के दर से ही आगे बढ़ी थी। इसमें मुख्य योगदान चाय, जूट और सूती कपडे के निर्यात का था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद के दौर में जब दुनिया भयानक वैश्विक मंदी से जूझ रही थी आबादी में बेतहाशा वृद्धि हुई, प्रति व्यक्ति आय में भारी गिरावट आई और भारत को भयानक गरीबी वाले देश के रूप में कुख्याति मिली। इस बदतर हालात को देखकर नेहरू जैसे राष्ट्रवादी नेताओं ने इसके लिए उस व्याख्या को जोर शोर से स्वीकार किया तथा प्रचारित किया जिसकी सबसे पहले कांग्रेस के पितृपुरुषों में से एक दादा भाई नौरोजी ने स्थापना की थी।[1] आज़ादी के बाद भी राष्ट्रीय नेतृत्व पर स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान औपनिवेशिक अर्थतंत्र की मीमांसा से उपजे इस धन की निकासी के सिद्धांत का प्रभाव जारी रहा नेहरू का मानना था की अंतर्राष्ट्रीय व्यापार आर्थिक साम्राज्यवाद का भंवर है।[2] नियंत्रणों में जकड़े, अंतर्मुखी और ठहराव में फंसते भारतीय अर्थतंत्र को सुधारों की जरूरत काफी समय से थी साठ के दशक की शुरुआत में ही मनमोहन सिंह ने तर्क पेश किया था कि निर्यात बढ़ाने के बारे में भारत की आशंका सही नहीं है, उन्होंने कम नियंत्रण और ज्यादा खुलेपन की वकालत की।[3] इसके पहले 1954 में बम्बई के एक अर्थशास्त्री ए. डी. श्राफ ने अपने ‘फ्री इंटर प्राइजेज’ नामक मंच के माध्यम से तीव्र औद्योगीकरण के लक्ष्य के लिए अव्यवहारिक विचारधाराओं से मुक्ति का आह्वाहन किया।[4] बैंगलोर में ‘माई इंडिया’ का संपादक फिलिप स्प्रैट ने महलनोबिस के अर्थव्यवस्था पर राज्य के लौह सिकंजे की मुखालफ़त की और कहा कि यह मुक्त उद्यमशीलता का गला घोंट रहा है, परन्तु यह आवाजें नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह गई और भारी उद्योगों के समर्थन में उठने वाले शोर ने इसे दबाये रखा।[5] फिर भी इस दौर में कुछ सुधार लागू  किए गये जिन्हें ‘चोरी छुपे सुधार’ कहा गया।

21 जून 1991 को नरसिम्हा राव सरकार ने शपथ ली और अगले ही दिन राष्ट्र को बताया की आर्थिक संकट सर पर है। इस समय भुगतान संकट चरम पर पहुँच गया था। रिजर्व बैंक के गवर्नर एस वेंकटरमण की रपट के अनुसार भारत के पास केवल दो हफ्ते के आयात का बिल चुकाने लायक क्षमता रह गई थी।[6] इस वक्त तक विचारधारात्मक तथा निहित स्वार्थों द्वारा विरोध काफी कमजोर हो चुका था, इसलिए नरसिम्हा राव सरकार ने पुरानी मानसिकता पर चोट करते हुए असाधारण और व्यापक सुधार आरम्भ किये।[7] इस प्रकार चीन द्वारा रास्ता बदलने के करीब 13 वर्ष बाद भारत में 1991 में कुछ देर से ही सही भारत ने आर्थिक राष्ट्रवाद को छोड़कर आर्थिक सुधारों का काम शुरू किया तथा वैश्वीकरण के युग में प्रवेश किया, जिससे प्रभावित होकर विश्वबैंक ने इसे “निःशब्द आर्थिक क्रांति” कहा।[8] भगवती ने आश्वस्त किया कि बार बार फिसल जाने वाला वह नीतिगत विन्यास अब आख़िरकार हमारी पकड़ में आ गया है जो आर्थिक जादू करेगा जिसकी कामना जवाहर लाल नेहरू अपने देशवासियों के लिए करते थे।[9] मनमोहन सिंह ने अपने दुसरे बजट भाषण में कहा की भारत अब अपनी सही राह पर आ गया है।

शोधपत्र का उद्देश्य : इतिहास में सामान्यीकरण की तलास

चर्चित इतिहासकार युवाल नोआ हरारी चेतावनी देते हैं कि हम इतिहास के एक ऐसे दौर में रह रहे हैं, जहाँ हम ‘विकास’ और ‘अन्याय’ को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं हम उस स्पष्ट सीमा को भी नहीं पहचान सकते जो ‘वास्तविकता’ को ‘कहानी’ से अलग करती है[10] भूमण्डलीकृत भारत का आर्थिक इतिहास अपने कारणों, विशेषताओं तथा परिणामों के विपरीत ध्रुवी तीव्र बहसों का नेतृत्व करता है। इस शोध पत्र का उद्देश्य इस काल के आर्थिक तथा सामाजिक इतिहास में सामान्यीकरण के विविध तत्वों की तथ्यपरक तलास और उसके लेखाजोखा से जुड़ा है

शोध परिणाम

नई आर्थिक नीति : उदारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण

26 जुलाई 1991 को पेश किया गया बजट सुधारों का प्रस्ताव था। शुरुआत में मुद्रा का अवमूल्यन कर दिया गया, आयात पर से कोटा हटा लिया गया, शुल्को में कटौती की गई, निर्यात को बढावा दिया गया, घरेलु बाज़ार को भी मुक्त किया गया, लाइसेंस परमिट कोटाराज को बहुत हद तक ख़त्म कर दिया गया और सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार को हतोत्साहित किया गया। कुल मिलकर आर्थिक सुधारों ने सरकारी भीमकाय आकार को सीमित करने का प्रयास किया। वित्तीय घाटे को कम करने के उपाय किये गए जो उस समय सकल घरेलु उत्पाद के 8 फीसदी तक पहुँच गया था।[11]

नई औद्योगिक नीति : लालफीताशाही का मंद पड़ना

जुलाई 1991 में नई औद्योगिक नीति तैयार की गई जिसमें कहा गया कि कुछ खास तरह के वर्गीकृत उद्योगों को छोड़कर सभी तरह के उद्योगों को उनके निवेश के स्तर पर बिना भेदभाव के धीरे-धीरे औद्योगिक लाइसेंस की प्रक्रिया से मुक्त कर दिया जाएगा। सिर्फ इस नीति में वही उद्योग अपवाद होने थे जो देश की सुरक्षा, पर्यावरण और मानवीय स्वास्थ्य से जुड़े हुए थे। यह नीति लंबे समय से चली आ रही मौजूदा औद्योगिक नीति के विपरीत थी जिसमें कुछ उद्योगों को राज्य के लिए और कुछ उद्योगों को लघु उद्योग क्षेत्र के लिए आरक्षित कर रखा था। सेवा क्षेत्र में भी उदारीकरण की नीति को लागू किया गया और निजी खिलाड़ियों को बीमा, बैंकिंग, दूरसंचार और हवाई यात्रा में निवेश के लिए प्रोत्साहित किया गया परंतु अभी भी श्रम कानूनों तथा विनिवेश पर प्रतिबंधों को नहीं छेड़ा गया।[12] संक्षेप में कहें तो यह कदम दमघोंटू आंतरिक नियंत्रणों से अर्थव्यवस्था को छुटकारा दिलाए जाने की कोशिश थी ताकि वह अपने हित में विश्वव्यापी भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में भाग ले सकें

इस आर्थिक आजादी के मायने : कमजोर होता राष्ट्र राज्य

जो लोग मिश्रित अर्थव्यवस्था की लगातार वादाखिलाफी से आजिज आ चुके थे उन्होंने इस अर्थनीति के पुराने विरोधियों के साथ मिलकर ऐलान किया कि अगर 15 अगस्त राजनीतिक आजादी का दिन माना जाएगा तो 24 जुलाई को आर्थिक आजादी का प्रतीक समझा जाना चाहिए। परंतु विवाद की शुरुआत भी यहीं से हुई क्योंकि यह आर्थिक आजादी परमिट कोटा राज को खत्म करके एक ऐसा निज़ाम बनाने की कोशिश भर नहीं थी जिसमें राष्ट्र राज्य और उसके नागरिकों के लाभ का आग्रह सर्वोपरि होता। इस आर्थिक आजादी का मतलब यह था कि न केवल भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व बाजार से जुड़ते चले जाना है, वरना भारतीय वित्त मंत्री को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व व्यापार संगठन के दफ्तर में जाकर अपने कामों का हिसाब भी देना है। इसे अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी के  द्वारा दी गई सनद का मोहताज रहना है। इसका मतलब यही भी था कि भारतीय अर्थव्यवस्था को धीरे-धीरे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय पूँजी के रहमो करम पर निर्भर होते चले जाना है। इसका मतलब यह भी था कि भारतीय विदेश मंत्री को अमेरिकी विदेश मंत्रालय और यूरोपीय कारकुनों से अच्छे चाल चलन का प्रमाण पत्र भी हासिल करते रहना है।[13]

समूहों की प्रतिक्रिया तथा रणनीति : हाथी और अंधे

यही वजह थी कि इस परिघटना पर भारत के सभी दबाव समूहों ने अपनी रणनीति का ऐलान किया मार्क्सवादियो ने इसे पूँजीवादी सर्वव्यापीकरण के रूप में पेश करते हुए साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष के दायरे में इसके खिलाफ युद्ध का ऐलान किया। गांधीवादियो को नाखुश होना ही था क्योंकि भूमण्डलीकरण गांव की जगह शहर और नागरिक की जगह उपभोक्ता को अंतिम तौर पर स्थापित करने के आग्रह के साथ सामने आया। भूमण्डलीकरण से सबसे ज्यादा चिंतित राष्ट्रवादी हुए उनमें से ज्यादातर को लगा कि यह परियोजना तो राष्ट्र की आधारभूत संरचना को ही सत्ता और प्राधिकार से वंचित कर देगी इसलिए उन्होंने मार्क्सवादियों के सुर में सुर मिला कर अपना भूमण्डलीकरण विरोधी घोषणा पत्र तैयार किया। वैसे कुल मिलाकर राष्ट्रवादियों का रवैया दोहरे चरित्र का साबित हुआ, विरोध करने के साथ-साथ उन्होंने होशियारी यह दिखाई कि भूमण्डलीकरण के साथ सौदेबाजी भी शुरू कर दी। सूचना क्रांति की प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर वे जनता को नए तरीकों से नियंत्रित करने के प्रयोजन में लग गए। राष्ट्रवादियों के इस हिस्से का ख्याल था कि वह अपनी संप्रभुता का एक हिस्सा त्याग कर उसके बदले में भूमण्डलीकरण से कहीं ज्यादा हासिल कर सकते हैं। आधुनिकता के आलोचकों ने कुछ खुशी तथा कुछ संदेह के स्वर में इसका स्वागत किया। वे खुश इसलिए थे क्योंकि राष्ट्रीय सरहदों की अलंघनियता से बेपरवाह भूमण्डलीकरण के जरिए उन्हें ‘राष्ट्रवाद के कारागार’ के खिलाफ बगावत की उम्मीद थी जबकि उन्हें परेशानी यह थी कि कहीं भूमण्डलीकरण अपनी पश्चिम केंद्रीयता और चरम बाजारवाद के कारण किसी भी तरह के विकल्पों की संभावना को ही नष्ट न कर दे।[14]

सुधारों के नतीजे और समृद्धि का दौर : आंकड़ों की दुनिया

सुधारों के आरंभिक वर्षों के नतीजे प्रशंसनीय रहे। गहरे व्यापक संकट से भारत के निकलने की प्रक्रिया सबसे तेज गिनी जाएगी इसके अलावा ढांचागत सुधार, खासकर आरंभ में उठाए गए कदम बहुत कम हानि के साथ उठाए गए। ऐसी आशंका थी कि इन कदमों से लंबी मंदी आएगी जिससे बड़े पैमाने पर बेकारी पैदा होगी और गरीबों की स्थिति और भी खराब होगी जैसा कि दूसरे देशों की मिलती जुलती परिस्थिति में हुआ था, लेकिन भारत में ऐसा कुछ नहीं हुआ, अलबत्ता सकारात्मक बदलाव देखा जा सकता है[15]

भारत के कुल घरेलू उत्पाद की दर 1991–92 के संकट के वर्ष में गिरकर मात्र 0.8 फीसदी रह गई थी। लेकिन यह जल्द ही बढ़ कर 1992-93 में 5.3 फीसदी हो गई और 1993-94 में बावजूद अयोध्या संकट, 6.2 फीसदी हो गई जो अगले तीन वर्षों में 7.5 फीसदी रही। संकट और आवश्यक ढाँचागत सुधारों के बावजूद आठवीं योजना(1992-97) में विकास दर का औसत लगभग 7 फीसदी रहा। यह सातवीं योजना के 6 फीसदी से उच्चतर और अधिक स्थाई था।[16] यहाँ तक की वर्ष 1993-94 के अनुसार मार्च 1995 में मुद्रास्फीति 16.6 प्रतिशत थी जो 9 दिसंबर 2006 तक घटकर केवल 5.32 प्रतिशत  हो गई। वर्ष 1991 में भारत में विदेशी मुद्रा का भण्डार 5.8 बिलियन डालर था, जबकि 2007 में विदेशी मुद्रा का भण्डार 195 बिलियन डॉलर हो चुका था। वर्ष 1991 में प्रतिव्यक्ति आय जहाँ 9993 वहीँ रुपया थी वहीँ 2005-06 में यह उल्लेखनीय रूप से बढ़ कर 15357 रुपया हो गई।[17]

वित्तीय अनुशासन के बेहत्तर होने के साथ साथ भारत में औद्योगिक माहौल में तेजी से सुधार हुआ1991-92 में औद्योगिक उत्पादन दर बहुत ही कम एक फ़ीसदी से भी कम थी। उत्पादन क्षेत्र में यह नकारात्मक थी। 1992-93 में यह बढ़ कर 2.3 फ़ीसदी और 1993-94 में 6 फ़ीसदी और फिर 1993-94 में अभूतपूर्व 12.8 फीसदी हो गई। इससे भी ज्यादा 1994-95 में यह 25 फ़ीसदी हो गयी।[18] केन्द्रीय सरकार का वित्तीय घाटा 1990-91 में कुल राष्ट्रीय उत्पाद का 8.3 फीसदी था जो 1997 तक 6 फीसदी पर आ गया। देश के अर्थतंत्र के विदेशी क्षेत्र को देखें तो निर्यात के मामले में, 1999-92 में डॉलर के हिसाब से 1.5 फ़ीसदी की गिरावट आयी। लेकिन  इसमें जल्द ही सुधार हुआ और 1993-96 में औसत विकास दर 20 फ़ीसदी तक पहुँच गई। महत्व की बात यह रही की भारत की आत्मनिर्भरता इस हद तक बढ़ रही थी कि आयात के काफी बड़े भाग का भुगतान अब निर्यात के जरिये किया जा रहा था। कर्जे का संकट भी समाप्त होने लगा। भारत का विदेशी कर्ज, सकल घरेलू उत्पाद का अनुपात 1991-92 में 41 फ़ीसदी था जो 1995-96 में यह गिर कर 28.7 फ़ीसदी हो गया। कर्ज वापसी अनुपात भी 1991 के 35.3 फ़ीसदी से गिरकर 1997-98 में 19.5 फ़ीसदी हो गया।

भारत में विदेशी पूँजी निवेश के नतीजे सकारात्मक निकले। 1991 से 1996 के बीच प्रत्यक्ष विदेशी निवेश लगभग सौ फ़ीसदी बढ़ गया 1991-92 में यह 12 करोड़ 90 लाख डॉलर था जो 1995-96 में बढ़ कर 2.1 अरब डॉलर हो गया। पोर्टफ़ोलियो निवेश सहित कुल विदेशी निवेश 1990-91 के 10 करोड़ 20 लाख डॉलर से बढ़ कर 1995-96 में 4.9 अरब डॉलर का हो गया । 1992-93 तथा 1994-95 के बीच प्रतिवर्ष औसतन 63 लाख नौकरियां पैदा की गईं। ये अस्सी के दशक में प्रतिवर्ष औसतन 48 लाख नौकरियों के निर्माण से कहीं ज्यादा थी। मुद्रा स्फीति जिसका असर गरीबों पर सबसे ज्यादा होता है, नियंत्रण में रखा गया। 1991 में वार्षिक मुद्रा स्फीति 17 प्रतिशत  तक जा पहुँचीं थी वह 1996 की फ़रवरी में 5 फ़ीसदी से भी नीचे उतर आई थी।

कुछ अच्छी कहानियाँ : भूमण्डलीकरण के पक्ष में तर्क

इस प्रकार नई अर्थनीति की प्रशंसा में पुस्तक लिखने वाले गुरुचरण दास के अनुसार आर्थिक सुधारों से देश में ‘सपनों को पुनर्जीवित करने वाली’ एक नई क्रांति आई जिसने ‘लाखो सुधारक’ पैदा किये।[19] जिसको अंबानी से लेकर दिल्ली के कनाट प्लेस के चौराहे पर फूल बेचने वाली लड़की ने भी हाथो-हाथ लिया जिसकी वजह से मध्यवर्ग की उठान ने भी जन्म लिया। बदलाव की नई कहानियों ने भूमण्डलीय आग्रहों को तर्क प्रदान किया[20]

“जास्मीन का गज़रा चुनते हुए उसने बेचने वाली लड़की से पूछा कि उसके गज़रे इतने ठंडे और ताज़े कैसे हैं?...........लड़की ने एक छोटे से रेफ्रीजरेटर की तरफ इशारा किया ...जिसकी मदद से वह जनपथ के चौराहे वाली लड़की से धंधे में बाज़ी मार लेती है।”

“आजकल सभी का दिमाग पैसा कमाने की तरफ़ भाग रहा है” यह बात सरकारी स्कूल के मास्टर ने कही जो बच्चों के उसका स्कूल छोड़ने का रोना रो रहा था । मैंने पूछा वे तुम्हारा स्कूल क्यों छोड़ रहे हैं? “क्योंकि उन्हें मोंटेसरी शब्द आकर्षित कर रहा है वे टीवी देखते हैं और अंग्रेजी सीख कर अमीर बनना चाहते हैं।”

आर्थिक विकास की तेज़ रफ़्तार ने भारतीय मध्यम वर्ग के आकार और इसके प्रभाव में काफी बढ़ोत्तरी की है। राजनीति शास्त्री ई. श्रीधरन लिखते हैं कि “इस वर्ग के उदय ने भारत के वर्गीय चरित्र को बदल कर रख दिया जो कि पहले एक छोटे से संभ्रांत और एक विशालकाय वंचित तबके के बीच साफ़ तौर पर बटा हुआ था। अब एक बीच का वर्ग भी पनप आया था[21] बड़ी बात अब यह भी थी कि यह आजादी के समय के मध्यवर्ग से इस अर्थ में भिन्न था कि इस पर गांधीवादी सादगी का प्रभाव नहीं था तथा यह उपभोक्तावाद के प्रति मन की असहजता से मुक्त था।[22] इसने बड़ी बारीकी से अपने विकल्पों का इस्तेमाल किया। वे अपनी ज़ेब का भी ख़याल रखते हैं और अपने पड़ोसियों से सामाजिक प्रतिस्पर्धा का भी। ब्राण्डो ने स्टाइल और मिज़ाज़ को बदल दिया। टीवी ओनिडा अब जहाँ सामाजिक प्रतिष्ठा दिलाता था वहीं यह पड़ोसियों में ईर्ष्या जगाता था। स्वदेशी अब पुराने ख्याल को प्रदर्शित करता था

आर्थिक सुधार का चेहरा : साफ्टवेअर उद्योग

भारत में और विदेश में भी साफ्टवेयर उद्योग को आर्थिक सुधारों का पोस्टर ब्वाय कहा जाता है[23] बंगलौर ने भारत के सिलिकान वैली के रूप में अपना नाम स्थापित कर लिया है। विप्रो और इन्फोसिस दोनों का मुख्यालय बंगलौर में ही है, साथ ही सॉफ्टवेयर क्षेत्र में कई अन्य खिलाडियों का भी मुख्यालय यहीं हैं। बंगलौर को आर्थिक सुधारों के चहरे के तौर पर देखना सहज लगता है यहाँ विदेशी बाज़ार के खुलने से भारी मात्र में कुशल श्रम के लिए रोजगार पैदा हुआ और काफी पैसा आया है जिसका आम लोगों में करीब ठीक ठाक वितरण भी हुआ है। 2004 में ‘टाइम’ मैगजीन द्वारा विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी को दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों में शामिल किया जाता है। उनकी कंपनी, जो आई.बी.एम. के भारत से चले जाने से उपजे गैप के बाद अपनी लय में आई, ने देश में सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति की अगुवाई की तथा सूचना प्रौद्योगिकी सेवाप्रदाता और सॉफ्टवेयर विकसित करनेवाली सबसे बड़ी कंपनियों में से एक है। 2004 में ही भारतीय स्टील किंग लक्ष्मी नारायण मित्तल अमेरिका की इंटरनेशनल स्टील ग्रुप (आई.एस.जी.) खरीदकर दुनिया की सबसे बड़ी स्टील कंपनी के मालिक बन जाते हैं। 2006 में दुनिया का सबसे बड़ा रिटेलर ‘वॉलमार्ट’ अरबपति सुनील मित्तल के साथ एक सौदे पर हस्ताक्षर करता है। 2007 ‘फॉर्चून’ पत्रिका द्वारा तैयार की गई दुनिया की सबसे शक्तिशाली महिला व्यवसायियों की सूची में तीन भारतीय महिलाओं, चंदा कोचर, उप-प्रबंध निदेशक, आई.सी.आई.सी. बैंक, नैना लाल किदवई, मुख्य कार्यकारी अधिकारी, एच.एस.बी.सी. इंडिया और किरण मजूमदार शॉ, बायोकॉन, प्रमुख को शामिल किया जाता है। अमेरिका की सबसे शक्तिशाली महिला व्यवसायी के रूप में भारतीय-अमेरिकी इंद्रा नूयी  नामित होती है।

कुछ बुरी कहानियाँ : गुमराह प्राथमिकताएं तथा हताश नागरिक

भूमण्डलीकरण की खूबसूरत कहानियां क्या जमीनी हकीकत का प्रतिनिधित्व करती थीं? मिशेल चोसुदोब्सकी जैसे प्रेक्षकों के लिए 24 जुलाई की तारीख के मायने कुछ और ही थे। उन्होंने दिखाया कि किस प्रकार इस तारीख के बाद गावँ और शहर के गरीबों की जिंदगी और तकलीफ़ देह हो गई। उन्होंने राष्ट्रीय स्वायत्तता और प्रभुसत्ता से जुड़े सवालों को भी उठाया। उन्होंने आरोप लगाया कि इस तारिख के बाद भारत का वित्तमंत्री संसद और लोकतांत्रिक प्रक्रिया को धता बताकर सीधे विश्वबैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के वाशिंगटन डी सी स्थित दफ्तर की हिदायतों का पालन करने लगा-

"तभी 24 जुलाई 1991 को नया केंद्रीय बजट आया जिससे सूत का भाव उछल गया जिसका बोझ बुनकरों को उठाना पड़ा...4 सितम्बर 1991 को गुंटूर जिले के गोला पल्ली गांव में राधाकृष्ण मूर्ति ने भूख के मारे दम तोड़ दिया।"[24]

चोसुदोब्सकी का यह वर्णन स्थानीय स्तर पर भूमण्डलीकरण के लाभ कमज़ोरों को न मिल पाने और उनके हिस्से में केवल नुकसान आने की प्रवृत्ति की तरफ इशारा करता है। उल्लेखनीय है कि भारत के संदर्भ में विश्व अर्थव्यवस्था का विश्लेषण करते हुये कुमार मंगलम बिड़ला जैसे उद्योगपति भी तकरीबन इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं -

"हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि सभी देशों को उदारीकरण के लाभ समान रूप से नहीं मिलते हैं। फायदा उन्हें मिलता है जो पहले से ही साधन संपन्न हैं और जिनके पास प्रस्तुत अवसरों का लाभ उठाने के लिए समुचित शिक्षा और प्रशिक्षण होता है।

स्टिगलिट्ज़ अपनी पुस्तक ग्लोबलाइजेशन मेकिंग वर्क्स (2005) में यह स्वीकार करते हैं कि यह 'किसी के लिए' तथा 'किसी के विरुद्ध' है। अगली पुस्तक द ग्रेट डिवाइड : अनइक्वल सोसाइटी एंड व्हाट वी कैन डू अबाउट देम (2015)में यह दावा करते हैं कि 

"असमानता स्थिति नहीं चयन है। यह अन्यायपूर्ण नीतियों और गुमराह प्राथमिकताओं का संचयी परिणाम है।" 

जिसका समर्थन थॉमस पिकेटी अपनी पुस्तक पूँजी में करते दिखते हैं। मौलिक सुविधाओं मसलन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने में सरकारों का बहुत ही खराब रिकार्ड रहा। सन 1990 में स्वास्थ्य सेवाओं पर जीडीपी का 1.3 फ़ीसदी खर्च किया जाता था। वहीं 1991 तक यह घट कर 0.3 फ़ीसदी रह गया अध्ययनों ने इस तथ्य को साबित किया कि सुधारों के प्रतिकूल प्रभावों से ग्रसित होने की प्रवृति, पारंपरिक रूप से उपेक्षित और सामाजिक रूप से मुख्य धारा से बहिष्कृत समूहों में दूसरों की तुलना में अधिक है।[25]  किसानों के बारे में पत्रकार पी. साईं नाथ की सच्चाइयाँ, उनकी आत्महत्या से ज्यादा चिंता जगाने वाली रही, वहीं अरुंधती राय ने अपनी किताब ‘न्याय का बीज गणित’ में आदिवासियों की वीभत्स सामाजिक अपवर्जन तथा उनके प्रति अन्याय को समाज के सामने रखा अमर्त्य सेन की पुस्तक ‘भारत और उसके विरोधाभास’ तथा शिरीष खरे की पुस्तक ‘एक देश बारह दुनिया’ का बयान भी कुछ ऐसा ही है।

असमानता: कुछ खराब आंकड़े

अर्थशास्त्री जगदीश भगवती अपनी पुस्तक इन डिफेंस ऑफ ग्लोबलाइजेशन 2004 में तर्क देते हैं कि भूमण्डलीकरण एक खेल की तरह है अगर आप की तैयारी अच्छी है तो आप जीतते हैं अन्यथा आप हार जाते हैं। भारत की असमानता इस दावे को तसदीक करती है। सन 1991 से पहले भी जब उदारीकरण की शुरुआत नहीं हुई थी, भारत में भयानक सामाजिक- आर्थिक असमानता थी। देश के कुछ इलाके और कुछ सामाजिक समूह साफतौर पर अन्यों की तुलना में कम गरीब थे। लेकिन बाज़ार आधारित सुधारों ने इन असमानताओं को और बढ़ाने का काम ही किया। इन दशकों में जो राज्य जितने गरीब थे उनकी उतनी कम तरक़्क़ी हुई। पूरे नब्बे के दशक में, बिहार की विकास दर महज़ 2.69 फ़ीसदी, यूपी की विकास दर 3.58 फीसदी और उड़ीसा की 3.25 फ़ीसदी बनी रही। दूसरी तरफ गुजरात 9.57 फ़ीसदी, महाराष्ट्र 8.01 फ़ीसदी और तमिलनाडु 6.22 फ़ीसदी की डेट से तरक्की करता रहा। कुल मिलाकर कहा जाए तो जो राज्य देश के दक्षिण और पश्चिम हिस्से में थे उनकी तरक़्क़ी ज्यादा हुई जबकि जो राज्य उत्तर और पूर्व इलाके में थे उनकी विकास दर कम रही। इस प्रक्रिया में विशाल आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार सबसे नीचे रहे। सन 1993 में इन दोनों राज्यों में देश के 41.7 फ़ीसदी गरीब रहते थे जबकि सन 2000 में, यह आंकड़ा बढ़कर 42.5 फ़ीसदी हो गया।

कर्नाटक और आंध्रप्रदेश की राजधानी बंगलौर और हैदराबाद क्रमशः साफ्टवेयर उफान के युग में, निवेश हासिल करने में सबसे ऊपर रहे लेकिन इन्हीं राज्यों के सुदूरवर्ती इलाके इसमें बहुत पीछे छूट गये। सन 1994 से 2000 तक ग्रामीण कर्नाटक में प्रति व्यक्ति उपभोग की दर 9.5 फ़ीसदी सलाना के हिसाब से बढ़ी जबकि कर्नाटक के ही शहरी क्षेत्र में यह दर 26.5 फ़ीसदी सालाना के दर से बढ़ रही थी। आंध्रप्रदेश के लिये यही उपभोग वृद्धि दर ग्रामीण इलाकों के लिए महज़ 2.8 फ़ीसदी सालाना थी तो शहरी इलाकों के लिये 18.5 फ़ीसदी। अगर पूरे देश की बात करें तो देश के सुदूरवर्ती इलाकों में सालाना उपभोग की वृद्धि दर 8.7 फ़ीसदी थी जबकि शहरों में यह डर 16.6 फ़ीसदी थी।

उड़िसा का चक्रव्यूह : आर्थिक सुधार का बर्बर चेहरा

जो उदारीकरण की प्रक्रिया से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं उनमें शायद उड़ीसा के आदिवासी सबसे प्रमुख हैं। यहां खनन कार्यों से जो राजस्व पैदा हुआ वह सीधे खदान मालिकों और राजनेताओं की जेब में गया जो साथ मिलकर काम कर रहे थे। जिनको सबसे ज्यादा क्षति हुई वे आम गांव वाले थे या आदिवासी थे जिनकी जमीन के नीचे बॉक्साइट का अथाह भंडार छुपा हुआ था। वे बेघरबार हो गए और उनकी संपत्ति छिन गई तथा उन्हें पर्यावरणीय असंतुलन का भी सामना करना पड़ा। जो खुलेआम खनन कार्यों से पैदा होने वाला एक अनिवार्य नतीज़ा था।[26] इसने ऐसे सामाजिक आर्थिक भंवर को निर्मित किया जिसका बयान प्रकाश झा अपनी फ़िल्म 'चक्रव्यूह' में करते दिखते हैं। वैश्विक अर्थतंत्र की उत्तेजक लहरों ने न सिर्फ विकास के ऐसे चुम्बकीय टापुओं का निर्माण किया है जहाँ  रोजगार और कमाई का आकर्षण था बल्कि इसने कुछ खाइयों का भी निर्माण किया जहाँ रहने लायक कुछ नहीं बच रहा था  जिसने देश के भीतर और बाहर पलायन को जन्म देकर चिंतनीय समाजशास्त्रीय प्रभाव पैदा करता है

भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में ख़लल : आशंका और राज्य की भूमिका

इस प्रकार भारत के विकास की इस कहानी में, विकास में वृद्धि होने के साथ ध्रुवीकरण हुआ तथा वास्तविक मानव कल्याण में अत्यल्प वृद्धि हुई और गरीबी में मामूली सी कमी हुई।[27] अलबत्ता एडम स्मिथ के बेलगाम अदृश्य हाथ का करामात साफ दिखने लगा। राव सरकार ने अपना आखिरी दौर विभिन्न तबकों का मुहँ बंद करते हुए गुज़ारा जबकि एच डी देवगौड़ा ने दयार्द्र निवेदन किया कि मेहरबानी करके मेरी मदद कीजिए, मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ, मुझे ठोस समाधान चाहिए। 1996-97 में अर्थतंत्र का धीमापन पूर्वी एशियाई संकट का नतीजा माना गया। न्यूक्लियर परीक्षणों के फलस्वरूप भारत पर लगाये गए आर्थिक प्रतिबन्धों ने अर्थतन्त्र पर प्रतिकूल प्रभाव डाला।[28] वाजपेई सरकार की इंडिया शाइनिंग का नारा न केवल जनता ने नकार दिया बल्कि द वर्ल्ड इज फ्लैट के लेखक थामस फ्रीडमैन ने लिखा कि इंडिया शाइनिंग का नारा हम जैसे लोगों को क्षुब्ध करता है...भारत केवल चमकीली पत्रिकाओं में चमक रहा है। मानवीय चेहरे के साथ विकास का नारा देकर मनमोहन सिंह की सरकार बनी जिसमें मनरेगा जैसी योजनाओं से ग्रामीण और पिछड़े भारत में जान फूंकने की कोशिश की गई वैश्विक मंदी की आहट पाते ही मनमोहन सिंह ने सन 2008-09 में कीनीसियन सिद्धांतों के अनुरूप सरकारी खर्चों में बढोतरी करनी शुरू कर दी ताकि अर्थव्यवस्था में गिरावट न आने पाये।[29] सन 2009 के अंत तक अपनी सम्पत्तियों को विविधिकृत करने के लिए रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया ने 200 मीट्रिक टन सोना ख़रीदा यह पिछले 30 साल में सोने की सबसे बड़ी ज्ञात खरीद थी जो किसी केंद्रीय बैंक द्वारा की गई थी।[30] लेकिन मनमोहन सिंह के कार्यकाल के अंतिम दिनों में पूँजी ने अपना मूल चरित्र लाभ और लालच को समाज में प्रक्षेपित किया तथा भारत भ्रष्टाचार के अविश्वसनीय और अचम्भित करने वाले प्रभावशाली आंकड़ों में घिर गया। सरकार की नीतिगत अपंगता ने विकास को ठहराव की अवस्था में ला दिया।[31] संदेहास्पद उत्प्रेरणा वाले नागरिक असंतोष को अवसर बनाकर 2014 में सत्ता में आई नई सरकार ने ऐसी आर्थिक हरकतें की जो जनता को एक तमाशे की तरह दिखे और वो ताली बजाए। इसमें किसी योजना या दूरदृष्टि का पक्ष साफ तौर पर खाली दिखता है। यही कारण है कि संपोष्य आर्थिक विकास तथा सबका साथ सबका विकास का नारा आर्थिक आंकड़ो में अपनी अपर्याप्तता के कारण न केवल गुम हो गया बल्कि उसकी अनुपयोगिता के तर्क भी तलासे जाने लगे। सरकार की सबसे बड़ी आर्थिक पहल विमुद्रिकरण को जेम्स कैबट्री आर्थिक इतिहास का सबसे खराब अनुभव करार देतें हैं।[32] हालांकि कुछ स्तरों पर असमानता को अब पाटा जा रहा था तथा पिछ्ड़े क्षेत्र तेज़ी से सामने आ रहे थे।

वैश्विक महामारी के दौर में भारत : भूमण्डलीकरण का विचार एवं व्यवहार

कोविड-19 महामारी ने भूमण्डलीकरण के कार्यकारी स्वरुप जैसे सामाजिक तथा आर्थिक संचरण में गंभीर व्यवधान उत्पन्न किया तथा अपने वैचारिक आदर्शों का सरेआम खिल्ली उड़ाया। अंकटाड ने यह अनुमान लगाया है कि उड़ान प्रतिबंधों के कारण अंतर्राष्ट्रीय पर्यटन उद्योग में आये व्यवधान के कारण 2020-2021 में 4 ट्रिलियन वैश्विक जीडीपी का नुकसान हुआ जबकि डब्ल्यूटीओ ने अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में 5.3 प्रतिशत का ह्रास दर्ज किया है। इन सब का परिणाम यह रहा है कि पर्यटन उद्योग में 197 मिलियन लोग बेरोजगार हो गए भारत में भी महामारी से बचाव के लिए कोविड लाकडाउन उपाय की कीमत जीडीपी की नकारात्मक वृद्धि दर रही रुझान बताते हैं कि उदार अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था तेजी से बदल रही है, तथा वैश्वीकरण के वादे से मुहँ फेर कर, राष्ट्रीय हित के लिए संरक्षणवाद तथा राष्ट्रीय आत्मनिर्भरता का आसरा चाहती है।[33] भारत में भी मेड इन इंडिया तथा आत्मनिर्भर भारत का नारा संकट काल में अपने हितो की तरजीह को दिखाता है कोई संदेह नहीं है कि भूमण्डलीकरण पर कोरोनावायरस का अपेक्षित प्रभाव नकारात्मक है, क्योंकि यह मूल रूप से भूमण्डलीकरण  के पीछे के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांतों को कमजोर करता है परन्तु यह नहीं माना जा सकता कि यह संकट भूमण्डलीकरण को नष्ट कर देगा।

निष्कर्ष

भारत में भूमण्डलीकरण के दौर के आर्थिक इतिहास का मूल्यांकन एक जटिल एवं कठिन कार्य है। इस जटिलता के कई कारण हैं। सर्वप्रथम, इस आकलन को लेकर अपेक्षाकृत शोध कम हुए हैं। भारत में इस सम्बंध में गंभीर मतांतर भी हैं। भूमण्डलीकरण के पश्चात भारत में जिन आर्थिक सफलताओं की दुहाई दी जाती है, समाज विज्ञानी अतुल कोहली का इसके बारे में यह मानना है कि ये आर्थिक सफलतायें 1980 के दशक में किये गए आर्थिक सुधारों के कार्यक्रमों का परिणाम है, न कि भारत में किये गये आर्थिक सुधारों का। भारत में भूमण्डलीकरण के आकलन की दूसरी समस्या अतिवादिता से सम्बंधित है। भारत में भूमण्डलीकरण के समर्थक इसकी नकारात्मक विफलताओं की ओर वैसे ही आंखे मूंद लेते हैं जैसे भूमण्डलीकरण का विरोधी वर्ग इसकी सफ़लताओं से। बहरहाल इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि भूमण्डलीकरण ने आर्थिक मोर्चे पर भारत का काया पलट किया है। वहीं इसने असमानता को बढ़ाया है। परन्तु भूमण्डलीकरण के विकृत विरोध की बजाय इसके सुधारवादी संशोधन की आवश्यकता हमेशा जारी रहेगी।

 

सन्दर्भ



[1] फ्रैंच पैट्रिक. भारत एक तस्वीर , पेंगुइन बुक्स , गुड़गांव, 2013, पृ 210

[2]  Srinivasan, T.N, and Suresh D. Tendulkar. Reintegrating India with the World Economy, Institute for International Economics, Washington, DC, 2003, p. 13.

[3]  Singh, Manmohan. India's Export Trends and Prospects for Self-Sustained Growth, Clarendon Press, Oxford, 1964,

[4]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 376.

[5]  वही पृ. 377

[6]  दुबे अभय कुमार. भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 44.

[7]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 484.

[8]  Nair, Janaki. Miners and Millhands: Work, Culture and Politics in Princely Mysore, Sage Publications, New Delhi, 1998, p. 355.

[9]  Bhagwati, Jagdish N. India in Transition: Jagdish Bhagwati, Clarendon Press., Oxford, 1993, p. 98.

[10]  हरारी  युवाल  नोआ. 21 वीं सदी के लिए 21 सबक़, मंजुल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 2020. पृ 215-245

[11]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 379.

[12]  वही पृ 379-380

[13]  दुबे अभय कुमार. भारत का भूमण्डलीकरण, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017, पृ. 24.

[14]  वही पृ. 22

[15]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 485.

[16]  वही. पृ 487

[17]  सिंह अमित कुमार. भूमण्डलीकरण और भारत परिदृश्य और विकल्प, सामायिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृ. 43-44

[18]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 485.

[19]  दास गुरुचरण. उन्मुक्त भारत, हिन्द पॉकेट बुक्स, गुड़गांव, हरियाणा, 2018, पृ. 332

[20]  वही पृ. 300-311

[21] गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 386.

[22]  दास गुरुचरण. उन्मुक्त भारत, हिन्द पॉकेट बुक्स, गुड़गांव, हरियाणा, 2018, पृ. 302

[23]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 382.

[24]  चोसडुवस्की मिशेल. ग़रीबी का वैश्वीकरण, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009, पृ. 189-190

[25]  चलम के एस. आर्थिक सुधार और सामाजिक अपवर्जन, सेज भाषा, नई दिल्ली, 2017

[26]  गुहा रामचन्द्र. भारत नेहरू के बाद, पेंगुइन बुक्स इंडिया, दिल्ली, 2012, पृ. 396-397.

[27]   Nagaraj, R. “India's Economic Development.” Routledge Handbook of Indian Politics, 2013, pp. 196–197., https://doi.org/10.4324/9780203075906.ch16.

[28]  चन्द्र विपिन. आजादी के बाद भारत, हिंदी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली, 2015, पृ. 491.

[29]  फ्रैंच पैट्रिक. भारत एक तस्वीर , पेंगुइन बुक्स , गुड़गांव, 2013, पृ 220-221

[30]  वही पृ 221

[31]  “Losing Its Magic.” The Economist, The Economist Newspaper, 24 May 2012, https://www.economist.com/leaders/2012/03/24/losing-its-magic.

[32]  Crabtree, James. “Modi's Money Madness.” Foreign Affairs, 19 Aug. 2019, https://www.foreignaffairs.com/articles/india/2017-06-16/modis-money-madness.

[33] covid-19 a liberal democratic curse? Risks for liberal international order, Carla Norrlöf (2020), Cambridge Review of International Affairs, 33:5, 799-813, DOI: 10.1080/09557571.2020.1812529

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