बुधवार, 29 नवंबर 2023

कैथोलिक धर्म सुधार : कारण


लूथर के विरोध आंदोलन के कारण रोमन कैथोलिक धर्म और उसके सर्वोच्च अधिकारी पोप के सम्मान को ठेस पहुंची और उसका महत्व दिन-ब-दिन कम होने लगा। अतः परिस्थितियों को देखकर और समझकर विरोध को समाप्त करने के लिए उन्होंने रोमन कैथोलिक धर्म में कुछ सुधार करने का निर्णय लिया। रोमन कैथोलिक सुधारकों द्वारा बनाई गई सुधार योजनाओं को रोमन कैथोलिक सुधार आंदोलन या प्रति-धर्म सुधार कहा जाता है। प्रति- धर्म सुधार  के लिए निम्नलिखित कारण और परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं:

1. प्रोटेस्टेंट अनुयायियों के बीच पारस्परिक मतभेद का लाभ उठाना

प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रवर्तक मार्टिन लूथर थे, लेकिन अन्य देशों के धार्मिक सुधारकों से उनके मतभेद के कारण प्रोटेस्टेंट संप्रदाय की एकता टूट गई और यह तीन भागों में विभाजित हो गया। कैथोलिक सुधारकों के लिए यह अवसर उपयुक्त था। प्रोटेस्टेंट धर्म के बीच आपसी कलह का लाभ उठाते हुए उन्होंने कैथोलिक धर्म में सुधार के प्रयास शुरू किये, जिसमें उन्हें काफी सफलता मिली, क्योंकि प्रोटेस्टेंट धर्म की तीन शाखाओं लूथरनिज़्म, ज़्विगिज़्म और कैल्विनिज़्म के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे।

2. ट्रेंट की परिषद: कैथोलिक धर्म में आंतरिक सुधार

कैथोलिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए 1562 ई. में ट्रेंट नामक स्थान पर एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें कैथोलिक धर्म के नये नियम प्रतिपादित किये गये। ट्रेंट की परिषद में निम्नलिखित मुख्य सिद्धांतों की पुष्टि की गई:

(ⅰ) कैथोलिक चर्च का मुखिया पोप ही रहेगा ।

(ii) धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या पर चर्च का एकाधिकार रहेगा।

(iii) कैथोलिकों के लिए लैटिन भाषा में एक नई बाइबिल तैयार की जानी चाहिए।

इसके अलावा इस बैठक में कुछ सुधारों की भी घोषणा की गई, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित थे:

(i) चर्च के द्वारा धार्मिक संस्थाओं के पदों को बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

(ii) सभी बिशपों को अपने-अपने कर्तव्य निभाने चाहिए।

(iii) पुजारियों के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।

(iv) आवश्यकतानुसार आम लोगों की भाषा में उपदेशों का प्रचार-प्रसार करना।

3. महान धार्मिक सुधारक : समर्थन एवं सहयोग

सौभाग्य से कैथोलिकों को कुछ महान धार्मिक सुधारकों का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हुआ जो कैथोलिक धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करना चाहते थे। इनमें इग्नासीयस लोयोला का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपने आदर्श जीवन और अच्छे व्यवहार के माध्यम से धार्मिक सुधर की  प्रतिक्रिया को महत्व दिया। इसमें स्पेन के राजा फिलिप ने भी सहयोग किया।

4. जेसुइट सोसायटी: संगठन

प्रोटेस्टेंटवाद का विरोध करने के लिए एक जेसुइट समाज की स्थापना की गई थी। इस संगठन की स्थापना एक स्पेनिश सैनिक इग्निसियस लोयोला ने की थी। लोयोला को सर्वसम्मति से इस समाज का जनरल चुना गया। चूँकि इस समाज का संगठन सैन्य व्यवस्था पर आधारित था, इसलिए अनुशासन बहुत कठोर था। जेसुइट्स को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त थे जिसके कारण वे कैथोलिक धर्म के अग्रणी रक्षक बन गये। प्रत्येक सदस्य को चार वचन लेने होते थे, पहला सादगी में रहना, दूसरा ब्रह्मचर्य की तीसरी जेसुईट संस्था के आदेशों का पालन करना और चौथा पोप के प्रति समर्पण रखना। इस समाज या संघ के प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड आदि देशों में प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सका।

5.कैथोलिक विरोधी  किताबों पर प्रतिबन्ध 

ट्रेंट की परिषद के अनुसार पोप द्वारा उन पुस्तकों की एक सूची तैयार करने का अनुरोध किया गया था जो कैथोलिक विरोधी थीं। अत: पोप ने निषिद्ध पुस्तकों की एक सूची तैयार की और उसमें वर्णित पुस्तकों को कैथोलिकों के लिए पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके अलावा धार्मिक शिक्षा के लिए उपदेश पुस्तकों में संशोधन किया गया और नई पुस्तकें तैयार की गईं।

6. धार्मिक न्यायालय (न्यायालय) की स्थापना 

कैथोलिकों के नैतिक और धार्मिक आचरण को ऊपर उठाने का प्रयास किया गया। निर्धारित मानकों से नीचे आचरण करने वालों के लिए धार्मिक अदालतें (इन्क्विज़िशन) स्थापित की गईं। इसकी स्थापना पहले इटली में और फिर अन्य देशों में हुई। इसकी स्थापना के लिए उस राज्य से मंजूरी लेनी पड़ती थी. कैथोलिक चर्च की आलोचना करने वालों को इन अदालतों में पेश किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। इस अदालत को किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने, उसकी संपत्ति ज़ब्त करने और यहाँ तक कि उसे मृत्युदंड देने की भी शक्ति थी। इन अदालतों के निर्णयों के संबंध में अंतिम अपील सुनने का अधिकार केवल पोप को था।

इस प्रकार, इन उपरोक्त संस्थाओं या साधनों के माध्यम से कैथोलिक चर्च को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने और प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने में काफी सफलता मिली। इनके अलावा, अन्य कारक भी प्रति-सुधार आंदोलन की सफलता के लिए सहायक साबित हुए। सबसे पहले, सोलहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों के पोप अच्छे चरित्र वाले और धर्मनिष्ठ थे। दूसरे, प्रोटेस्टेंटों के पास लूथर जैसे नेतृत्व का अभाव था। इसके अलावा, राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव ने भी प्रति-सुधार आंदोलन की सफलता में योगदान दिया। अपने राजनीतिक हितों के कारण फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया, पोलैंड आदि देशों ने पोप से समझौता कर उन्हें समर्थन प्रदान किया, जिससे इस आंदोलन को बल मिला।

काल्विन और उसकी शिक्षा


फ़्रांस में सुधार आंदोलन की शुरुआत जॉन काल्विन के नेतृत्व में हुई जो एक पादरी थे। जॉन काल्विनका जन्म 1509 में फ्रांस के नॉयेन्स में हुआ था। उनके पिता उन्हें पादरी बनाना चाहते थे जिसके लिए उन्हें कुछ समय तक पेरिस विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र का प्रशिक्षण भी दिलाया गया। इसके बाद उन्हें कानून की पढ़ाई के लिए ऑरलियन्स विश्वविद्यालय भेजा गया क्योंकि उनके पिता ने बाद में सोचा कि कानून की पढ़ाई उनके बेटे के लिए अधिक फायदेमंद होगी। काल्विन मार्टिन लूथर से बहुत प्रभावित थे। वह भ्रष्ट पोप और उसके अनुयायियों से भी नफरत करता था। काल्विनने लोगों की भलाई के लिए “The Institutes of Christian Religion”  लिखा। यह तर्क पर आधारित था और इसने लोगों को बहुत प्रभावित किया।

                              काल्विन की शिक्षा

1. बाइबिल में दृढ़ विश्वास

काल्विन का बाइबल में दृढ़ विश्वास था। उसने  उपदेश दिया कि लोगों को बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसने  रीति-रिवाजों पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और इस बात पर जोर दिया कि ईश्वर और उसके भक्तों के बीच पादरियों की कोई आवश्यकता नहीं है।

2. ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता  में विश्वास 

उसके  सिद्धांतों का आधार 'ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता' थी । सब कुछ ईश्वर की इच्छा से ही होता है। इसीलिए मनुष्य न तो 'कर्म' से मुक्त हो सकता है और न ही 'विश्वास' से। यह केवल ईश्वर की 'कृपा' से हो सकता है। ईश्वर की इच्छा है कि कुछ लोगों को मोक्ष मिले और कुछ को नर्क की यातनाएं सहनी पड़ें। इसलिए, वह अपनी इच्छा के अनुसार मोक्ष प्राप्त करने के लिए कुछ व्यक्तियों का चयन करता है और बाकी सभी व्यक्ति नरक में जाते हैं।

3. पूर्वनियति के सिद्धांत में  विश्वास 

मनुष्य के जन्म लेते ही यह तय हो जाता है कि उसकी मुक्ति होगी या नहीं। इसे पूर्वनियति का सिद्धांत कहा जाता है। प्रथम दृष्टया, इससे अत्यधिक भाग्यवाद बढ़ना चाहिए था, लेकिन इसके विपरीत, काल्विनवाद  ने अपने अनुयायियों में उत्साह और दैवीय प्रेरणा का संचार किया। कैल्विनवादी ने इस समझ के साथ काम करना शुरू किया कि यह उसकी नियति है और वह इससे विचलित नहीं हो सकता। आर्थिक दृष्टि से इस नियतिवाद का मतलब था कि व्यवसाय की प्रतिस्पर्धी दुनिया में सफलता या विफलता मानवीय कार्यों या उसकी चतुराई पर नहीं बल्कि 'अज्ञात आर्थिक ताकतों' पर निर्भर करती है।

4. पवित्र प्रसाद पर उसके विचार 

काल्विन के अनुसार, रोटी पर शराब छिड़कने से यह यीशु मसीह के शरीर और रक्त में नहीं बदल जाती है। बल्कि, वे केवल यीशु मसीह के शरीर और रक्त के प्रतीक हैं।

5. राज्य और धर्म पर विचार 

उसका मानना था कि राज्य और धर्म दो अलग चीजें हैं।  उसे प्रोटेस्टेंट  धर्म का राजकीय मामले में हस्तक्षेप पसंद नहीं था। इसी प्रकार, उनकी इच्छा थी कि चर्च को राज्य के मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

6. चर्च को लोकतांत्रिक संरचना

काल्विन  ने चर्च को एक लोकतांत्रिक ढाँचा दिया। उन्होंने उपदेश दिया कि धार्मिक मुद्दों को धार्मिक अधिकारियों द्वारा लोगों के परामर्श से सुलझाया जाना चाहिए। उन्होंने प्रेस्बिटेरियन को भी उचित सम्मान दिया, इसलिए प्रेस्बिटेरियनवाद के नाम से जाना जाने वाला एक संप्रदाय अस्तित्व में आया।

7. जादू और टोटम पर विचार 

वह नैतिकता में विश्वास करता था  और नैतिक और पवित्र जीवन जीने पर जोर देता था । उसे  जादू टोना  में विश्वास करने वाले लोग पसंद नहीं थे और वे भ्रष्टाचार और लंपट जीवन के पूरी तरह खिलाफ था ।

8. महान अनुशासक

काल्विन  एक महान अनुशासनप्रिय व्यक्ति था । उन्होंने जिनेवा के लोगों को सख्त अनुशासित जीवन जीने के लिए मजबूर किया। उन्होंने कंसिस्टरी नामक एक समिति का गठन किया जो लोगों के आचरण पर नजर रखती थी और अन्यथा आचरण करने वाले सभी लोगों को दंडित करती थी।

9. असहिष्णु

काल्विन  उन सभी के प्रति असहिष्णु था जो उसके साथ नहीं चलते थे। केल्विन ने स्पेन के एक डॉक्टर (सेर्वेटस) को मृत्युदंड दिया जो ईश्वर के अस्तित्व के बारे में उससे सहमत नहीं था।

Catholic Reformation : Causes


Due to Luther's protest movement, the respect of the Roman Catholic religion and its supreme priest, the Pope, was hurt and its importance started decreasing day by day. Therefore, seeing and understanding the circumstances, to end the opposition, he decided to make some reforms in the Roman Catholic religion. The reform plans made by Roman Catholic reformers are called Roman Catholic Reform Movement or Counter-Reformation.The following reasons and circumstances were responsible for Counter-Reformation:

1. Interpersonal differences among Protestant followers: Taking advantage

The originator of the Protestant religion was Martin Luther, but due to his differences with the religious reformers of other countries, the unity of the Protestant sect was broken and it was divided into three parts. The occasion was ripe for Catholic reformers. Taking advantage of the mutual animosity among the Protestant religion, he started efforts to reform the Catholic religion, in which he achieved considerable success, because the differences of opinion among the three branches of the Protestant religion, Lutheranism, Zweigism and Calvinism, were increasing.

2.Council of Trent: Internal Reform in Catholicism: Self-examination

For the revival of Catholic religion, a meeting was organized at a place called Trent in 1562 AD, in which new rules for Catholic religion were propounded. The following main doctrines were confirmed at the Council of Trent:

(ⅰ) The head of the Catholic Church is the Pope.

(ii) The Church has the monopoly on interpreting religious texts.

(iii) A new Bible should be prepared in Latin for Catholics.

Apart from this, some reforms were also announced in this meeting, the main ones were the following:

(i) A ban was imposed on selling church posts.

(ii) All bishops should perform their respective duties.

(iii) Proper training arrangements for the priests.

(iv) To propagate sermons in the language of common people as per requirement.

3. Great religious reformer: Support and cooperation

Fortunately, Catholics got the support and cooperation of some great religious reformers who wanted to remove the flaws prevalent in Catholic religion. Among these, the name of Ignatius Loyola is especially noteworthy, who gave importance to religious reform and reaction through his ideal life and good behaviour. King Philip of Spain also cooperated in this.

4. Jesuit Society: organization

A Jesuit order was established to oppose Protestantism. This organization was founded by Ignitius Loyola, a Spanish soldier. Loyola was unanimously elected general of this union. Since the organization of this Sangh was based on military system, the discipline was very strict. The Jesuits enjoyed some special rights due to which they became the foremost protectors of the Catholic religion. Every member had to take four promise, firstly to live in poverty, secondly to obey third commandment of celibacy and fourthly to have devotion towards the Pope. The result of the efforts of this association was that the growing influence of Protestantism could be stopped in countries like France, Germany, Poland etc.

5.Prohibited anti-Catholic books: Trying to Create Distance

According to the Council of Trent the Pope was requested to prepare a list of books that were anti-Catholic. Therefore, the Pope prepared a list of prohibited books and reading the books mentioned in it was banned for Catholics. Apart from this, sermon books were revised and new books were prepared for religious education.

6. Religious Court (Inquisition): Fear of punishment

An effort was made to elevate the moral as well as religious conduct of Catholics. Religious courts (Inquisition) were established for those who behaved below the prescribed standards. It was established first in Italy and then in other countries. For its establishment, approval had to be taken from that state. Those who criticized the Catholic Church were presented and tried in these courts. This court had the power to arrest a person, confiscate his property and even give him the death penalty. Only the Pope had the right to hear the final appeal regarding the decisions of these courts.

Thus, through these above mentioned institutions or means, the Catholic Church achieved considerable success in re-establishing its lost prestige and stopping the growing influence of Protestantism. Apart from these, other factors also proved helpful for the success of the counter-reform movement. Firstly, the Popes of the last years of the sixteenth century were of good character and devout. Secondly, the Protestants lacked leadership like Luther. Apart from this, the change in political circumstances also contributed to the success of the counter-reform movement. Due to their political interests, countries like France, Spain, Portugal, Austria, Poland etc. compromised with the Pope and provided support to him, which strengthened this movement.

CALVIN AND HIS TEACHING

The Reformation was started in France under the leadership of John Calvin who was a priest. John Calvin was born in 1509 at Noyens in France.  His father wanted to make him a priest for which he was provided training in Theology in Paris University for some time.  After this he was sent to Orleans University for the study of law because his father later thought the study of law to be more beneficial for his son.  Calvin was very much impressed by Martin Luther. He also hated the corrupt Pope and his followers. Calvin wrote “The Institutes of Christian Religion” for the good of people. It was based on logic and it greatly influenced the people.

                                 Teaching of Calvin

1. Firm faith in the Bible

Calvin had a firm faith in the Bible. He preached that the people should lead their life according to the teachings of the Bible. He did not pay much heed to rituals and stressed that the priest had nothing to do between God and the devotees.

2. The supremacy of God's will

The basis of his principles is 'the supremacy of God's will'. Everything happens only by the will of God. That is why man can be liberated neither by 'karma' nor by 'faith'. That could just be by the 'grace' of God. It is God's wish that some people should attain salvation and some should suffer the tortures of hell. Therefore, as per his wish, he selects some persons to attain salvation and all other persons go to hell.

3. Doctrine of Predestination

As soon as a human being is born, it is decided whether he will be emancipate or not. That is called the Doctrine of Predestination. On the face of it, this should have increased extreme fatalism, but on the contrary, calvinism infused enthusiasm and divine inspiration into its followers. The Calvinist started working with the understanding that this was his destiny and he could not deviate from it. This determinism in economic terms meant that success or failure in the competitive world of business did not depend on human actions or ingenuity but on 'unknown economic forces'.

4.  On Holy Eucharist

According to Calvin, sprinkling wine on bread in the Holy Eucharist does not change it into the body and blood of Jesus Christ. Rather, they are simply symbols of the body and blood of Jesus Christ.

5. On state and religion

He considered that the state and religion were two different things. He did not like the interference of state in the Protestant religion. Similarly, he wished that the church should not interfere in the matters of state.

6. Democratic structure to church

Calvin gave a democratic structure to church. He preached that religious issues should be settled by the religious authorities in consul- tation with the people. He also gave due regards to Presbyters, hence a sect known as Presbyterianism came into being.

7. On magic and totems

He believed in morality and laid stress on leading a moral and sacred life. He did not like the people who believed in magic and totems and was completely against corruption and licentious life.

8. Great disciplinarian

Calvin was a great disciplinarian. He forced the people of Geneva to lead a strict disciplined life. He formed a committee known as Consistory which kept a watch on the conduct of people and punished all those who acted otherwise.

9. Intolerant

Calvin was intolerant towards all who did not go hand in hand with him. Calvin gave death punishment to a doctor of Spain (Servetus) who did not agree with him about the existence of God.

सोमवार, 27 नवंबर 2023

दुष्ट सत्ता के समक्ष गांधी के हथियार

राजीव कुमार पाण्डेय

गांधी को न यकीन करने वाली आइंस्टीन की आने वाली पीढ़ी अब आ चुकी है। नई छवियों के निर्माण करने वाले अपवादों के विस्तारण तथा उद्देश्यपरक झूठ के संक्रामक बुखार को धारण करने वाली सोशल मीडिया के दौर में महात्मा गांधी चरखासुर के नए नाम से प्रचारित हो रहे हैं। हालांकि यह नई बात नहीं है, गांधी जी को अंग्रेजों ने अपना शत्रु माना, अंबेडकर ने विषैले दांतो वाला, वामपंथियों ने क्रांति की पनौती, जिन्ना ने एक चालाक हिंदू तो हिंदू गोडसे ने गांधी का वध ही कर दिया। लेकिन गांधी सबसे अलग हैं। गांधीजी की परवरिश, उनका अनुभव तथा उनका अर्जित बौद्धिक विकास इस बात की इजाजत नहीं देता था कि वह बिना जाने समझे किसी को अपना शत्रु समझते दरअसल उन्होंने कभी भी किसी को अपना स्थायी शत्रु नहीं समझा। उन्हें मनुष्य जाति की भलमनसाहत तथा सरकारों की उदारता तथा उनके अपने नागरिकों के प्रति दायित्वबोध में हमेशा यकीन रहा। गांधी का कहना था कि अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी दूसरों को समझा बूझाकर सही काम करने के लिए राजी कर लेना मैने हमेशा आसान पाया। गांधी का कार्यकारी अहिंसक जीवन दो हिंसक विश्व युद्धों के बीच का है जहां दुष्ट सत्ता की उपस्थिति से मानवता पीड़ित थी। गांधी ने दुष्ट सत्ता से निपटने के लिए कुछ शाश्वत उपायों को प्रचलित किया, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

सत्याग्रह और अहिंसा

दुष्ट सत्ता के अन्याय और अत्याचार के समक्ष दो स्थितियां बनती हैं। पहला कि हम विरोध न करें और उसकी अंधभक्ति का रास्ता अख्तियार कर लें, लेकिन यह कायरता है। दूसरा, कि हम निडरता दिखाएं तथा उसका विरोध करें, जो युद्ध या विप्लव के रूप में प्रकट होगा। ज़ाहिर है कि इसमें हिंसा का समावेश होगा। गांधीजी ने एक तीसरा विकल्प प्रस्तुत किया, वह था सत्याग्रह अर्थात सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा । गांधी के अनुसार सत्य एक सार्वभौम मूल्य है। गांधी का यह एक अनोखा हथियार था जिसका जवाब किसी भी दुष्ट सत्ता के पास नहीं है। उन्होंने असत्य को सत्य से जीतने की बात की। वह इस बात पर अडिग थे कि भारत में अंग्रेजों के शासन को कभी भी सत्य नहीं ठहराया जा सकता था। गांधी के अनुसार स्वराज और न्याय सत्य है और इसलिए ही इस पर उनका आग्रह है। यह एक नैतिक शस्त्र है । गांधीजी के अनुसार अहिंसा, पशुता से मनुष्यता की तरफ प्रयाण का मानक है। उनके अनुसार अहिंसा सांस्कृतिक मनुष्य की एक चरम उपलब्धि है। यह सुषुप्तावस्था में रहती है, लेकिन जब यह जागती हैं तो प्रेम बन जाती है, जो संसार की गतिशीलता का साधन है।

एकता

गांधी का मानना था कि किसी भी शक्तिशाली और संगठित दुष्ट सत्ता से व्यक्तिगत तौर पर निपटना संभव नहीं है। यही नहीं हम सामाजिक फूट के साथ भी इससे नहीं निपट सकते। अपनी सत्ता को मजबूती देने के लिए अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति पर काम किया। उन्होंने न सिर्फ धार्मिक विभाजनों को बड़ा किया बल्कि हिन्दू धर्म की आंतरिक कमियों का लाभ उठाकर दलितों को भी आजादी के लिए चल रहे संघर्ष से दूर रखने की कोशिश की। गांधी ने एक शक्तिशाली सत्ता से निपटने के लिए खिलाफत आंदोलन के माध्यम से न सिर्फ हिंदू मुस्लिम एकता पर जोर दिया बल्कि दलितों को मुख्य धारा में बनाए रखने के लिए आमरण अनशन करके पूना पैक्ट करवाया। गाँधी के भारत में क्रियाशील होने के पूर्व की राजनीति वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली थी लेकिन गांधी ने वर्ग समन्वय की एक अनोखी राजनीतिक शैली को विकसित किया।

अपनी मांग की वैधता निर्मित करना

अंग्रेजों ने भारतीयों के स्वशासन की मांग को यह कह कर ख़ारिज किया की भारतीय समाज की कमियां जैसे स्त्रियों की दशा, धार्मिक कलह, तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयां इस बात की इजाजत नहीं देती, तथा भारतीयों को स्वशासन के लिए अयोग्य बनाती हैं। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन को एक सांस्कृतिक परियोजना बताया तथा इसे श्वेत व्यक्ति का बोझ सिद्ध किया। गाँधीजी ने न सिर्फ उनके दावों को खोखला सिद्ध किया बल्कि पश्चिमी सभ्यता को अनैतिकता का प्रचार करने वाली बताया । साथ ही गांधीजी  ने अपनी मांग को नैतिक रूप से मजबूत करने के लिए भारतीय समाज की अपनी बुराइयों को भी दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम सौहार्द, अस्पृश्यता उन्मूलन तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए लगातार संगठित प्रयास किया।

असहयोग

गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की अच्छाई में विश्वास करके उनकी मदद की। वे भारत में घूम-घूम कर युवकों से सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते रहे। इसके लिए उन्हें भर्ती करने वाला सार्जेंट भी कहा गया। गांधी जी का मानना था कि अंग्रेज इस सहयोग के बदले में भारतीयों को स्व शासन देने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। लेकिन इसका उल्टा हुआ अंग्रेजों ने एक दमनात्मक कानून रॉलेट एक्ट पारित कर दिया जिसे न अपील न वकील न दलील के रूप में जाना जाता था। इसी बीच 1919 में जलियांवाला बाग काण्ड भी हो गया। गांधी ने अंग्रेजी सत्ता को शैतानी कहा तथा अब असहयोग की नीति अपनायी। गांधीजी जो एक समय अंग्रेजों को अच्छा समझ कर सहयोग किए थे उनके शैतानी होने पर अब उनके साथ असहयोग की बात करने लगे। गांधी जी ने कहा कि सरकार को बता दो कि चाहें फांसी पर लटका दे, चाहें जेल में बंद कर दे, उसे हमारा सहयोग किसी भी हालत में नहीं प्राप्त होगा। अब हम किसी दुष्ट सत्ता का सहयोग नहीं कर सकते ।

सविनय अवज्ञा

अंग्रेजों ने भारतीय शासन पर बात करने के लिए 1927 में साइमन कमीशन भेजा परंतु इसमें किसी भी भारतीय को नहीं रखा गया। भारत में अंग्रेजी कानून भारतीय मानस, भारतीय समाज तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के विरुद्ध था। गांधी जी का कहना था कि ऐसा कोई भी कानून जिसके निर्माण में भारतीय आकांक्षा शामिल नहीं है और उसे किसी दुष्ट सत्ता ने जबरदस्ती भारतीयों पर थोप रखा है तो उसे भारतीयों को मानने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए गांधी जी ने नमन कानून को लिया। गांधी जी का कहना था कि नमक कानून, जो कानून की पुस्तक में कलंक जैसा है, उसे वो तोड़ेंगे और इसके लिए उन्हें जो भी सजा दी जाएगी उसे भुगतने के लिए वो तैयार रहेंगे। उन्होंने सिर्फ अब एक ही शर्त रखी कि स्वराज पाने के लिए सत्य और अहिंसा की प्रतिज्ञा का ईमानदारी से पालन हो।

करो या मरो

एक समय ऐसा भी आता है जब दुष्ट सत्ता के पाप का घड़ा भर जाता है तथा पीड़ितों के सब्र का बांध टूट जाता है। गाँधी जी के अनुसार अंग्रेजों की एक व्यवस्थित अनुशासित अराजकता का अब अंत अब होना ही चाहिए भले ही इसका परिणाम अब कुछ भी हो । उन्होंने कहा कि एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूँ । उसे आप अपने ह्रदय में अंकित कर सकते हैं। वह मंत्र है करो या मरो, या तो हम भारत को आजाद कराएँगे या इस कोशिश में अपनी जान दे देंगें। अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिन्दा नहीं रहेंगें।

इस प्रकार गाँधीजी ने अंग्रेजी दुष्ट सत्ता से निपटने के लिए इन हथियारों का प्रयोग किया । लेकिन अब के अय्यार दुष्ट सत्ता ने जनता पर नियंत्रण के अपने हथियार को जादुई बना लिया है। फिर भी गाँधी नाम से वह डरी रहती है क्योंकि सत्ता के विरुद्ध गाँधी की "संज्ञानात्मक दासता की दुश्चिन्तायें" एक नागरिक के समक्ष चेतावनी के तौर पर अभी भी जिंदा है। आप गांधी के ख़िलाफ़ गोडसे बन सकतें हैं परन्तु किसी अत्याचारी दुष्ट सत्ता के ख़िलाफ़ आपका गाँधी बनना ही बेहत्तर विकल्प है। हाँ कोई भी दुष्ट सत्ता कभी नहीं चाहेगी की आप गाँधी बने क्योंकि दमन के लिए सहूलियत भरी हिंसा उसे बहुत भाती है। इसके लिये वह हमेशा अपना सक्षम प्रयास करती रही है।

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