बुधवार, 9 अप्रैल 2025

दिल्ली सल्तनत में फारसी साहित्य

 


दिल्ली सल्तनत के दौरान फारसी साहित्य के विकास के कारण

  1. मंगोल आक्रमणों के कारण मध्य एशिया से विद्वानों का भारत की ओर प्रवासन।

  2. भारत में कई शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना।

  3. दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक स्थिरता।

  4. इस्लामी इतिहासलेखन की परंपरा।

  5. कागज़ के व्यापक उपयोग से लेखन और संरक्षण में सहूलियत।

  6. शासकों की व्यक्तिगत रुचि और संरक्षण।

  7. फारसी भाषा का राजकीय भाषा होना, जिससे यह रोजगार का मुख्य माध्यम बनी।

                              क. ऐतिहासिक  रचनाएँ

1. हसन निज़ामी – ताज-उल-मासिर

हसन निज़ामी भारत में मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के दौरान आए। उन्होंने 1205 ई. में ताज-उल-मासिर लिखना शुरू किया। यह ग्रंथ 1192 से 1218 ई. तक के सैन्य अभियानों का वर्णन करता है और इन अभियानों में अपनाई गई नीतियों को स्पष्ट करता है। इसमें तत्कालीन महत्वपूर्ण स्थानों, त्योहारों और मनोरंजन के साधनों का भी उल्लेख है। यह प्रारंभिक सल्तनत काल के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन की महत्त्वपूर्ण जानकारी देता है। हालांकि, इसकी कुछ बातें अस्पष्ट और भ्रमित करने वाली हैं। जैसा कि यू. एन. डे कहते हैं – "यद्यपि पुस्तक की भाषा अत्यंत कलात्मक और अलंकारिक है, फिर भी इसके द्वारा दी गई सामान्य जानकारी प्रायः सत्य प्रतीत होती है।"

2. मिन्हाज-उस-सिराज – तबक़ात-ए-नासिरी

1260 ई. में पूर्ण हुई यह कृति मुहम्मद गौरी के भारत विजय से लेकर 1260 तक की घटनाओं को समेटती है। यह ममलूक (गुलाम) वंश की गतिविधियों का प्रत्यक्षदर्शी विवरण देती है। लेखक बलबन की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं और इल्तुतमिश तथा अन्य शासकों के प्रति पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण अपनाते हैं। फिर भी, इसकी कालानुक्रमिक सटीकता और समकालीन सामाजिक-आर्थिक स्थिति के विस्तृत वर्णन के कारण यह एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्रोत है।

3. अमीर खुसरो – ऐतिहासिक रचनाएँ

अमीर खुसरो (1253–1325 ई.), उत्तर प्रदेश के पटियाली (इटावा) में जन्मे, मध्यकाल के प्रमुख इतिहासकार और कवि थे। वे कई सुल्तानों के दरबारी थे और युद्ध अभियानों में सक्रिय भाग लेते थे। उनकी ऐतिहासिक रचनाएँ हैं:

  • (i) किरान-उस-सअदैन (1289 ई.) – बुगरा ख़ाँ और उनके पुत्र क़ैक़ुबाद की मुलाकात का वर्णन; तत्कालीन दिल्ली के राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का चित्रण।

  • (ii) मिफ़्ताह-उल-फ़तूह (1291 ई.) – जलालुद्दीन खिलजी की प्रारंभिक विजयों, विशेष रूप से मलिक छज्जू के विद्रोह की पराजय का उल्लेख।

  • (iii) आशिका (1316 ई.) – ख़िज्र ख़ाँ (अलाउद्दीन खिलजी के पुत्र) और देवळ देवी (गुजरात के राजा कर्ण की पुत्री) की प्रेम कथा; बाद की घटनाओं में ख़िज्र ख़ाँ की हत्या, अलाउद्दीन की बीमारी और मलिक काफूर का उदय शामिल।

  • (iv) नुह सिपेहर – कुतुबुद्दीन मुबारक शाह को समर्पित, इसमें भारत की जलवायु, वनस्पति, जीव-जंतु, धार्मिक विश्वास और रीति-रिवाजों का विवरण है।

  • (v) ख़ज़ाइन-उल-फ़तूह (तारीख़-ए-अलायी) (1311 ई.) – अलाउद्दीन खिलजी के शासन के पहले 15 वर्षों का वर्णन, उसकी विजय, आर्थिक सुधार और स्थापत्य कार्य। इसमें जलालुद्दीन की हत्या का कोई उल्लेख नहीं है।

  • (vi) तुग़लक़नामा – अमीर खुसरो की अंतिम ऐतिहासिक कविता, जिसमें ख़ुसरो ख़ाँ के पतन और ग़ियासुद्दीन तुग़लक़ के राज्यारोहण का वर्णन है।

4. ज़ियाउद्दीन बरनी

बरनी (1285–1357 ई.) तुग़लक काल के प्रमुख इतिहासकार थे, हालांकि वे व्यक्तिगत और धार्मिक दृष्टिकोण से पक्षपाती थे। उनके चाचा अलाउल मुल्क, अलाउद्दीन खिलजी के शासन में दिल्ली के कोतवाल थे। उनकी रचनाएँ:

  • (i) तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही (1359 ई.) – खिलजी और तुग़लक वंश का पूर्ण इतिहास; इसमें राजनीतिक घटनाओं, सामाजिक एवं आर्थिक सुधारों, न्याय प्रणाली, शिक्षा और समकालीन विद्वानों का वर्णन मिलता है।

  • (ii) फ़तवा-ए-जहाँदारी – इस्लामी शासन के सिद्धांतों पर आधारित राजनैतिक निबंध, जिसे फिरोज तुग़लक को संबोधित किया गया था। इसमें ग़ज़नी के महमूद को आदर्श शासक बताया गया है।

5. शम्स-ए-सिराज अफीफ़ – तारीख़-ए-फ़िरोज़शाही

1350 ई. में अबू हार में जन्मे अफीफ़ दीवान-ए-वज़ारत में कार्यरत थे और दरबारी हलकों में उनकी पहुँच थी। उनकी रचना बरनी की कृति के बाद शुरू होती है और 1357 से 1388 ई. तक फिरोज तुग़लक के शासनकाल को कवर करती है। इसमें 90 अध्याय हैं, जो अभियान, प्रशासनिक सुधारों, धार्मिक नीतियों और दरबारियों की जीवनी को दर्शाते हैं।

6. फतूहात-ए-फ़िरोज़शाही – फ़िरोज़ शाह तुग़लक द्वारा

फ़िरोज़ तुग़लक द्वारा रचित यह आत्मकथात्मक कृति उनके प्रशासन, धार्मिक नीतियों और सैन्य उपलब्धियों का सार देती है। यद्यपि यह संक्षिप्त है, फिर भी इसका समकालीन महत्व अत्यधिक है।

7. अबू बक्र इसामी – फतूह-उस-सलातीन

इसामी इल्तुतमिश के समय भारत आए और 1349 ई. में यह काव्यात्मक इतिहास पूर्ण किया। इसे शाहनामा-ए-हिंद भी कहा जाता है। इसमें ग़ज़नवी से लेकर मुहम्मद बिन तुग़लक तक के शासकों का विवरण है। यह अलाउद्दीन हसन बहमनी को समर्पित है। इसामी ने अलाउद्दीन खिलजी के शासन की सराहना की है और मुहम्मद तुग़लक की राजधानी परिवर्तन नीति की आलोचना की है, जिसने लेखक को भी प्रभावित किया।

8. याह्या बिन अहमद सिरहिंदी – तारीख़-ए-मुबारकशाही

यह कृति 1388 से 1434 ई. तक की घटनाओं का वर्णन करती है, विशेष रूप से फ़िरोज़ तुग़लक की मृत्यु के बाद सल्तनत के पतन और तैमूर के आक्रमण के परिणामों का। इसे कालानुक्रमिक रूप से लिखा गया है और सैय्यद वंश के शासक मुबारक शाह को समर्पित है, जो लेखक के मित्र थे।

                   ब - फ़ारसी काव्य

मध्यकालीन भारत में फ़ारसी कविता ने कई प्रमुख विधाओं में विकास किया, जिनमें से प्रत्येक ने हिंद-फ़ारसी साहित्य की समृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान दिया। प्रमुख काव्य विधाएँ इस प्रकार थीं:

  • ग़ज़ल – ग़ज़ल दोहे (शेर) का संग्रह होती है, जिसमें सामान्यतः 5, 7, 9 या 11 शेर होते हैं। प्रत्येक शेर एक स्वतंत्र भाव या विचार की अभिव्यक्ति होता है।

  • मसनवी – यह एक लंबी वर्णनात्मक कविता होती है, जो किसी कहानी या घटना का विस्तार से और काव्यात्मक ढंग से वर्णन करती है।

  • क़सीदा – यह प्रशंसा हेतु लिखी जाने वाली कविता होती है, जो आमतौर पर किसी शासक या अभिजात वर्ग के सदस्य की स्तुति में रची जाती है।

  • मरसिया – यह एक शोकगीत या विलाप होता है, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति की मृत्यु पर उसकी याद में दुःख और करुणा प्रकट करने के लिए लिखा जाता है।

प्रारंभ में लाहौर फ़ारसी साहित्यिक गतिविधियों का केंद्र था। परंतु दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही फ़ारसी को दरबारी भाषा का दर्जा मिला। प्रारंभिक सुल्तानों जैसे कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश ने फ़ारसी कवियों और विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया।

इल्तुतमिश के शासनकाल में ख़ुरासान और समरकंद जैसे क्षेत्रों से अनेक विदेशी कवि भारत आए। इनमें ख़ुरासान के नसीरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं, जो आध्यात्मिक विषयों और लोकगीत कविता के लिए प्रसिद्ध थे। इल्तुतमिश के दरबार में दिल्ली के प्रसिद्ध कवि दबीर भी थे।

इस काल के एक अन्य प्रसिद्ध कवि फ़ख़रुद्दीन नुन्नकी थे, जो अपने तख़ल्लुस 'अमीद' से जाने जाते हैं। वे अनवरी और खाक़ानी से प्रभावित विशिष्ट काव्य शैली के लिए प्रसिद्ध थे और बाद में सूफ़ी मत से जुड़ गए थे। एक अन्य कवि अमीद तुमनामी पंजाब के सुमनाम क्षेत्र से थे।

बलबन के दरबार में दो प्रमुख साहित्यकार उभरे – अमीर खुसरो और अमीर हसन देहलवी।

अमीर खुसरो

अमीर खुसरो हिंद-फ़ारसी शैली की एक अनूठी काव्य परंपरा के निर्माता माने जाते हैं, जिसे सब्क-ए-हिंदी (भारतीय शैली) कहा जाता है। उनके काव्य को भारत ही नहीं, बल्कि ईरान के विद्वानों ने भी सराहा। उन्होंने पाँच दीवानों का संकलन किया, जो उनके जीवन के विभिन्न चरणों को दर्शाते हैं:

  1. तुहफ़त-उस-सिगार (बचपन का तोहफा )

  2. वस्तुल-हयात (जीवन का मध्य)

  3. ग़ुर्रत-उल-कमाल (पूर्णता की शुरुआत)

  4. बकिया -नकिया  (अनंत की चमक)

  5. निहायत-उल-कमाल (पूर्णता की चरम अवस्था)

उन्होंने पाँच मसनवियों का एक संकलन भी रचा, जिसे ख़म्सा-ए-ख़ुसरो कहा जाता है, जो निज़ामी की ख़म्सा से प्रेरित था। ये हैं:

  1. मतला-उल-अनवार

  2. शिरीन-ओ-खुसरो

  3. मजनून-ओ-लैला

  4. आइना-ए-सिकंदरी

  5. हश्त-बिहिश्त

उनकी गद्य रचना इजाज़-ए-ख़ुसरवी अपने रूपकात्मक भाषा के लिए सराही गई। उन्होंने अपने आध्यात्मिक गुरु हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया की शिक्षाओं को सरल गद्य में अफ़ज़ल-उल-फवायद के रूप में भी प्रस्तुत किया। प्रसिद्ध चार दरवेश की कहानियाँ और फ़ारसी शब्दकोश ख़ालिक बरी भी उन्हीं से जुड़ी मानी जाती हैं।

अमीर हसन देहलवी

बलबन के दरबार के एक अन्य प्रमुख कवि थे ख्वाजा नज्मुद्दीन हसन, जिन्हें अमीर हसन देहलवी के नाम से जाना जाता है। वे अमीर खुसरो के समकालीन और उनके घनिष्ठ मित्र थे। उन्हें शहज़ादा मुहम्मद का संरक्षण प्राप्त था और विख्यात फ़ारसी कवि जामी ने भी उनकी प्रशंसा की थी। उन्हें अक्सर "भारत का सादी" कहा जाता है। उनकी प्रसिद्ध रचना फवायद-उल-फवाद निज़ामुद्दीन औलिया के उपदेशों को संकलित करती है। उन्होंने शहज़ादा मुहम्मद की मृत्यु पर एक मरसिया भी लिखा।

तुग़लक़ काल

फ़ारसी साहित्य तुग़लक़ों के शासन में और भी समृद्ध हुआ, विशेषकर मुहम्मद बिन तुग़लक़ के शासन में, जो स्वयं एक विद्वान और कवि थे। उनके दरबारी कवि बदर-ए-चाचा ने अब्बासी ख़लीफ़ा द्वारा मुहम्मद तुग़लक़ की मान्यता मिलने पर क़सीदे लिखे। उन्होंने एक दीवान, एक मसनवी, और यहां तक कि शाहनामा का एक संस्करण भी रचा।

लोदी काल

सुल्तान सिकंदर लोदी फ़ारसी साहित्य के संरक्षक और एक स्वयं में प्रतिभाशाली कवि थे, जो गुलरुख तख़ल्लुस से लिखते थे। वे अपनी ग़ज़लों के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके दरबार में कई कवि सक्रिय थे, जिनमें ईरानक शीराज़ी, शेख़ अब्दुल्ला, और शेख़ अज़ीज़ुल्ला प्रमुख थे।

इस काल के सबसे प्रसिद्ध कवि थे हामिद बिन फ़ज़्लुल्लाह जमालुद्दीन, जिन्हें शेख़ जमाली कांबोह के नाम से जाना जाता है। उनका संबंध सिकंदर लोदी से काफ़ी निकट था। उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में सियार-उल-आरिफीन और मसनवी मेहरू-ओ-सलामा शामिल हैं।

                       ग– फ़ारसी अनुवाद

दिल्ली सल्तनत काल के दौरान कई महत्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद किया गया, जो भारतीय और इस्लामी परंपराओं के बीच समृद्ध सांस्कृतिक और बौद्धिक आदान-प्रदान को दर्शाता है।

  • अलबरूनी के ग्रंथ: अलबरूनी प्रारंभिक विद्वानों में से एक थे जिन्होंने भारतीय ज्ञान को फ़ारसी और अरबी में अनुवादित किया।

  • सयदना या औषधियों की पुस्तक: बक्र नामक विद्वान द्वारा फ़ारसी में अनुवाद किया गया।

  • नामा-ए-ख़िरद: इल्तुतमिश के शासनकाल में, विद्वान ब्राह्मणों की सहायता से 32 भारतीय नैतिक कथाओं का अनुवाद "अफ़ज़ा" नाम से फ़ारसी में किया गया।

  • हितोपदेश: इसका फ़ारसी अनुवाद मुफ़र्रिर अल-क़लाल नामक विद्वान से जुड़ा हुआ है।

  • ज़िया नक़्शबी (मृत्यु: 1350 ई.): संस्कृत कहानियों का फ़ारसी में अनुवाद करने वाले पहले व्यक्ति माने जाते हैं, जिन्होंने इसे "तूतिनामा" नाम से अनूदित किया। उन्होंने प्राचीन भारतीय कामशास्त्र ग्रंथों का भी अनुवाद किया, जिनमें "कोकशास्त्र" का फ़ारसी संस्करण भी शामिल है।

  • अज़ीज़ुद्दीन किरमानी: उन्होंने खगोल विज्ञान पर आधारित एक संस्कृत ग्रंथ का फ़ारसी में अनुवाद किया, जिसे "दलायल-ए-फिरोज़ शाही" नाम दिया गया।

  • अब्दुल अज़ीज़ शम्स: इन्होंने संगीत विषयक एक संस्कृत ग्रंथ का फ़ारसी में अनुवाद किया।

  • मियां भुआ: सिकंदर लोदी के प्रधान मंत्री, जिन्होंने आयुर्वेद पर एक संस्कृत ग्रंथ की रचना की। इसका फ़ारसी अनुवाद "तिब-ए-सिकंदरी" या "मदन-उश-शिफ़ा" के नाम से प्रसिद्ध है और इसे एक प्रमुख आयुर्वेदाचार्य से जोड़ा जाता है।

  • राग दर्शन (राग दर्पण): संगीत पर आधारित एक संस्कृत ग्रंथ, जिसका अनुवाद फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में फ़ारसी में किया गया।

  • अमृत कुंड: एक योग संबंधी ग्रंथ जिसे क़ाज़ी रुक्नुद्दीन नामक विद्वान ने फ़ारसी में अनुवादित किया।

  • ज़ैन-उल-आबिदीन: कश्मीर के सुल्तान, जिन्होंने संस्कृत ग्रंथों का फ़ारसी में अनुवाद करवाया, जिनमें महाभारत प्रमुख है। उन्होंने राजतरंगिणी और संगीत व चिकित्सा पर आधारित अनेक ग्रंथों के अनुवाद को भी बढ़ावा दिया।

                     द– फ़ारसी सूफ़ी साहित्य

भारत में सूफ़ी संतों ने अपने उपदेशों, संवादों और लेखन के माध्यम से फ़ारसी साहित्य को अत्यंत समृद्ध किया। उनके कथनों, आत्मकथाओं और पत्रों को अलग-अलग संग्रहों में संरक्षित किया गया, जिन्हें सामूहिक रूप से "मलफ़ूज़ात" (संवाद) और "मक़तूबात" (पत्र) कहा जाता है।

प्रमुख मलफ़ूज़ात (संवादों के संकलन):

  • फ़वाइद-उल-फ़ुआद: हज़रत निज़ामुद्दीन औलिया के संवादों का संकलन, जिसे अमीर हसन सिज़्ज़ी ने एकत्रित किया। इसमें अलाउद्दीन खिलजी से लेकर ग़ियासुद्दीन तुगलक तक की राजनीतिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विवरण मिलता है।

  • ख़ैर-उल-मजलिस: हमीद क़लंदर द्वारा संकलित, इसमें शेख़ नसीरुद्दीन चिराग़-ए-दिल्ली के कथन हैं। यह विशेष रूप से अलाउद्दीन खिलजी की मूल्य नियंत्रण नीति जैसी आर्थिक नीतियों की जानकारी देता है।

  • सिराज-उल-हिदाया: मखदूम जहानियाँ जहांगश्त (जलालुद्दीन बुख़ारी) से संबंधित एक ग्रंथ, जिसमें धार्मिक चिंतन और फ़िरोज़ शाह तुगलक की आर्थिक नीतियों पर प्रकाश डाला गया है। यह उस काल की धार्मिक जीवन पद्धति को समझने में सहायक है।

प्रमुख मक़तूबात (पत्रों का संकलन):

  • मक़तूबात-ए-सादी: शेख़ शरफ़ुद्दीन यहया मनेरी द्वारा लिखे गए पत्र, जो तुगलक शासकों की धार्मिक नीतियों और सूफ़ी सिलसिलों से उनके संबंधों पर प्रकाश डालते हैं।

  • मक़तूबात-ए-अशरफ़ जहांगीर: यह पत्रों का संग्रह सुल्तनत काल के धार्मिक और सामाजिक जीवन की जानकारी देता है।

  • रिसाला-ए-रशीदी: रशीदुद्दीन फज़लुल्लाह द्वारा लिखे गए पत्र, जो इलखानी और दिल्ली सल्तनत के शासकों के राजनीतिक और धार्मिक संबंधों को दर्शाते हैं।

अन्य उल्लेखनीय योगदान:

  • दलील-उल-आरिफ़ीन: अजमेर के ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती (1142–1235) के वचनों का संकलन, जो चिश्ती सूफ़ी परंपरा की आधारशिला है।

  • फ़वाइद-ए-बाबा फ़रीद: बाबा फरीद की आध्यात्मिक शिक्षाओं का संग्रह, जिसमें बख्तियार काकी के कथनों को भी सालिकान नामक संकलन में शामिल किया गया है।

  • अफ़ज़ल-उल-मक़ालात: अमीर खुसरो द्वारा संकलित, जो निज़ामुद्दीन औलिया के प्रिय शिष्य थे। इसमें उनके संवादों को दर्ज किया गया है और यह हिंद-फ़ारसी सूफ़ी साहित्य को समृद्ध करता है।

  • तफ़्सीर-ए-तातर: तातर ख़ान से प्रेरित एक धार्मिक ग्रंथ, जिसे विभिन्न इस्लामी विद्वानों (उलेमा) ने रचा।

  • फ़तवा-ए-फ़िरोज़ शाही: फ़िरोज़ शाह तुगलक के शासनकाल में संकलित एक व्यापक धार्मिक और विधिक ग्रंथ, जो कट्टर इस्लामी कानूनशास्त्र के प्रभाव को दर्शाता है।

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