गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

शोध आलेख - सामाजिक विमर्श की नई परिभाषाएं रचता भूमंडलीकरण

प्लेगरिज्म से बचने  के लिए सन्दर्भ दें - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “सामाजिक विमर्श की नई परिभाषाएं रचता भूमंडलीकरण.” भारतीय समाज के विविध आयाम, संपादक - नम्रता जैन,  टी. एस. पब्लिकेशन्स, दिल्ली (2022): 179–185. Print.

लेखक - Rajiv Kumar Pandey

PhD Student

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ

युगद्योतक भूमंडलीकरण हमारे समय के विमर्श को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है। समाजशास्त्री मार्शल मैक्लुहान की ‘वैश्विक गाँव’[1] की एक विशिष्ट प्रक्रिया तथा अनुभव, जिसे भूगोलवेत्ता डेविड हार्वे “देश–काल संपीडन”[2] की संज्ञा देते हैं, में सामाजिक दूरियों का घटना भूमंडलीकरण की सबसे लोकप्रिय अमूर्त धारणा है। इसने हमारी सामाजिक कल्पना के हर रूप का अभूतपूर्व सीमा विस्तारण किया है। सामाजिक सम्बन्धों के इस विश्वव्यापी सघनीकरण के कारण स्थानीयताओं के दायरे में होने वाले विमर्शों की शक्ल-सूरत उनसे बहुत दूर चल रहे विमर्श से बनने लगती है। धारणाओं, प्रवृतियों, सक्रियता के तरीकों, आस्थाओं और आचरणों से मिल कर बने विमर्श के जिस रूप को भूमंडलीकरण रच रहा है उसने न सिर्फ आत्मपरकताओं बल्कि विभिन्न सामाजिक संसारों को आवाज़ दिया है साथ ही इसने जीवन के हर कोने तथा अस्तित्व के हर रूप का वस्तुकरण किया है[3] जिसकी खरीद-बिक्री संभव है। विमर्श का पक्ष-विपक्ष तथा उसका क्षेत्र भी, सचेत बाज़ार के इस अदृश्य और अचेतन दायरे से मुक्त नहीं है

जिग्मंट बॉमन भूमंडलीकरण को "अंतरिक्ष युद्ध"[4] के रूप में देखते हैं। जहाँ विजेता अपनी गतिशीलता के नशे में है, पराजित अपने को कैद तथा अपमानित महसूस कर रहे हैं, वहीँ कुछ पर्यटक भी हैं जो कुछ अप्रतिबंधित जगहों की ओर बढ़ रहें हैं तथा कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए यह दुनिया असहनीय है। इस रूपक को हम सामाजिक विमर्श के भूमंडलीय दौर पर भी लागू कर सकते हैं जहाँ पूँजीवाद और बाजार का विमर्श विजेता के भाव में है, साम्यवादी विमर्श पराजय की अवस्था में, स्त्री तथा दलित विमर्श पर्यटक की अवस्था में अनुकूल जगहों की तलाश में हैं जबकि किसान, मजदूर, वृद्ध तथा हासिये के समूह बेघर जैसे हैं, जिन्हें कोई पूछ नहीं रहा है क्योंकि ये बाज़ार के सौन्दर्यमूलक संसार के विमर्श में दाग जैसे दिखतें हैं, इनमें बिकाऊपन जैसा कम है। लेकिन सभी के लिए यह बेचैनी लेकर आता है क्योंकि विजेताओं के पास भी कम समस्या नहीं है। सबसे पहले है धीमा नहीं होने तथा लगातार गति का बोझ, विकल्पों की एक अंतहीन शृंखला, और प्रत्येक विकल्प में अनिश्चितता तथा जोखिमों की एक  शृंखला का होना

हमारी प्रगति की ध्वजवाहक रचनाएँ, हमारे भविष्य के इतिहास के उस चरण का आधार बन रही हैं जहाँ इंटरनेट की चीजें, डिजिटल तकनीकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स में तीव्र भूमण्डलीय विकास, समाज और उद्योग की निर्माणकारी शक्तियों में महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन ला सकता है तथा नए मूल्यों के निर्माण का एक आधार स्तंभ बन सकता है। अब हमारी दुनिया और लोगों के मूल्य, तीव्रता से वैविध्य भरे और जटिल होते जा रहें हैं। इतिहास की यह अग्रगति अभी भी मानव की प्रगति के अपने नियामकों, उत्पादन के साधनों तथा उसकी प्रणाली से मुक्त नहीं हैं। निकट भविष्य, समाज और साधनों का जो सेतु बना रहा है उसके पार की दुनिया निश्चित ही वह नहीं है जिससे हम परिचित हैं। चूंकि ‘निगम’ और ‘उद्यमी’ जो इस क्रांति का नेतृत्व करते हैं स्वाभाविक रूप से अपनी रचनाओं की प्रशंसा कर रहे हैं तथा इन्हें जरूरतमंद ‘सत्ता’ का संरक्षण भी हासिल है। एक लालची ‘गठजोड़’ उन समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों और इतिहासकारों को हाशिये पर पटक रहा है जो सतर्क करतें हैं और उन तरीकों और चीजों को समझते-समझाते हैं जिनसे चीजें बहुत गलत हो सकती है।[5]

भूमंडलीकरण ने सामाजिक बदलाव और प्रगति का जो नया विमर्श रचा है उसमें उत्पादन प्रणाली का अद्यतनीकरण “उद्योग 5.0” के नाम से अपनी पहचान बना रहा है यह शब्द रोबोट और स्मार्ट मशीनों के साथ काम करने वाले लोगों को संदर्भित करता है। यह उन रोबोटों के बारे में है, जो इंटरनेट ऑफ थिंग्स और बिग डेटा जैसी उन्नत तकनीकों का लाभ उठाकर, मनुष्यों को बेहतर और तेज़ी से काम करने में मदद करते हैं। यह स्वचालन और दक्षता के उद्योग 4.0 स्तंभों के लिए एक व्यक्तिगत मानवीय स्पर्श को जोड़ता है। अब जबकि समझा जा रहा है कि रोबोट ऐतिहासिक दृष्टि से खतरनाक तथा प्रदर्शन में नीरस है, जैसा कि टेस्ला के सी.ई.ओ. एलन मस्क ने स्वीकार किया है कि उनकी कंपनी में ‘अत्यधिक स्वचालन’ एक गलती थी, उन्होंने ट्वीट किया कि "मनुष्यों को कम आंका गया है’’।[6] हालाँकि कोविड महामारी से कुछ कार्पोरेट ने चिंताजनक रूप से यह अवश्य सीखा है कि मशीने बीमार नहीं पड़ती हैं। उद्योग 5.0 का उद्देश्य संज्ञानात्मक कंप्यूटिंग क्षमताओं तथा सहयोगात्मक संचालन में संसाधनशीलता के साथ मानवीय बुद्धिमत्ता को मिलाना है। साधारण शब्दों में इस उद्योग का उत्पाद एक ख़ास तरह के शिक्षित और कुशल मनुष्य हैं।[7] इस क्रांति के लिए तथा इस क्रांति से रचित, “समाज 5.0” एक ऐसे समाज को संदर्भित है जो साइबर स्पेस(आभासी) और फिजिकल स्पेस(भौतिक) के बीच उच्च स्तर का अभिसरण प्राप्त करता है अर्थात आभासी और भौतिक दोनों जगहों पर न केवल पाये जाते हैं बल्कि इन स्थानों को परस्पर तीव्रता से एकीकृत भी करतें है। मानव-केंद्रित यह समाज एक ऐसी प्रणाली विकसित करता है जो सामाजिक समस्याओं के समाधान के साथ प्रगति के भिन्न आयामों और भिन्नताओं को भी संतुलित करने का दावा करता है।[8]

सामाजिक विमर्श की भूमण्डलीय जगह ''जटिलताओं की सामान्य स्थिति'' में रहने को अभिशप्त है, जहाँ पर सच भी अपनी “नवीनता का समारोह मनाता” उद्देश्यपूर्ण शब्दों की बाज़ीगरी है। सभी प्रकार के विमर्श की रचना और खोज सत्ता और प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। उपग्रही टेलीविजन, सिनेमा और अब स्मार्ट फोन को विमर्श की नई जगहें बना दी गई हैं। सामाजिक विमर्श के केंद्र में समुदाय रहता है परन्तु इस बाज़ार रचित भूमंडलीय विमर्श के केंद्र में उपभोक्ता है। पूँजी की सेवा में डटा हुआ टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है यह विमर्शो के बारे ठीक ढंग से सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला देता है। अब हमारा जीवन परदे और मोबाइल स्क्रीन पर रचे गए यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह की चिन्ता, असंतोष और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला सोशल मीडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है। सामाजिक कलह को बोने और जनमत को आकार देने के लिए सोशल मीडिया एक राजनीतिक युद्ध का मैदान बन गया है।[9]

दुनिया के स्वरुप की निर्धारक तथा राजनीति का केंद्र होने के कारण “सत्ता” ने “विमर्श का विजयी नायक” स्वयं को रखा है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को मनोरंजक बिखरावों में ढूढ़ लिया है। जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है। कभी कभार उभर आई सामाजिक व्याकुलता को सत्ता अपनी ऊपरी शराफत तथा इंतज़ार कराने की अद्भुत क्षमता से मात देने में सफल हो रही है। अपने एजेंडे की कार्यसूची को विमर्श में सेट करने में सफल सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं। और हम लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहें हैं। एक ओर रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ‘वस्तुनिष्ठ वास्तविकता’ है। वहीं दूसरी तरफ राष्ट्र, धर्म, जाति, भगवान, प्रौद्योगिकी जैसी ‘कल्पित वास्तविकता’ है। समय गुजरने के साथ ‘कल्पित वास्तविकता’ शक्तिशाली हो कर अब ‘कल्पित सत्ता’ है। हमारा ‘वस्तुनिष्ठ जीवन’ इसी ‘कल्पित सत्ता’ के रहमों करम पर निर्भर है। जिसकी कहानियों का हर स्वरूप एक ‘उद्देश्य’ रचता है। वह उससे हमें सहमत करना चाहता है तथा हितैषी होने का एहसास कराता है। ‘रचयिता’ पक्ष और उसका अधिवक्ता दोनों है। लोककहानियाँ अब कल्पनायें हैं जबकि हम सत्ता रचित ‘महाआख्यान’ की अच्छी बुरी परछाइयाँ हैं। अब एक बार का झूठ हमेशा के लिए सच है। लोगों को एकजुट करने वाली ‘झूठी कहानियों’ को ‘सच’ पर स्वाभाविक वर्चस्व प्राप्त है। इन सफल कहानियों का अन्त खुला रहता है इसलिये यह जवाब नहीं होती हैं जीवन कहानी नहीं है अलबत्ता सफल कहानियाँ नियंत्रण हैं। हमारी रचनाएं न केवल हमें रच रहीं हैं बल्कि हमारी जगह से हमें विस्थापित भी कर रही हैं।[10]

सही और गलत का निर्णायक तथा उसको पहचानने की क्षमता के लिए सराहे जाने वाले विवेक का स्थान कट्टरता ले रही है, वह केवल आज्ञापालक चाहती है। सत्ता की कामना को निष्ठा और श्रद्धा चाहिए, वह आलोचनामूलक विवेक और उत्तरदायित्व को भी घातक यत्न कह कर हटा रही है। वह जनता को दासत्वपूर्ण आज्ञापालन का सुख प्रदान करना चाहती है तथा उनसे स्वतंत्रता तथा विवेक यह कह कर छीन लेना चाहती है कि यह एक बोझ है। वह उसके त्याग और कष्ट को प्रभावशाली कहानियों में बदल रही है। दरअसल हम एक ‘सच से परे’ की दुनिया में रह रहें हैं जहां हम अभी विकास और अन्याय को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं। हम उस स्पष्ट सीमा को भी नहीं पहचान सकतें हैं जो वास्तविकता को कहानी से अलग करती है। किसी बदलाव के पहल की अपेक्षा, वर्तमान राजनीतिक परिवेश उदारवाद और लोकतंत्र के बारे में किसी भी चिंता को तानाशाही और अनुदारवादी आंदोलनों द्वारा अपहरण कर रहा है, जिसका भुगतान सिर्फ यह नहीं है कि उदारवादी लोकतंत्र मरीचिका बन रहा है बल्कि यह नागरिक को उसके भविष्य के बारे में एक खुली चर्चा में संलग्न होने के अवसर को खत्म कर उत्तेजनायुक्त गैरजरूरी बहसों की तरफ मोड़ कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध का भान पैदा कर रहा है।[11]

हालाँकि "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके आख्यान सोशल और नई मीडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर के लिए एक गुमनामी का भय रच सकता है। अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने वाली है।

फिर भी वस्तुस्थिति यह है कि स्त्री विमर्श जहाँ स्त्री चेतना के प्रसार का आख्यान बनना चाहिए था[12] वहां भूमंडलीकरण के दौर में यह बाज़ार का प्रवक्ता बन कर औरत की देह, उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौन्दर्य और उसकी कमनीयता का आखेट कर रहा है। दलित विमर्श ने पूँजीवादी वैभव की दुनिया में अपनी छलांग के लिए जहाँ फुले-अम्बेडकर विचारधारा से नाता तोडा है वहीँ इसने चुनावी राजनीति की वेदी पर अतीत के दलित संघर्षों की पूरी विरासत की बलि चढ़ा दी है। साथ ही भूमंडलीकरण ने जातीयता के नए साफ्टवेयर समाज में इंस्टाल किये है, जाति आधारित फेसबुक पेज तथा वाट्सएप समूहों की बाढ़ आ गई है। नियोक्ताओं के रहमोंकरम पर रहने वाले असहाय मजदूरों के उलट पूँजी ने अपनी वृद्धि के लिए हमेशा से नए विकल्पों को खोजा है। यह खोज महामारी के प्रसार से भी तेज है। मशीनों द्वारा नौकरियों के प्रतिस्थापन को क्रांति कहा जा रहा है। पूँजी का यह सकेंद्रण असमानता की खाई रच रहा है। यह असमानता स्थिति नहीं बल्कि चयन है। यह अन्यायपूर्ण नीतियों तथा गुमराह प्राथमिकताओं का संचयी परिणाम है।[13] किसानों तथा हासिये के समूहों की जिम्मेदारी धारण करने वाला कल्याणकारी राज्य अब पीछे हट कर अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के अगले आदेश का मुहं ताक रहा है[14]

राष्ट्र राज्य तथा बाज़ार की सत्ता ने अपने को असहज करने वाले मुद्दों और विमर्शों का ध्यान बटाने के लिए सदा से अपना पसंदीदा विमर्श ला दिया है। यह धार्मिक विश्वास जो अब उन्मादी हो रहा है उसे साम्प्रदायिकता की मिथ्या चेतना[15] के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है बल्कि इसके ठोस सामाजिक राजनीतिक पहलू हैं। जहाँ भारत के सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में लंबे समय से इकठ्ठा हुए असंतोष को अब हवा मिल रही है वहीँ दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में चिंता की लहरे उठाई जा रहीं हैं। परिणाम स्वरुप सामुदायिक शिकायतें समाधान के लिए स्वतंत्र कार्यवाही को अंज़ाम दे रही हैं। इस तरह की कार्यवाही अभिव्यक्ति के सभी रूपों तथा लोकप्रिय माध्यमों में और समाज के हर स्तर पर बढ़ रही है। अपने तर्कों और समर्थकों के साथ अपने को अल्पसंख्यक कहने वाला देश का दूसरा सबसे बड़े धार्मिक समुदाय को भारतीय राष्ट्र राज्य की संस्थाओं से बदस्तूर शिकायतें है। बहुसंख्यक समुदाय इन चिंताओ को राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल मान रहा है। साथ ही इन्हें भारत की पंथनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवाद का ही दूसरा रूप लगता है। यह सेकुलरवाद के लिए पहले हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता शब्द लाता है और फिर इसके वर्तमान प्रतिरूप को वह विरोधाभासी घोषित करके इसे असंभव परियोजना सिद्ध कर देता है। यह अपनी चयनित परंपरा को पंथनिरपेक्षता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति घोषित करता है जिसे वह सर्वधर्मसमभाव कहता है। स्वयम्भू सेकुलर जो अपने लिए अक्सर धर्मनिरपेक्ष शब्द का ही प्रयोग करतें हैं ये समाज उत्तेजक लोग मिथ्या चेतना को हक़ीक़त में बदलने की क्षमता रखतें है। यह एक तरह से धर्म का सेकुलर इस्तेमाल है जिसे हम नव साम्प्रदायिकता कह सकतें हैं। यह विमर्श आयातित है। सैमुअल पी हटिंगटन ने अपनी किताब क्लैस ऑफ़ सिविलाइजेशन एंड रिमार्किंग वर्ल्ड ऑर्डर में जहाँ इतिहास की अग्र गति के लिए सभ्यतामूलक रास्ते पर जोर दिया और इस्लाम कनफ्यूसियस बौद्ध और हिन्दू भारत की चुनौतियों को इतिहास का नया मोर्चा करार दिया। वहीँ अपनी एक अन्य पुस्तक हू आर वी में आंग्ल सैक्सन प्रोटेस्टेंट शुद्धता एकता तथा इनकी अन्यों से भिन्नता पर जोर दिया। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक राजीव मल्होत्रा हिन्दू कार्यकर्त्ता हैं जिनकी प्रसिद्धि बढ़ रही है। इनकी दो चर्चित किताबें ब्रेकिंग इंडिया और बीइंग डिफरेंट अपने नाम से ही बहुत कुछ कहती है। पहली किताब जहाँ भय पैदा कराती है वहीँ दूसरी किताब इसका समाधान अन्यों से अलगाव की समझ को देती है।

इस प्रकार हमारा विमर्श उस दौर में है जहाँ उत्पादन स्थलमुक्त है, पूंजी आवारा, ताकतवर खिंचान बाजार की तरफ है, लेकिन दावा सर्वसहमति का है। छवि विश्वरूपि है, दिक् और काल संपीडित है, चीज़े अपनी सान्दर्भिक जकड़ से मुक्त हैं, विचार, वाद और विमर्श सम्बंधित सभी बहसें नए सिरे से उठ कर विवादग्रस्त है। बाज़ार ने नए क्षेत्र को जन्म दिया है जिसमें संस्कृति भी उत्पाद है, और माध्यम है साइबर क्रांति, जिसकी केंद्राभिमुखता ने सांस्कृतिक फसान को जन्म दिया है। वैश्विक बाज़ार को प्रभावित करता विज्ञापन, विशिष्ट उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दे रहा है जिसके लिए नागरिक वैश्विक उपभोक्ता है। मनोरंजन एक उद्द्योग है, और हमारा जीवन परदे के यथार्थ से अभिन्न एक तरफ तो पहचाने अपनी अस्मिता के लिए जूझ रहीं हैं तो दूसरी तरफ इनकी सांस्कृतिक सीमाएं टूट रही हैं। नस्ल, समुदाय, वर्ग, जाति, परिवार और जेंडर नए परिभाषाओं के अंतर्गत खुद को पुनर्स्थापित कर रहें हैं प्रतिरोध की कमान किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलित और नारी के हाथ में है जो समाज में समानता की खोज में लगे हैं। जहाँ पर्यावरण ह्रास संपोष्यता को आकर्षित कर रहा है वहीँ हिंसा और आतंक, सामूहिक मध्यस्थता की अनिवार्यता पर बल देने को बाध्य कर रहें हैं।

सन्दर्भ



[1]McLuhan, Marshall. The Gutenberg Galaxy: The Making of Typographic Man, UNIVERSITY OF TORONTO PRESS, Canada, 1962, p. 31.

[2]Harvey, David. The Condition of Postmodernity: An Enquiry into the Origins of Cultural Change, Blackwell, Cambridge (Mass.), 1992, p. 260.

[3] खेतान,प्रभा. बाज़ार के बीच: बाज़ार के ख़िलाफ़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृष्ट. 32.

[4] Bauman, Zygmunt. Globalization the Human Consequences. Polity Press, Cambridge, 1998

[6] Elon Musk says excessive automation at Tesla was a mistake, that a human workforce is underrated- technology news, Firstpost. Tech2. (2018, April 15). Retrieved October 18, 2021, from https://www.firstpost.com/tech/news-analysis/elon-musk-says-excessive-automation-at-tesla-was-a-mistake-that-a-human-workforce-is-underrated-4432195.html.

[7] Jardine, J. (2020, July 30). Top 3 things you need to know about industry 5.0. MasterControl. Retrieved October 18, 2021, from https://www.mastercontrol.com/gxp-lifeline/3-things-you-need-to-know-about-industry-5.0/

[8] Ferreira, Carlos Miguel. Serpa, Sandro. (2018), Society 5.0 and Social Development: Contributions to a Discussion, Management and Organizational Studies, Vol. 5, No. 4; Pp 26-31

[9] Ritzer, George; Dean, Paul. Globalization. Wiley. Kindle Edition. p. 326

[10] Wikimedia Foundation. (2021, August 25). द मेट्रिक्स. Wikipedia. Retrieved October 18, 2021, from https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8.

[11] Harari, Yuval Noah, 21 Lessons for the 21st Century, Jonathan Cape, London, 2018

[12] रोहिणी अग्रवाल, साहित्य की जमीन और स्त्री मन के उच्छ्वास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ. 11. 

[13] Stiglitz, Joseph E. The great divide: unequal societies and what we can do about them, PENGUIN BOOKS, New York, 2015

[14] चोसडुवस्की  मिशेल. ग़रीबी का वैश्वीकरण, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009

[15] विपिन चंद्रा ने साम्प्रदायिकता को मिथ्या चेतना कहा है

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