“जब हमें सबसे ज्यादा जरुरत है तब हमारी स्मृति से उस
"धोखे" उस "बेईमानी" को हमसे छीन लिया गया जिसे स्वयं राज्य
और सत्ता ने हमारे साथ किया. सरकार किसी की भी बने ये धोखे जारी रहेंगे.”
सत्ता हमारे समय के विमर्श को नए सिरे से परिभाषित कर रही है। एक विशिष्ट
प्रक्रिया तथा अनुभव ने हमारी सामाजिक कल्पना के हर रूप का अभूतपूर्व सीमा
विस्तारण तथा सघनीकरण किया है जहाँ स्थानीयताओं के दायरे में होने वाले विमर्शों
की शक्ल-सूरत उनसे बहुत दूर चल रहे विमर्श से बन रही है। धारणाओं, प्रवृतियों, सक्रियता के तरीकों, आस्थाओं और आचरणों से मिल कर बने विमर्श के जिस रूप को सत्ता
रच रही है उसने न सिर्फ आत्मपरकताओं बल्कि विभिन्न सामाजिक संसारों को अपने हित
में उद्देश्यपूर्ण आवाज़ दिया है। साथ ही इसने जीवन के हर कोने तथा अस्तित्व के हर
रूप को अपनी कहानियों से भर दिया है। विमर्श का पक्ष-विपक्ष तथा उसका क्षेत्र भी, सचेत सत्ता के इस अदृश्य और अचेतन दायरे से मुक्त नहीं है।
चुनावी विमर्श की सामाजिक जगह ''जटिलताओं की सामान्य स्थिति'' में रहने को अभिशप्त है, जहाँ पर “सच” अपनी “नवीनता का समारोह मनाता” उद्देश्यपूर्ण
शब्दों और छवियों की बाज़ीगरी है। सभी प्रकार के विमर्श की रचना और खोज सत्ता और
प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। टेलीविजन और अब स्मार्ट फोन को
विमर्श की जगहें हैं। सत्ता की सेवा में डटा हुआ टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक
दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास ला रहा है
यह विमर्शो के बारे ठीक ढंग से सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला रहा है।
अब हमारा सच परदे और मोबाइल स्क्रीन पर रचे गए यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह
की चिन्ता, असंतोष
और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला
सोशल मीडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है। सामाजिक कलह को बोने और जनमत को आकार
देने के लिए सोशल मीडिया एक राजनीतिक युद्ध का मैदान बन गया है।
दुनिया के स्वरुप की निर्धारक तथा राजनीति का केंद्र होने के कारण “सत्ता” ने
“विमर्श का विजयी नायक” स्वयं को रखा है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के
"औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। परन्तु अब सत्ता ने
अपने होने के औचित्य को मनोरंजक बिखरावों में ढूढ़ लिया है। जहां मनोरंजन की कमान
"सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है। अपने एजेंडे की कार्यसूची को
विमर्श में सेट करने में सफल सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा
दुरुस्त करते जा रहें हैं। और हम लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहें हैं। एक ओर
रोटी,
कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ‘वस्तुनिष्ठ वास्तविकता’ है। वहीं
दूसरी तरफ राष्ट्र, धर्म,
जाति, भगवान, प्रौद्योगिकी जैसी ‘कल्पित वास्तविकता’ है। समय गुजरने के
साथ ‘कल्पित वास्तविकता’ शक्तिशाली हो कर अब ‘कल्पित सत्ता’ है। हमारा ‘वस्तुनिष्ठ
जीवन’ इसी ‘कल्पित सत्ता’ के रहमों करम पर निर्भर है। जिसकी कहानियों का हर स्वरूप
एक ‘उद्देश्य’ रचता है। वह उससे हमें सहमत करना चाहता है तथा हितैषी होने का एहसास
कराता है। ‘रचयिता’ पक्ष और उसका अधिवक्ता दोनों है। लोककहानियाँ अब कल्पनायें हैं
जबकि हम सत्ता रचित ‘महाआख्यान’ की अच्छी बुरी परछाइयाँ हैं। अब एक बार का झूठ
हमेशा के लिए सच है। लोगों को एकजुट करने वाली ‘झूठी कहानियों’ को ‘सच’ पर
स्वाभाविक वर्चस्व प्राप्त है। इन सफल कहानियों का अन्त खुला है इसलिये यह जवाब
नहीं हैं जीवन कहानी नहीं है अलबत्ता सफल कहानियाँ नियंत्रण हैं। हमारी रचनाएं न
केवल हमें रच रहीं हैं बल्कि हमारी जगह से हमें विस्थापित भी कर रही हैं।
हालाँकि "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज
की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं
करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके
आख्यान सोशल और नई मीडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर
जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा
है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर के लिए एक गुमनामी का भय रच
सकता है। अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक
स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण
के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने
वाली है। परन्तु छवियों और आवाजों के इस एचडी दौर में
पराजय का वैभव भी सिद्ध बहुरूपिए सत्ता के नाम ही है ।
सही और गलत का निर्णायक तथा उसको पहचानने की क्षमता के लिए सराहे जाने वाले
विवेक का स्थान कट्टरता ले रही है, वह केवल आज्ञापालक चाहती है। सत्ता की कामना को निष्ठा और
श्रद्धा चाहिए, वह
आलोचनामूलक विवेक और उत्तरदायित्व को भी घातक यत्न कह कर हटा रही है। वह जनता को
दासत्वपूर्ण आज्ञापालन का सुख प्रदान करना चाहती है तथा उनसे स्वतंत्रता तथा विवेक
यह कह कर छीन लेना चाहती है कि यह एक बोझ है। वह उसके त्याग और कष्ट को प्रभावशाली
कहानियों में बदल रही है। दरअसल हम एक ‘सच से परे’ की दुनिया में रह रहें हैं जहां
हम अभी विकास और अन्याय को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं। हम उस स्पष्ट सीमा को
भी नहीं पहचान सकतें हैं जो वास्तविकता को कहानी से अलग करती है। किसी बदलाव के
पहल की अपेक्षा, वर्तमान
राजनीतिक परिवेश उदारवाद और लोकतंत्र के बारे में किसी भी चिंता को तानाशाही और
अनुदारवादी आंदोलनों द्वारा अपहरण कर रहा है, जिसका भुगतान सिर्फ यह नहीं है कि उदारवादी लोकतंत्र
मरीचिका बन रहा है बल्कि यह नागरिक को उसके भविष्य के बारे में एक खुली चर्चा में
संलग्न होने के अवसर को खत्म कर उत्तेजनायुक्त गैरजरूरी बहसों की तरफ मोड़ कर
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध का भान पैदा कर रहा है।
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