बीज शब्द : बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर, राष्ट्र निर्माण, जाति व्यवस्था, लोकतंत्र, समानता, बंधुता
मूल आलेख : तमाम बहसों के बावजूद इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य उपनिवेशी आधुनिकता की भिन्न मगर व्युत्पन्न संवाद की उपज है।[1] जॉन स्ट्रेची तथा जॉन सीले “भारत” नाम देने के लिए जिस राष्ट्र को खोज रहे थे दरअसल वैसा राष्ट्र कहीं होता नहीं है, अतः उन्हें यह मिला भी नहीं। हाँ इसे बनाया जाता है, और सिर्फ बनाया जाता है क्योंकि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है। भारतीयों की यह अनथक कोशिश अभी भी जारी है। आधुनिक अर्थ में राष्ट्र एक ऐसा कल्पित समुदाय[2] है जो वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को लाँघ जाता है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगती हैं। पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहते हैं तो हमे यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा। दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की कोशिश है। तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद का कोई भी विरोध नहीं है बजाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी परिणति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद की असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशों में हम विफल रहते हैं। भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन तथा विभाजन इसकी गवाही देता है।
मुस्लिमों के अलावा राष्ट्रवाद की कांग्रेसी धारणा के प्रति जिस दूसरे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूहों ने विरोध व्यक्त किया वे गैर-ब्राह्मण जातियों और अछूतों के समूह थे जिन्होंने 1930 के दशक के आसपास खुद को दलित कहना शुरू किया।[3] अपने आरंभिक चरण में उपनिवेशी शासन ने न सिर्फ जाति व्यवस्था को वरीयता और समर्थन दिया बल्कि आगे चलकर उसने इसे नस्ली आयाम देकर तथा सूचीबद्ध करके और भी रूढ़ किया। फिर राष्ट्रवादी आन्दोलन के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल भी किया गया जहाँ यह पुनर्निरुपित जाति व्यवस्था भारत के नागरिक समाज का उपनिवेशी रूप बन गई।[4] अपनी तीक्ष्ण बुद्धि की सुधारमूलक तार्किकता तथा सभ्यता के संशोधनवादी पुनर्जीवन के प्रयत्नों से डॉ. अम्बेडकर ने राष्ट्रवाद के इस भिन्न स्वर को उस आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य में मिला दिया जिसके परिपक्व प्रारूप के निर्माण के उपकरणों का चयन तथा नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं ली थी।
जाति व्यवस्था : राष्ट्र निर्माण की प्रमुख बाधा –
भारत के इतिहास में आधुनिक राष्ट्र के इस परिपक्व रूप तथा इसके निर्माणकारी उपकरणों का उद्भव डॉ. अम्बेडकर के जीवनवृत्त तथा उनकी अकादमिक यात्रा में है। कांग्रेसी धारणा के राष्ट्रवाद को जिसे मुस्लिम नेतृत्व हिन्दू राष्ट्रवाद तथा दलित नेतृत्व ब्राह्मण राष्ट्रवाद कहता था, तथा अंग्रेजी सत्ता से मिल कर अलग-अलग राग अलाप रहा था, के कारणों को उन्होंने तर्कबद्ध किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में दलितों के भिन्न स्वर को उन्होंने हिन्दू धर्म की विफलता बताया तथा उसके कारणों को जातिव्यवस्था में अन्तर्निहित माना। डॉ. अम्बेडकर की रचनाओं में इस अलगाव के कुछ स्पष्ट कारण नज़र आते हैं जो जातिव्यवस्था के दुर्गुणों से जुड़े हुए हैं।[5]
1. जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को मिथक बना दिया। हिन्दू समाज नाम की कोई वस्तु नहीं रह गई। यह अनेक जातियों का समवेत स्वरूप बन गया। यह जातियों का मिलाजुला संघ भी नहीं है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय को छोड़कर कभी जुड़ाव का एहसास भी नहीं है। दरअसल हर आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह है जो अपने बिल में घुसा रहता है। हिन्दुओ में उस चेतना का सर्वथा अभाव है, जिसे समाजविज्ञानी समग्र वर्ग की चेतना कहते हैं। यह चेतना बस अपनी जाति के बारे में पाई जाती है।
2. जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज की एकता खण्डित की। यह आग्रह और निष्कर्ष सही नहीं है कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता है, जो हिंदुओं के जीवन की विशेषता है, क्योंकि आदतों, प्रथाओं, विश्वासों और विचारों में एकरूपता है, जो भारत में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। परन्तु इसमें समाज रचना के अपरिहार्य तत्त्व शामिल नहीं हैं। व्यवहार में समभाव होना समानुरूप व्यवहार से सर्वथा भिन्न है। हिंदुओं ने अपने ही लोगों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया।
3. असामाजिक भावना जाति प्रथा का सबसे घृणित पक्ष है। स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से निंदा और विरोध समाज और साहित्य में भरा पड़ा है। एक जाति के लोग आनंद लेकर ऐसे गीत गाते हैं, जिनमें दूसरी जाति के लिए नफरत भरी रहती है। हिंदुओं के साहित्य में जाति विशेषों के उद्गम के विषय में अनेक ऐसे गीत हैं जो एक जाति को श्रेष्ठ तथा दूसरी जाति को निंदा का पात्र बनाते हैं। ऐसे साहित्य का एक घृणित नमूना 'सहयाद्रि खण्ड' है। यह असामाजिक भावना जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह इससे भी गहरे उपजातियों में समाई हुई है।
4. आदिवासियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि आज की भरी पूरी सभ्यता में एक करोड़ तीस लाख लोग जंगलियों की तरह रह रहे हैं। अपराधियों का जीवन जी रहें हैं परन्तु प्राचीन सभ्यता का दम्भ भरने वाले हिंदुओं को कभी इससे शर्म महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन्हें बस अपनी जाति की परवाह थी, इन्हें सभ्य बनाने का प्रयास कभी नहीं किया गया। इनको सबसे बड़ी चिंता यह थी कि इन्हें अगर अपने में शामिल किया जाए तो इनकी जाति क्या होगी? अब अगर ग़ैर हिन्दू उन्हें अपना लें, धर्म परिवर्तन करा लें, तो हिंदूओं के शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो इसके कारण स्वयं हिन्दू और उनकी जाति प्रथा होगी।
5. हिंदूओं ने जानबूझकर हिन्दू समाज की निचली जातियों को ऊँची जाति के सांस्कृतिक स्तर तक उठने की मोहलत नहीं दी। जैसे सुनार और पथरे प्रभु। ये दोनों ही समुदाय महाराष्ट्र में काफी मशहूर हैं। ये दोनों ही समुदाय ब्राह्मणों के तौर-तरीके और आदतों को अपनाकर अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे परन्तु समाज के ताकतवर तत्त्व ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। अगर मुसलमानों को क्रूर माना जाय तो हिन्दुओ को निकृष्ट माना जाएगा जो अधिक निंदनीय है।
6. जाति के कारण हिन्दू धर्म प्रचारमूलक नहीं रह गया। इसमें से जाने के रास्ते तो बहुत है मगर आने का रास्ता बंद है। धर्म-परिवर्तन में सिर्फ यही समस्या नहीं होती कि नई धारणाएँ और नए सिद्धांत अपना लिए जाएँ बल्कि दूसरी सबसे बड़ी समस्या इसमें यह पैदा होती है कि धर्म-परिवर्तित व्यक्ति को किस जाति में स्वीकार किया जाए? जो भी हिन्दू अन्य धर्मियों को अपने धर्म में शामिल करना चाहता है, उसे यह समस्या अनिवार्य रूप से झेलनी पड़ती है। किसी क्लब की सदस्यता तो सबके लिए समान रूप से खुली होती है, किन्तु किसी जाति की सदस्यता हर ऐरे-गैरे के लिए समान रूप से खुली नहीं होती है।
7. जातिप्रथा के कारण हिंदुओं में संगठन और सहयोग नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई है। जब तक संगठन नहीं होगा तब तक हिन्दू कमजोर और डरपोक रहेंगें। हिन्दू कहते हैं कि उनकी कौम बहुत ही सहनशील है परंतु यह सही नहीं है। क्योंकि कई अवसरों पर यह बेहद आक्रामक होतें हैं और कई अवसरों पर बेहद सहनशील, इसका कारण यह है कि ये विरोध करने में ये अक्षम होते हैं। हिन्दुओं की उदासीनता उन पर इस कदर हावी है तथा आदत में शामिल है कि किसी हिन्दू का अपमान या उस पर हो रहे अत्याचार को ये बुज़दिल बन कर सहते रहते हैं।
8. जाति ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित किया। कोई भी सुधार तब शुरू होता है जब व्यक्ति अपने समाज के स्थिर मानकों के खिलाफ कुछ नया सोचते हैं। इसके लिये यह जरूरी है कि समाज इसके लिए सहनशील हो। परन्तु हिन्दू मान्यताएँ धार्मिक रंग में रंगी हैं अतः यह मुश्किल है। साथ ही इसके लिए जाति बहीष्करण का दण्ड भी दिया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अभाव में सुधार नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करना जाति बहीष्करण का कारण बन सकता है जो मृत्यु से भयंकर कष्ट है क्योंकि आपको कोई और जाति स्वीकार नहीं करती है और बिना किसी जाति की सदस्यता के आप हिन्दू नहीं हैं।
9. हिन्दूओं की नीति और आचार पर जाति-प्रथा का प्रभाव अत्यंत शोचनीय है। जाति प्रथा ने जनचेतना को नष्ट कर दिया है। इसने सार्वजनिक धर्मार्थ की भावना को भी नष्ट कर दिया है। जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव हो गया है। हिन्दूओं का उत्तरदायित्व और निष्ठा उनकी जाति तक ही सीमित है। अन्य के लिए कोई सहानुभूति कोई सराहना या कोई सहयोग नहीं है।
इस प्रकार भारत में जाति-व्यवस्था पर धार्मिकता के प्रभाव ने इस व्यवस्था की हानियों को बड़ी गंभीरता से बढ़ाया। जाति सदा ही सामाजिक अपराध के समतुल्य रही है, लेकिन जब जाति को धार्मिक व्याख्या के जरिये समर्थन मिला तो इस व्यवस्था के पीछे छिपा महाअपराध जहरीले उत्तक और दैत्याकार भागों के विकृत सामाजिक वृद्धि में प्रफुल्लित हुआ।[6]
इस राष्ट्रीय पाप के अपराधी -
उन्होंने ब्राह्मणों पर आरोप लगाया कि यह प्रथा अपनी पूरी दृढ़ता के साथ केवल एक जाति अर्थात ब्राह्मणों में प्रचलित है, जो हिंदू समाज की संरचना में सर्वोच्च स्थान पर हैं और गैर-ब्राह्मण जातियों ने इसका केवल अनुसरण किया, जहाँ इसके पालन में न तो उतनी दृढ़ता है और न संपूर्णता।[7] कुछ जातियों की संरचना नकल से हुई। ब्राह्मण अर्द्ध देवता माना जाता है और उसे अंशावतार जैसा कहा जाता है। वह विधि नियोजित करता है और सभी को उसके अनुसार ढालता है। उसकी प्रतिष्ठा असंदिग्ध है। उनका तर्क है कि शास्त्रों द्वारा प्रायोजित और पुरोहितवाद द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त ऐसा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डालने में विफल हो सकता है? यदि यह कहानी सही है तो उसके बारे में यह विश्वास क्यों नहीं किया जाए कि वह जातिप्रथा की उत्पत्ति का कारण है। यदि वह सजातीय विवाह का पालन करता है तो क्या दूसरों को उसके पद-चिह्नों पर नहीं चलना चाहिए। निरीह मानवता को चाहे वह कोई दार्शनिक हो या तुच्छ गृहस्थ, उसे इस गोरखधंधे में फँसना ही पड़ता है, यह अवश्यंभावी है। अनुसरण सरल है, आविष्कार कठिन। उनका तर्क है कि वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह है जिससे खून के रिश्ते की भावना से "सजातीयता" पैदा होगी, परायापन समाप्त होगा, जाति विलय होगा, एक सामाजिक कारक के रूप में यह एक "महान शक्ति" सिद्ध होगी। परन्तु इसमें कठिनाई यह है कि लोग इसे नहीं मानेंगे क्योंकि यह शास्त्र सम्मत नहीं है और लोग अत्यधिक धार्मिक हैं इसका वास्तविक उपाय यह है कि शास्त्रों से लोगों का विश्वास समाप्त किया जाए। हिन्दुओं से यह कहने का साहस होना चाहिए कि दोष उनके धर्म का है जिसने जाति व्यवस्था को पवित्र माना। परंतु यह कार्य असंभव है..क्योंकि ब्राह्मण ऐसा नहीं चाहेंगे। वो और उनके ग्रंथ इसकी इज़ाजत नहीं देते हैं। जाति व्यवस्था के चारों तरफ बनाई गई दीवार अभेद्य है...इसके प्रहरी ब्राह्मण हैं जो हर शक्ति से सम्पन्न हैं। तर्क और नैतिकता दो ऐसे हथियार हैं जो किसी भी समाज के सुधार के लिए आवश्यक तत्त्व हैं परन्तु यही हिन्दू समाज से उसके धर्म ने छीन लिया है।[8]
अगला आरोप उन्होंने कांग्रेस और समाज सुधारकों पर लगाया। उनका कहना है कि समाज सुधार में कठिनाई है क्योंकि इसमें सहायक कम आलोचक ज्यादा हैं। पहले हैं राजनीतिक सुधारक तथा दूसरे हैं समाजवादी सुधारक। राष्ट्रीय आन्दोलन के मुखिया कि दावेदारी पेश करने वाली राष्ट्रीय कांग्रेस की समानांतर संस्था सामाजिक सम्मेलन गुम हो गई। जबकि "पेशवाई का काल", "बलाइयों की स्थिति" तथा नवम्बर 1935 के "जानू गाँव' की घटना जैसे सामाजिक तथ्य इसके ताकतवर पहल की उम्मीद करते थे। यह स्थिति सत्ता के लिए राजनीतिक अयोग्यता को जन्म देती है। उनका कहना है कि समाज सुधार की हारी हुई लड़ाई को समझने के लिए ध्यातव्य है कि हम हिन्दू परिवार के सुधार तथा हिन्दू समाज के पुनर्गठन के दो अर्थ में समाज सुधार में अंतर करें जिसमें पहले का संबंध बालविवाह इत्यादि से है जबकि दूसरे का संबंध जाति प्रथा के उन्मूलन से है जिसे कभी उठाया नहीं गया।[9]
दूसरी बात की इतिहास इस प्रस्ताव पर बल देता है कि राजनीतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं। जैसे लूथर और यूरोप की क्रांतियाँ, जैसे प्यूरितनवाद और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, जैसे शिवाजी और महाराष्ट्र के संत। जाति विभेद मिटाए बिना भारत बदलाव से महरूम रहेगा। आर्थिक सुधारों को सामाजिक बदलाव का उपागम समझने और आग्रह रखने वाले समाजवादियों के लिए प्लेबीयनों और डेल्फी की देवी का रोमन उदाहरण तथा भारत में संत-महात्माओं का उदाहरण उनके इतिहास की आर्थिक व्याख्या के मूल सिद्धांत पर प्रहार करता है क्योंकि यहाँ व्यक्ति का सामाजिक स्तर ही शक्ति का स्रोत बन जाता है, जिसका प्रभाव प्राधिकार को जन्म देता है। यदि शक्ति और प्रभुत्व का स्रोत समाज और धर्म है तो सुधार भी वहीं होना चाहिए। सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना आर्थिक सुधार असंभव है। आप किसी भी दिशा में देखें जाति एक ऐसा दैत्य है, जो आपके मार्ग में खड़ा है। आप जब तक इस दैत्य को नहीं मारोगे, आप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकतें हैं न कोई आर्थिक सुधार।[10]
राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उपकरण तथा परियोजना -
डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्र निर्माण की परियोजना के उपकरणों को हम मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं -
1. राष्ट्र निर्माण के उपकरणों की पहली श्रेणी सामाजिक रचना से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का आधार राजनीतिक लोकतंत्र है और वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है जीवन का एक तरीका जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है। आदर्श समाज ऐसा होना चाहिए जो स्वाधीनता, समानता और भाईचारे पर आधारित हो।[11] डॉ अम्बेडकर इसका स्रोत फ़्रांस की क्रांति को नहीं बल्कि बौद्ध धर्म को मानते हैं जो भारत की संशोधनवादी संस्कृति रही है। समाज में विभिन्न लोगों के बीच सम्पर्क के ऐसे बहुविध और निर्विवाद बिंदु होने चाहिए, जहाँ साहचर्य या संगठन के अन्य रूपों से भी संवाद हो सके। समाज के भीतर सम्पर्क का सर्वत्र प्रसार होना चाहिए। इसी को भाईचारा कहतें हैं। भारत के संविधान की कुंजी; उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना है, क्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। अगर स्वाधीनता का अधिकार निर्बाध आवागमन, जीविका उपार्जन इत्यादि पर अधिकार है तो इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। सामाजिक न्याय हेतु निदेशक सिद्धांत के रूप में समानता एक आवश्यक शर्त के तौर पर होनी चाहिए। तभी यह समाज एक प्रजातान्त्रिक समाज होगा जो एक राष्ट्र का निर्माण करेगा।
2. दूसरी श्रेणी धर्म से है जहाँ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं वो और कुछ नहीं निषेधाज्ञाओं और आदेशों का पुलिंदा है।[12] हिन्दू धर्म में आध्यात्मिकता और सिद्धांत विद्यमान नहीं है। इसे धर्म नहीं कानून मानिए आप तभी इसे बदल पाएँगे। हालांकि समाज को धर्म कि आवश्यकता है, यहाँ वे बर्क से बिलकुल सहमत है क्योंकि सच्चा धर्म समाज की नींव है, जिस पर सभी नागरिक सरकारे टिकी हैं। परिणामतः ऐसा उम्मीद करना चाहिए कि जीवन के ऐसे पुराने नियम समाप्त कर दिए जाए और उसका स्थान 'धर्म के सिद्दांत' ग्रहण कर ले।[13] धर्म आवश्यक है अतः धर्म में सुधार का पहलू भी अति आवश्यक है। डॉ. अंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता का जो तर्क बुना वह जीवन तथा समाज के आचार के लिये धर्म को आवश्यक आधारशिला तथा सामाजिक धरोहर घोषित करता है। 'बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य'[14] नामक एक लेख में डॉ. बाबा साहेब ने मानवीय जीवन में धर्म और उसकी विशेषताओं को इस प्रकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि समाज की 'स्थिरता' और 'नियंत्रण' के लिए नीति की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के अभाव में समाज रसातल में जा सकता है। इसलिये किसी भी समाज को धर्म की आवश्यकता होती है।धर्म को अगर बने रहना हो तो उसे बुद्धि प्रामाण्यवादी होना चाहिए। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवादी है। केवल 'नीति की संहिता' का अर्थ धर्म नहीं हैं। धर्म की नीति संहिता में स्वतंत्रता, समता और बन्धुता इन मूलभूत तत्त्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। दरिद्रता को पवित्र मानने का आग्रह किसी भी धर्म को नहीं करना चाहिए, अथवा दरिद्रता का गौरवगान भी नहीं होना चाहिए। धर्म प्रजा के धारण के लिए बंधुभाव, समता और स्वतंत्रता के सद्गुणों के संस्कार डाले, ऐसी अपेक्षा ही नहीं बल्कि धर्म की अहम जिम्मेदारी होती है। हिन्दू धर्म इन सद्गुणों के संस्कार पैदा नहीं करता इसलिए इसको नकारना पड़ता है।
3. तीसरी श्रेणी राजनीति से जुड़ी हुई है। डॉ अम्बेडकर के अनुसार दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं कि अगर हम सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न समस्या की उपेक्षा करते हैं तो इसे हमें एक राजनीतिक समस्या के रूप में हल करना होगा।[15] वैसे ही जैसे भारत में साम्प्रदायिक अधिनिर्णय सामाजिक सुधार की उपेक्षा से उत्पन्न प्रतिशोध है। यह एक सामाजिक शल्य-चिकित्सा है इस पीड़ा को उठाना ही होगा। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर लेते, कानून द्वारा जो भी स्वतंत्रता प्रदान की जाती है, वह आपके किसी काम की नहीं है हमारे पास यह स्वतंत्रता किस लिए है? हमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए मिल रही है, जो असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है, जो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है। राज्य प्रायोजित सामाजिक सुधारों तथा सकारात्मक राजनीतिक पहलों ने एक सिलसिला शुरू किया जिससे अस्पृश्यता को क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया वहीं राष्ट्र निर्माण में भागीदारी के लिए अनुसूचित जातियों को तथा अनुसूचित जन जातियों को तथा बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाता है। राष्ट्र निर्माण में योगदान की यह प्रतिनिधिमूलक अनुभूति नागरिकों में बंधुता का भाव भरती है तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करती है।
निष्कर्ष :
इस प्रकार राष्ट्र निर्माण के अनिवार्य अवयवों स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जिसको धर्म में सन्निहित सामाजिक आदर्श नकारता था, संविधान की प्रस्तावना ने उसे राष्ट्र निर्माण का प्रयोजनमूलक राजनीतिक आदर्श बना दिया। अब तक अविजित तथा अपरिवर्तनशील रहा भारतीय समाज, राज्य के हस्तक्षेप से राष्ट्र में समाकर एक सफल तथा मजबूत राष्ट्र राज्य के रूप में अग्रसर है जिसे कभी एक अस्वाभाविक राष्ट्र[16] समझा गया था। ऐसा नहीं है कि भारतीय राष्ट्र राज्य में जाति व्यवस्था ख़त्म हो गई है या जातिगत अत्याचार, पूर्वाग्रह या शोषण ख़त्म हो गया है लेकिन यह भी सही है की लोकतंत्र की चक्की ने धीमे ही सही पर हमारे समाज को बारीक पिसा है। आज भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ उपराष्ट्रीयताओं के बीच छोटे-मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता को धारण करने वाला लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल-बैठकर सुलझा भी लिया जाएगा। इस तरह राष्ट्र को बनाने की डॉ अम्बेडकर की यह पसंदीदा कहानी निरंतर चलती रहेगी।
सन्दर्भ :
[1]Chatterjee, Partha. Nationalist Thought and the Colonial World: A Derivative Discourse?, Zed Books for the United Nations University, London, U.K., 1986, p. 42.
[2]Anderson Benedict R. Imagined Communities: Reflections on the Origin and Spread of Nationalism. Verso, London, 1983.
[3]बंद्योपाध्याय शेखर. पलासी से विभाजन तक और उसके बाद , ओरियंट ब्लैकस्वान , नई दिल्ली , 2015, p. 338.
[4]Dirks, Nicholas B. Castes of Mind: Colonialism and the Making of Modern India. Princeton University Press, 2001.
[5]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार, नई दिल्ली, 1993, p. 69-77.
[6]Toynbee, Arnold Joseph. A Study of History, vol. 12, Oxford Univ. Press, Oxford, 1979, p. 230.
[7]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार, नई दिल्ली, 1993, p. 32-33.
[10]वही, p.62-66.
[11]वही, p. 78.
[12]वही, p. 100.
[13]वही, p. 101.
[14] Buddha and future of his religion – dr. B. R. Ambedkar .Dr. B. R. Ambedkar's Caravan. (2015, May 29). Retrieved April 18, 2021, from https://drambedkarbooks.com/2015/05/31/buddha-and-future-of-his-religion-dr-b-r-ambedkar/
[15]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठान, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकार, नई दिल्ली, 1993, p. 60.
[16]गुहा रामचन्द्र. भारत गाँधी के बाद , पेंगुइन बुक्स , गुड़गावं , 2011, p. ix.
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