शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

शोध आलेख - डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और बुद्धिज्म : नव यान

सन्दर्भ के लिए - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “डॉ॰ बाबासाहब भीमराव अंबेडकर और बुद्धिज्म : नवयान.” समसामयिक सृजन अक्तूबर - दिसंबर (2021): 220–222. Print.


सार

डॉ० अंबेडकर के आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्व का अनथक बौद्धिक प्रयास उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में स्पष्ट हो गया। उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि संकल्प लिया कि वह अब उसके बारह सौ वर्ष के बनवास को दूर करेंगे तथा उसे उसकी मातृभूमि में पुनः स्थापित कर भारतीय संस्कृति को एक शाश्वत संशोधनवादी पुनर्जीवन देंगे। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि की तार्किकता तथा नैतिकता के आग्रह ने धर्म का एक ‘नया रास्ता’ विकसित किया जिस पर उनके लाखो लोग चल पड़े।

बीज शब्द

डॉ अंबेडकर, नवयान, बुद्धिज्म, धर्म, भारत, संस्कृति  

1. पृष्ठभूमि

धर्म के उद्देश्य को रेखांकित करते हुए डॉ अंबेडकर कहते हैं कि व्यक्ति के सद्गुणों का विकास सच्चे धर्म का अन्तिम उद्देश्य है। वह सनातन संस्कृति के अग्रणी नेता तिलक की इस बात से इत्तेफाक रखते थे कि ’’जिस कारण प्रजा का धारण होता है वही धर्म है।’’ धर्म प्रजा के धारण के लिए बंधुभाव, समता और स्वतंत्रता के सद्गुणों के संस्कार डाले, ऐसी अपेक्षा ही नहीं बल्कि धर्म की अहम जिम्मेदारी होती है। हिन्दू धर्म इन सद्गुणों के संस्कार पैदा नहीं करता इसलिए इसको नकारना पड़ता है। उनकी यह स्थापना है कि अस्पृश्यता के कारण ही करोड़ों व्यक्तियों के गुणो का विकास नहीं हो सका। ऐसा धर्म जो सदियों से एक पूरे वर्ग को मानवीय अधिकारों से, धन संचय से, शस्त्र से वंचित करता गया वह धर्म कहलाने की योग्यता नहीं रखता। जो धर्म अज्ञानियों को अज्ञानी, निर्धनों को निर्धन रहने की सीख देता हो, वह धर्म न होकर भयावह कैदखाना है। इसलिए डॉ अंबेडकर ने 13 अक्तूबर 1935 को येवला कांफ्रेंस में, बहुत सोच समझ कर, धर्मान्तरण की घोषणा की और कहा - ’’दुर्भाग्य से मैं हिन्दू समाज में एक अछूत के रूप में पैदा लिया। यह मेरे वश में नहीं था लेकिन हिन्दू समाज में बने रहने से इनकार करना मेरे नियंत्रण में हैं और मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि मैं मरते समय हिन्दू नहीं रहूँगा।’’1

15 अक्तूबर 1956 को, अपनी मृत्यु से लगभग डेढ़ माह पूर्व, इस बात का ध्यान रखते हुये कि इससे भारतीय इतिहास और परम्परा को कोई नुकसान न हो उन्होंने अपने तीन लाख अस्सी हज़ार अनुयायिओं के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।2 इससे अनेक आलोचक यह प्रश्न उठातें हैं कि जब अंबेडकर ने हिन्दू धर्म को त्यागने का संकल्प कर ही लिया था तो उन्होंने बीस साल का समय क्यों लिया। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने जान बुझ कर बुद्ध के 2500 वें जन्म दिन का इंतजार किया। जबकि बी एस मूर्ति को ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म में जो सबसे बेहत्तर था अंबेडकर उसे काफी पसंद करते थे।3 अंबेडकर का दावा था कि संविधान के निर्माण के दौरान उन्होंने इसका आधार विकसित किया तथा राष्ट्रीय झण्डे पर अशोक चक्र लगवाया तथा अशोक स्तम्भ के शेरों को राष्ट्रीय प्रतीक बनवाया जिससे भारतीय संस्कृति के दायरे को विस्तृत तथा समावेशी बनाया जा सके।

2. शोधपत्र का उद्देश्य

इस शोध पत्र का उद्देश्य उन बौद्धिक कारणों, सामाजिक परिस्थितिओं तथा व्यवहारिक कारणों की पड़ताल करना है जिन्होंने डॉ अंबेडकर को बौद्ध धर्म अपनाने के लिए आकृष्ट किया। यह लेख तर्कशील बौद्ध धर्म के उस नयेपन की विशेषताओं की भी पहचान करेगा जिसको स्वयं एक डॉ ने रचा।

3. शोध परिणाम 

3.1. धर्म की आवश्यकता : मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व

डॉ अंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता का जो तर्क बुना वह जीवन तथा समाज के आचार के लिये धर्म को आवश्यक आधारशिला तथा सामाजिक धरोहर घोषित करता है। यह कर्मकाण्डीय पाखण्ड के परे सकारात्मक मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व है। वो मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इंसानी जीवन की शर्त सिर्फ रोटी नहीं है क्योंकि उसके पास एक दिमाग भी है जिसे विचार रूपी भोजन चाहिए। धर्म मनुष्य में आशा जगाता है तथा उसे क्रियाशील बनाता है।4 

3.2. धर्म की विशेषताएं : सदाचार, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व

’बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में डॉ बाबा साहेब ने मानवीय जीवन में धर्म और उसकी विशेषताओं को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं -

1- समाज की ’स्थिरता’ और ’नियंत्रण’ के लिए नीति की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के अभाव में समाज रसातल में जा सकता है। इसलिये किसी भी समाज को धर्म की आवश्यकता होती है।

2- धर्म को अगर बने रहना हो तो उसे बुद्धि प्रामाण्यवादी होना चाहिए। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवादी है।

3- केवल ’नीति की संहिता’ का अर्थ धर्म नहीं हैं। धर्म की नीति संहिता में स्वतंत्रता, समता और बन्धुता इन मूलभूत तत्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिये।

4- दरिद्रता को पवित्र मानने का आग्रह किसी भी धर्म को नहीं करना चाहिए, अथवा दरिद्रता का गौरवगान भी नहीं होना चाहिए।5

3.3. बौद्ध धर्म ही क्यों? : करुणा, सदाचार और तर्क

डॉ अंबेडकर जी जैसी प्रतिभा को बौद्ध धर्म आकृष्ट क्यों कर गया इसका उत्तर उनके विवेचन में मिलता है। हिन्दू धर्म में असामाजिक और विखण्डनकारी वर्ण व्यवस्था की कल्पना, इस्लाम की लोकतंत्रघाती कट्टरता तथा ईसाई धर्म की साम्राज्यवादिता और रंगभेद की नीति का खुला समर्थन के कारण इन धर्मो ने उन्हें आकर्षित नहीं किया। समता, बन्धुता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों का समावेश जिस धर्म में हो वे उसकी खोज में भटक रहे थे। सिद्धार्थ नामक व्यक्ति ने जिस धर्म की बात की वह इन प्रचलित धर्मों से एकदम भिन्न था। इस धर्म में गूढ़ शक्ति का किसी प्रकार का स्थान नहीं है। ईश्वरीय कृपा, वरदान या शाप, स्वर्ग या नरक इसकी कोई गुंजाइश इस धर्म में नहीं है। सिद्धार्थ का यह धर्म हाड़ मांस के व्यक्ति द्वारा उसके ही जैसे हाड़- मांस के लोगों के लिए, उनकी ही भाषा में, उनके ही शब्दों में कहा गया है। इस धर्म में श्रद्धा के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रश्न करो, शकाएँ उपस्थित करो, विचार करो और अगर तुम्हारे विवेक को मान्य हो तभी स्वीकार करो। सिद्धार्थ कहीं पर भी सर्वज्ञता का दावा नहीं करते। कोई आदेश, संदेश या कोई निर्णायक बात नहीं और यही इस धर्म की शक्ति है।

3.4. बौद्ध धर्म में कालगत बुराइयाँ : अंध श्रद्धा और कर्मकांड

परन्तु गौतम बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म में अनेक अंधश्रद्धायें और कर्मकांड घुस गए थे। बाद के सैकड़ों वर्षों में इसके कई पंथ उपपंथ बने ढाई हजार वर्ष की परंपरा में मुक्त बौद्ध धर्म खो सा गया था। डॉ बाबासाहेब बौद्ध धर्म को उसकी तेजस्विता के साथ प्रस्तुत करना चाह रहे थे। ’बुद्ध एंड हिज धम्म’ में उन्होंने यह कार्य पूर्ण किया। यह ग्रंथ केवल बौद्ध धर्म की महिमा को ही स्पष्ट नहीं करता उसका नया स्वरूप प्रस्तुत करता है। हिंदू धर्म की तरह बौद्ध धर्म की भी एक सीमा थी कि बाइबल, कुरान या जेंद अवेस्ता की तरह बौद्ध धर्म का कोई एक मूल ग्रंथ नहीं है। ग्रंथ के नाम पर अनेक ग्रंथ तथा  सैकड़ों भारतीय संस्करण उपलब्ध थे। कुछ को परंपरा ने बहुत महत्व दिया है कुछ में मतभेद या मीमांसा भेद है। उसके दार्शनिक सिद्धांत, संघ संबंधी नियम, उसकी शिक्षा आदि को लेकर अराजकता की स्थिति है इन सबके बीच से मार्ग निकालकर बौद्ध धर्म के मूलभूत तत्वों को प्रस्तुत करना काफी परिश्रम का काम था। बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करने हेतु उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया। सिद्धार्थ के गौतम बुद्ध पद प्राप्त हो जाने के बाद उनके चरित्र के सभी प्रश्न, उनके सभी प्रवचन उनके संदर्भ, इन सब का गंभीर अध्ययन डॉ बाबासाहेब ने किया। यह 1935 से 1956 तक चलता रहा। बुद्ध के स्वतंत्र जीवन दर्शन की खोज में अंबेडकर जी ने अपनी बुद्धिमत्ता तथा शास्त्रीय दृष्टि को दांव पर लगा दी। व्यापक अध्ययन के बाद परंपरागत बुद्ध चरित्र की कई विसंगतियां उनके ध्यान में आ गईं।

3.5. बौद्ध धर्म का पुनर्जीवन : डॉ का उपकार

बुद्ध चरित्र और बौद्ध दर्शन की नई सीधी-सादी तर्क बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित व्याख्या करना वास्तव में एक साहस का कार्य था। यह ग्रंथ वास्तव में बीसवीं शताब्दी का एक नया भाष्य था। इस भाष्य की नैतिकता को पढ़कर विद्वानों ने इसकी तुलना ’नये बाइबल’ के साथ की है’। यह भाष्य उन्होंने नव बौद्धों के लिए तैयार किया है। बौद्ध धर्म का स्वीकार सिर्फ राजनीतिक या केवल सामाजिक ही नहीं है अपितु यह एक नए जीवन दर्शन को स्वीकारने का प्रश्न है। इस कारण बौद्ध धर्म में प्रवेश एक विशिष्ट काल की घटना ना होते हुए निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, ऐसी उनकी धारणा थी। इसलिए नव बौद्धों को स्थाई रूप से मार्गदर्शन करने वाले अभिनव ग्रंथ की रचना उन्होंने की।

3.6. ’बुद्ध और उनका धम्म’ : बौद्ध धर्म का संशोधन और उद्घाटन

यह पुस्तक बौद्ध धर्म के आधुनिक छात्रों के लिए लिखी गई है जो उनके तमाम आध्यात्मिक तथा सांसारिक प्रश्नों का उत्तर देती है। बाबा साहेब ने इस पुस्तक में बौद्ध धर्म की कुछ समस्याओं के निदान के लिए चार प्रश्नों को सूचीबद्ध किया है। पहला प्रश्न है कि भगवान बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण किया? दूसरा प्रश्न है कि क्या चार आर्य सत्य भगवान बुद्ध की मूल शिक्षाओं में समाविष्ट हैं? तीसरी समस्या है कि अगर आत्मा ही नहीं है तो कर्म कैसा और पुनर्जन्म कैसा? चौथा प्रश्न यह है कि भगवान बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना किस उद्देश्य से की? डॉ अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में परंपरागत जवाबों को दरकिनार कर इन प्रश्नों के नए तथा तर्कसंगत उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करतें हैं तथा पाठकों से  इस पर नए सिरे से विचार की मांग करते हैं। डॉ अंबेडकर की यह पुस्तक भारतीय इतिहास तथा बौद्ध धर्म की कई गलत मान्यताओं को खारिज़ करती है। जैसे बुद्ध के पलायनवादी होने की धारणा को यह पुस्तक नकारती है। इस पुस्तक में अंबेडकर की मुख्य पुनर्व्याख्या बुद्ध के लौकिक जीवन की पुनर्स्थापना करती है। बुद्ध की परम्परागत जीवनी का युवा राजकुमार मानवीय पीड़ा को देख भावुक हो जाता है तथा सन्यासी बन जाता है जबकि अंबेडकर जल अधिकारों पर संघर्ष के दौरान बुद्ध की उस सामाजिक अंतरात्मा की शक्ति पर प्रकाश डालते हैं जो युद्ध विरोधी तर्कसंगत और शांतिपूर्ण समाधान के एवज में अपने देश निकाले को सहर्ष स्वीकार करता है।

3.7. सिद्धार्थ : एक मनुष्य दुसरे मनुष्य के लिए

अंबेडकर बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ को वे एक मनुष्य के रूप में ही देखतें हैं। उसका चरित्र महामानव का चरित्र नहीं, एक मनुष्य का चरित्र है। एक ऐसे मनुष्य का जो मनुष्य मात्र को दुखों से मुक्त करना चाह रहा था। बौद्ध  धर्म  की विशेषता उसके संघ में है। इस संघ में सभी को खुला प्रवेश था। इस संघ को बुद्ध ने ’त्रिशरण’ तथा ’पंचशील’ दिया। समाज परिवर्तन के लिए बुद्ध ने भिक्षु संघ की आवश्यकता पर बल दिया। संघ स्वयंभू शासित थे। सम्पूर्ण समाज ही स्व शासित हो ऐसी बुद्ध की अपेक्षा थी।

3.8. ज्ञान मीमांसा : शब्द और ग्रन्थ नहीं तर्क और प्रत्यक्ष है प्रमाण

बुद्ध की ज्ञानमीमांसा में शब्दप्रमाण तथा ग्रंथप्रमाण को कहीं पर भी स्थान नहीं दिया गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण पर ही बुद्ध का ज्ञानमीमांसीय तर्कशास्त्र खड़ा है। बुद्ध ने एक स्थान पर कहा है कि मेरे शब्दों को प्रमाण ना मानो। तुम्हारी बुद्धि अथवा अनुभव से जो बात जंचती हो उसे ही सत्य मानों। इस विश्व में अंतिम और अपरिवर्तनीय कुछ भी नहीं है, सतत परिवर्तन ही सत्य है। डॉ बाबासाहेब बुद्ध के इन बातों से अत्यधिक प्रभावित थे। दुनिया के और धर्म और धर्म ग्रंथ शब्दप्रमाण को महत्व देते हैं परंतु बुद्ध ऐसा कोई दावा नहीं करते। अपने उत्तराधिकारी के रूप में भी अपने धम्म की ओर इशारा करते हुये कहतें हैं कि किसी भी प्रश्न पर अगर निर्णय लेना हो तो संघ में उस पर खुली चर्चा हो ऐसा उनका आग्रह था। इस चर्चा में अगर सहमत ना हो रही हो तो मतदान से निर्णय लिया जाए। जनतंत्र में निष्ठा रखने वाले बाबा साहब को इसी कारण बौद्ध धर्म अच्छा लगा।

3.9. तत्व मीमांसा : चर्चा योग्य नहीं

जिन प्रश्नों के कारण व्यक्ति का विवेक कुंठित हो जाता है, अंधश्रद्धा का आरंभ होता है, ऐसे प्रश्नों की चर्चा को बुद्ध ने वर्जित किया जिसे तत्व मीमांसा के प्रश्न कहा जाता है। इसको व्याख्याकर्ताओं ने बुद्ध के अव्यक्तानी प्रश्नानी कहा है क्योंकि ऐसे प्रश्नों के समक्ष वह चुप हो जाया करते थे। यह प्रश्न कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, संसार क्या है इत्यादि। ये सभी कल्पनाएं मानव को वास्तविक समस्याओं के समाधान से भटकाती हैं अतः बुद्ध ने इनको नकारा है। जबकि इन्हीं  की सर्वाधिक चर्चा दुनिया के अन्य धर्मों में हुई है। यही वे प्रश्न है जिनके आधार पर अंधश्रद्धा और कर्मकाण्ड की शुरुआत होती है। धर्मभीरु बनते हैं, मनुष्य और मनुष्य में अंतर किया जाता है इन्हीं प्रश्नों के आधार पर ईश्वर के तथाकथित दलाल सामान्य आदमियों का शोषण करते हैं, सत्ता प्रतिष्ठान या संपत्ति की प्राप्ति कर लेते हैं। यही वे प्रश्न थे जिनका उत्तर देते देते हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ था।

3.10. रचनात्मक बुद्धिवाद : कार्यकारण तथा अष्टांगिक मार्ग

बुद्ध की रचनात्मक दृष्टि ने कार्यकारण का महान सिद्धांत दिया। मनुष्य और उसके संसार में जो भी घटित होता है वह ईश्वरीय इच्छा के अनुसार ही घटित होता है इस सिद्धांत को नकारते हुए उन्होंने यह शास्त्रीय सिद्धांत दिया। आत्मा की मुक्ति तथा मोक्ष के स्थान पर उन्होंने निर्माण का तत्व स्वीकार किया। दुखों की निवृति का अष्टांगिक मार्ग सुझाया मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व बुद्ध के अनुसार सभी वस्तु में श्रेष्ठ, सभी बातों का केंद्र बिंदु है मन है। यह वस्तु को निर्मित करता है, मन ही वस्तु पर सत्ता चलाता है, सभी मानसिक क्रियाओं पर नियंत्रण का नेतृत्व मन करता है मन को संस्कारित करना बहुत महत्व की बात है। सभी अच्छाइयों और बुराइयों का मूल स्रोत मन है। इस कारण मन शुद्ध सच्चे धर्म का सार है, केवल मन की शुद्धि से बात पूरी नहीं होती, उसके अनुसार आचरण की आवश्यकता भी है। उपर्युक्त विशेषताओं के कारण अंबेडकर जी को बौद्ध धर्म आधुनिक मनोविज्ञान के निकट लगा था तथा परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता और व्यक्ति के प्रति निष्ठा इन दो कारणों से यह अधिक वैज्ञानिक लगा।

3.11. बुद्ध : अहिंसक मार्क्सवाद

इसके अलावा ’बुद्ध और मार्क्स’ नामक अपने एक भाषण में उन्होंने बौद्ध धर्म की एक और विशेषता को स्पष्ट किया। बाबा साहेब बुद्ध और मार्क्स को एक दूसरे का शत्रु अथवा प्रतिस्पर्धी के रूप में नहीं देखते हैं बल्कि इन दोनों के बीच स्थित साम्यता को भी सामने लाते हैं। डॉ अंबेडकर के अनुसार इनमें हिंसा के सिवा दूसरा भेद ही नहीं है। इस कारण उन्होंने बौद्ध साम्यवाद शब्द का प्रयोग किया है। साम्यवाद से अगर हिंसा निकाल दी जाए तो बुद्ध ही शेष रह जाते हैं।6

3.12. नवयान बौद्ध धर्म : भविष्य का धर्म

बौद्ध धर्म के संबंध में उनके निष्कर्ष इस प्रकार के हैं - बुद्ध का धम्म परलोक के संबंध में नहीं है। इहलोक से ही उसका संबंध है। वह न स्वर्गवादी है, न नर्कवादी है, वह पृथ्वीवादी है। यह धम्म व्यक्तिगत मोक्ष की बात नहीं करता, सामाजिक मुक्ति का संदेश देता है। यह धम्म निरीश्वरवादी, अनात्मवादी, भौतिकवादी और बुद्धिवादी है। यह धम्म अपरिवर्तनीय नहीं है, परिवर्तनवाद का खुला समर्थक है। अपने 45 वर्ष के धर्म प्रसार कार्य में खुद बुद्ध ने अपने धर्म में, उसकी शिक्षा में, उसके आचार विचारों में, नियम उप नियमों नियमों में सतत परिवर्तन किए हैं अर्थात बौद्ध धर्म विकासशील तथा यह धर्म विचारशील है।

इन अनेक विशेषताओं के कारण विश्व के अन्य धर्मों की तुलना में बौद्ध धर्म की मौलिकता को वे स्पष्ट करते जाते हैं। इन धर्मों की तुलना में बुद्ध धम्म आधुनिक, वैज्ञानिक निष्कर्षों पर, कसौटी पर श्रेष्ठ सिद्ध होता है। आधुनिक युग की चुनौतियों को वह स्वीकार कर सकता है। बुद्धिवाद, सामाजिक सत्ता, बंधुता स्वतंत्रता, समाजवाद, जनतंत्र आदि आधुनिक मूल्यों के आलोक में इस धम्म  को सिद्ध किया जा सकता है। ऐसा अंबेडकर जी का दावा था। इस धम्म की उपर्युक्त शक्तियों से अपने अनुयाई परिचित हो जाएं इस उद्देश्य से उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। इसके मूल में इतनी ही दृष्टि थी कि इस धम्म की जीवंतता और आधुनिकता को विश्व को विश्व के सभी लोग जान लें और बौद्ध धम्म वैश्विक धर्म बने।5

4. निष्कर्ष : नैतिक समाज का निर्माण

इस प्रकार अंबेडकर की इस धम्म यात्रा को उनके जीवन के लगभग 40 वर्षों में खोजा जा सकता है। उनका यह सामूहिक प्रयाण मानवता पर एक महान उपकार के तौर पर गिना गया जिसने करोड़ो लोगों का जीवन बदल दिया। इस घटना को अकसर हिन्दू धर्म के विरुद्ध, जो सुधारों के परे है, विरोध के एक चरम सार्वजनिक कृत्य के रूप में पेश किया गया। अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को पुनर्निरुपित किया, धार्मिक मताग्रहों की आलोचना की, अतिवादी सामाजिक सन्देश को उभारा ताकि भारतीय समाज में धर्म की जिस नैतिक भूमिका की वे कल्पना करते थे उसे पूरा कर सकें। दलित समाज को हिंदू धर्म से निकालकर नव बौद्ध धर्म में प्रवेश करवाते समय उनका या अटूट विश्वास था कि बौद्ध धर्म के श्रेष्ठ मूल्यों को दलित अपनाएंगे। प्रखर बुद्धिवाद, अनात्मवाद  और स्वशासन  की वृति को स्वीकार करते हुए वे संगठित होंगे संघर्ष करेंगे तथा अपनी यातनाओं से मुक्त हो जाएंगे। समाज जैसे-जैसे अधिक बुद्धिवादी होता जाएगा वैसे-वैसे बौद्ध धर्म की तरफ आकृष्ट होता जाएगा।


सन्दर्भ

 

1.     Dirks, Nicholas B. (2011). Castes of Mind: Colonialism and the making of modern India. Princeton University Press. pp. 267–274.

2.     Robert E. Buswell Jr.; Donald S. Lopez Jr. (2013). The Princeton Dictionary of Buddhism. Princeton University Press. p. 34.

3.   Shetty, V. T. R. (1980). In Ambedkar and His Conversion: a critique.  Dalit Action Committee, Karnataka. p. 79

4.    Fuchs, Martin (2001). "A religion for civil society? Ambedkar's Buddhism, the Dalit issue and the imagination of emergent possibilities". In Dalmia, Vasudha; Malinar, Angelika; Christof, Martin (eds.). Charisma and Canon: Essays on the religious history of the Indian subcontinent. Oxford University Press. pp. 250–273.

5.     Buddha and future of his religion – dr. B. R. Ambedkar     . Dr. B. R. Ambedkar's Caravan. (2015, May 29). Retrieved April 18, 2021, from https://drambedkarbooks.com/2015/05/31/buddha-and-future-of-his-religion-dr-b-r-ambedkar/  

6.   Skaria, A. (2015). Ambedkar, Marx and the Buddhist question. South Asia: Journal of South Asian Studies, 38(3), 450–465. https://doi.org/10.1080/00856401.2015.1049726


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