मंगलवार, 27 अक्तूबर 2015

हमारे आर्थिक इतिहास का भ्रमित वर्तमान



हाल के महीनो में साइबर स्पेस और संसद में दो अलग अलग महत्वपूर्ण घटनाक्रम हुऐ जो एक तरह से एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पहला है ऑक्सफोर्ड यूनियन में कांग्रेस सांसद शशि थरूर का भाषण जो सोशल साइट्स पर वायरल हुआ और दूसरा है भूमि अधिग्रहण विधेयक का संसद में लगातार विरोध फिर चुनावी चुप्पी, और राष्ट्र द्वारा उसका देखा जाना। पहला हमारा इतिहास है और दूसरा हमारे इस इतिहास का भ्रमित वर्तमान।

सांसद शशि थरूर का तर्क न तो नया है और न ही भावुक। भारतीय इतिहासकारों के साथ ही पाल बरुच और एंगस मैडिसन जैसे गैर भारतीय आर्थिक इतिहासकारों ने भी इस स्टीरियोटाइप को ध्वस्त कर दिया था कि भारत सदैव से गरीब रहा और यूरोप धनी रहा। जब अंग्रेज भारत आये तब विश्व की अर्थव्यवस्था में भारत का अंश 23 प्रतिशत था जो उनके जाने के समय 4 प्रतिशत रह गया। प्रश्न यह है की इस तर्क और तथ्य का का क्या अर्थ है वह भी तब जब इतिहास के एक विद्यार्थी रह चुके इलेक्ट्रानिक मिडिया के जाने माने पत्रकार यह लिखें कि इतिहास का गौरवगान मध्यमवर्गीय ऐय्यासी है।

जब भी हम इतिहास की बात करतें हैं इससे हमारा तात्पर्य हमारे उस अतीत से होता है जिसका वर्तमान में महत्व हो और उससे भी जिसका अभाव दिमागी खालीपन पैदा करता है। हमारा वर्तमान हमारे इतिहास से अलग नहीं हो सकता। इसका स्वरुप इस बात से निर्धारित होता है कि हम अपने इतिहास को किस रूप में लेतें हैं। थरूर के आकड़ों के पीछे की महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटिश राज के आरम्भ के समय दुनिया के तमाम तैयार मालों के लगभग चौथाई भाग की आपूर्ति भारत करता था जो निर्यात का प्रमुख घटक था। स्वाभाविक रूप से भारत की कार्यकारी जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्र में लगा था। परन्तु साम्राज्यवादजनित विऔद्योगिकरण के कारण अर्थव्यवस्था के द्वितीयक क्षेत्रों पर निर्भर व्यक्तियों की संख्या गिरी। अकेले बुनकरों की संख्या 62 प्रतिशत से गिर कर 15 प्रतिशत तक जा पहुंची। यहाँ से विस्थापित जनसँख्या प्राथमिक क्षेत्र , कृषि अर्थव्यवस्था पर बोझ बनी और उसे भी तबाह किया।

भारत के लगभग साथ ही मुक्त हुआ चीन एक बर्बाद अर्थव्यवस्था था। तमाम थपेड़े सहने के बाद भी चीन विश्व अर्थव्यवस्था से जुड़ने के पूर्व तक लगभग भारत के साथ ही चलता रहा। लेकिन 70 के दशक में जहाँ चीन ने यथार्थवादी दृष्टि अपनाई वहीँ भारत ने सिर्फ भावुक नारे का प्रयोग किया। जहाँ चीन आगे निकलता गया वहीँ भारत पिछड़ता गया। 90 के दशक के सुधारो ने पुनः भारत को पटरी पर लाया लेकिन समय घाटे के साथ।

वर्तमान में भारतीय अर्थव्यवस्था का कोई भी नामकरण असंगत होगा। जनसँख्या की दृष्टि से यह कृषि अर्थव्यवस्था है जबकि उत्पादन की दृष्टि से यह सेवा अर्थव्यवस्था है। कार्यकारी जनसँख्या के 49 प्रतिशत लोग प्राथमिक क्षेत्र में हैं , जिनका योगदान मात्र 18.7 प्रतिशत है, द्वितीयक क्षेत्र में 20 प्रतिशत लोग हैं जो 31.7 प्रतिशत का योग कर रहें हैं  जबकि तृतीयक क्षेत्र में 31प्रतिशत लोग लगे हैं , जो अर्थव्यवस्था में 49.6 प्रतिशत का योगदान दे रहें हैं।

हम भारत के लोग ऐतिहासिक और खुद की कमियों के कारण अक्सर चूक जाने के लिए कुख्यात रहें हैं। इतिहास गवाह है कि हम निहायत जरूरत के समय भी एकता प्रदर्शित नहीं कर पाये। ऐतिहासिक कारणों से  हम तकनिकी, कृषि , औद्योगिक क्रांतियों में चूक गए। वर्तमान बौद्धिक क्रांति का युग है इसका उत्पाद सेवा क्षेत्र है और सेवा क्षेत्र का आधार उद्योग और आधारसंरचना क्षेत्र है। भारत के पास जनसांख्यिकी लाभांश भी मौजूद है। फिर भी हम अपनी भावुकता और राजनीतिक आग्रहों के कारण चूक सकतें हैं।

भारत जैसे जनसँख्या घनत्व वाले देश में कृषि क्षेत्र में जनसँख्या का बोझ इसको अल्पविकास से निकलने नहीं देगा। जरुरत है कि यहाँ की अतिरिक्त जनसँख्या को अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रों में स्थानांतरित होने की परिस्थितियां पैदा की जाये। भारत के द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्र में जहाँ अभी असीम संभावनाएं है वहीँ कृषि क्षेत्र में जनसँख्या बोझ की अनुपस्थिति सुधारों का बेहतर परिणाम देगी। यह तभी संभव होगा जब हम उद्योगों और सेवा क्षेत्रों के लिए जरुरी जमीनों को किसानों को विश्वास में लेकर प्राप्त करें। अगर हम कृषि की उतनी जमींन लेतें हैं जिसमें दस लोगों को आजीविका चलती है तो हम उसी जमीन में उद्योग और सेवा क्षेत्र में सौ या हज़ार लोगों की आजीविका पैदा कर सकतें हैं। जिससे प्रति व्यक्ति कृषि भूमि भी बेहत्तर होगी। जरुरत इस बात की भी है की हम अंग्रेजो के समय के उन कानूनों को बदले जिनका उपयोग अंग्रेजो ने भारतीय अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने के लिये किया।

हाल में आई थॉमस पिकेटी की किताब "21वीं सदी में पूंजी" की कुछ बातें यहाँ गौर करने लायक है। पहली बात की वर्तमान दौर में पूंजीवाद जितनी बड़ी सच्चाई है उतनी ही बड़ी सच्चाई इससे उत्पन्न पूंजी का संकेन्द्रण और सामाजिक विषमता है। दूसरी जो इससे भी महत्वपूर्ण बात है, वह यह है कि जहाँ कमजोर और पिछड़ी अर्थव्यवस्थायें अपने ही लोगों का शोषण कर रही हैं और विषमता पैदा कर रहीं हैं वहीँ मजबूत और विकसित अर्थव्यवस्थायें अपने से कमजोर अर्थव्यवस्थाओं के साथ ऐसा कर रहीं हैं। यह असमानता बेहद घातक सिद्ध होगी। यथार्थ यही है कि या तो हम मजबूत बने या अपने ही लोगों का शोषण करें और फिर उन पर आंसू बहायें।

निष्कर्ष यह है कि अंग्रेजो ने अपने लाभ के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था को द्वितीयक क्षेत्र से प्राथमिक क्षेत्र में धकेल दिया। और हम अब भी भारत एक कृषि प्रधान देश है का रट लगाये हुए हैं। किसानो के हित के नाम पर भूमि अधिग्रहण का विरोध राजनीतिक पाखंड है। कृषि में लगी जनसँख्या हमारे लिए एक बड़ा वोट बैंक है अतः हम उसे यथास्थितिवाद का मीठा जहर दे रहें हैं। हम भले ही कृषि में ज्यादा निवेश करे, सुधार करे या सब्सिडी दें परंतु यह तब तक बेहतर नहीं हो सकती जब तक हम कृषि क्षेत्र से अतिरिक्त जनसँख्या को अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रो में स्थानांतरित न करें। इसके साथ ही ऐसे औपनिवेशिक कानूनों में ढ़ील की  भी जरुरत है जो इसके लिए उचित माहौल पैदा करें। ऐसा न कर के हम न केवल किसानो का अहित कर रहें हैं बल्कि उस जनसांख्यिकी लाभांश से भी अपने को वंचित कर रहें हैं जो सेवा और औद्योगिक क्षेत्र में क्रांति ला सकता है। कृषि जमीनों के प्रति लोकलुभावन राजनीति और भावुकता हमें अल्पविकसित और श्रेष्ठ अर्थव्यवस्थाओं की मात्र सहायक बनाये रखेगी।

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