बुधवार, 22 जुलाई 2020

भोजपुरी फ़िल्म संगीत के आईने में स्त्री अस्मिता

भोजपुरी फ़िल्म संगीत के आईने में स्त्री अस्मिता

कृतिका पाण्डेय
                                                                                                                                                       
सिनेमा शास्त्री जेम्स मोनाको का कहना है कि 'कला यह बताती है कि हमारी सभ्यता क्या कर रही है ।' साथ ही यह इस पर यकीन करना सिखाती है, यह न केवल छवियों के माध्यम से अस्मिता का निर्माण करती है बल्कि उसका प्रसार भी करती है । फ़िल्म संगीत इसका सबसे सरल एवं प्रभावी माध्यम है । भोजपुरी फिल्मों की शुरुआत से ही स्त्री इसके केंद्र में रही है । भारतीय सिनेमा का विशिष्ट लक्षण फ़िल्म संगीत भोजपुरी फिल्मों का भी मुख्य अंग है ।
भोजपुरी लोकगीतों की भांति ही भोजपुरी फ़िल्म संगीत में स्त्री की आरंभिक सामान्य छवि विरहणी तथा एक संघर्षशील स्त्री की है जिसे 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबे' तथा 'बिदेशिया' जैसी फिल्मों में देखतें हैं । इनमें उपस्थित दृश्य-श्रव्य संगीत स्त्री से अपेक्षित सामाजिक बंधनों तथा मर्यादाओं का बयान करतें हैं । इसका नमूना 'सोनवा के पिजरा में बंद भइली चिरई के जियवा उदास' जैसे गाने हैं  । यहाँ स्त्री अपने सभी रूपों तथा समयों को जीती है और रास्ते में आये परम्पराओं और मान्यताओं  से लड़ती और संवाद करती है ।
कालचक्र का सामाजिक आर्थिक बदलाव, स्त्री अस्मिता की अपनी समझ और उसके प्रदर्शन के रूप में फ़िल्म संगीत में भी दिखता है । मीड के दावे के अनुरूप स्त्री की अस्मिता भी दूसरों के दृष्टिकोण को आत्मसात करने पर निर्भर करती है । यह  उतनी हद तक ही आत्म सचेत है जितनी कि वह समझ पाती है कि दूसरे उसे किस रूप में देख पा रहे हैं । हालाँकि भूमंडलीय दौर में एंथनी गिडेंस इसे एक चिन्तनशील परियोजना के तौर पर देखतें हैं जिसमें देह, स्वास्थ्य, सौन्दर्य से सम्बंधित आयामों और उनके विवरणों के माध्यम से अस्मिता की कहानियां सामने आती हैं । यह यूँ ही नहीं है कि हाल के भोजपुरी फ़िल्म संगीत में स्त्री अस्मिता काम्यता के आयामों में सिमटती जा रही है और संगीत चुम्मा चोली से साया की डोरी तक की यात्रा करती है । बल्कि उपभोक्तावादी बाज़ार की नैतिकता का तर्क ना नूकुर के बावजूद  स्त्री को यह समझाने कि लगातार कोशिश करता  दिख रहा है कि नारी तुम सिर्फ देह हो ।
उत्तर भारत के ग्रामीण अंचल में गायन रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा है । चाहे वो फसल की बुवाई हो, विवाह हो, त्योहार हो,  मौसम हो या बच्चे का जन्म हो, हर अवसर पर एक गीत है । हजारों लोकगीत पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहें हैं । भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इस तरह के गीतों की  एक समृद्ध परम्परा है । इन विविधताओं को सबसे पहले हिन्दी फिल्मों में जगह मिली । आगे चल कर इन गीतों ने परंपरागत रूप से भोजपुरी फिल्मों में एक केंद्रीय भूमिका निभाई है और अक्सर उनकी सफलता असफलता की कुंजी रही है । भोजपुरी फ़िल्म पत्रकार मुन्ना प्रसाद पाण्डेय कहतें हैं कि 'भोजपुरी गाने भोजपुरी फिल्मों की जान हैं ।'  पहली भोजपुरी फिल्म 'गंगा मैया तोहे पियरी चढ़इबो' भले ही पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' के 31 साल बाद बनी हो परंतु भारतीय सिनेमा में भोजपुरी बोली की दस्तक उस वक्त ही हो चुकी थी जब भारतीय सिनेमा को चुप्पी तोड़े  लगभग एक वर्ष ही हुआ था, यानी सन 1932 में बनी संभवत भारत की दूसरी बोलती फिल्म 'इंदरसभा' जिसमें 72 गाने थे इनमें से दो गाने भोजपुरी महक के साथ उसी लोक शैली में गाय बजाए गए थे । गाने के बोल थे ' सुरतिया दिखाय जाओ बाँके छैला' तथा 'ठाड़े हूँ तोरे द्वार बुलाले मोरे साजन रे' । इंदरसभा संपूर्ण रूप से सांगीतिक फ़िल्म थी । बनारस की रहने वाली भोजपुरी भाषी  ठुमरी गायिका जद्दनबाई के भाषा और कला प्रेम ने महबूब खान को मजबूर किया था कि उनकी पसंद की एक ठुमरी फ़िल्म 'तकदीर' 1943 में रखा जाय । जिसके बोल थे-
'बाबू दरोगाजी कवने करनवा बन्हल पियवा मोर
ना मोरा पियवा लुच्चा लंगटवा, ना मोर पियवा चोर 
मोर पियवा त मदिरवा का माता, रहे सड़किया पर सोय'

इस ठुमरी की लोकप्रियता ने उन्हें यह सोचने पर विवश किया कि फ़िल्म में एक भोजपुरी ठुमरी इतनी धूम मचा सकती है तो अगर पूरी फिल्म भोजपुरी में हो तो कितनी धूम मचेगी ।

हालांकि यह वह दौर था जब संभ्रांत परिवार की महिलाओं का फिल्मों में प्रवेश का लगभग निषेध था । ऐसे प्रतिकूल समय में नायिकाओं की अभाव की पूर्ति के लिए कितनी ही बाइयों ने हिंदी सिने जगत में अपने पांव रखे । बाइयों की इस कतार में प्रमुख थीं  कमला बाई, जोहरा बाई, गौहर बाई, लीलाबाई, ताराबाई, हीराबाई, आजम बाई और जद्दनबाई इत्यादि । उत्तर भारत की सामाजिक संस्कृति में रचा बसा 'पूर्वी गीत संगीत' इन्हीं बाइयों के गले में खिलकर और पांव में बंधकर हिंदी सिनेमा के संगीत को अपने लोकरस-रंग से भिगाने आ गया । 1962 में अपनी शुरुआत से ही भोजपुरी सिनेमा ने कई प्रतिभाशाली गीतकार और संगीतकारों जैसे चित्रगुप्त,एस एन त्रिपाठी, तथा शैलेंद्र को आकर्षित किया तथा बॉलीवुड की मुख्यधारा की गायिकाओं जैसे लता, आशा, उषा तथा सुमन कल्याणपुरी ने भोजपुरी फिल्मों में अपनी आवाज दी । 

हालांकि, अब भोजपुरी फ़िल्म गीतों का चरित्र भी नाटकीय रूप से बदल गया है । 1960 के दशक में, गीत मुख्य रूप से राग और माधुर्य के आसपास बुना जाता था, लेकिन  अब ताल और गति महत्वपूर्ण है । पहले भोजपुरी फिल्मों में डांस नंबर आज की तरह नहीं थे । भोजपुरी फिल्मों के पुनरुत्थान के दौर में  संगीत निर्देशन की कमान  लाल सिन्हा ने संभाली वहीं गीत रचा  विनय बिहारी ने जिसे राधेश्याम रसिया ने गाया । इस दौर की खास बात यह रही की पहले से एल्बम संगीत में लोकप्रिय गायकों - गायिकाओ ने अभिनय के क्षेत्र में भी लोकप्रियता हासिल की । मनोज तिवारी  सबसे सफल उदाहरण हैं । इस दौर की महिला गायिकाओं में बड़ा नाम असमी मूल की कल्पना पटवारी का है जिनकी समृद्ध, शक्तिशाली और कामुक आवाज़ किसी  फ़िल्म की सफलता की शर्त हो सकती है । दिनेश लाल यादव 'निरहुवा' के अनुसार 'वह भोजपुरी फ़िल्म उद्योग के लिए अनमोल उपहार हैं ।' संगीत कल्पना की रगो में दौड़ता है ।

एक आम उक्ति कि 'सिनेमा समाज का दर्पण है ।' के उलट थियोडोर एडोर्नो और मैक्स होरखाइमर ने फ़िल्म संबंधित अपने अध्ययन में यह दावा किया कि "हमारा जीवन पर्दे पर दिखाये जाने वाले यथार्थ से भिन्न नहीं रह ।" यह दावा मार्टिन इसलिन की इस चेतावनी के दौर में आया कि "टेलीविजन  हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है, यह समस्याओं के बारे ठीक से सोचने और समझने कि हमारी क्षमता में कमी लाता है तथा  यह स्त्रियों के बारे में हमारे मन में गलत राय निर्मित करता है ।'' यह चेतावनी यह मांग करती है कि सिनेमा के विभिन्न अवयवों निर्माण प्रक्रिया, निर्माता, दृश्य, गीत तथा कैमरे के कोण इत्यादि के अंदर तथा बाहर स्त्री की उपस्थिति को समझा जाय । इस पर  गंभीर बहस पश्चिम की नारीवादियों की देन है । 70 के दशक में नारीवादियों ने फिल्मों में जेंडर के निरूपण का प्रश्न उठाया । पहली नारीवादी पत्रिका 'वूमेन एंड फ़िल्म' प्रकाशित हुई । इसका पहला प्रभाव यह पड़ा कि बहस सिर्फ वर्ग के इर्द - गिर्द ही सीमित न रह कर जेंडर के आसपास भी होने लगी । नारीवादियों ने यह आलोचना की कि फिल्मों में स्त्री के एक निश्चित सार में आस्था का परिणाम पितृसत्ता को पिछले दरवाजे से वैधता प्रदान करना होगा । जांस्टन ने अपने निबंध 'विमेन सिनेमा एज़ काउंटर सिनेमा' में विस्तृत दलील दी है कि स्त्री को अगर पितृसत्ता के विपक्ष में खड़ा होना है तो व्यवसायिक फिल्मों में स्त्री की बनावट को खोल कर देखना होगा : उसके बिम्ब को कैसे फ्रेम किया गया है, उसे कैसी पोशाक पहनाई गई है, उस पर किस कोण से प्रकाश फेका गया है, कथांकन में वह किस जगह स्थित है, कैमरा - लाइटिंग तथा फ़िल्म में उपस्थित पुरुष की स्वैर कल्पनाएँ  स्त्री को किस तरह के केंद्र में लाती हैं । अगर ये सब बातें निकल कर सामने आएँगी तो फिल्मों के पाठ से उसकी विचारधारा को अलग किया जा सकता हैं तथा सिनेमा में स्त्री को समझा जा सकता है ।
स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में आजादी की जो समझ ग्रामीण अंचल में बुनी गई थी वह सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक भी थी, स्त्री मुक्ति तथा उसके प्रश्न इसके केंद्र में थे । भोजपुरी सिनेमा की शुरुआती फिल्में इन्हीं प्रश्नों के इर्द गिर्द घूम कर स्त्रीप्रधान हो जातीं हैं। 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़इबे' की सुमित्री का संसार इसी की जद्दो जहद है ।

फ़िल्म के गीतों में बचपन है, प्रेम है, शिकायत है । फ़िल्म का एक गीत जिसके रचयिता शैलेन्द्र हैं, और जिसे रफी ने दुल्हन की विदाई के समय गाया है, यह चिरई के रूपक में उस समय की स्त्री की स्थिति का बयान है-

सोनवा के पिंजरा में बंद भईली हाय राम 
चिरई के जियवा उदास 
टूट गईल डलियाँ छितर गईल खोतवा 
छूट गईल नील रे आकाश  
छल-छल नैंना निहारे चुप चिरई
चलली बिदेसवा रे मईया के दुलरुई
आँसुओं के मोतियाँ  निसानी मोरे बाबुला
धरी गईनी हम तोहरे पास
बिलखत रह गईली संग कि सहेलिया
ले गईल बाँध के निठुर रे बहेलिया
मोरे मन मितवा भुला दे अब हमरा के 
छोड़ दे मिलन के तू आस

चुनौतीपूर्ण  रूढ़ि वादी समाज के बीच पुष्पित व पल्लवित यह फ़िल्म प्रेम, रोमांच के साथ कुपोषित समाज में इलाज की भाँति पुरजोर दखल देती है । बेमेल विवाह, विधवा विवाह, दहेज़ प्रथा ,नशा खोरी सामंती विचार धारा, धन बल का बोलबाला एवं जातीय भेदभाव आदि से ग्रसित मानसिकताओं को पराजित करती सुमित्री आज भी दर्शकों को विशेष प्रेरणा और ऊर्जा देती है ।

'धरती मैया' फ़िल्म के लिए लक्षमण शाहाबादी का लिखा यह गीत अभी भी भोजपुरी समाज की स्त्री के 'आदर्श दुल्हन' के रूप में समाजीकरण का जहाँ एक तरफ 'उपक्रम' है  वहीं यह उसे यह भी समझाता है कि स्त्री का स्वर्गिक ठहराव उसका ससुराल है । हालाँकि फिल्मों में उसकी असली चुनौतियाँ यहीं से शुरू होती हैं ।

जल्दी जल्दी चल रे कहार
सुरूज डुबे रे नदिया
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चाहे कहीं दाना चुगे पानी पिए सुगवा
संझिया के बेरिया उ खोजे आपन खोतवा
वैसे ही दुल्हनिया के ललचावे परनवां
छोडि़के पहुंच जाए पिया के अंगनवां
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जाके ससुररिया गरब जनि करिह
सबके बिठाके तू पलक पर रखिह
बर के आदर दिह छोट के सनेहिया
इहे बा सुफल जिनगी के ह सनेसवा
दोनो कुल के इज्जत रखिह
बोलिह जनि तीत बोलिया
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आगे आगे पिया संग बंधले गेठरिया
दउरा में डेग धरि चलबु डगरिया
ऐसे ही संभर के ए गोरी
चलिह जिनगी के रहिया

'बिदेसिया' जनकवि भिखारी ठाकुर की कालजयी कृति से ओतप्रोत थी जिसमें परदेश कमाने जाने वाले भोजपुरियों की समस्याओं का वर्णन है । 'बिदेसिया' के गीतों में नायिका के विरही छवि का दर्शन होता है जिसका पति उससे दूर चला जाता है । 

हसी हसी पनवा खियवले बेइमनवा
की अपना बसे रे परदेश 
कोरी रे चुनरिया में दगिया लगाई गईले 
मारी रे करेजवा में ठेस

एक दूसरा गीत है 
दिनवा गिनत मोरे घिसली अंगुरिया
की रहिया ताकत नैना घूरे रे बिदेसिया
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बाउर लागे अमवा बाउर भइले  जियरा
उमंग आस अंसुवा में चूर रे बिदेसिया 

भोजपुरी की पहली  और दुसरे चरण की फिल्म गीतों में स्त्री के हर रूप का दर्शन होता है वह माँ है, बेटी है, प्रेमिका है, पत्नी है,सहेली है, भौजाई है, ननद है  और स्वयं में भी एक संघर्षशील अस्तित्व है । गीतों में उसकी कुछ भिन्न छवियाँ इस प्रकार हैं -

राजदार के रूप में भौजाई -
जाने कहाँ बिंदिया हेराई अईली भउजी रे 
केहू से नजरिया लड़ाई अईली भउजी रे 

संकोची प्रेमिका -
का बोली सैयां बतावलो न जाये

सुन्दरता की मानक -
गोरकी पतरकी रे मारे गुलेलवा
जियरा उड़ी उड़ी जाय
 
बाल विवाह का दर्द -
हम त खेलत रहनी अम्मा जी की गोदिया 
कर गईल तबहीं बियाह रे बिदेसिया

भारत में भूमण्डलीकरण ने संस्कृति के नाम पर बाजार की संस्कृति व उपभोक्तावाद की संस्कृति को जन्म दिया है । महिला साहित्यकार प्रभा खेतान का मानना है कि 'भूमण्डलीकरण जीवन के हर कोने में अस्तित्व के हर रूप का वस्तुकरण करता है ।' मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी इस प्रवृत्ति की व्यंगात्मक व्याख्या करते हैं और कहते हैं कि विज्ञापनों, गीतो, फिल्मों और सीरियलों इत्यादि तमाम सांस्कृतिक रूप में स्त्री की देह का आखेट किया जाता है । कैमरे की नजर स्त्री की देह पर इसलिए चलती है ताकि दर्शक को स्त्री नए ढंग से दिखाई जा सके । स्त्री के सेक्स केंद्रों को हमारे फिल्मी गीतों में जिस कलात्मक छल के साथ सक्रिय किया जाता है वह स्त्री देह को समूचे समाज का क्रीडा स्थल बना देना चाहता है । इस प्रक्रिया में आर्थिक लाभ द्वारा स्त्री का शोषण होता है । विडंबना यह है कि वर्तमान उपभोक्तावादी संस्कृति नारी देह का इतना दुरुपयोग करती है लेकिन महिलाओं ने भी इसके विरुद्ध आवाज बुलंद कराने की बजाय इसे अपनी नियति मान लिया है । 
भोजपुरी फ़िल्म संगीत भी अपने को इस मोहपाश से बचा नहीं पाया । भोजपुरी फिल्मों में द्विअर्थी और अस्पष्ट गीतों की एक महामारी फैल चुकी है जहां गीतकार अपनी कल्पनाशीलता  को अक्सर महिला शरीर रचना के कुछ हिस्सों तक ही सीमित रखतें हैं । 1991की एक फ़िल्म 'गंगा से नाता बा हमार' के गीत का बोल इस प्रकार है -

कहीं निम्बुवा त कहीं पे अनार सजनी
निम्बुवा बेचारी किसी गिनती में न आये 
ये जमाना है अनारों का बीमार सजनी 

निश्चित तौर पर यहाँ गीतकार किसी फलों की चर्चा नहीं कर रहा है । लेकिन इसके बाद के गानों पर चर्चा सार्वजनिक संकोच और लज्जा का विषय है ।
 
हालाँकि दिनेश लाल यादव 'निरहुवा' का कहना है कि भोजपुरी सिनेमा अश्लील नहीं है जो ऐसा कहता है वह भोजपुरी सिनेमा का दर्शक नहीं होगा यह मैं दावे के साथ कह सकता हूँ। सेंसर बोर्ड में न केवल पुरुष बल्कि महिलाएं भी फिल्मों को देखती हैं फिर प्रमाण पत्र निर्गत किया जाता है ऐसा कहना भारत सरकार  द्वारा बनाई गई प्रणाली पर अंगुली उठाना है । अक्षरा सिंह का कहना है की मैं भोजपुरी सिनेमा की बुराई नहीं कर सकती क्योंकि इसी भोजपुरी सिनेमा से मेरा घर चलता है । परन्तु भोजपुरी के पचास वर्ष पर पद्म भूषण शारदा सिन्हा जी कि शिकायत है कि 'वास्तविक ख़ुशी तो तब मानते जब भोजपुरी सिनेमा हमारे समाज का सही और सच्चा आइना बनने का काम करता मुझे नहीं लगता है की इन पचास वर्षों में हमारा पूर्वांचल का समाज फूहड़ हो गया है, मन यह भी नहीं मनाता की भोजपुरी समाज के सभी देवर अपनी भाभियों को सिर्फ और सिर्फ घटिये मजाक से संबोधित करना पसंद करतें हैं ।'
जो भी हो, मिट्टी की सुगन्ध को धारण करने वाली मधुर भोजपुरी गीतों और उसके सामाजिक सरोकारों की जरुरत को दरकिनार नहीं किया जा सकता, और न ही लोक गीतों में 'अभिव्यक्त खुलेपन' को फिल्मों में स्वीकार करने पर किसी को आपत्ति होनी चाहिए परन्तु लोक व्यवस्था और नारी की गरिमा का ख्याल रखना  प्रत्येक नागरिक का मूल कर्तव्य है यह फिल्मों द्वारा राष्ट्र निर्माण की शर्त है ।


सन्दर्भ ग्रन्थ सूची 
अभय कुमार दुबे - भारत का भूमण्डलीकरण, समाज विज्ञान कोश
अभिजीत घोष - भोजपुरी सिनेमा 
रविराज पटेल - भोजपुरी फिल्मों का सफरनामा 
अंशु त्रिपाठी - भोजपुरी सिनेमा का सफ़र
मनोज भावुक - भोजपुरी सिनेमा की विकास यात्रा

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