राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत
राष्ट्र कहीं होता नहीं है, अतः इसे पाया भी नहीं जाता। हाँ इसे बनाया जाता है, और सिर्फ बनाया जाता है यह इसलिए कि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगतीं हैं।
पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहतें हैं तो हमें यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत की सवा अरब आबादी के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा।
दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की अजीब कोशिश है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह एकता इस रूप में नहीं है कि हम पिस कर संस्कृतियों कि चटनी बना दें और फिर इसे मुहँ में डाल कर स्वाद लें और अनुमान लगाएं कि इसमे क्या क्या था। बेहतर है कि जीभ के स्वाद की बजाय हम आँख से ही इसका सौंदर्य बोध प्राप्त करें जैसे फूल की टोकरी या फुलवारी। हमें सभी को आदर देते रहना होगा।
तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद से कोई भी विरोध नहीं है सिवाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी निष्पति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद कि असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशो में हम असफल रहतें हैं।
और रही भारत राष्ट्र की बात तो भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ छोटे मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल बैठ कर सुलझा भी लिया जायेगा।
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