शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सहिष्णुता नहीं बंधुता चाहिये

क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित और लियोनार्डो डी कैप्रियो द्वारा अभिनीत विज्ञान गल्प फ़िल्म इन्सेप्शन में दो महत्वपूर्ण कल्पनायें की गई हैं पहली कि यदि हम किसी  स्वप्न में लंबे समय तक रहें तो हमें हमारा स्वप्न ही यथार्थ लगता है और हमारा यथार्थ स्वप्न प्रतीत होता है। दूसरी जो महत्वपूर्ण कल्पना की गई है वह है कि कोई हमारे स्वप्न में आकर या अपने स्वप्न में बुलाकर न केवल हमारे विचारों को चुरा सकता है बल्कि वह हमारे अंतर्मन में नए विचारों का इज़ाद भी कर सकता है और हमें इसकी भनक भी नहीं लग सकती। भारतीय इतिहास का औपनिवेशिक काल एक तरह का इन्सेप्शन ही रहा है। आजादी के इतने सालों बाद भी हम इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। यह नए सिरे से फिर प्रारम्भ हुआ लगता है। भारत में सकारात्मक और परिणामी संवाद के विचार कहीं चोरी हुए से लगतें हैं और लगता है कि जैसे संघर्ष के विचारों को भारत के अंतर्मन में रोप दिया गया हो। हर एक के बरक्स हर एक का संघर्ष जैसे हमारी स्थाई नियति बनती जा रही है। प्रेम, मिलन, और समर्पण के शब्द जैसे गायब किये जा रहें हैं इसकी जगह पर नफ़रत, अलगाव और संघर्ष के शब्द ढूंढे जा रहें हैं। निशाने पर लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गई सरकार, राष्ट्र और हमारा समाज दोनों हैं।

क्या 1976 के पहले भारत समाजवादी नहीं था या बाद में पूंजीवादी नीतियों ने सहयोग नहीं किया। पंथनिरपेक्ष संविधान वाले भारत में राजीव गांधी ने शाहबानो जैसो के लिए क्या किया और क्या यह राममंदिर के दुष्परिणामी ताला खुलने की वजह नहीं बना ? क्या अखंडता शब्द नक्सलवाद और कश्मीरी आतंकवाद इत्यादि को बढ़ने से रोक पाया। हमने उन धारणाओं को जो समाज और राज्य के मानस में होने चाहिए वहां से हटा कर संविधान की शोभा मात्र बना कर रख दिया। समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता के बाद एक और शब्द भविष्य में संविधान में जगह पाने का इन्तजार कर रहा है। शायद यह सहिष्णुता पिछले साल का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है। यह संविधान में जगह पाये अपने पूर्ववर्तियों से अलग होगा लेकिन कुछ कुछ पंथनिरपेक्ष शब्द जैसा ही इसका हश्र होगा। मगर चिंता की बात यह है कि इससे पहले ही भारत के राजनीतिक सामाजिक जीवन में इसकी जगह बनाई जा चुकी है। सहिष्णुता एक विरोधाभाषी शब्द है और असहिष्णुता तो चरम विरोधाभाषी है। इसका विरोधाभास वाल्ज़र के इस प्रश्न में दिखता है जिसमे वे कहते है कि क्या हम असहिष्णुता के प्रति सहिष्णु हो सकतें हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता एक पूर्णतया नकारात्मक शब्द और विचार है जो संविधान विरुद्ध भी है। ज्यादा सहज शब्दों में कहा जाय तो सहिष्णुता का अभिप्राय उन चीजों को सहन करना या बर्दास्त करना है जिसे हम नापसंद करतें हैं। यह मन का बोझ है। प्रश्न उठता है कि गलत चीजों को हम क्यों और कब तक बर्दास्त करें और अगर बात सही है तो हम उसे क्यों स्वीकार नहीं करें। सवाल यह भी उठता है कि हम कोई गलत बात करें ही क्यों जिससे उसे किसी को बर्दास्त करना पड़े। किसी को गाली देकर हम कब तक उससे सहिष्णुता की उम्मीद रख सकतें हैं। अपराध के शिकार व्यक्ति के प्रतिरोध को हम असहिष्णु कह कर कब तक उसका खून जलातें रहेंगे। सहिष्णुता और असहिष्णुता का खेल वर्चश्व के शोर से ज्यादा कुछ नहीं है। यह प्रतिरोध के स्वर को मुर्दा शांति से भर देने का एक षड़यंत्र मात्र है। यह एक सामाजिक पाखंड है जो अस्वीकार्यता को स्वीकृति देता है। समाज को हमेशा उस दहलीज पर रखता है जहाँ कोई भी छोटी चिंगारी इसमें आग लगा देती है। सहिष्णुता का विचार हमें ऐसा समाज मुहैय्या कराता है जिसमे नफ़रत का विचार साथ साथ चलता है जो सहमति और स्वीकार्यता में बाधा बनता है।

सहिष्णुता से इतर बंधुता एक संविधान सम्मत शब्द और विचार है। यह हमारी परंपरा से भी मेल खाता है। अशोक का बारहवां दीर्घ शिलालेख अपने सम्प्रदाय को आदर देने के साथ ही दूसरे सम्प्रदाय को भी आदर देने की बात करता है। यहाँ आदर की बात हो रही है न कि बर्दास्त करने की। 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत मानव अधिकार’ की घोषणा के अनुच्छेद 1 में यह कहा गया है कि ‘‘सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र और समान हैं। उन्हें बुद्घि और अंतश्चेतना प्रदान की गयी है। उन्हें परस्पर "भ्रातृत्व" की भावना से रहना चाहिए।’’  भारत के संविधान की कुंजी उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना है, क्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। संविधान में "सहिष्णुता" नहीं बल्कि "बंधुता" की भावना के साथ रहने को कहा गया है। बंधुता पूर्णतया सकारात्मक मन का उल्लास है जिसमे स्वीकार्यता भरी है। यह सामाजिक प्राण वायु है। जिस प्रकार एक भाई को चोट लगे और आह दूसरे की निकले, एक की संवेदनाएं दूसरे के साथ इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि उन्हें अलग करना ही कठिन हो जाए तो वास्तविक बंधुता वही कहलाती है। नागरिकों की ऐसी गहन संवेदनशीलता राष्ट्र निर्माण का परमावश्यक अंग है।

6 टिप्‍पणियां:

Shriprakash Pandey श्री प्रकाश पांडेय ने कहा…

सहिष्णुता-असहिष्णुता से से अधिक व्यापक है हम सब का देश।😀😀😀

Shriprakash Pandey श्री प्रकाश पांडेय ने कहा…

सहिष्णुता-असहिष्णुता से से अधिक व्यापक है हम सब का देश।😀😀😀

Ratnakar ने कहा…

Kya bat hai dhanshu article

Ratnakar ने कहा…

Kya bat hai dhanshu article

RAJIV KUMAR PANDEY ने कहा…

धन्यवाद

kaushalya kumari ने कहा…

🙏👍

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