गुरुवार, 3 सितंबर 2020

सत्ता और युवा

युवा हित राजनीतिक चिंता का विषय नहीं रहा।

राजनीति का केंद्र सत्ता है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। 

इन जुड़ावों में सबसे ताकतवर ऊर्जा "युवा" की चाहत भी उसे सबसे ज्यादा रहती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को बिखरावों में ढूढ़ लिया है। 

युवा भी अब एक समरस "ताकत" नहीं रह गया है। सत्ता के दावेदारों ने एक तरफ जहां उसे बांट रखा है वहीं दूसरी तरफ सत्ता ने उसकी ऊर्जा को डेटा खर्च करने के नशे की तरफ मोड़ रखा है । जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है।  

कभी कभार उभर आई युवा व्याकुलता को सत्ता अपनी ऊपरी शराफत तथा इंतज़ार कराने की अद्भुत क्षमता से मात देने में सफल हो रही है। सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं।

लोकतंत्र में नागरिक को हमेशा सावधान रहना चाहिए और सरकार को संवेदन शील ...लोकतंत्र की यही ताकत है ..यही सफलता की शर्त है ...

आखिर कब तक साहब भोंपू पर मुहँ और फरियादी कान लगाए रहेंगे।

अगर अभी भी अपने भविष्य की चिंता के दायित्व को लेकर सजग नहीं हुए और सिर्फ बातों और भंगिमाओं में उम्मीद और आनंद तलासते रहे तो दोषी  स्वयं होंगे।

अपने भविष्य के प्रति असंवेदनशीलता को देखते हुए अब नौजवानों को शक्तिशाली, चालाक और धूर्त शत्रु से लड़ने के लिए अपने समर्पण के साथ - साथ नई तकनीकी और बुद्धि को जोड़ते हुए असाधारण क्षमता वाली शक्ति बनना चाहिए जिसे कोई उपेक्षित न कर सके।

वो अपना हित बख़ूबी सोच रहे हैं इसमें कोई बुराई भी नहीं है लेकिन देश के युवा विशेषकर बेरोजगार युवा अपना हित कब सोचेंगे ? कब तक  सुनियोजित बर्बादी को त्याग, धैर्य और संघर्ष की कहानियों के तौर पर उन्हें परोसा जाता रहेगा ?

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