सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन
अर्थ : असंतोष की अभिव्यक्ति
राजनीतिक भागीदारी के संस्थागत दायरों के बाहर परिवर्तनकामी राजनीति करने वाले आंदोलनों को सामाजिक आंदोलन की संज्ञा दी जाती है। सामाजिक प्रक्रियाओं के रूप में सामाजिक आंदोलन स्थापित सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक व्यवस्थाओं के विरुद्ध सामूहिक असंतोष की अभिव्यक्ति के रूप में उभरतें हैं जो सामाजिक परिवर्तन के कारक बन जाते हैं। यह परिवर्तन कभी कभी अपनी व्यापकता, प्रभाविता और तीव्रता में क्रांति बन जाता है।
संदर्भ : देश काल की अपनी विशिष्ट अनुभूति
यह सामाजिक विकास क्रम की अहम कड़ी होते हैं। यह किसी विशेष ऐतिहासिक तथा सामाजिक संदर्भ को धारण करते हैं जिनके अनुरूप आंदोलन की अपनी समझ तथा अनुभूति होती है उदाहरण के लिए देखें तो पश्चिमी देशों में जहां सामाजिक आंदोलन श्रमिक सुधार आंदोलन जैसे चार्टिस्ट आंदोलन के रूप में सामने आता है वही भारत में उपनिवेश विरोधी आंदोलन के साथ ही जाति विभेद के विरुद्ध सामाजिक आंदोलन अस्तित्व में आते हैं। जो परिवर्तन के रूप में पश्चिम में श्रम सुधार तथा भारत में स्वाधीनता के साथ समतावादी समाज की आकांक्षा वाली बंधुता को लेकर आता है।
उत्पत्ति और प्रभाव : भिन्न अनुभव की विचारपद्धतियाँ
सामाजिक आंदोलन की उत्पत्ति की विचार पद्धतियां इसके कारणों के विभिन्न प्रकारों की खोज करती हैं।
1- जब जन समुदाय को विशिष्ट जन प्रजातांत्रिक व्यवस्था से बेदखल कर सोद्देश्य विस्थापित तथा विघटित कर देते हैं तो यह परायापन सामाजिक आंदोलन की अपील को बढ़ा देता है।
2- व्यक्तियों के श्रेणीकरण की विषयनिष्ठ असंगतियां तनावों को उत्पन्न कर असंतोष तथा विरोध को प्रकट करती हैं।
3- कोई भी गंभीर संरचनात्मक तनाव जैसे विघटन, व्याकुलता तथा शत्रुता सामाजिक आंदोलन को अभिव्यक्त करने में सहायक हो सकता है।
4- मार्क्सवादी विश्लेषण में संपन्न विपन्न का संघर्ष आंदोलन है जिसका कारण आर्थिक अभाव है।
5- सांस्कृतिक पुनर्जीवन आंदोलन अपने लिए अधिक संतोषजनक संस्कृति निर्मित करने के लिए होते हैं।
घटक : आन्दोलन के आधार
पारंपरिक रूप से सिद्धांतवाद, सामूहिक लामबंदी, संगठन तथा नेतृत्व की पहचान सामाजिक आंदोलनों के प्रमुख घटकों के रूप में की गई है। जबकि नए सामाजिक आंदोलनों के उभरने से मूल्यों, संस्कृति, वैयक्तिकता, आदर्शवाद, नैतिकता ,पहचान, सामर्थ्य आदि के मुद्दों से इन प्रयासों में नई पहचान तथा अतिरिक्त प्रभाविता मिलती है।
प्रकार : संघर्षों की भिन्न अभिव्यक्तियाँ
अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं की भिन्न स्थितियों के तनाव से उत्पन्न संघर्ष सामाजिक आंदोलनों को भिन्न प्रकारों में बांटते हैं।
1- औद्योगिक असंतोष, श्रमिक हड़ताल, कर्मचारियों का आंदोलन तथा कृषक आंदोलन अपने सामूहिक हितों के प्रतिस्पर्धात्मक प्रयास होते हैं।
2- झारखंड, उत्तराखंड तथा तेलंगाना के आंदोलन सांस्कृतिक तथा राजनीतिक पहचानो के पुनर्निर्माण से जुड़े थे।
3- जाट आंदोलन, छात्र आंदोलन तथा राजनीतिक दलों के आंदोलनों में जाम, हड़ताल तथा बंदी जैसी कार्यवाईयां, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्ति प्रदर्शन द्वारा दबाव उत्पन्न करने के उद्देश्य से होते हैं।
4- कई बार समाज के अभिजन समूह के आंदोलन अपने विशेष अधिकारों की प्रतिरक्षा से जुड़े होते हैं।
5- खास सांस्कृतिक पैटर्न की निर्माण, प्रसार या जुड़ाव के द्वारा समाज पर नियंत्रण या उसे नए सांचे में ढालने की कोशिश की जाती है जैसे स्त्री आंदोलन या जाति आंदोलन के द्वारा।
6- ऐतिहासिक संघर्ष अपने चरम रूप में राष्ट्रीय संघर्ष आंदोलन होते हैं जैसे भारत का स्वतंत्रता संघर्ष का आंदोलन।
निष्कर्ष : लोकतांत्रिक समाज के लिए
सामाजिक आंदोलनों ने हाशिया ग्रस्त समूहों और अधिकार वंचित तबकों की राजनीति को बढ़ावा दिया है तथा सामाजिक परिवर्तन का कारण बना है इसी वजह से यह माना जाता है कि समकालीन लोकतंत्र अपने विस्तार और गहराई के लिए सामाजिक आंदोलनों का ऋणी है।
सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त
समाज में सामाजिक परिवर्तन किन कारणों से तथा किन नियमों के अन्तर्गत होता है, उनकी गति एवं दिशा क्या होती है, इन प्रश्नों को लेकर प्राचीन समय से आज तक विद्वान अपने-अपने मत व्यक्त करते रहे हैं ।
1. चक्रीय सिद्धान्त : ओस्वाल्ड स्पेंगलर
सामाजिक परिवर्तन के बारे में अपना चक्रीय सिद्धान्त जर्मन विद्वान ओस्वाल्ड स्पेंगलर ने अपनी पुस्तक ‘The Decline of the West’ में प्रस्तुत किया । उन्होंने कहा कि परिवर्तन कभी भी एक सीधी रेखा में नहीं होता है । सामाजिक परिवर्तन का एक चक्र चलता है, हम जहाँ से प्रारम्भ होते हैं, घूम-फिर कर पुन: वहीं पहुँच जाते हैं । अपनी बात को सिद्ध करने के लिए स्पेंगलर ने विश्व की आठ सभ्यताओं यथा अरब, मिश्र, मेजियन, माया, रूसी एवं पश्चिमी संस्कृतियों आदि का उल्लेख किया और उनके उत्थान एवं पतन को दर्शाया । पश्चिमी सभ्यता के बारे में स्पेंगलर ने कहा कि यह अपने विकास की चरम सीमा पर पहुँच गयी है । उनके अनुसार पश्चिमी समाजों का आज जो दबदबा है, वह भविष्य में समाप्त हो जायेगा और उनकी सभ्यता एवं शक्ति नष्ट हो जायेगी । दूसरी ओर एशिया के देश जो अब तक पिछड़े हुए कमजोर एवं सुस्त हैं वे अपनी आर्थिक एवं सैन्य शक्ति के कारण प्रगति एवं निर्माण के पथ पर बढेंगे तथा पश्चिमी समाजों के लिए एक चुनौती बन जायेंगे ।
अंग्रेज इतिहासकार अर्नाल्ड जे. टॉयनबी ने विश्व की 21 सभ्यताओं का अध्ययन किया तथा अपनी पुस्तक ‘A Study of History’ में सामाजिक परिवर्तन का अपना सिद्धान्त प्रस्तुत किया । टॉयनबी के सिद्धान्त को ‘चुनौती एवं प्रत्युतर का सिद्धान्त’ भी कहते है । उनके अनुसार प्रत्येक सभ्यता को प्रारम्भ में प्रकृति एवं मानव द्वारा चुनौती दी जाती है । इस चुनौती का सामना करने के लिए व्यक्ति को अनुकूलन की आवश्यकता होती है इस चुनौती के प्रत्युत्तर में व्यक्ति सभ्यता व संस्कृति का निर्माण करता है ।
2. रेखीय सिद्धान्त : कॉम्टे
रेखीय सिद्धान्तकारों, में कॉम्टे ने सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव के बौद्धिक विकास से जोड़ा है तथा इसके तीन स्तरों की पहचान की है।
(a) धार्मिक स्तर:
यह समाज की प्राथमिक अवस्था थी । इसमें मानव प्रत्येक घटना को ईश्वर एवं धर्म के सन्दर्भ में समझने का प्रयत्न करता था विश्व की सभी क्रियाओं का आधार धर्म और ईश्वर को ही माना जाता था उस समय अलग- अलग स्थानों पर धर्म के विभिन्न रूप जैसे बहुदेतवाद, एकदेववाद अथवा प्रकृति पूजा प्रचलित थे ।
(b) तात्विक स्तर:
इसमें घटनाओं की व्याख्या उनके गुणों के आधार पर की जाती थी । इस अवस्था में अलौकिक शक्ति में विश्वास कम हुआ और प्राणियों में विद्यमान अमूर्त शक्ति को ही समस्त घटनाओं के लिए उत्तरदायी माना गया ।
(c) वैज्ञानिक स्तर:
यह वर्तमान में विद्यमान है । इसमें मानव सांसारिक घटनाओं की व्याख्या धर्म ईश्वर एवं अलौकिक शक्ति के आधार पर नहीं करता वरन् वैज्ञानिक नियमों एवं तर्क के आधार पर करता है । वह कार्य और कारण के सह-सम्बन्धों को ज्ञात कर नियमों एवं सिद्धान्तों का प्रतिपादन करता है ।
3. आर्थिक सिद्धान्त : कार्ल मार्क्स
कार्ल मार्क्स ने सामाजिक परिवर्तन को आर्थिक कारकों से जनित माना है । अतः उनके सिद्धान्त को आर्थिक निर्धारणवाद अथवा सामाजिक परिवर्तन का आर्थिक सिद्धान्त कहा जाता है । उन्होंने इतिहास की भौतिक व्याख्या की और कहा कि मानव इतिहास में अब तक जो परिवर्तन हुए है वे उत्पादन प्रणाली में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं जनसंख्या भौगोलिक परिस्थितियों एवं अन्य कारकों का मानव के जीवन पर प्रभाव तो पड़ता है किन्तु वे परिवर्तन के निर्णायक कारक नहीं हैं । निर्णायक कारक तो आर्थिक कारक अर्थात् उत्पादन-प्रणाली ही है ।
उत्पादन-प्रणाली में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है जब उत्पादन के उपकरणों (प्रौद्योगिकी) उत्पादन के कौशल, ज्ञान उत्पादन के सम्बन्ध आदि में परिवर्तन आता है तो सम्पूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक अधि-संरचना में भी परिवर्तन आता है जो सामाजिक परिवर्तन कहलाता है ।
मार्क्स के अनुसार इतिहास के प्रत्येक युग में दो वर्ग रहे है । मानव समाज का इतिहास इन दो वर्गों के संघर्ष का ही इतिहास है । उन्होंने समाज के विकास को पाँच युगों में बाँटा और प्रत्येक युग में पाये जाने वाले दो वर्गों का उल्लेख किया एक वह वर्ग जिसका उत्पादन के साधनों पर स्वामित्व रहा है और दूसरा वह जो श्रम के द्वारा जीवनयापन करता है । इन दोनों वर्गों में अपने-अपने हितों को लेकर संघर्ष होता रहा है । प्रत्येक वर्ग-संघर्ष का अन्त नये समाज एवं नये वर्गों के उदय के रूप में हुआ है । वर्तमान में भी पूँजीपति और श्रमिक दो वर्ग हैं जो अपने अपने हितों को लेकर संघर्षरत है ।
4. प्रौद्योगिक सिद्धान्त : वेबलिन
वेबलिन सामाजिक परिवर्तन के लिए प्रौद्योगिक दशाओं को उत्तरदायी मानते हैं । प्रौद्योगिक दशाएं प्रत्यक्ष रूप से सामाजिक परिवर्तन के लिए उत्तरदायी है । इसलिए उनके सिद्धान्त को ‘प्रौद्योगिक निर्णयवाद’ भी कहा जाता है ।
वेबलिन ने मानवीय विशेषताओं को दो भागों में विभाजित किया है:
(i) स्थिर विशेषताएँ- जिनका सम्बन्ध मानव की मूल प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं से है जिनमें बहुत कम परिवर्तन होता है ।
(ii) परिवर्तनशील विशेषताएँ- जैसे आदतें, विचार एवं मनोवृत्तियाँ आदि । सामाजिक परिवर्तन का सम्बन्ध मानव की इन दूसरी विशेषताओं विशेष रूप से मानव की विचार करने की आदतों से है ।
मनुष्य अपनी आदतों द्वारा नियन्त्रित होता है और उनका दास है । ये आदतें किस प्रकार की होंगी यह मानव के भौतिक पर्यावरण विशेषकर प्रौद्योगिकी पर निर्भर है जब भौतिक पर्यावरण अर्थात् प्रौद्योगिकी में परिवर्तन आता है तो मानव की आदतें भी बदलती है मानव जिस प्रकार के कार्य तथा प्रविधि द्वारा जीवनयापन करता है, उसी प्रकार की उसकी आदतें एवं मनोवृतियाँ होती हैं जीवनयापन के लिए मनुष्य जिस प्रकार की प्रविधि को अपनाता है, अपनी आदतों को भी वह उनके अनुकूल ढालता है ।
कृषि कार्य के आधार पर ही मानव की आदत एवं मनोवृत्तियाँ बनी हुई थीं । किन्तु जब मशीनों का आविष्कार हुआ तो मानव का भौतिक पर्यावरण बदला प्रौद्योगिकी बदली, काम की प्रकृति बदली और उसके साथ-साथ मानव की आदतों एवं मनोवृत्तियों में भी परिवर्तन आया ।
आदतें ही धीरे-धीरे स्थापित एवं सुदृढ़ होकर संस्थाओं का रूप ग्रहण करती हैं संस्थाएँ ही सामाजिक ढाँचे का निर्माण करती हैं । अतः आदतों में परिवर्तन होता है तो सामाजिक संस्थाओं एवं ढाँचे में परिवर्तन आता है जिसे हम सामाजिक परिवर्तन कहते हैं ।
सामाजिक संरचना में परिवर्तन ही सामाजिक परिवर्तन है । इस प्रकार वेबलिन सामाजिक परिवर्तन को नवीन प्रविधियों एवं प्रौद्योगिक कारकों से उत्पन्न मानते हैं । इसलिए उन्हें प्रौद्योगिक निश्चयवादी कहा जाता है ।
5 - सांस्कृतिक सिद्धान्त : वेबर
वेबर में सामाजिक परिवर्तन के लिए सांस्कृतिक कारक विशेषतया धर्म को उत्तरदायी माना है । विश्व के प्रमुख धर्मों का विशद् अध्ययन करके वेबर ने यह दिखाने का प्रयत्न किया कि धर्म व आर्थिक-सामाजिक घटनाओं में क्या सम्बन्ध है।
उन्होंन अध्ययन के आधार पर यह दर्शाने का प्रयत्न किया कि आधुनिक पूंजीवाद केवल पश्चिमी देशों में सबसे पहले क्यों आया, अन्य देशों में क्यों नहीं ? धर्म एवं आर्थिक जीवन के सम्बन्धों के अध्ययन को आपने ‘दी प्रोटेस्टेण्ट स्प्रिट एण्ड इथिक दि ऑफ कैपिटलिज्म’ नामक पुस्तक में प्रकाशित किया है।
अपनी पद्धतिशास्त्रीय अन्तर्दृष्टि के द्वारा वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म के उन आचारों को ढूँढा जिन्होंने आधुनिक पूंजीवाद की आत्मा को विकसित किया । उन्होंने धर्म को एक परिवर्तनीय तत्व माना और यह दर्शाया कि धर्म किस प्रकार मानव के सामाजिक और आर्थिक जीवन को प्रभावित करता है ।
धार्मिक और आर्थिक कारकों के सम्बन्धों को जानने के लिए वेबर ने विश्व के छ: प्रमुख धर्मों (हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कन्फ्युशियस, इस्लाम तथा यहूदी धर्म) का अध्ययन किया और प्रत्येक धर्म में पाये जाने वाले उन आर्थिक विचारों को ज्ञात किया जो उस धर्म से सम्बन्धित लोगों के आर्थिक व सामाजिक जीवन को प्रभावित करते हैं अपने अध्ययन के आधार पर वेबर ने यह प्रकट किया कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म में ही कुछ ऐसे आर्थिक विचार पाये जाते है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया, यद्यपि इसके लिए अन्य कारक भी उत्तरदायी रहे है ।
वेबर कहते है कि यूरोप में जब रोमन कैथोलिक धर्म प्रचलित था तो पूँजीवाद नहीं पनपा किन्तु धार्मिक सुधार आन्दोलन के कारण जब प्रोटेस्टैण्ट धर्म का उदय हुआ तो आधुनिक पूँजीवाद का भी उदय हुआ ।
प्रोटेस्टेण्टवाद वह धार्मिक विचारधारा है जो पोप के अधिकार को स्वीकार नहीं करता और जिसमें विवेक का तत्व विशेष रूप से पाया जाता है । नैतिकतावादी दृष्टिकोण, संग्रह की प्रवृत्ति, ईमानदारी, श्रम के प्रति निष्ठा, ये सभी प्रोटेस्टेट धर्म के प्रमुख तत्व हैं जिनके कारण यूरोप के विभिन्न देशों में आर्थिक विकास, विशेषत: पूँजीवाद का विकास हुआ ।
प्रोटेस्टेण्ट धर्म की नीति के रूप में सेण्ट पॉल के इस आदेश को व्यापक रूप से ग्रहण किया गया- “जो व्यक्ति काम नहीं करेगा, वह रोटी नहीं खायेगा तथा निर्धन की तरह धनवान भी ईश्वर के गौरव को बढ़ाने के लिए किसी न किसी व्यवसाय में अवश्य जुटे ।”
वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट धर्म में पाये जाने वाले उन आचारों का भी उल्लेख किया है जिन्होंने आधुनिक पूँजीवाद को जन्म दिया बेंजामिन फ्रेंकलिन ने आधुनिक पूँजीवाद की उन शिक्षाओं एवं उपदेशों का उल्लेख किया है जो सफल व्यवसायी एवं पूँजीपति बनने के लिए आवश्यक हैं । वे हैं- “समय ही धन है” “धन से धन कमाया जाता है”, “एक पैसा बचाना एक पैसा कमाना है”, “ईमानदारी सबसे अच्छी नीति है”, “जल्दी सोना और जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ, धनी और बुद्धिमान बनाता है”, “कार्य ही पूजा है ।” प्रोटेस्टेण्ट धर्म के आचारों की तुलना दुनियाँ के दूसरे धर्मों से करके वेबर इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि केवल प्रोटेस्टेण्ट धर्म ही ऐसा हे कि जिसके, आर्थिक परिणाम अधिक स्पष्ट एवं दूरगामी हैं ।
यह धर्म लोगों को ईमानदार एवं उत्साही होने, परिश्रम करने, मितव्ययिता बरतने एवं पैसा बचाने पर जोर देता है जो पूँजीवाद लाने के लिए आवश्यक है । यदि ये सिद्धान्त एवं उपदेश न होते तो आधुनिक पूँजीवाद भी सम्भव नहीं होता ।
अपनी बात की पुष्टि करने के लिए वेबर ने यूरोप के विभिन्न देशों से ऐतिहासिक प्रमाण जुटाये । इटली व स्पेन में जहाँ पर कैथोलिक धर्म के अनुयायी अधिक हैं, पूँजीवाद का विकास इंग्लैण्ड, अमेरीका व हालैण्ड की अपेक्षा कम हुआ ।
हिन्दू धर्म भौतिकवाद के स्थान पर आध्यात्मवाद पर अधिक जोर देता है । कर्मवाद के सिद्धान्त के आधार पर पिछले जन्म के कर्म के आधार पर ही इस जन्म में फल मिलता है । इसी प्रकार से, जाति के कठोर नियम व्यक्ति को अपनी जाति के व्यवसाय को त्यागने की इजाजत नहीं देते और प्रत्येक जाति के लिए एक व्यवसाय भी निश्चित है । हिन्दू धर्म एक ऐसी समाज-व्यवस्था को जन्म देता है जिसमें सामाजिक गतिशीलता सम्भव नहीं है ।
इस प्रकार वेबर ने प्रोटेस्टेण्ट आचार और आधुनिक पूँजीवाद के विकास को कार्य-कारण के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और प्रोटेस्टेण्ट आचारों को पूँजीवाद के विकास के लिए एक प्रभावशाली कारक माना यद्यपि अन्य कारक भी इसके विकास के उत्तरदायी रहे है ।
सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक विचार
सामाजिक विचार, विचार की वह शाखा है जो मुख्य रूप से मानव के सामान्य सामाजिक जीवन और उसकी समस्याओं के साथ संबंधित है, जो मानव अंतर्संबंधों और अंतःक्रियाओं द्वारा निर्मित और व्यक्त है। ई.एस. बोगार्डस ने सामाजिक विचारों को यह कहकर परिभाषित किया है कि, "सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं के बारे में एक या कुछ व्यक्तियों की मानव इतिहास में या वर्तमान में उनकी सोच रहा है।"
सामाजिक प्रश्नों के बारे में विचार करने वाले समूह के अर्थ में अधिकांश सामाजिक विचारों ने ज्ञान में भले ही बहुत कम योगदान दिया हो लेकिन इनके आन्दोलनकारी तथा परिवर्तनकामी प्रभाव व्यापक रहे हैं। चर्चा-समूह की सोच अपने उच्च स्तरों पर सामाजिक सोच को दर्शाती रही है, लेकिन चर्चा-समूह की सोच अभी तक व्यापक नहीं है। हालांकि, हालफिलहाल के वर्षों में सोशल मीडिया ने जिस तरह चर्चा समूह जैसे फेसबुक ग्रुप और वाट्सएप्प ग्रुप के रूप में न केवल चर्चा समूहों का आसान निर्माण संभव किया है बल्कि प्रभावी कार्यवाहियों के लिए प्रेरित किया है, को देखते हुए जो परिदृश्य उभर रहे हैं, भविष्य में इससे काफी हद तक उम्मीद की जा सकती है। वास्तव में यह "मुखरता" सामाजिक आन्दोलन बन चुकी है जो समाज के मुख्य प्रकार का परिवर्तनकामी विचार बन जाने का वायदा करता है।
सामाजिक जीवन के बारे में व्यक्तियों की सोच तीन श्रेणियों में आती है:
1. पहली श्रेणी उन समूहों के रूप में सामने आती है जो मानव समुदायों की उन्नति को अपना उद्देश्य बनाते हैं। जैसे सरोकारी बुद्धिजीवी यथा फुले, अम्बेडकर तथा गांधी।
2. दूसरी श्रेणी किसी विशेष समूह या समूह के लाभ के लिए मानव के जोड़तोड़ का जिक्र करता है। जैसे सत्ता या पद की आकांक्षा वाला राजनीतिक समूह या राजनीतिक नेता या कार्यकर्ता।
3. तीसरी श्रेणी का उद्देश्य अंतर्निहित सामाजिक प्रक्रियाओं और कानूनों का विश्लेषण करना है, बिना किसी उपयोग या प्रभाव की आकांक्षा किये । निरपेक्ष बुद्धिजीवी यथा सामाजिक विश्लेषक, विचारक, शिक्षक।
सामाजिक विचारों की विशेषताएं:
सामाजिक विचार मुख्य रूप से सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं।
बोगार्डस के अनुसार, सामाजिक विचारों की निम्नलिखित विशेषताएं हैं:
1. सामाजिक विचार सामाजिक समस्याओं से उत्पन्न होते हैं। जैसे जाति विभेद से समतावादी समाज का विचार।
2. सामाजिक विचार मानव के सामाजिक जीवन से संबंधित हैं। जाति उच्छेद का विचार, जातीय दमन से जुड़ा है।
3. यह सामाजिक संबंधों और अंतर्संबंधों का परिणाम है। जैसे जाति व्यवस्था, वर्णव्यवस्था ।
4. सामाजिक विचार समय और स्थान से प्रभावित होते हैं। जैसे महाराष्ट्र की विशेष पृष्टभूमि और फुले अम्बेडकर।
5. विचारक अपने सामाजिक जीवन और व्यक्तिगत अनुभवों से बहुत प्रभावित होते हैं। माली और महार जीवन की त्रासदी फुले, अम्बेडकर।
6. यह सभ्यता और संस्कृति के विकास को प्रेरित करता है। जैसे आधुनिकता और लोकतंत्र के मूल्य स्वतंत्रता समता और बंधुता।
7. सामाजिक विचार अमूर्त सोच पर आधारित होते हैं। सामाजिक धारा के प्रतिकूल सोच। तिलक के दौर में फुले, राष्ट्रवादी समय में "जाति" की मुखरता
8. यह सामाजिक उपयोगिता का एक अभिन्न अंग है। जैसे भारत को एक योग्य संविधान निर्माता मिला, समतावादी लोकतांत्रिक मजबूत समाज और राष्ट्र का निर्माण।
9. यह सामाजिक रिश्तों को बढ़ावा देने में मदद करता है। बंधुता।
10. यह न तो निरपेक्ष है और न ही स्थिर है। यह विकासवादी है।
सामाजिक विचारों के स्तर:
प्रत्येक समाज में सामाजिक चिंतन के तीन चरण या स्तर होते हैं:
1. सामाजिक रूप से लाभकारी चिंतन:
यह आमतौर पर प्रगतिशील या रचनात्मक सामाजिक प्रस्तावों से युक्त होती है, जिन्हें स्पष्ट रूप से समाज में प्रगतिशील बदलाव लाने के लिए डिज़ाइन किया जाता है। इससे समाज का कल्याण होता है। विचारक मानवता के कानून से प्रेरित होते हैं।
2. नकारात्मक सामाजिक चिंतन:
इसमें स्वार्थ, सामान्य कल्याण की अवहेलना आदि की विशेषता होती है। यह प्रकृति में पारलौकिक और प्रतिगामी है। इस नकारात्मक प्रकार की सामाजिक सोच में बहुसंख्यकों के कल्याण पर ध्यान नहीं दिया जाता है। सत्ता या विशेष अधिकार प्राप्त लोग अपने हित को साधते हैं तथा परिस्थिति को अपने पक्ष में हेरफेर कर स्थिति का लाभ उठाते हैं।
3. वैज्ञानिक सामाजिक चिंतन:
यह वर्तमान का प्रगतिवादी लोकतांत्रिक तर्कवाद है। यह वर्तमान समाज की चाहत है। यह सोच निष्पक्ष और उदार होने का दावा करती है। यह एक प्रकार की ऐसी सोच है जो सामूहिक कल्याण को बढ़ावा देती है। इस प्रकार की सोच का वैज्ञानिक रूप से विचार या विश्लेषण किया जा सकता है।
सामाजिक चिंतन का इतिहास
परिवर्तन की शाश्वतता को धारण करने वाले मानव समाज के आरंभिक दौर से ही सामाजिक चिंतन अपने आदिम स्वरूप में एक शक्ति के रूप में रहा है। समाज में उभर आई समस्याओं के हर निदानों में सामाजिक चिंतन व्याप्त रहा है। कवियों, शिक्षकों, संतों, सुधारकों तथा उपदेशकों की बातों में तथा धार्मिक और सामाजिक सुधार आंदोलनों की प्रत्येक कार्यवाईयों में इसे साफ तौर पर अपने समय के मुहावरों में देखा जा सकता है।
प्लेटो के समय से ही दिखने वाला सामाजिक चिंतन , इब्न खल्दून की मुक़द्दीमा में सामाजिक एकता और सामाजिक संघर्ष के सामाजिक-वैज्ञानिक विचारों को आगे लाता है। जबकि रुसो और वाल्तेयर के आंदोलन से प्रेरित फ्रांसीसी क्रांति की व्याकुलता के शीघ्र बाद ही लिखते हुए, ऑगस्ट काम्टे ने प्रस्थापित किया कि सामाजिक निश्चयात्मकता के माध्यम से सामाजिक बुराइयों को दूर किया जा सकता है। 19वी सदी में उभरती आधुनिकता की चुनौतियों, जैसे औद्योगिकीकरण, शहरीकरण और वैज्ञानिक पुनर्गठन की शैक्षणिक अनुक्रिया, आरंभिक समाजवादियों के चिंतन में दिखती है। परिवर्तन की तीव्रता और बदलती सामाजिक संरचना की भिन्न समझ सामाजिक विचारों की असंख्य लहर निर्मित करती है।
आधुनिक भारत में जाति विभेद की सामाजिक संरचना के अनुभव ने फुले, अम्बेडकर को जन्म दिया जिन्होंने इससे निज़ात के लिए आंदोलन किया तथा इससे और लोगों को जोड़ कर इसे और मजबूत किया बल्कि इनके चिंतन ने इसे और धार प्रदान किया तथा सामाजिक परिवर्तन को जन्म दिया। इस प्रकार भारत एक समतावादी समाज की तरफ अग्रसर हुआ।
सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:-सामाजिक वर्ग
सामाजिक वर्ग, सामाजिक स्तरीकरण से जुड़ी अवधारणा है। क्लासिक सामाजिक आंदोलनों को सामान्यतः उनके वर्ग घटकों के आधार पर समझा जा सकता है क्योंकि ये अधिकत्तर 'वर्ग बद्ध' आंदोलन होते हैं। सरलतम शब्दों में यहां सामाजिक वर्ग का अर्थ है:-
1- जनसंख्या का असमान समूह में विभाजित होना।
2- संसाधनों में विभेदी वितरण के कारण समूहों के बीच आर्थिक असमानता का होना।
3- अभिजन समूहों को आर्थिक संसाधनों के स्वामित्व तथा नियंत्रण में उनकी आवश्यकता से अधिक भाग का मिलना तथा इसके परिणाम स्वरूप बहुजनों को कम भाग का मिलना।
4- संपत्ति तथा संसाधनों के इस असमान वितरण की दोषपूर्ण प्रणाली के कारण अमीर गरीब तथा मध्यवर्गी तथा श्रमजीवी वर्गों का जन्म होना।
5- गरीबों में 'एक ही नाव में सवार होने' यानी एक सी स्थिति के कारण वर्ग एकता का बोध विकसित कर लेना तथा अपने से उच्च वर्ग के साथ एक विरोधी संबंध बना लेना।
6- भारत में जाति व्यवस्था अपनी विशिष्टताओं में एक वर्ग भी है। जाति व्यवस्था एक "बंद वर्ग" है जो इसे और जटिल, कठोर, परिवर्तनहीन तथा सुधार से परे बनाता है। इसलिए इससे जुड़े सामाजिक आन्दोलन परिवर्तन के रूप में संरचनाओं को उलट देना चाहतें हैं।
सामाजिक आंदोलन और सामाजिक परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में:- सामाजिक संरचना
सामाजिक आंदोलन सामाजिक संरचनाओं में उभर आए दोषों, उनके तनाव या उनकी ईकाईयों के बीच प्रतिस्पर्धा के परिणाम होते हैं सामाजिक संरचना की विशेषताएं इनकी कारक बन जाती हैं। सामाजिक संरचना शारीरिक अंगों तथा उनकी पारस्परिक निर्भरता की तरह होती है सामाजिक संरचना का अभिप्राय समाज की इकाइयों के क्रमबद्धता तथा उनके आपसी संबंधों से होता है। समूह समिति, संस्थान परिवार तथा सामाजिक प्रतिमान और उनके संबंधों को सामाजिक संरचना कहते हैं।
1- सामाजिक संरचना अमूर्त होती है तथा अनेक उप संरचनाओं से मिलकर बनती है।
2 - संरचना की इकाइयां परस्पर संबंधित होकर एक ढांचे का निर्माण करती है जिससे उनके स्वरूप का बोध होता है।
3- संरचना की इकाइयों के आपसी संबंधों तथा क्रमबद्धता में आई किसी कमी से संरचना कायम नहीं रह पाती है।
4- इकाइयों का पद और स्थान पूर्व निर्धारित होता है जिन्हें प्रतिस्थापित करने की कोशिश परिवर्तन को जन्म देती है।
5- प्रत्येक समाज की संस्कृति भिन्न-भिन्न होती है अतः संस्कृति द्वारा निर्धारित प्रतिमान में भिन्नता के कारण संरचना भी भिन्न-भिन्न होती है।
6- सामाजिक संरचना स्थानीय विशेषताओं से प्रभावित होती है प्रत्येक समाज की संस्कृति स्थानीय परिवेश के अनुकूलन के परिणाम स्वरूप विकसित होती है।
7- सामाजिक प्रक्रिया सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण पक्ष है। समाज में सहयोग व्यवस्थापक्ष, अनुकूलन, प्रतिस्पर्धा जैसी प्रक्रिया चलती रहती है।
8- सामाजिक संरचना में अनुकूलन की क्षमता होती है।
इस प्रकार अगर हम उदाहरण के तौर पर फ्रांस, रूस, ब्रिटेन तथा भारत की सामाजिक संरचना को गौर से देखें तो यहां के आंदोलनों पर न केवल असर डालती हैं बल्कि परिवर्तन के स्वरूप को भी प्रभावित करती हैं ।
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