बल्बन दिल्ली का एकमात्र सुल्तान है जिसने राजत्व संबंधी अपने विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया। सुल्तान के उच्च पद और शासक के दायित्व के विषय में कुछ न कुछ कहने के लिए वह कोई अवसर नहीं खोता था। इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब वह नासिरुद्दीन महमूद का प्रधानमंत्री बना। हबीबुल्लाह का कहना है कि महमूद ने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया परन्तु शासन नहीं किया, शासन तो बलबन ने किया था।
राजत्व
की जोरदार अभिव्यक्ति का कारण
इससे
इंकार नहीं किया जा सकता कि राजमुकुट को एक उच्च और सम्मानित स्तर पर स्थापित करने
के लिए तथा सामंतशाही से संघर्ष और विरोध की समस्त संभावनाएं समाप्त करने के लिए
यह आवश्यक था किंतु इन निरंतर उपदेशों के पीछे उसकी हीन भावना और अपराध भाव की
जटिल प्रक्रिया का भी आभास मिलता है।
1. राजहंता का कलंक
अपने
मलिकों और अमीरों जिनमें अधिकांश उसके सहचर थे, के कानों
में निरंतर चिल्ला चिल्ला कर यह कहने से कि राजत्व एक दैवी संस्था है, उसका यह उद्देश्य था कि राज्यहंता का जो कलंक उसके माथे पर लगा था,
उसे धो डाले और उनके मन में यह विचार भलीभांति बिठा दे कि वह
देवेच्छा से ही सिंहासनारूढ़ हुआ है न कि किसी हत्यारे के विष भरे प्याले या कटार
से।
2. दासता के कारण कानूनी अयोग्यता
इसके अतिरिक्त मिनहाज या बरनी के इतिहास में उसकी दासता से मुक्ति के विषय में कोई संदर्भ न होना भी महत्वपूर्ण है। संभवतः वह दासता से कभी मुक्त नहीं किया गया। अपनी इस मौलिक क़ानूनी अयोग्यता के कारण वह जनता पर शासन करने का अधिकारी नहीं था और इसी को छिपाने के लिए उसने "दैवी दायित्व" की आड़ लेकर अपनी सत्ता को वैधानिक रूप देने का चालाकी से प्रयत्न किया।
बलबन के राजत्व के सैद्धांतिक और फारसी तत्व
बल्बन
के राजत्व सिद्धांत का स्वरूप और सार सस्सानी परसिया से लिया गया था जहां राजत्व
उच्चतम स्तर तक ले जाया जा चुका था और उसके अलौकिक और दैवी गुण सार्वजनिक रूप से
मान लिए गए थे ताकि सस्सानी साम्राज्यवादी वंश का व्यक्ति ही सिंहासनारूढ़ हो सके।
अपने राजनीतिक आदर्श के लिए वह फारस के पौराणिक वीरों से प्रेरणा लेता था और जहां
तक संभव हो सकता था उनका अनुसरण करने का प्रयत्न करता था। उसके राजत्व सिद्धांत के
मूल तत्व इस प्रकार हैं :
1. राजपद की गरिमा : राजा पृथ्वी पर
ईश्वर का प्रतिनिधि
राजा
पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि 'नियाबते खुदाई' है और मान-मर्यादा को दृष्टि से वह केवल पैगंबरी के बाद ही है। राजा ईश्वर
का प्रतिबिम्ब (जिल्ले अल्लाह) है और उसका हृदय दैवी प्रेरणा और क्रांति का भंडार
है। अपना राजसी दायित्व पूर्ण करने के लिए वह निरंतर ईश्वर द्वारा प्रेरित और
निर्देशित होता रहता है। इस विचारधारा का वास्तविक अर्थ यह था कि राजा की शक्ति का
स्रोत सामंतवर्ग या जनता नहीं बल्कि केवल ईश्वर है और फलस्वरूप उसके कार्य
सार्वजनिक जांच के अधीन नहीं हैं। यह एक जटिल धार्मिक युक्ति थी जिस से वह अपनी
निरंकुश सत्ता को पवित्र बनाना चाहता था। दिखावटी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा राजत्व
के लिए महत्वपूर्ण बनाई गई। अपने संपूर्ण शासन काल में बल्बन सदैव जन साधारण से
दूर रहा और इस धारणा को वह इतनी दूर ले गया कि वह साधारण व्यक्तियों से बात करना
भी पसंद नहीं करता था। फख्र बावनी नामक दिल्ली के एक धनी व्यक्ति ने राजमहल के
अधिकारियों को रिश्वत देकर सुल्तान से भेंट करनी चाही किंतु सुल्तान ने अपने
अधिकारियों का निवेदन अस्वीकार कर दिया। राजत्व की मान मर्यादा से संबंधित तत्वों
के महत्व ने उसे शिष्टाचार का आग्रही बना दिया था। वह दरबार में अपने संपूर्ण
राजसी वैभव और उपकरणों के बिना कभी उपस्थित न होता था।
उसके निजी सेवकों ने भी कभी उसे शाही पोशाक, मोजे और मुकुट
के बिना न देखा।
2. कुलीनता पर जोर : सम्मान के लिए दूरी
बलबन
सदैव कुलीन और अकुलीन परिवार के व्यक्तियों के अंतर के महत्व पर बल दिया करता था।
वह अकुलीन परिवार के व्यक्तियों से संपर्क रखना या शासन में किसी पद पर उनकी
नियुक्ति को शासक की मान मर्यादा गिराने वाला समझता था। उसने तुच्छ कुल में जन्में
सभी व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों से
निकाल दिए। अपने दरबारियों को कमाल महियार नामक एक नए मुसलमान का अमरोहा के
मुतसरिफ़'
के पद पर चयन किए जाने पर बहुत डांटा। कहते हैं कि उसने कहा कि,
'जब मैं किसी तुच्छ परिवार वाला व्यक्ति देखता हूं तो मेरे शरीर की
प्रत्येक नाड़ी क्रोध से उत्तेजित हो उठती है। वंशावली बलबन की सनक बन गई। वह
स्वयं अपनी वंशावली फिरदौसी के 'शाह नामा' में उल्लिखित पौराणिक अफ़रासियाब से जोड़ता था और यह बात बड़े गर्व और
अहंकार से अपने दरबार में कहता था। अपने एक पत्र में सैय्यद अशरफ़ जहांगीर सम्नानी
लिखते हैं कि बलबन ने अपने समस्त अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों के परिवारों के
विषय में जांच कराई। देश के सभी प्रदेशों से वंशावली के विशेषज्ञ दिल्ली में एकत्रित
हुए थे ताकि वे इन लोगों के पारिवारिक स्तर निश्चित करने के लिए उसकी सहायता
करें।
3. फ़ारस के रीतिरिवाजों तथा
परंपरा पर जोर : संस्कृतिकरण
बलबन
की यह धारणा थी कि फ़ारस के रहन-सहन की परंपराएं अपनाए बिना राजत्व संभव नहीं है।
अपने निजी तथा सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक विषय में वह फ़ारस के रीतिरिवाजों का
अत्यंत सावधानी से अनुसरण करता था। राज्यारोहण के 'पूर्व'
उसके जिन पुत्रों का जन्म हुआ उनका नाम उसने महमूद और मुहम्मद रखा
किंतु उसके पौत्र जो सिंहासनारोहण के बाद उत्पन्न हुए उनके नाम फ़ारस के सम्राटों
की भांति कैकूबाद, कैखुसरो रखे गए।
4. खलीफा
को मान्यता : धार्मिक युक्ति
प्रायः
बल्बन राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करने के लिए ख़लीफ़ा की अनुमति लेने की चर्चा किया
करता था। वह बग़दाद के पतन और ख़लीफ़ा के अंत के विषय में जानता था फिर भी वह
ख़लीफ़ा को जो समस्त मुसलमानों के राजनीतिक संप्रदाय का नेता था, राजनीतिक सत्ता की मान्यता पर बल देता था। उसके सिक्कों पर दिवंगत ख़लीफ़ा
का नाम अंकित होता था और मस्जिदों के 'खुत्बे' में उसे पढ़ा जाता था।
5. बलबन का दरबार : भौकाल
बल्बन
ने अपना दरबार ईरानी परंपरानुसार संगठित किया और सस्सानी के शिष्टाचार और
औपचारिकता को बड़ी सावधानी और विस्तारपूर्वक ग्रहण किया। सूर्य के समान चमकते अपने
चेहरे पर जिस पर कपूर जैसी सफ़ेद दाढ़ी थी। वह अपने सिंहासन पर महान सस्सानी
शासकों की भांति बैठता था। सोलहवीं शताब्दी का एक लेखक फ़िजूनी अस्तराबादी कहता है
कि उसके लंबे चेहरे पर लंबी दाढ़ी थी और वह बहुत ऊंचा मुकुट इस तरह पहनता था कि
उसकी दाढ़ी के अंतिम छोर से उसके मुकुट के शिखर तक लगभग एक गज की लंबाई होती थी।
इस भय उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व के साथ दरबार की प्रतिभा और शिष्टाचार तथा
औपचारिकता के छोटे-छोटे तत्व जुड़े रहते थे' 'हाजिब'
'सलाहदार' 'जानदार' 'चाऊश'
तथा 'नक़ीब' आदि बड़ी
गंभीर मुद्रा में मौन होकर उसके चारों ओर खड़े रहते थे। सुल्तान 'सिजदा' (घुटनों पर बैठ कर शीश नवाना) और 'पायबोस' ( चरणस्पर्श ) की परंपरा को उन सभी
व्यक्तियों से पूरे करने का आग्रह करता था, जिन्हें उसके समक्ष उपस्थित होने का
विशेषाधिकार प्राप्त होता था। उसकी उपस्थिति में कोई मजाक़ या फालतू बातचीत संभव
नहीं थी सिंहासन के पीछे केवल कुछ विश्वसनीय मलिक और विश्वासपात्र बैठते थे। अन्य
लोग उसके सामने अपने पद और स्थिति के अनुसार खड़े रहते थे। सुल्तान अपने पद की
प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठता था। कभी किसी व्यक्ति ने
उसे हंसते हुए या साधारण अवस्था में नहीं देखा। उसके जीवन में बड़े भयंकर
व्यक्तिगत तूफ़ान तीव्र और अनपेक्षित रूप से आए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक
दरबार की औपचारिकताओं का यह सनकी अपने लिए निर्धारित कठिन कार्यक्रम का सावधानी से
अनुसरण करता रहा। समारोहों के समय दरबार एक अद्भुत शानशौकत का स्थल दिखाई देता था।
कढ़े हुए क़ालीन, सजावटी परदे, रंगबिरंगे
वस्त्र, तथा सोने-चांदी के बर्तन देखने वालों की दृष्टि
चकाचौंध कर देते थे। दरबानों के स्वर दो कोस तक सुनाई देने थे। बरनी लिखता है कि,
'इन समारोहों के कई दिन बाद तक लोग दरबार की सजावट के विषय में
बातें किया करते थे।' विदेशों से जब राजदूत उसके दरबार में
आते थे तो वे अवाक और आश्चर्यचकित रह जाते थे। जब सुल्तान जुलूस में निकलता था तो
सीस्तानी सैनिक नंगी तलवारें लेकर उसके साथ चलते थे। सूर्य की चमक, तलवारों की जगमगाहट और उसके चेहरे की कांति सभी सामूहिक रूप से एक
प्रभावशाली दृश्य प्रस्तुत करते थे। जब शाही जुलूस बाहर निकलता था तो ' बिस्मिल्ला ! बिस्मिल्ला !' के नारे वातावरण चीरते
थे। शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा का यह प्रदर्शन जो अभिन्न रूप
से उसके मस्तिक में जमा रहता था, उसके राजत्व सिद्धांत सहित
देश के अत्यंत उद्दंड को भी आज्ञाकारी बना देता था और जनसाधारण के मन में भय एवं
आतंक उत्पन्न करता था।
राजत्व को संबल देने
वाले व्यवहारिक तत्व
1. सेना
का पुनर्गठन : हिंसा के साधनों पर एकाधिकार
सेना
का पुनर्गठन राजनीतिक अनुभव से बल्बन ने यह सीखा था कि सेना शासन का मूल स्तंभ है।
इसलिए अन्य किसी विभाग के पूर्व उसका संगठन आवश्यक था। इल्तुतमिश द्वारा प्रचलित
परंपराओं की गति मंद पड़ गई थी और इसलिए सेना का संपूर्ण पुनर्गठन आवश्यक था।
1. बल्बन
ने सेना की संख्या में वृद्धि की और सेना के केंद्रीय दल 'क़ल्बे आला’ में सहस्रों निष्ठावान और अनुभवी अधिकारी नियुक्त किए। उनका
वेतन बढ़ा दिया गया और वेतन के बदले उनके लिए गांव निश्चित किए गए।
2. सैनिकों के वेतनों में वृद्धि और उन्हें सुखी और
संतुष्ट रखना बल्बन की सामरिक नीति का एक आवश्यक अंग था। उसने अपने पुत्र बुगरा
ख़ां को यह परामर्श दिया : सेना के लिए कितना भी धन व्यय करना हो उसे अधिक न समझो
और अपने 'आरिज' ( सैनिक भर्ती करने वाला अधिकारी ) को पुराने
सैनिकों की व्यवस्था करने और नवीन की भर्ती करने में व्यस्त रहने दो। उसे अपने
विभाग में प्रत्येक व्यय के विषय में सूचना होनी चाहिए।
3. सेना
सदैव सतर्क और फुर्तीली बनाए रखने के लिए वह बार बार सैनिक अभ्यास पर बल देता था।
प्रत्येक शरद् ऋतु में प्रातःकाल वह रेवाड़ी की ओर शिकार खेलने के बहाने जाया करता
था और अपने साथ एक हजार अश्वारोही तथा एक हजार पैदल बाण चलाने वाले ले जाता था और
बहुत रात गए वापस आता था।
2. प्रशासनिक
उपाय : प्रबुद्ध निरंकुशता का कल्याणकारी उपाय
सुल्तान
की प्रशासनिक उपलब्धियों का वर्णन करते हुए बरनी लिखता है : 'प्रकृति ने सुल्तान बलबन के शरीर पर राजसी वस्त्र सिल दिए थे। जिस समय वह
दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तो प्रत्येक राजकीय कर्मचारी स्वेच्छाचारी था और समस्त
प्रशासनिक प्रणाली अस्तव्यस्त थी। उसने उसके समस्त ढीले पुर्जे कसे और नौकरशाही को
शाही सत्ता के प्रति निष्ठवान और आज्ञाकारी बना दिया। पूर्व और पश्चिम के अधिकांश
मध्यकालीन शासनों की भांति बल्बन का शासन भी अर्ध नागरिक तथा अर्धसैनिक था। यह
मध्यकालीन युद्ध प्रणाली के कारण था क्योंकि सरकारी अधिकारी तब तक कार्य नहीं कर
सकते थे जब तक उनमें नागरिक और सैनिक शासन की क्षमता न हो।
1. वह
प्रशिक्षण और नियुक्तियों पर दृष्टि रखता था। वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति के कारण अब
सैनिक प्रशिक्षण अत्यंत विशिष्ट विषय बन गया है। मध्य युग में प्राय: तलवार चलाना
और लेखनी पर दक्षता साथ साथ सिखाए जाते थे। राजनीतिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में
बल्बन ने फूट उत्पन्न करने वाली प्रवृतियां दृढ़ता से रोकीं। वह केंद्रीय राजनीतिक
सत्ता में विश्वास करता था। अधिकांश सरकारी नियुक्तियां या तो वह स्वयं करता था या
उसकी अनुमति से होती थीं। यह तथ्य कि अमरोहा में की गई एक साधारण नियुक्ति उसका
ध्यान आकर्षित कर सकती थी, यह सिद्ध करता है कि वह समस्त नौकरशाही व्यवस्था पर
कड़ी दृष्टि रखता था ।
2. प्रांतीय
राज्यपालों को उसे अपनी सामयिक रिपोर्ट भेजनी पड़ती थी। राज्यपालों की आर्थिक
क्रियाओं पर अत्यंत दक्ष लेखा परीक्षा प्रणाली नियंत्रण रखती थी। मुल्तान तथा
लखनौती जैसे सीमांत प्रांतों की गंभीर परिस्थिति देखते हुए उसने अंत में अपने पुत्रों
को इन क्षेत्रों में राज्यपाल नियुक्त किया। बल्बन किसी सामंत या अधिकारी को यह
अवसर नहीं देना चाहता था कि वे साम्राज्य के किसी सूक्ष्म क्षेत्र में अपनी स्थिति
संगठित कर लें और फिर उसके सामने वह कठिनाई प्रस्तुत करें जो तुग़रिल ने की थी।
यदि पश्चिमी सीमा के प्रहरी का पद ही राज्याधिकार के लिए साधन था तो उसके ज्येष्ठ
पुत्र के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति उस क्षेत्र का अधिकारी नहीं हो सकता था।
3. चूंकि
सुल्तान की शक्ति कम करने के लिए पहले स्वयं बल्बन ने ही 'नायबे मुमलकत' की भांति नए पदों का सृजन किया था
इसलिए उसने इसका ध्यान रखा कि किसी अधिकारी के हाथ में बहुत अधिक शक्ति एकत्र न हो
पाए। उसने वजीर से उसके सैनिक और आर्थिक अधिकार छीन कर उसके पद का महत्व कम कर
दिया। वजीर पद पर बाजा हसन की नियुक्ति से इस बात का संकेत मिलता है कि प्रधान
मंत्री पद के प्रति उसका क्या दृष्टिकोण था और उस से कैसे कार्य की वह आशा करता
था। आर्थिक और सैनिक अधिकार पृथक करने के पश्चात किसी राज्याधिकारी द्वारा सत्ता
हड़पने की आशंका बिल्कुल समाप्त हो गई।
4. बल्बन
ने यह अनुभव किया कि एक निरंकुश शासन के लिए निष्ठावान गुप्तचर प्रणाली की
आवश्यकता थी। उसके गुप्तचर उसे सदैव राज्य के प्रत्येक प्रदेश में होने वाली
घटनाओं से भलीभांति अवगत रखते थे। उसके पुत्रों,
संबंधियों, प्रांतीय राज्यपालों, सैनिक
अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और जनता की गतिविधियों पर
गुप्तचर दृष्टि रखते थे और उनकी सूचना भेजते रहते थे। बलबन 'बरीद'
(गुप्तचर अधिकारी) की नियुक्ति बड़ी सावधानी से करता था। चरित्र,
ईमानदारी यहां तक कि वंशावली की पूरी जांच के पश्चात ही कोई व्यक्ति
'बरीद' के पद पर नियुक्त किया जाता था।
'बरीदों' को जन साधारण तथा गुप्तचर
पहचानते थे और उन की सफल व्यवस्था जिस से जनता में चारित्रिक दुर्बलता और अविश्वास
उत्पन्न न हो, सुल्तान की चतुरता पर निर्भर थी। इस विषय में
बल्बन ने अपने पुत्र को यह परामर्श दिया सूचना देने वालों को और गुप्तचरों को
दरबार के निकट न आने दिया जाए, क्योंकि शासकों के पास उनकी
निकटता से आज्ञाकारी तथा विश्वसनीय मित्र हो जाते हैं और उनका शासक पर विश्वास जो
उत्तम शासन का आधार है नष्ट हो जाता है।
बल्बन
के राजनीतिक दृष्टिकोण और प्रशासनिक सिद्धांतों की झलक उन दो व्याख्यानों से मिल
सकती है जिन्हें उसने अपने पुत्रों को दिया था और जिन से बरनी ने विस्तृत उद्धरण
लिए हैं। इन शिक्षाओं से निम्नलिखित सिद्धांतों की जानकारी होती है :
1. शासन
को संरक्षात्मक कानून बनाने चाहिए और समर्थ लोगों के अत्याचार से दुर्बल
व्यक्तियों के हितों की रक्षा करनी चाहिए।
2. संतुलित
आचार शासन का आदर्श वाक्य होना चाहिए। जनता से व्यवहार में न तो कठोरता होनी चाहिए
और न ढिलाई कर न तो इतना अधिक होना चाहिए जिससे जनता दरिद्र हो जाए और न इतने कम
कि वे अवज्ञाकारी और धृष्ट हो जाएं।
3. शासन
इस बात का ध्यान रखे कि जनता की आवश्यकतानुसार उपयुक्त अनाज की उपज होती है।
4. शासक
के आदेश दृढ़ता से लागू किए जाएं और शासन के निर्णयों में बार-बार परिवर्तन नहीं होना चाहिए।
5. राज्य
की आर्थिक स्थिति का समुचित नियोजन और व्यवस्था होनी चाहिए। वार्षिक आय का केवल
आधा भाग ही व्यय करना चाहिए। शेष आधा भाग संकटकालीन समय के लिए सुरक्षित रखना
चाहिए।
6. शासन
को चाहिए कि वह व्यापारियों को समृद्ध और संतुष्ट रखने का प्रयत्न करे।
7. सैनिकों
का वेतन उचित समय पर दे देना चाहिए और सेना को प्रसन्न तथा संतुष्ट रखना चाहिए।
3. न्याय
: साधारण मनुष्यों की सहानुभूति और प्रशंसा
बलबन
न्याय को शासक का सर्वोच्च दायित्व समझता था। उसके निरंकुश शासन की यह संतोषजनक
विशेषता थी और उसके फलस्वरूप उसे साधारण मनुष्यों की सहानुभूति और प्रशंसा अवश्य
प्राप्त हुई होगी। जब कभी किसी साधारण व्यक्ति के प्रति अन्याय या अत्याचार की
सूचना उसे मिलती थी तो वह क्रोध से आग बबूला हो जाता था और अपने अधिकारी या संबंधी
तक को दंड देने में संकोच नहीं करता था। क़राबेग के पिता मलिक बक़बक़ को जो बदायूं
का इक्तादार था और मलिक किरान के पिता हैबत ख़ां को, जो
अवध का इक्तादार था, कठिन दंड दिए गए। मलिक बकबक का वध किया
गया और हैबत खां को 20,000 टंके का जुर्माना देना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपने निजी
घरेलू नौकरों की हत्या कर दी थी।
यद्यपि
बल्बन,
लोगों के व्यक्तिगत झगड़ों में न्याय करता था किंतु जब किसी व्यक्ति
का राज्य से झगड़े का विषय प्रस्तुत होता था जहां उसके निजी या उसके पारिवारिक
हितों का प्रश्न होता था तो वह न्याय और ईमानदारी के सिद्धांतों की लेशमात्र परवाह
न करता था। ऐसी स्थिति में न तो वह न्याय और ईमानदारी की परवाह करता और न 'शरीयत' की ओर अत्यंत अविवेकपूर्ण व्यवहार करता था।
4. गुप्तचर
व्यवस्था : निरोधक शक्ति
उसके
'बरीद' ( गुप्तचर विभाग के अधिकारी ) साम्राज्य के
विभिन्न प्रदेशों के अधिकारियों के कार्यों की पूर्ण सूचना उसे देते रहते थे। यदि
कोई 'बरीद' किसी स्थानीय अधिकारियों की
निरंकुशता का समाचार नहीं पहुंचाता था तो उसे घोर दंड दिया जाता था। बदायूं के 'बरीद' का वध कर उसकी लाश को सूली पर इसलिए प्रदर्शित
किया गया क्योंकि उसने इस कर्तव्य का पालन नहीं किया था।
5. नीति
के क्रियान्वयन पर जोर : कमिटमेंट
बलबन
के राजत्व-सिद्धान्त का व्यवहृत रूप अथवा क्रियान्वयन हमें लखनौती के विद्रोह एवं
उसके उन्मूलन में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। लखनौती में उसके दास व गवर्नर
तुगरिल खाँ ने शासन के आठवें वर्ष (1275 ई.) में विद्रोह कर दिया था। इस विदोह के
दमन के लिए अवध के राज्यपाल मलिक ऐतिगिन मुएदराज़ या अमीन खाँ को भेजा। उसके असफल
होने पर उसे मृत्युदण्ड दिया गया। सुल्तान की आज्ञा का अक्षरशः पालन न कर पाना
अवज्ञाकारिता मानी गयी। उसका शव अवध के मुख्य द्वार पर लटका दिया गया, ताकि भविष्य में सुल्तान के आदेशों के परिपालन में गम्भीरता एवं पूर्ण
निष्ठा दिखायी जाए। उसके पश्चात् जब बहादुर भी नियुक्त होकर असफल हुआ, तब बलबन ने उसे भी मृत्यु-दण्ड के लिए उपयुक्त माना, किन्तु बीच-बचाव करने पर अन्ततः उसे दरबार से निर्वासित कर दिया।
तत्पश्चात् जब स्वयं एक विशाल सेना व पुत्र बुगरा के साथ बंगाल में तुगरिल का
उन्मूलन कर दिया, तब तुगरिल के वध से ही वह सन्तुष्ट नहीं
हुआ। उसने उसका कटा सिर तो बरछी की नोंक पर पूरे राज्य में घुमवाया ही नहीं बल्कि धड़
लखनौती के मुख्य द्वार पर लटका दिया। इतना ही नहीं, लखनौती
के मुख्य बाजार में दोनों तरफ फाँसी के तख्ते लगवाए गए और तुगरिल के अनुयायियों,
सैनिकों एवं समर्थकों को सार्वजनिक रूप से मृत्यु-दण्ड दिया गया।
इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी के वर्णनानुसार, बलबन ने
इल्तुतमिश की ही बंगाल नीति का अनुसरण करते हुए, उसके
राजनीतिक व सामरिक (दिल्ली से बंगाल की दूरी के कारण) महत्त्व को समझते हुए,
अपने पुत्र बुगरा खाँ को वहाँ का गर्वनर नियुक्त किया। इतना ही नहीं,
उसने बुगरा खाँ को सम्बोधित करते हुए तीन बार पूछा कि क्या उसने
लखनौती का यह वीभत्स दृश्य देखा ? फिर उसे समझाया कि यदि उसे
भी 'धूर्त, षडयन्त्रकारियों ने दिल्ली
के विरुद्ध विद्रोह के लिए भड़काया, तो उसका एवं उसके
सहयोगियों का भी यही हश्र होगा। बलबन ने इस प्रकार अपना राजत्व का सिद्धान्त
सुस्पष्ट कर दिया कि, “राजत्व, बन्धुत्व
नहीं जानता।"
इन मौलिक सिद्धांतों के अंतर्गत बल्बन ने एक दृढ़ और कार्यकुशल शासन प्रणाली का निर्माण किया। जनता को वह 'शांति और न्याय' दिया जिसकी वह कई दशकों से प्रतीक्षा कर रही थी। बरनी द्वारा लिखित सुल्तान के इतिहास से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जहां बल्बन अपने मलिकों और अमीरों के प्रति कठोर और काम लेने वाला था जिनकी स्थिति से वह स्वयं उठा था, वहां वह साधारण नागरिक के लिए बड़ा दयालु और उनका ध्यान रखने वाला था। जनता के प्रति वह पिता तुल्य व्यवहार प्रदर्शित करता था यद्यपि उसे अकुलीन व्यक्तियों से घृणा थी।
राजत्व का नकारात्मक
पक्ष
तुर्क
सामंत बलबन जो उसी चट्टे बट्टे वाला एक व्यक्ति था, तुर्क
शासक वर्ग की शक्ति और दुर्बलताएं भलीभांति जानता था। उसकी शक्ति इस वर्ग के
समर्थन पर निर्भर थी किंतु उसे तीन बातों से सतर्क रहना था।
(1)
राजमुकुट और सामंतों के बीच हुए पहले जैसे संघर्ष
(2)
अपनी मृत्यु के पश्चात उसके पुत्रों और तुर्क सामंतों से बीच होने
वाली प्रतिस्पर्धा और
(3)
सीमांत प्रदेशों में तुर्क सामंतों द्वारा शक्ति का एकाधिकार
इस
उद्देश्य के लिए उसने जो नीति अपनाई वह भारतवर्ष में तुर्क शासक वर्ग के व्यापक
हितों के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई।
(1)
उसने इल्तुतमिश के परिवार के सभी सदस्यों को बड़ी निर्दयता से मार
डाला।
(2)
उसने योग्य तुर्क सामंतों को जो उसके उत्तराधिकारियों को चुनौती दे
सकते थे, मार्ग से हटाने के लिए विष और कटार का मुक्त प्रयोग
किया।
(3)
उसने तुर्काने चिहलगानी के दल पर जिसका वह स्वयं सदस्य था, घातक प्रहार किया और उसके प्रमुख सदस्यों की हत्या कर उसके सामूहिक जीवन
का अंत कर दिया जो पारस्परिक विरोध और वैमनस्य होते हुए भी गैर तुर्क तत्वों से
संघर्ष के समय सफलतापूर्वक उपयोग में लाया जा सकता था।
(4)
उसने अपने संबंधियों जैसे शेर-खां तक की केवल ईर्ष्या वश हत्या कर
दी।
चूंकि
बल्बन अपने तथा अपने वंश के निजी हितों की रक्षा करने के लिए उत्सुक था इसलिए उसने
तुर्क शासक वर्ग के हितों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की। उसने तुर्की में योग्य
व्यक्ति इतनी निर्दयता से नष्ट कर दिए कि जब ख़ल्जी उनके विरुद्ध सिंहासन के लिए
प्रतिस्पर्धी के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में उतरे तो वे बिल्कुल विस्मित हो कर
पराजित हुए। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में तुर्क सत्ता के
पतन के लिए बलबन उत्तरदायी था। उसके संगठन कार्यक्रम ने निस्संदेह दिल्ली सुल्तान
की स्थिरता आश्वस्त कर दी और ख़ल्जियों के अंतर्गत उसके और अधिक प्रसार के लिए
मार्ग बना दिए किंतु तुर्क सामंतों के लिए उसकी नीति ने उसे दुर्बल बना दिया और
उसकी आयु कम कर दी।
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