लेखक - राजीव कुमार पाण्डेय
डॉ. राममनोहर
लोहिया के समर्थक उनमें भारतीय समाज और राजनीति के सभी प्रश्नों का उत्तर पाते हैं
जबकि विरोधी उनके बारे में एक उपेक्षापूर्ण चुप्पी साधे रहते हैं। अपने राजनीतिक
सक्रियता के काल में लोहिया सत्ता पक्ष और प्रतिष्ठान के बाहर रहे, यह बात उनके
वैचारिक रुझान पर भी लागू होती है। जीवनपर्यंत समाजवादी रहे लोहिया का समाजवाद, इस विचार की स्थापित श्रेणियों में कहीं नहीं ठहरता है। डॉ
लोहिया के राजनीतिक तथा बौद्धिक व्यक्तित्व के किसी अतिवादी प्रस्तुतीकरण के परे,
एक सुसंगत आकलन का मोह उनकी बहुआयामी लेखनी तथा कार्यवाहियों के उन पक्षों की तरफ
देखने की मांग करता है जिसमें लोहिया ने राष्ट्र के इतिहास को जाना, वर्तमान को
समझा तथा उसके भविष्य के प्रारूप की कल्पना की।
राष्ट्र की इतिहास मीमांसा
डॉ. लोहिया
ने इतिहास के बारे में अपनी एक स्वतंत्र और मौलिक दृष्टि प्रस्तुत की जो
‘इतिहास-चक्र’ नामक पुस्तक के रूप में है। डॉ. लोहिया के इतिहास दर्शन में हिगेल
की मानव-चेतना, मार्क्स का भौतिकवादी
चिंतन, टायनबी का मानव संस्कृतियों में चुनौतियों से संघर्ष की क्षमता, साथ ही जर्मन
इतिहासकार स्पेंगलर के सामर्थ्ययुक्त समाजों/नगरों द्वारा दुर्बल ग्रामीण समाजों
के दोहन की बात भी सन्निहित रही। इस प्रकार डॉ. लोहिया ने मानव-चेतना और पदार्थ के
गुणों और किसी देश-काल में उनके परस्पर संबंधों के स्वरूप को समझाते हुए इतिहास की
संकल्पना का सुझाव दिया। उनके अनुसार उन संबंधों के सकारात्मक एवं नकारात्मक
स्वरूप पर ही किसी सभ्यता का उत्थान और पतन निर्भर होता है।
डॉ
लोहिया ने इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि मनुष्य को
अपने भाग्य की बुराइयों के उत्पत्ति स्थल को खोज कर साफ करने में इतिहास पढ़ने से
सहायता मिलती है, तभी वह समझ पाता है कि जीवित प्राणियों में व्याप्त बुराइयों को
तत्काल समाप्त नहीं किया जा सकता अधिक से अधिक उनकी उत्पत्ति रोकी जा सकती है।[1] इतिहास के काल विभाजन को लेकर उनका
यह सुझाव है कि विश्व के इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक युग में बांटना, उनमें
अबाध या रुक रुक कर हुआ उत्थान बताना एक सांस्कृतिक बर्बरता है।[2] हालाँकि विषय की सरलता तथा सम्यक
विधि से अध्ययन के लिए उसका वर्गीकरण आवश्यक है लेकिन उसके मानक भिन्न होने चाहिए। उनके अनुसार इतिहास चक्र बिना किसी भावना के चलता है।
परिवर्तन इसकी विशेषता है। उत्थान-पतन इसकी अवश्यंभावी
प्रक्रिया है।[3]
डॉ.
लोहिया मार्क्स के इतिहास-बोध और दर्शन को यूरोप के ऐतिहासिक अनुभवों का
प्रतिबिम्ब मानते हैं। लोहिया का कहना है कि पश्चिम में पूंजीवाद के ऐतिहासिक
विकास को एशिया, अफ्रीका तथा लातिनी
अमेरिका जैसे देशों में हुए उपनिवेशीकरण और उनके दरिद्रीकरण के संदर्भों से काटकर नहीं समझा जा सकता है। वे
इस बात पर जोर देतें हैं कि पश्चिम के पूंजीवादी देशों में संपदा के संग्रहण और
उपनिवेशीकरण के बीच एक नजदीकी संबंध है। उनका कहना है कि मार्क्स पूंजीवाद की
पड़ताल यूरोप के खास ऐतिहासिक संदर्भ में करते हैं और साम्राज्यवाद को उसका आंतरिक
तत्व न मानकर बाद की घटना मानते हैं। यहाँ लोहिया यह पूछते हैं कि क्या पूंजीवाद
का विकास साम्राज्यवाद के बिना हो सकता था और फिर इतिहास से ढूंढ कर लाते हैं कि
साम्राज्यवाद के पूर्व-पक्ष के बिना पूंजीवाद की कल्पना नहीं की जा सकती।
फिर
उनकी मार्क्सवाद की आलोचना इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती है कि इतिहास की मार्क्सवादी
संकल्पना अंततः एक यूरो केंद्रित आख्यान है। जिसमें गैर यूरोपीय देशों का स्थान
अधीनस्थ से ज्यादा नहीं होता। लोहिया को इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या में यह
खोट भी दिखता है कि वह इतिहास को एक सीधी रेखा में चलने वाली प्रक्रिया की तरह
प्रक्षेपित करती है जिसके प्रस्थान बिंदु
पर अनिवार्यता यूरोप स्थित होता है। मार्क्स की इतिहास दृष्टि में से लोहिया
निष्कर्ष निकालते हैं कि वह गैर यूरोपीय देशों में किसी भी क्रांतिकारी पहल या
बदलाव की संभावना को खारिज कर देती है। इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए लोहिया लगातार
इस बात से आश्वस्त होते जाते हैं कि इतिहास की मार्क्सवादी दृष्टि यूरोपीय वर्चस्व
कायम करने का औजार है।[4]
इस
प्रकार लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों को बुराई की तरह देखते हैं। उन्होंने
कहा था की साम्यवादी भी पूंजीवाद की तकनीकी में यकीन करता है। और भारी मशीनरी के
उपयोग का पक्षधर है और वह केवल पूंजीवाद के उत्पादन संबंधों को ध्वस्त करता है ना
कि उसके आधार को, उनका चिंतन कम्युनिज्म को यूरोप के ऐसे हथियार की तरह पेश करता
है जिसके दम पर वह सिर्फ दुनिया पर कब्जा जमाना चाहता है।
डॉक्टर
लोहिया का कहना है की अबतक का समस्त मानव इतिहास वर्गों और वर्णों के बीच आंतरिक
परिवर्तन है जो वर्गों के जकड़ से वर्ण बनाने और वर्णों की ढीले पड़ने से वर्ग बनाता
है। वे लोग जो समाज से सभी वर्गों और वर्णों का अंत करना चाहते हैं उन्हें मानव
इतिहास को चलाने वाली इस शक्ति को समझना होगा और समझकर ऐसे उपाय खोज निकालने होंगे
कि दोनों का वस्तुतः अंत किया जा सके, क्योंकि इतिहास अपने आप यह नहीं करेगा।[5]
डॉक्टर
लोहिया के अनुसार जातिवाद इतिहास की विकृत धरोहर है। इसने समाज के पतन में अहम
भूमिका निभाई है मानव समाज का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि उसके संकट की शुरुआत
जाति प्रथा के संरचना के अभ्युदय के साथ साथ हुई। जाति व्यवस्था की व्यापकता के
बारे में डॉक्टर लोहिया ने स्पष्ट कहा है भारतीय जीवन में जाति सर्वाधिक
प्रभावशाली तत्व है वे लोग जो इसे सिद्धांत में नहीं मानते उसे व्यवहार में
स्वीकार करते हैं। जीवन जाति की सीमाओं में बधा हुआ रहता है और सुसंस्कृत लोग
मुलायम आवाजों में जाति व्यवस्था के विरुद्ध बोलते हैं। पर अपने क्रिया में उसे
अस्वीकार नहीं कर पाते हैं।[6] डॉक्टर लोहिया के अनुसार इस
जाति प्रथा के कारण ही भारत दासता का शिकार हुआ था।
डॉ राम
मनोहर लोहिया ने नारी को भी एक जाति माना है। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि पूरे
विश्व में सदियों से नारियों के प्रति जो एक उदासीन दृष्टिकोण रखा गया है उसके
कारण आज मानव जाति की निस्सहाय एवं दयनीय स्थिति है। नारी के प्रति दुर्व्यवहार, शिक्षा तथा अधिकारों से वंचित रखने की सदियों पूर्व से चली
आ रही लंबी कहानी ने ना केवल नारियों की दयनीय स्थिति को सृजित किया है वरन मानव सभ्यता
को कलंक के धब्बे से आच्छादित कर दिया है। लोहिया ने लिखा है कि हिंदुस्तान औरत
दुनिया के दुखी लोगों में सबसे ज्यादा दुखी, भूखी, मुरझाई और बीमार है।[7]
डॉक्टर
लोहिया के अनुसार हिंदू और मुसलमानों के बीच मनमुटाव और मिथ्या धारणा का कारण
इतिहास की गलत व्याख्या है। जिसमें आमतौर से जो भ्रम हिंदू और मुसलमान दोनों के मन
में है वह यह है कि हिंदू सोचता है कि पिछले 700 से 800
वर्ष मुसलमानों का राज रहा है, मुसलमानों ने जुल्म और
अत्याचार किया। और मुसलमान सोचता है चाहे वह गरीब से गरीब ही क्यों ना हो कि 700 से 800 बरस हमारा राज
था और अब हमको इतने बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं।[8]
इस
प्रकार डॉक्टर लोहिया ने राष्ट्र के ऐतिहासिक दृश्य को अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक
दृष्टि से समझा तथा परखा। सांस्कृतिक इतिहास के नाम पर भारत में जिस वातावरण को
देखा और भोगा उसे उन्होंने एक शब्द में नाम दिया “कीचड़”। यह कीचड़ हजारों वर्षों
की सड़ी हुई उस परंपरा से पैदा हुआ है जिसके सभी जीवनतत्व या तो नष्ट हो गए हैं या
भुला दिए गए हैं। धर्म, राजनीति, व्यापार इत्यादि सभी मिलकर उस कीचड़ को संजोकर
रखने की साजिश कर रहे हैं जिसे संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है।[9]
भविष्य निर्माण की दृष्टि
राष्ट्र
निर्माण की उनकी भविष्य दृष्टि ने समाजवाद के यूरोपीय मॉडलों को खारिज कर विकल्प
के लिए गांधी की ओर रुख किया। उन्हें लगा कि भारत में समाजवाद के प्रयोग की सफलता
इस बात से तय होगी कि गांधी के विचारों की पुनर्रचना किस तरह से की जाती है।
लोहिया ने गांधी के विचारों को भक्ति भाव से ग्रहण नहीं किया और सचेत रहे कि गांधी
का राजनीतिक दलों और व्यक्तियों ने अलग-अलग प्रयोजनों के लिए विनियोग किया है। यही
वजह है कि लोहिया ने गांधीवाद के जिन विचारों को ग्रहण किया वह गांधीवाद की अन्य
धाराओं से सैद्धांतिक और राजनीति का अर्थ में खासा अलग था। लोहिया ने अपने को ‘कुजात
गाँधीवादी’ तथा ‘नास्तिक गांधीवादी’ घोषित करते हुए सर्वोदय आंदोलन के गांधीवाद को
‘आश्रम गांधीवाद’ करार दिया और भारतीय राज्य गांधी का जिस रूप में आवाहन कर रहा था
उसके लिए ‘सरकारी गांधीवाद’ का मुहावरा दिया। गौरतलब है कि गांधीवाद की विभिन्न
किस्मों पर सवाल उठाते हुए लोहिया गांधीवाद के किसी शुद्ध संस्करण की खोज करते
नहीं दिखते हैं। इनका इरादा असल में गांधी से केवल ऐसे तत्व को ग्रहण करना था जो
भारतीय समाजवाद के निर्माण में उपयोगी हो। अपने राजनीतिक जीवन में लोहिया नेहरू के
उस मॉडल से लगातार संघर्ष करते रहे जिसे वे ‘सरकारी समाजवाद’ करते हैं। लोहिया समाजवाद के जिस प्रारूप पर जोर दे रहे थे वह
छोटी मशीनों के उपयोग पर आधारित था। और उसके मूल में आर्थिक विकेंद्रीकरण का विचार
था उनका स्पष्ट मानना था कि आर्थिक विकेंद्रीकरण के बिना राजनीतिक विकेंद्रीकरण भी
संभव नहीं है। लोहिया के समाजवाद और नेहरू के समाजवाद में बुनियादी अंतर यह था कि
लोहिया के समाजवाद की मूल चालक शक्ति साधारण जनता में थी जबकि नेहरू की समाजवादी
संकल्पना राज्य की पहलकदमी से शुरू होती थी।[10]
डॉ.
लोहिया ने पूर्व और पश्चिम के ऐतिहासिक संघर्षों से प्रेरणा ग्रहण कर
‘सप्तक्रांति’ के सूत्र विकसित किए: (1) नर-नारी की समानता के लिए क्रान्ति, (2) चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ क्रान्ति, (3) संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के
लिए क्रान्ति, (4) परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व
लोक-राज के लिए क्रान्ति, (5) निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के
लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए क्रान्ति, (6) निजी जीवन
में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए क्रान्ति, (7)
अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये क्रान्ति।[11] इनके सम्बन्ध में लोहिया ने
कहा कि मोटे तौर से ये सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश
में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़
में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा
संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और
ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज
बन पाये। वे विश्व शांति के पैरोकार थे पर चीनी हमले के बाद उन्होंने यह मांग उठाई
कि भारत को एटम बम बनाना चाहिए।
डॉक्टर
लोहिया के राजनीतिक चिंतन में चौखंभा योजना का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने यह
योजना प्रस्तुत करके राजनीतिक शक्तियों के विकेंद्रीकरण का सुझाव दिया जो व्यक्ति
की राजनीतिक स्वतंत्रता का परिचायक है। डॉक्टर लोहिया समाजवाद को प्रजातंत्र के
बिना अधूरा मानते थे दो खंभों केंद्र एवं प्रांत वाली संघात्मक व्यवस्था को
उन्होंने अपर्याप्त माना और इसलिए उन्होंने अपनी चौखंभा योजना के अंतर्गत ग्राम,
मंडल, प्रांत और केंद्र इन चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खम्भों में शक्ति के
विकेंद्रीकरण का सुझाव दिया। जो आगे चलकर पंचायती राजव्यवस्था के रूप में फलीभूत
हुआ।
लोहिया
भारतीय भाषाओं के हिमायती थे। और देश की शिक्षा व्यवस्था, प्रशासन और सार्वजनिक
जीवन में अंग्रेजी के प्रभुत्व को सत्ता संरचना के साथ जोड़कर देखते थे। इस संदर्भ
में लोहिया की युक्ति एक समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि की हैसियत रखती है कि भारत में
ऊंची जात, संपत्ति तथा अंग्रेजी का ज्ञान तीन ऐसे कारक हैं जिससे तय होता है कि
सत्ता की संरचना में व्यक्त की स्थिति क्या होगी।[12] उनके मुताबिक अगर इन तीन
कारकों में से किसी के पास दो चीजें हो तो वह शासक वर्ग का हिस्सा बन जाता है। इस
तरह लोहिया अंग्रेजी का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं कर रहे थे क्योंकि वह एक विदेशी
भाषा थी। उनका विरोध इस समझ पर टिका था कि भारत जैसे देश में अंग्रेजी असमानता और
सांस्कृतिक आधिपत्य की वाहक बन गई थी। अंग्रेजी को शोषण का औजार मानते थे उनका
कहना था कि अंग्रेजी का समर्थक वर्ग असल में शोषक वर्ग है। उनका कहना था कि
अंग्रेजों ने भारत में बंदूक की गोली और अंग्रेजी की बोली के दम पर शासन किया।[13]
हिंदुस्तान
की सांस्कृतिक जकड़बंदी से मुक्ति दिलाने के उनके अभियान के दो मोर्चे हैं शूद्र
और नारी। इसी को प्रतीक के रूप में वे सीता-शम्बूक धुरी भी कहते हैं। उन्हें यकीन
था कि एक दिन पूरा समाज इसका भयंकर बदला
चुकाएगा[14] इस संदर्भ में उनके दो लेख
वशिष्ठ और वाल्मीकि तथा द्रोपदी और सावित्री देखने योग्य है। डॉक्टर लोहिया ने
जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए
आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक उपायों को प्रस्तावित किया आध्यात्मिक
स्तर पर ब्रह्म ज्ञान तथा अद्वैतवाद को अपनाया जाए,[15] सामाजिक स्तर पर अंतरजातीय खानपान तथा अंतरजातीय विवाह को अपनाया जाए,[16] आर्थिक स्तर पर उन्होंने जमीन का पुनर्वितरण, मजदूरी में वृद्धि तथा ऊंची तथा नीची
आमदनी में एक मर्यादा बांधने की वकालत की,[17] तथा राजनीतिक स्तर पर भागीदारी बढ़ाने का प्रस्ताव दिया। डॉक्टर लोहिया ने
स्त्री शिक्षा के द्वारा उन्हें बुद्धिमान, विवेकी, क्रांतिपूर्ण और ज्ञानी बनाना
चाहते थे। इस संदर्भ में वे ‘पहले योग्यता फिर अवसर’ के सिद्धांत के विरोधी थे वह ‘पहले
अवसर फिर योग्यता’ को देखना चाहते थे। वे समान कार्य के लिए समान वेतन तथा उनकी
राजनीतिक भागीदारी के पैरोकार थे।
हिंदू-मुस्लिम
संबंधों को ठीक करने के लिए डॉक्टर लोहिया के मत में मुख्यता पांच प्रकार के सुधार
इस दिशा में किए जा सकते हैं पहला हृदय परिवर्तन, दूसरा इतिहास की सही व्याख्या,
तीसरा धार्मिक एवं सामाजिक प्रयास, चौथा राजनीति में सुधार तथा पांचवा भाषा संबंधी
उदार नीति।
राममनोहर
लोहिया अक्सर कहा करते थे कि मैं चाहता हूं कि इंसान की जिंदगी में राम की मर्यादा, कृष्ण की उन्मुक्तता, शिव का संकल्प, मुहम्मद की
समता,
महावीर-बुद्ध की ऋजुता और यीशु की ममता सब एक साथ ही समाहित
हो जाए।[18] भारत-पाकिस्तान युद्ध में बलि
देने वाले अब्दुल हमीद के घर जाते समय एक बार उन्होंने कहा था-‘‘बलिदान में
हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। भारत सर्वधर्मियों की मातृभूमि
है,
इसका साक्षात्कार होता है।’’ भारतमाता से लोहिया की एक ही
माँग थी-हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क और कृष्ण के उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ राम
के जीवन की मर्यादा से रचो।[19] इस प्रकार उनकी कल्पना में एक
अध्यात्मिक राष्ट्र भी था।
निष्कर्ष
इस
प्रकार लोहिया जिनका मत था कि सिद्धांत दीर्घकालीन कार्यक्रम है और कार्यक्रम
अल्पकालिक सिद्धांत, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म, रूशो
के समान उनकी ऐसी कई उक्तियाँ हैं जो विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होती हैं। उन्हें
समझने के लिए गहने दृष्टि की आवश्यकता है डॉक्टर लोहिया के राजनीतिक चिंतन की यह
विशेषता थी कि वह वर्तमान की राजनीति को सुदूर अतीत से और सुदूर भविष्य की राजनीति
को वर्तमान से जोड़ते थे। लोहिया की आंदोलनात्मक कार्यनीति वोट, फावड़ा और जेल की
थी जो कुछ आकर्षक नारों जैसे ‘पिछड़े पावें
सौ में साठ’ ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती’ में दिखती है। इस तरह उनके ऐतिहासिक
विमर्श तथा राजनीतिक दृष्टि में ऐसे कई पहलू हैं जो एक जनोन्मुखी लोकतान्त्रिक
राष्ट्र राज्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।
सन्दर्भ
[1] लोहिया डॉ राम मनोहर. इतिहास चक्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1977, पृष्ठ. 8.
[2] वही, पृष्ठ. 18
[3] वही, पृष्ठ. 7
[5] लोहिया
डॉ राम मनोहर. इतिहास चक्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद,
1977, पृष्ठ. 49.
[6] डॉ लोहिया,
जाति प्रथा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 78.
[7] उद्धरित,
रजनीकांत वर्मा, लोहिया और औरत, श्री विष्णु आर्ट प्रेस, इलाहाबाद, 1969, पृष्ठ.
27.
[8] डॉ लोहिया, देश
गरमाओ, राम मनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1970, पृष्ठ. 79.
[10] दुबे अभय कुमार. समाज-विज्ञान विश्वकोश,
खण्ड 6, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016 , पृष्ठ. 2269.
[11] डॉ लोहिया, सात
क्रांतियाँ, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1966,
[12] डॉ लोहिया,
भाषा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964
[13] वही
[14] डॉ लोहिया, जाति प्रथा,
नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 8.
[15] डॉ लोहिया,
धर्म पर एक दृष्टि, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, पृष्ठ. 16.
[16] डॉ लोहिया, जाति प्रथा, नव हिन्द प्रकाशन,
हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 4.
[17] डॉ लोहिया,
निराशा के कर्तव्य, समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1970, पृष्ठ. 28.
[18] डॉ लोहिया,
मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व और रामायण मेला, राम मनोहर लोहिया समता
विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1962
[19] डॉ लोहिया,
इंटरवल ड्यूरिंग पोलिटिक्स, पृष्ठ 48-49
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