बुधवार, 29 नवंबर 2023

कैथोलिक धर्म सुधार : कारण


लूथर के विरोध आंदोलन के कारण रोमन कैथोलिक धर्म और उसके सर्वोच्च अधिकारी पोप के सम्मान को ठेस पहुंची और उसका महत्व दिन-ब-दिन कम होने लगा। अतः परिस्थितियों को देखकर और समझकर विरोध को समाप्त करने के लिए उन्होंने रोमन कैथोलिक धर्म में कुछ सुधार करने का निर्णय लिया। रोमन कैथोलिक सुधारकों द्वारा बनाई गई सुधार योजनाओं को रोमन कैथोलिक सुधार आंदोलन या प्रति-धर्म सुधार कहा जाता है। प्रति- धर्म सुधार  के लिए निम्नलिखित कारण और परिस्थितियाँ जिम्मेदार थीं:

1. प्रोटेस्टेंट अनुयायियों के बीच पारस्परिक मतभेद का लाभ उठाना

प्रोटेस्टेंट धर्म के प्रवर्तक मार्टिन लूथर थे, लेकिन अन्य देशों के धार्मिक सुधारकों से उनके मतभेद के कारण प्रोटेस्टेंट संप्रदाय की एकता टूट गई और यह तीन भागों में विभाजित हो गया। कैथोलिक सुधारकों के लिए यह अवसर उपयुक्त था। प्रोटेस्टेंट धर्म के बीच आपसी कलह का लाभ उठाते हुए उन्होंने कैथोलिक धर्म में सुधार के प्रयास शुरू किये, जिसमें उन्हें काफी सफलता मिली, क्योंकि प्रोटेस्टेंट धर्म की तीन शाखाओं लूथरनिज़्म, ज़्विगिज़्म और कैल्विनिज़्म के बीच मतभेद बढ़ते जा रहे थे।

2. ट्रेंट की परिषद: कैथोलिक धर्म में आंतरिक सुधार

कैथोलिक धर्म के पुनरुद्धार के लिए 1562 ई. में ट्रेंट नामक स्थान पर एक सभा का आयोजन किया गया, जिसमें कैथोलिक धर्म के नये नियम प्रतिपादित किये गये। ट्रेंट की परिषद में निम्नलिखित मुख्य सिद्धांतों की पुष्टि की गई:

(ⅰ) कैथोलिक चर्च का मुखिया पोप ही रहेगा ।

(ii) धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या पर चर्च का एकाधिकार रहेगा।

(iii) कैथोलिकों के लिए लैटिन भाषा में एक नई बाइबिल तैयार की जानी चाहिए।

इसके अलावा इस बैठक में कुछ सुधारों की भी घोषणा की गई, जिनमें प्रमुख निम्नलिखित थे:

(i) चर्च के द्वारा धार्मिक संस्थाओं के पदों को बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया गया।

(ii) सभी बिशपों को अपने-अपने कर्तव्य निभाने चाहिए।

(iii) पुजारियों के लिए उचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जाए।

(iv) आवश्यकतानुसार आम लोगों की भाषा में उपदेशों का प्रचार-प्रसार करना।

3. महान धार्मिक सुधारक : समर्थन एवं सहयोग

सौभाग्य से कैथोलिकों को कुछ महान धार्मिक सुधारकों का समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हुआ जो कैथोलिक धर्म में व्याप्त दोषों को दूर करना चाहते थे। इनमें इग्नासीयस लोयोला का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिन्होंने अपने आदर्श जीवन और अच्छे व्यवहार के माध्यम से धार्मिक सुधर की  प्रतिक्रिया को महत्व दिया। इसमें स्पेन के राजा फिलिप ने भी सहयोग किया।

4. जेसुइट सोसायटी: संगठन

प्रोटेस्टेंटवाद का विरोध करने के लिए एक जेसुइट समाज की स्थापना की गई थी। इस संगठन की स्थापना एक स्पेनिश सैनिक इग्निसियस लोयोला ने की थी। लोयोला को सर्वसम्मति से इस समाज का जनरल चुना गया। चूँकि इस समाज का संगठन सैन्य व्यवस्था पर आधारित था, इसलिए अनुशासन बहुत कठोर था। जेसुइट्स को कुछ विशेष अधिकार प्राप्त थे जिसके कारण वे कैथोलिक धर्म के अग्रणी रक्षक बन गये। प्रत्येक सदस्य को चार वचन लेने होते थे, पहला सादगी में रहना, दूसरा ब्रह्मचर्य की तीसरी जेसुईट संस्था के आदेशों का पालन करना और चौथा पोप के प्रति समर्पण रखना। इस समाज या संघ के प्रयासों का परिणाम यह हुआ कि फ्रांस, जर्मनी, पोलैंड आदि देशों में प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव को रोका जा सका।

5.कैथोलिक विरोधी  किताबों पर प्रतिबन्ध 

ट्रेंट की परिषद के अनुसार पोप द्वारा उन पुस्तकों की एक सूची तैयार करने का अनुरोध किया गया था जो कैथोलिक विरोधी थीं। अत: पोप ने निषिद्ध पुस्तकों की एक सूची तैयार की और उसमें वर्णित पुस्तकों को कैथोलिकों के लिए पढ़ने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इसके अलावा धार्मिक शिक्षा के लिए उपदेश पुस्तकों में संशोधन किया गया और नई पुस्तकें तैयार की गईं।

6. धार्मिक न्यायालय (न्यायालय) की स्थापना 

कैथोलिकों के नैतिक और धार्मिक आचरण को ऊपर उठाने का प्रयास किया गया। निर्धारित मानकों से नीचे आचरण करने वालों के लिए धार्मिक अदालतें (इन्क्विज़िशन) स्थापित की गईं। इसकी स्थापना पहले इटली में और फिर अन्य देशों में हुई। इसकी स्थापना के लिए उस राज्य से मंजूरी लेनी पड़ती थी. कैथोलिक चर्च की आलोचना करने वालों को इन अदालतों में पेश किया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। इस अदालत को किसी व्यक्ति को गिरफ़्तार करने, उसकी संपत्ति ज़ब्त करने और यहाँ तक कि उसे मृत्युदंड देने की भी शक्ति थी। इन अदालतों के निर्णयों के संबंध में अंतिम अपील सुनने का अधिकार केवल पोप को था।

इस प्रकार, इन उपरोक्त संस्थाओं या साधनों के माध्यम से कैथोलिक चर्च को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित करने और प्रोटेस्टेंटवाद के बढ़ते प्रभाव को रोकने में काफी सफलता मिली। इनके अलावा, अन्य कारक भी प्रति-सुधार आंदोलन की सफलता के लिए सहायक साबित हुए। सबसे पहले, सोलहवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों के पोप अच्छे चरित्र वाले और धर्मनिष्ठ थे। दूसरे, प्रोटेस्टेंटों के पास लूथर जैसे नेतृत्व का अभाव था। इसके अलावा, राजनीतिक परिस्थितियों में बदलाव ने भी प्रति-सुधार आंदोलन की सफलता में योगदान दिया। अपने राजनीतिक हितों के कारण फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल, ऑस्ट्रिया, पोलैंड आदि देशों ने पोप से समझौता कर उन्हें समर्थन प्रदान किया, जिससे इस आंदोलन को बल मिला।

काल्विन और उसकी शिक्षा


फ्रांस में सुधार आंदोलन (रेफॉर्मेशन) को जॉन कैल्विन के नेतृत्व में व्यापक गति मिली। 1509 में फ्रांस के नोयोन में जन्मे कैल्विन ने पहले पेरिस विश्वविद्यालय में धर्मशास्त्र की पढ़ाई की। बाद में, अपने पिता के निर्देश पर, उन्होंने ऑरलियन्स विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई की। मार्टिन लूथर से गहराई से प्रभावित, कैल्विन ने कैथोलिक चर्च में फैले भ्रष्टाचार की कठोर आलोचना की। उनकी महान रचना क्रिस्टीना रिलिजनिस इंस्टीटूटियो (ईसाई धर्म के सिद्धांत) प्रोटेस्टेंट धर्मशास्त्र की आधारशिला बन गई।

द इंस्टिट्यूट्स: एक धर्मशास्त्रीय उत्कृष्ट कृति

1536 में लैटिन में प्रकाशित द इंस्टिट्यूट्स कैल्विन की प्रोटेस्टेंट धर्मशास्त्र की व्यवस्थित व्याख्या थी। इसकी पहली संक्षिप्त लेकिन प्रभावशाली कृति जल्द ही बिक गई। 1539 में कैल्विन ने इसे विस्तृत रूप में प्रकाशित किया और 1541 में इसका फ्रेंच अनुवाद किया, जो फ्रेंच गद्य की सबसे महत्वपूर्ण रचनाओं में से एक है। अपने जीवनकाल में कैल्विन ने इस ग्रंथ को बार-बार संशोधित किया, और इसका अंतिम संस्करण 1,118 पृष्ठों तक विस्तारित हुआ।

यह ग्रंथ फ्रांस के राजा फ्रांसिस प्रथम को संबोधित एक भावुक प्रस्तावना से शुरू होता है, जिसमें प्रोटेस्टेंट धर्मशास्त्र का बचाव किया गया है। कैल्विन ने प्रोटेस्टेंट आंदोलन को कट्टर अना-बैपटिस्ट आंदोलन से अलग किया और फ्रांसीसी सुधारकों को देशभक्त के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने राजा से उनकी आस्था को विद्रोह के बजाय ईसाई भक्ति के रूप में मान्यता देने की अपील की:

"हालांकि मैं अपने देश के प्रति वह स्नेह रखता हूँ जो हर व्यक्ति को रखना चाहिए, फिर भी वर्तमान परिस्थितियों में अपने निर्वासन का मुझे कोई पछतावा नहीं है। मैं सभी धर्मपरायणों और इस प्रकार मसीह का पक्ष रखता हूँ।"

इस प्रस्तावना ने कैल्विन की गहराई और न्याय तथा सहिष्णुता के प्रति उनकी अपील को उजागर किया।

कैल्विन की शिक्षाएँ

बाइबिल में अटूट विश्वास

कैल्विन ने बाइबिल को मानव जीवन के लिए एकमात्र मार्गदर्शक माना। उन्होंने अनुष्ठानों और पादरियों की मध्यस्थता की आवश्यकता को खारिज कर दिया। उनका विश्वास था कि ईश्वर के साथ एक सीधा और व्यक्तिगत संबंध बाइबिल के शिक्षण पर आधारित होना चाहिए। कैल्विन के अनुसार, पवित्र शास्त्र की दिव्य प्रामाणिकता किसी भी मानव रचना से कहीं अधिक थी:

"डेमोस्थनीज या सिसेरो को पढ़ें... लेकिन यदि आप इसके बाद पवित्र शास्त्र को पढ़ें, तो आप उसमें कुछ ऐसा दिव्य पाएंगे, जो मानव क्षमता से कहीं अधिक है।"

कैल्विन ने बाइबिल को न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन का स्रोत माना, बल्कि इतिहास, राजनीति, और नैतिकता को समझने के लिए भी आधार बताया।

ईश्वर की इच्छा की सर्वोच्चता

कैल्विन के धर्मशास्त्र के केंद्र में ईश्वर की इच्छा की पूर्ण सर्वोच्चता थी। उन्होंने कहा कि सभी घटनाएँ ईश्वर की इच्छा के अनुसार होती हैं और उद्धार (salvation) कर्मों या केवल विश्वास से प्राप्त नहीं किया जा सकता। यह केवल ईश्वर की कृपा का परिणाम है।

कैल्विन ने लिखा कि ईश्वर का न्याय और दया मानव समझ से परे हैं:

"यह अनुचित है कि मनुष्य उन बातों को समझने की कोशिश करे, जिन्हें ईश्वर ने अपनी इच्छा में छिपा रखा है।"

पूर्वनिर्धारण का सिद्धांत (Predestination)

कैल्विन की सबसे विवादास्पद शिक्षाओं में से एक उनका पूर्वनिर्धारण का सिद्धांत था। उन्होंने तर्क दिया कि सृष्टि से पहले ही ईश्वर ने प्रत्येक व्यक्ति के उद्धार या विनाश को निर्धारित कर दिया था:

"यह एक भयावह निर्णय है, लेकिन कोई इनकार नहीं कर सकता कि ईश्वर ने मनुष्य के अंतिम भाग्य को पहले ही जान लिया था और यह उनकी अपनी इच्छा के अनुसार था।"

हालांकि यह सिद्धांत भाग्यवाद (fatalism) का आभास देता है, इसने कैल्विनवादियों को एक उद्देश्यपूर्ण जीवन जीने की प्रेरणा दी। इसके अलावा, यह विश्वास कि जीवन की सफलता या असफलता ईश्वर की इच्छा से निर्धारित होती है, अनुशासन और कड़ी मेहनत की संस्कृति को प्रोत्साहित करता था।

पवित्र भोज पर विचार

कैल्विन ने कैथोलिक सिद्धांत परिवर्तनवाद (Transubstantiation) को खारिज कर दिया। उन्होंने तर्क दिया कि पवित्र भोज (Holy Eucharist) में रोटी और दाखरस केवल मसीह के शरीर और रक्त के प्रतीकात्मक रूप हैं, न कि उनका वास्तविक रूपांतरण। उन्होंने धार्मिक प्रतीकों और मूर्तियों की पूजा को मूर्तिपूजा माना और इसे दस आज्ञाओं का उल्लंघन बताया।

राज्य और धर्म पर दृष्टिकोण

कैल्विन ने राज्य और धर्म के बीच स्पष्ट विभाजन की वकालत की। उन्होंने प्रोटेस्टेंट मामलों में राज्य के हस्तक्षेप का विरोध किया और चर्च को भी राजनीतिक मामलों से दूर रहने का सुझाव दिया। फिर भी, उन्होंने दोनों के बीच एक समन्वित संबंध की परिकल्पना की, जहाँ राज्य धार्मिक अनुशासन को लागू करे और विधर्म को रोके।

उनका विचार था कि आदर्श शासन एक धार्मिक शासन होगा, जहाँ चर्च नैतिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक की भूमिका निभाएगा:

"आदर्श सरकार एक धर्मतांत्रिक शासन होगी, और सुधारित चर्च को ईश्वर की वाणी के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।"

चर्च में लोकतांत्रिक संरचना

कैल्विन ने चर्च की शासन-व्यवस्था में लोकतांत्रिक ढाँचा प्रस्तुत किया। निर्णय सामूहिक रूप से धार्मिक अधिकारियों और समुदाय के सदस्यों द्वारा किए जाते थे। उन्होंने प्रेसबिटर्स (बुजुर्गों) की भूमिका पर जोर दिया, जिसने प्रेसबिटेरियन धर्म (Presbyterianism) की नींव रखी। यह दृष्टिकोण धार्मिक अधिकार को विकेंद्रीकृत करता था और स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाता था।

जादू और टोटेम पर विचार

कैल्विन ने अंधविश्वासों, जादू, और टोटेम में विश्वास का कड़ा विरोध किया। उन्होंने इसे भ्रष्ट और सच्चे ईसाई विश्वास के विपरीत माना। उनकी शिक्षाओं ने नैतिक और अनुशासित जीवन जीने पर जोर दिया।

सख्त अनुशासन के समर्थक

जिनेवा में कैल्विन का शासन उनके सख्त अनुशासनात्मक दृष्टिकोण का उदाहरण था। उन्होंने कंसिस्टोरी नामक एक समिति की स्थापना की, जो सार्वजनिक व्यवहार की निगरानी करती थी और नैतिक मानदंडों से विचलन पर दंड देती थी। उनके नेतृत्व में जिनेवा प्रोटेस्टेंट सुधार का एक केंद्र बन गया।

असहिष्णुता

कैल्विन के धर्मशास्त्र में उनकी असहिष्णुता स्पष्ट रूप से दिखती है। उनके कठोर दृष्टिकोण के कारण भिन्न विचारधारा वाले लोगों को गंभीर परिणाम भुगतने पड़े। माइकल सर्वेटस, एक स्पेनिश चिकित्सक, को विधर्म (heresy) के आरोप में जलाने का आदेश उनकी इस कठोरता का उदाहरण है।

निष्कर्ष

जॉन कैल्विन की शिक्षाएँ प्रोटेस्टेंट धर्म और पश्चिमी विचारधारा पर अमिट छाप छोड़ गईं। उनकी पूर्वनिर्धारण की अवधारणा, नैतिक अनुशासन, और बाइबिल की प्रामाणिकता पर जोर ने प्रेसबिटेरियन जैसे आंदोलनों को आकार दिया और आधुनिक धर्मनिरपेक्ष शासन की नींव रखी। हालाँकि, उनकी असहिष्णुता और सत्तावादी नेतृत्व उनके विरासत के विवादास्पद पहलुओं में से एक हैं।

कैल्विन की द इंस्टिट्यूट्स ऑफ़ क्रिष्टियन रिलिजन धर्मशास्त्र की एक महान रचना है, जिसमें बौद्धिक गहराई और गहरी आस्था का संगम है। उनके द्वारा कल्पित अनुशासित और धर्मपरायण समाज तथा चर्च के शासन में उनके योगदान ने उन्हें सुधार आंदोलन के सबसे प्रभावशाली और स्थायी व्यक्तित्वों में से एक बना दिया।

Catholic Reformation : Causes


Due to Luther's protest movement, the respect of the Roman Catholic religion and its supreme priest, the Pope, was hurt and its importance started decreasing day by day. Therefore, seeing and understanding the circumstances, to end the opposition, he decided to make some reforms in the Roman Catholic religion. The reform plans made by Roman Catholic reformers are called Roman Catholic Reform Movement or Counter-Reformation.The following reasons and circumstances were responsible for Counter-Reformation:

1. Interpersonal differences among Protestant followers: Taking advantage

The originator of the Protestant religion was Martin Luther, but due to his differences with the religious reformers of other countries, the unity of the Protestant sect was broken and it was divided into three parts. The occasion was ripe for Catholic reformers. Taking advantage of the mutual animosity among the Protestant religion, he started efforts to reform the Catholic religion, in which he achieved considerable success, because the differences of opinion among the three branches of the Protestant religion, Lutheranism, Zweigism and Calvinism, were increasing.

2.Council of Trent: Internal Reform in Catholicism: Self-examination

For the revival of Catholic religion, a meeting was organized at a place called Trent in 1562 AD, in which new rules for Catholic religion were propounded. The following main doctrines were confirmed at the Council of Trent:

(ⅰ) The head of the Catholic Church is the Pope.

(ii) The Church has the monopoly on interpreting religious texts.

(iii) A new Bible should be prepared in Latin for Catholics.

Apart from this, some reforms were also announced in this meeting, the main ones were the following:

(i) A ban was imposed on selling church posts.

(ii) All bishops should perform their respective duties.

(iii) Proper training arrangements for the priests.

(iv) To propagate sermons in the language of common people as per requirement.

3. Great religious reformer: Support and cooperation

Fortunately, Catholics got the support and cooperation of some great religious reformers who wanted to remove the flaws prevalent in Catholic religion. Among these, the name of Ignatius Loyola is especially noteworthy, who gave importance to religious reform and reaction through his ideal life and good behaviour. King Philip of Spain also cooperated in this.

4. Jesuit Society: organization

A Jesuit order was established to oppose Protestantism. This organization was founded by Ignitius Loyola, a Spanish soldier. Loyola was unanimously elected general of this union. Since the organization of this Sangh was based on military system, the discipline was very strict. The Jesuits enjoyed some special rights due to which they became the foremost protectors of the Catholic religion. Every member had to take four promise, firstly to live in poverty, secondly to obey third commandment of celibacy and fourthly to have devotion towards the Pope. The result of the efforts of this association was that the growing influence of Protestantism could be stopped in countries like France, Germany, Poland etc.

5.Prohibited anti-Catholic books: Trying to Create Distance

According to the Council of Trent the Pope was requested to prepare a list of books that were anti-Catholic. Therefore, the Pope prepared a list of prohibited books and reading the books mentioned in it was banned for Catholics. Apart from this, sermon books were revised and new books were prepared for religious education.

6. Religious Court (Inquisition): Fear of punishment

An effort was made to elevate the moral as well as religious conduct of Catholics. Religious courts (Inquisition) were established for those who behaved below the prescribed standards. It was established first in Italy and then in other countries. For its establishment, approval had to be taken from that state. Those who criticized the Catholic Church were presented and tried in these courts. This court had the power to arrest a person, confiscate his property and even give him the death penalty. Only the Pope had the right to hear the final appeal regarding the decisions of these courts.

Thus, through these above mentioned institutions or means, the Catholic Church achieved considerable success in re-establishing its lost prestige and stopping the growing influence of Protestantism. Apart from these, other factors also proved helpful for the success of the counter-reform movement. Firstly, the Popes of the last years of the sixteenth century were of good character and devout. Secondly, the Protestants lacked leadership like Luther. Apart from this, the change in political circumstances also contributed to the success of the counter-reform movement. Due to their political interests, countries like France, Spain, Portugal, Austria, Poland etc. compromised with the Pope and provided support to him, which strengthened this movement.

CALVIN AND HIS TEACHING


The Reformation in France gained momentum under the leadership of John Calvin, a prominent theologian and reformer. Born in 1509 in Noyon, France, Calvin initially pursued theological studies at the University of Paris. Later, under his father's direction, he studied law at Orleans University. Deeply influenced by Martin Luther, Calvin shared Luther’s disdain for the corruption within the Catholic Church. His seminal work, Christianae Religionis Institutio (The Institutes of the Christian Religion), written with systematic rigor, became a cornerstone of Protestant theology.

The Institutes: A Theological Masterpiece

Published initially in Latin in 1536, The Institutes was Calvin’s systematic exposition of Protestant theology. The first edition, concise yet powerful, sold out quickly. Calvin expanded it significantly in 1539 and translated it into French in 1541, creating one of the most celebrated works of French prose. Over his lifetime, Calvin revised and enlarged the text, culminating in a 1,118-page final edition.

The book opened with a passionate preface addressed to King Francis I of France, defending Protestant theology amidst growing persecution. Calvin disassociated Protestantism from the radical Anabaptists, portraying French reformers as loyal patriots. He urged the king to recognize their faith as aligned with Christian piety rather than rebellion:

"For though I feel the affection which every man ought to feel for his native country, yet I regret not my removal from it under the existing circumstances. I plead the cause of all the godly, and consequently of Christ Himself."

This eloquent defense highlighted Calvin’s theological depth and his plea for justice and tolerance.

Teachings of Calvin

Firm Faith in the Bible

Calvin emphasized the Bible as the sole guide for human life, dismissing rituals and the necessity of priests as intermediaries. He believed in a direct, personal connection with God rooted in Biblical teachings. To Calvin, the sacred Scriptures held a divine authority unmatched by any human creation:

"Read Demosthenes or Cicero...but if, after reading them, you turn to the sacred Scriptures, you will perceive something divine in them, surpassing all human industry."

Calvin held that the Bible provided not only spiritual guidance but also a framework for understanding history, politics, and morality.

The Supremacy of God's Will

At the heart of Calvin’s theology was the absolute supremacy of God's will. He argued that all events occur according to divine will, emphasizing that salvation cannot be earned through deeds or faith alone but is a result of God's grace. This belief highlighted humanity's insignificance before God's omnipotence.

Calvin's unwavering trust in God's sovereignty extended to all aspects of life. He wrote that God’s justice and mercy are beyond human comprehension:

"It is unreasonable that man should scrutinize with impunity those things which the Lord has determined to be hidden in Himself."

The Doctrine of Predestination

One of Calvin’s most controversial doctrines was predestination. He asserted that before creation, God determined each individual’s fate—whether salvation or damnation:

"It is a horrible decree, but no one can deny that God foreknew the future final fate of man before He created him, and that He foreknew it because it was appointed by His own decree."

While this doctrine appeared fatalistic, it inspired Calvinists with a sense of purpose. The belief that success or failure in life, including economic ventures, was governed by divine will fostered a disciplined work ethic among his followers.

On the Holy Eucharist

Calvin rejected the Catholic doctrine of transubstantiation, asserting that the bread and wine in the Holy Eucharist were symbolic representations of Christ's body and blood, not literal transformations. He considered the adoration of the consecrated wafer idolatrous and rejected the use of religious images and relics in worship, seeing them as contrary to the Second Commandment.

On State and Religion

Calvin advocated for a clear delineation between state and religion. While he opposed state interference in Protestant matters, he also believed the church should not meddle in political affairs. However, he envisioned a harmonious relationship between the two, where the state would enforce religious discipline and prevent heresy.

His theological framework also supported theocratic governance, where the church would serve as the moral and spiritual guide:

"The ideal government will be a theocracy, and the Reformed Church should be recognized as the voice of God."

Democratic Structure in the Church

Calvin introduced a democratic framework in the governance of the church. Decisions were made collectively by ecclesiastical authorities and the congregation. He emphasized the role of presbyters (elders) in decision-making, laying the foundation for Presbyterianism. This approach decentralized religious authority and empowered local congregations.

On Magic and Totems

Calvin strongly opposed superstitions, including belief in magic and totems. His teachings called for a disciplined, moral life free from such practices, which he deemed corrupt and contrary to true Christian faith.

His moral rigor extended to his governance in Geneva, where he established the Consistory to monitor public behavior and enforce strict moral codes. This body became a key instrument in Calvin’s vision of a godly society.

Great Disciplinarian

Calvin’s governance in Geneva showcased his strict disciplinary approach. The Consistory punished deviations from moral norms, ensuring adherence to religious principles. Despite the severity, Geneva thrived as a center of Protestant reform under Calvin’s leadership.

However, his intolerance toward dissenters revealed the authoritarian side of his theology. His involvement in the execution of Michael Servetus, a Spanish physician accused of heresy, exemplifies the harsh consequences for opposing his doctrines.

Intolerance and the Calvin-Servetus Conflict

The Calvin-Servetus conflict demonstrates the harsh intolerance of divergent theological views during the Reformation. Michael Servetus, a Spanish theologian, rejected the Trinity in his work De Trinitatis Erroribus, calling it "tritheism" and describing its adherents as "true atheists." He argued that Jesus was not co-eternal with God but a man imbued with divine wisdom. His rejection of infant baptism, virgin marry and opposition to Calvin’s predestination doctrine further isolated him.

Arrested in Geneva under Calvin's influence, Servetus was tried for heresy. Calvin, who once wrote, "If my authority is of any avail, I will not suffer him to get out alive," played a significant role in his condemnation. On October 27, 1553, Servetus was burned alive, crying, “Misericordia! Misericordia!”

This tragedy underscores the intolerance of dissent during the Reformation and reflects the dangers of rigid dogmatism, overshadowing Servetus's scientific contributions like the discovery of pulmonary circulation.

Conclusion

John Calvin's teachings left an indelible mark on Protestantism and Western thought. His emphasis on predestination, moral discipline, and the authority of Scripture shaped movements like Presbyterianism and laid the groundwork for modern secular governance. However, his intolerance and authoritarian leadership remain contentious aspects of his legacy.

Calvin’s Institutes stand as a monumental work of theology, blending intellectual rigor with profound faith. His vision of a disciplined, godly society and his contributions to church governance have ensured his enduring influence as one of the most formidable figures of the Reformation.

सोमवार, 27 नवंबर 2023

दुष्ट सत्ता के समक्ष गांधी के हथियार

राजीव कुमार पाण्डेय

गांधी को न यकीन करने वाली आइंस्टीन की आने वाली पीढ़ी अब आ चुकी है। नई छवियों के निर्माण करने वाले अपवादों के विस्तारण तथा उद्देश्यपरक झूठ के संक्रामक बुखार को धारण करने वाली सोशल मीडिया के दौर में महात्मा गांधी चरखासुर के नए नाम से प्रचारित हो रहे हैं। हालांकि यह नई बात नहीं है, गांधी जी को अंग्रेजों ने अपना शत्रु माना, अंबेडकर ने विषैले दांतो वाला, वामपंथियों ने क्रांति की पनौती, जिन्ना ने एक चालाक हिंदू तो हिंदू गोडसे ने गांधी का वध ही कर दिया। लेकिन गांधी सबसे अलग हैं। गांधीजी की परवरिश, उनका अनुभव तथा उनका अर्जित बौद्धिक विकास इस बात की इजाजत नहीं देता था कि वह बिना जाने समझे किसी को अपना शत्रु समझते दरअसल उन्होंने कभी भी किसी को अपना स्थायी शत्रु नहीं समझा। उन्हें मनुष्य जाति की भलमनसाहत तथा सरकारों की उदारता तथा उनके अपने नागरिकों के प्रति दायित्वबोध में हमेशा यकीन रहा। गांधी का कहना था कि अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी दूसरों को समझा बूझाकर सही काम करने के लिए राजी कर लेना मैने हमेशा आसान पाया। गांधी का कार्यकारी अहिंसक जीवन दो हिंसक विश्व युद्धों के बीच का है जहां दुष्ट सत्ता की उपस्थिति से मानवता पीड़ित थी। गांधी ने दुष्ट सत्ता से निपटने के लिए कुछ शाश्वत उपायों को प्रचलित किया, जो आज भी प्रासंगिक हैं।

सत्याग्रह और अहिंसा

दुष्ट सत्ता के अन्याय और अत्याचार के समक्ष दो स्थितियां बनती हैं। पहला कि हम विरोध न करें और उसकी अंधभक्ति का रास्ता अख्तियार कर लें, लेकिन यह कायरता है। दूसरा, कि हम निडरता दिखाएं तथा उसका विरोध करें, जो युद्ध या विप्लव के रूप में प्रकट होगा। ज़ाहिर है कि इसमें हिंसा का समावेश होगा। गांधीजी ने एक तीसरा विकल्प प्रस्तुत किया, वह था सत्याग्रह अर्थात सत्य के प्रति आग्रह और अहिंसा । गांधी के अनुसार सत्य एक सार्वभौम मूल्य है। गांधी का यह एक अनोखा हथियार था जिसका जवाब किसी भी दुष्ट सत्ता के पास नहीं है। उन्होंने असत्य को सत्य से जीतने की बात की। वह इस बात पर अडिग थे कि भारत में अंग्रेजों के शासन को कभी भी सत्य नहीं ठहराया जा सकता था। गांधी के अनुसार स्वराज और न्याय सत्य है और इसलिए ही इस पर उनका आग्रह है। यह एक नैतिक शस्त्र है । गांधीजी के अनुसार अहिंसा, पशुता से मनुष्यता की तरफ प्रयाण का मानक है। उनके अनुसार अहिंसा सांस्कृतिक मनुष्य की एक चरम उपलब्धि है। यह सुषुप्तावस्था में रहती है, लेकिन जब यह जागती हैं तो प्रेम बन जाती है, जो संसार की गतिशीलता का साधन है।

एकता

गांधी का मानना था कि किसी भी शक्तिशाली और संगठित दुष्ट सत्ता से व्यक्तिगत तौर पर निपटना संभव नहीं है। यही नहीं हम सामाजिक फूट के साथ भी इससे नहीं निपट सकते। अपनी सत्ता को मजबूती देने के लिए अंग्रेजों ने फूट डालो और राज करो की नीति पर काम किया। उन्होंने न सिर्फ धार्मिक विभाजनों को बड़ा किया बल्कि हिन्दू धर्म की आंतरिक कमियों का लाभ उठाकर दलितों को भी आजादी के लिए चल रहे संघर्ष से दूर रखने की कोशिश की। गांधी ने एक शक्तिशाली सत्ता से निपटने के लिए खिलाफत आंदोलन के माध्यम से न सिर्फ हिंदू मुस्लिम एकता पर जोर दिया बल्कि दलितों को मुख्य धारा में बनाए रखने के लिए आमरण अनशन करके पूना पैक्ट करवाया। गाँधी के भारत में क्रियाशील होने के पूर्व की राजनीति वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाली थी लेकिन गांधी ने वर्ग समन्वय की एक अनोखी राजनीतिक शैली को विकसित किया।

अपनी मांग की वैधता निर्मित करना

अंग्रेजों ने भारतीयों के स्वशासन की मांग को यह कह कर ख़ारिज किया की भारतीय समाज की कमियां जैसे स्त्रियों की दशा, धार्मिक कलह, तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयां इस बात की इजाजत नहीं देती, तथा भारतीयों को स्वशासन के लिए अयोग्य बनाती हैं। अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन को एक सांस्कृतिक परियोजना बताया तथा इसे श्वेत व्यक्ति का बोझ सिद्ध किया। गाँधीजी ने न सिर्फ उनके दावों को खोखला सिद्ध किया बल्कि पश्चिमी सभ्यता को अनैतिकता का प्रचार करने वाली बताया । साथ ही गांधीजी  ने अपनी मांग को नैतिक रूप से मजबूत करने के लिए भारतीय समाज की अपनी बुराइयों को भी दूर करने का प्रयास किया। उन्होंने हिंदू-मुस्लिम सौहार्द, अस्पृश्यता उन्मूलन तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए लगातार संगठित प्रयास किया।

असहयोग

गांधीजी ने प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों की अच्छाई में विश्वास करके उनकी मदद की। वे भारत में घूम-घूम कर युवकों से सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित करते रहे। इसके लिए उन्हें भर्ती करने वाला सार्जेंट भी कहा गया। गांधी जी का मानना था कि अंग्रेज इस सहयोग के बदले में भारतीयों को स्व शासन देने की दिशा में आगे बढ़ेंगे। लेकिन इसका उल्टा हुआ अंग्रेजों ने एक दमनात्मक कानून रॉलेट एक्ट पारित कर दिया जिसे न अपील न वकील न दलील के रूप में जाना जाता था। इसी बीच 1919 में जलियांवाला बाग काण्ड भी हो गया। गांधी ने अंग्रेजी सत्ता को शैतानी कहा तथा अब असहयोग की नीति अपनायी। गांधीजी जो एक समय अंग्रेजों को अच्छा समझ कर सहयोग किए थे उनके शैतानी होने पर अब उनके साथ असहयोग की बात करने लगे। गांधी जी ने कहा कि सरकार को बता दो कि चाहें फांसी पर लटका दे, चाहें जेल में बंद कर दे, उसे हमारा सहयोग किसी भी हालत में नहीं प्राप्त होगा। अब हम किसी दुष्ट सत्ता का सहयोग नहीं कर सकते ।

सविनय अवज्ञा

अंग्रेजों ने भारतीय शासन पर बात करने के लिए 1927 में साइमन कमीशन भेजा परंतु इसमें किसी भी भारतीय को नहीं रखा गया। भारत में अंग्रेजी कानून भारतीय मानस, भारतीय समाज तथा भारतीय अर्थव्यवस्था के विरुद्ध था। गांधी जी का कहना था कि ऐसा कोई भी कानून जिसके निर्माण में भारतीय आकांक्षा शामिल नहीं है और उसे किसी दुष्ट सत्ता ने जबरदस्ती भारतीयों पर थोप रखा है तो उसे भारतीयों को मानने के लिए विवश नहीं किया जा सकता। उदाहरण के लिए गांधी जी ने नमन कानून को लिया। गांधी जी का कहना था कि नमक कानून, जो कानून की पुस्तक में कलंक जैसा है, उसे वो तोड़ेंगे और इसके लिए उन्हें जो भी सजा दी जाएगी उसे भुगतने के लिए वो तैयार रहेंगे। उन्होंने सिर्फ अब एक ही शर्त रखी कि स्वराज पाने के लिए सत्य और अहिंसा की प्रतिज्ञा का ईमानदारी से पालन हो।

करो या मरो

एक समय ऐसा भी आता है जब दुष्ट सत्ता के पाप का घड़ा भर जाता है तथा पीड़ितों के सब्र का बांध टूट जाता है। गाँधी जी के अनुसार अंग्रेजों की एक व्यवस्थित अनुशासित अराजकता का अब अंत अब होना ही चाहिए भले ही इसका परिणाम अब कुछ भी हो । उन्होंने कहा कि एक मंत्र है, छोटा सा मंत्र, जो मैं आपको देता हूँ । उसे आप अपने ह्रदय में अंकित कर सकते हैं। वह मंत्र है करो या मरो, या तो हम भारत को आजाद कराएँगे या इस कोशिश में अपनी जान दे देंगें। अपनी गुलामी का स्थायित्व देखने के लिए हम जिन्दा नहीं रहेंगें।

इस प्रकार गाँधीजी ने अंग्रेजी दुष्ट सत्ता से निपटने के लिए इन हथियारों का प्रयोग किया । लेकिन अब के अय्यार दुष्ट सत्ता ने जनता पर नियंत्रण के अपने हथियार को जादुई बना लिया है। फिर भी गाँधी नाम से वह डरी रहती है क्योंकि सत्ता के विरुद्ध गाँधी की "संज्ञानात्मक दासता की दुश्चिन्तायें" एक नागरिक के समक्ष चेतावनी के तौर पर अभी भी जिंदा है। आप गांधी के ख़िलाफ़ गोडसे बन सकतें हैं परन्तु किसी अत्याचारी दुष्ट सत्ता के ख़िलाफ़ आपका गाँधी बनना ही बेहत्तर विकल्प है। हाँ कोई भी दुष्ट सत्ता कभी नहीं चाहेगी की आप गाँधी बने क्योंकि दमन के लिए सहूलियत भरी हिंसा उसे बहुत भाती है। इसके लिये वह हमेशा अपना सक्षम प्रयास करती रही है।

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