मंगलवार, 19 मई 2015

बर्बादी का ग्लैमराइज़ेशन तो फिल्मो और साहित्य में होता था। कमाल है राजनीती और मिडिया की युगलबंदी की जिसने इससे भी आगे बर्बादी से उपजे दर्द का भी बाज़ारीकरण कर दिया। दर्द भी अब बेइंतहां मुनाफे वाला उत्पाद है। हम सब लूटते हुए विवश खरीददार हैं। तय एजेंडे पर बाजार में मिलेजुले विक्रेताओं का एकाधिकारी वर्चश्व है।
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