सोमवार, 14 मार्च 2016

जीवन

हर नई कहानी,
क्यों बदल देना चाहती,
आने वाली जीवन कहानी।

हर नई कविता,
क्यों बेताब कर देती,
अपने सुर में गानें को।

हर नई नसीहत,
क्यों परिवर्तित कर देती,
हर पुरानी सिख।

विचारों का ये परिवर्तन,
बोझिल करता मेरा मन,
किस राह चलू मैं।

हर राहें राहों से भरी पड़ी,
हर राहों से गुजरते लोग,
जीवन के हर रंग को जीते लोग।

मैं जब किसी राह पर कदम बढ़ाऊं,
सकुचाते शरमाते,
नई राह मुझको ललचाती।

सिद्धान्तों का ये अस्थिरतापन,
पन्नों में दबी टेढ़ी मेढ़ी स्याह लकीरों का आदर्श,
इनको बदल देना चाहता जीवन का अनुभव।

मंगलवार, 1 मार्च 2016

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत

राष्ट्र, राष्ट्रवाद और भारत

राष्ट्र कहीं होता नहीं है, अतः इसे पाया भी नहीं जाता। हाँ इसे बनाया जाता है, और सिर्फ बनाया जाता है यह इसलिए कि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगतीं हैं।

पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहतें हैं तो हमें यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत की सवा अरब आबादी के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा।

दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की अजीब कोशिश है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि यह एकता इस रूप में नहीं है कि हम पिस कर संस्कृतियों कि चटनी बना दें और फिर इसे मुहँ में डाल कर स्वाद लें और अनुमान लगाएं कि इसमे क्या क्या था। बेहतर है कि जीभ के स्वाद की बजाय हम आँख से ही इसका सौंदर्य बोध प्राप्त करें जैसे फूल की टोकरी या फुलवारी। हमें सभी को आदर देते रहना होगा।

तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद से कोई भी विरोध नहीं है सिवाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी निष्पति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद कि असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशो में हम असफल रहतें हैं।

और रही भारत राष्ट्र की बात तो भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ छोटे मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल बैठ कर सुलझा भी लिया जायेगा।

शनिवार, 6 फ़रवरी 2016

सहिष्णुता नहीं बंधुता चाहिये

क्रिस्टोफर नोलन द्वारा निर्देशित और लियोनार्डो डी कैप्रियो द्वारा अभिनीत विज्ञान गल्प फ़िल्म इन्सेप्शन में दो महत्वपूर्ण कल्पनायें की गई हैं पहली कि यदि हम किसी  स्वप्न में लंबे समय तक रहें तो हमें हमारा स्वप्न ही यथार्थ लगता है और हमारा यथार्थ स्वप्न प्रतीत होता है। दूसरी जो महत्वपूर्ण कल्पना की गई है वह है कि कोई हमारे स्वप्न में आकर या अपने स्वप्न में बुलाकर न केवल हमारे विचारों को चुरा सकता है बल्कि वह हमारे अंतर्मन में नए विचारों का इज़ाद भी कर सकता है और हमें इसकी भनक भी नहीं लग सकती। भारतीय इतिहास का औपनिवेशिक काल एक तरह का इन्सेप्शन ही रहा है। आजादी के इतने सालों बाद भी हम इससे पूरी तरह मुक्त नहीं हैं। यह नए सिरे से फिर प्रारम्भ हुआ लगता है। भारत में सकारात्मक और परिणामी संवाद के विचार कहीं चोरी हुए से लगतें हैं और लगता है कि जैसे संघर्ष के विचारों को भारत के अंतर्मन में रोप दिया गया हो। हर एक के बरक्स हर एक का संघर्ष जैसे हमारी स्थाई नियति बनती जा रही है। प्रेम, मिलन, और समर्पण के शब्द जैसे गायब किये जा रहें हैं इसकी जगह पर नफ़रत, अलगाव और संघर्ष के शब्द ढूंढे जा रहें हैं। निशाने पर लोकतान्त्रिक रूप से चुनी गई सरकार, राष्ट्र और हमारा समाज दोनों हैं।

क्या 1976 के पहले भारत समाजवादी नहीं था या बाद में पूंजीवादी नीतियों ने सहयोग नहीं किया। पंथनिरपेक्ष संविधान वाले भारत में राजीव गांधी ने शाहबानो जैसो के लिए क्या किया और क्या यह राममंदिर के दुष्परिणामी ताला खुलने की वजह नहीं बना ? क्या अखंडता शब्द नक्सलवाद और कश्मीरी आतंकवाद इत्यादि को बढ़ने से रोक पाया। हमने उन धारणाओं को जो समाज और राज्य के मानस में होने चाहिए वहां से हटा कर संविधान की शोभा मात्र बना कर रख दिया। समाजवादी, पंथनिरपेक्ष और अखंडता के बाद एक और शब्द भविष्य में संविधान में जगह पाने का इन्तजार कर रहा है। शायद यह सहिष्णुता पिछले साल का सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला शब्द है। यह संविधान में जगह पाये अपने पूर्ववर्तियों से अलग होगा लेकिन कुछ कुछ पंथनिरपेक्ष शब्द जैसा ही इसका हश्र होगा। मगर चिंता की बात यह है कि इससे पहले ही भारत के राजनीतिक सामाजिक जीवन में इसकी जगह बनाई जा चुकी है। सहिष्णुता एक विरोधाभाषी शब्द है और असहिष्णुता तो चरम विरोधाभाषी है। इसका विरोधाभास वाल्ज़र के इस प्रश्न में दिखता है जिसमे वे कहते है कि क्या हम असहिष्णुता के प्रति सहिष्णु हो सकतें हैं।

भारतीय परिप्रेक्ष्य में सहिष्णुता एक पूर्णतया नकारात्मक शब्द और विचार है जो संविधान विरुद्ध भी है। ज्यादा सहज शब्दों में कहा जाय तो सहिष्णुता का अभिप्राय उन चीजों को सहन करना या बर्दास्त करना है जिसे हम नापसंद करतें हैं। यह मन का बोझ है। प्रश्न उठता है कि गलत चीजों को हम क्यों और कब तक बर्दास्त करें और अगर बात सही है तो हम उसे क्यों स्वीकार नहीं करें। सवाल यह भी उठता है कि हम कोई गलत बात करें ही क्यों जिससे उसे किसी को बर्दास्त करना पड़े। किसी को गाली देकर हम कब तक उससे सहिष्णुता की उम्मीद रख सकतें हैं। अपराध के शिकार व्यक्ति के प्रतिरोध को हम असहिष्णु कह कर कब तक उसका खून जलातें रहेंगे। सहिष्णुता और असहिष्णुता का खेल वर्चश्व के शोर से ज्यादा कुछ नहीं है। यह प्रतिरोध के स्वर को मुर्दा शांति से भर देने का एक षड़यंत्र मात्र है। यह एक सामाजिक पाखंड है जो अस्वीकार्यता को स्वीकृति देता है। समाज को हमेशा उस दहलीज पर रखता है जहाँ कोई भी छोटी चिंगारी इसमें आग लगा देती है। सहिष्णुता का विचार हमें ऐसा समाज मुहैय्या कराता है जिसमे नफ़रत का विचार साथ साथ चलता है जो सहमति और स्वीकार्यता में बाधा बनता है।

सहिष्णुता से इतर बंधुता एक संविधान सम्मत शब्द और विचार है। यह हमारी परंपरा से भी मेल खाता है। अशोक का बारहवां दीर्घ शिलालेख अपने सम्प्रदाय को आदर देने के साथ ही दूसरे सम्प्रदाय को भी आदर देने की बात करता है। यहाँ आदर की बात हो रही है न कि बर्दास्त करने की। 1948 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा अंगीकृत मानव अधिकार’ की घोषणा के अनुच्छेद 1 में यह कहा गया है कि ‘‘सभी मनुष्य जन्म से ही गरिमा और अधिकारों की दृष्टि से स्वतंत्र और समान हैं। उन्हें बुद्घि और अंतश्चेतना प्रदान की गयी है। उन्हें परस्पर "भ्रातृत्व" की भावना से रहना चाहिए।’’  भारत के संविधान की कुंजी उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना है, क्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। संविधान में "सहिष्णुता" नहीं बल्कि "बंधुता" की भावना के साथ रहने को कहा गया है। बंधुता पूर्णतया सकारात्मक मन का उल्लास है जिसमे स्वीकार्यता भरी है। यह सामाजिक प्राण वायु है। जिस प्रकार एक भाई को चोट लगे और आह दूसरे की निकले, एक की संवेदनाएं दूसरे के साथ इस प्रकार एकाकार हो जाएं कि उन्हें अलग करना ही कठिन हो जाए तो वास्तविक बंधुता वही कहलाती है। नागरिकों की ऐसी गहन संवेदनशीलता राष्ट्र निर्माण का परमावश्यक अंग है।

रविवार, 10 जनवरी 2016

भूमंडलीकरण के दौर में हिंदी : भाषा बनाम सत्ता : बाज़ार और राजनीति

हम नहीं छोड़ेंगे। क्या ? अंग्रेजी ? जी नहीं सत्ता।


टीवी पर दलित चिंतक चन्द्र भान प्रसाद ने सीसैट आंदोलनकारी अंगेश से अपने ही अंदाज़ में सवाल किया। "आप पहले ये बताइये कि भारत का संविधान अंग्रेजी में ही क्यों लिखा गया" ?  मुझे नहीं लगता की ये सवाल था, दरअसल यह उस समय उठ रहे बहुत सारे प्रश्नो का एकमुश्त "सटीक उत्तर" था। मुझे किसी इतिहासकार का कथन धुंधले रूप में याद आ रहा है कि "भारत वैसा बना जैसे नेहरू थे अगर नेहरू भी दूसरे प्रकार के होते तो भारत भी दूसरे प्रकार का होता"। चन्द्र भान प्रसाद जी ने एक और बहुत ही गंभीर बात कही कि "अच्छी अंग्रेजी नहीं जानने वालों कि शादी नहीं हो रही है और आप आईएएस बनाना चाहतें हैं"।


आज़ादी और हम


भारत जब आजाद हुआ उस समय बहुत से दुखद सुखद कारणों, आभा मंडलों  और अपनी अपनी वजहों से भारत का सामूहिक मानस एक बेहोशी की हालत में था। लोकतंत्र एक अच्छा शब्द था और चुनाव एक औपचारिक खेल। उस समय जब संविधान की उद्देशिका  में "हम भारत के लोग" कहा जा रहा था तो यह मात्र "कुछ हम" थे। "भारत के लोग" इसमें नहीं थे। मुझे नहीं लगता की इसका उस समय कोई विकल्प था और न ही नेहरू और आंबेडकर की नेकनीयती पर मुझे जरा भी संदेह है। सत्ता 'कुछ हम' के हाथों में थी। मगर कब तक ?


पावर और पैसा : सिविल सेवा और आई आई टी


सिविल सेवा और आई आई टी ..अगर इसे मैं पावर और पैसा कहूँ तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए ...दोनों में परिवर्तन हुआ है । परिवर्तन का समय और परिणाम बेहद महत्वपूर्ण है । समय तब चुना गया जब "ख़ारिज किये गए बेकार लोगों" का प्रतिशत 0% से बढ़ते बढ़ते लगभग सिविल सेवा 30 % और आई आई टी  45 % तक पहुँच गया था। लेकिन परिवर्तन की एक तरफ़ा मार इन्ही लोगों पर पड़ी और सिविल सेवा में ये 3 % पहुंच गया । आई आई टी में सुधार के पहले साल ही घट कर 15 % पर आ गया हालांकि यह घटाव की शुरूआत थी। हालाँकि नई सरकार ने कुछ राहत दी। भारत में बहुरूपी और विभेदकारी शिक्षा व्यवस्था का भरपूर दुरूपयोग हो रहा है। सत्ता और साधनों पर वर्चस्व बनाये रखने हेतु इसका इस्तेमाल बड़ी सफाई से किया जा रहा है। भारतीय भाषा आंदोलनकारी श्याम रूद्र पाठक ध्यान दिलातें हैं कि हाल में कर्मचारी चयन आयोग के विज्ञापन के पाठ्यक्रम में 62 % सहभागिता अकेले अंग्रेजी भाषा की है कोई भी समझ सकता है कि यह अंग्रेजी माध्यम के लिए एक तरह का आरक्षण है।


हिंदी और भाषा  : राजनीति बनाम बाजार 


जब मैं पोस्ट ग्रेजुएट कर रहा था तो क्लास में प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी ने कहा कि भाषा आंदोलन के दौरान विद्यार्थियों ने अंग्रेजी होल्डिंगों पर कालिख पोता था दरअसल वो अपने भविष्य पर कालिख पोत रहे थे । क्योंकि वो नहीं समझ पा रहे थे कि वो किसी के लिए रास्ते को आसान कर रहे थे और अपने लिए कठिन वह भी किसी अन्य कि जरुरत से, मतलब राजनीति की जरुरत से। हिंदी और भारतीय भाषाओं को खतरा सरकार और राजनीति से है।


भूमंडलीकरण और हिन्दी


भूमंडलीकरण के बारे में एक गलतफहमी है कि यह प्रभाव डालता है दर असल यह संवाद स्थापित करता है यह खुद अपनी ही प्रक्रिया को जरूरतों के हिसाब से प्रभावित करता है । फार्च्यून मैगजीन द्वारा नामित विश्व के ख्याति लब्ध कंसल्टेंट रामचरण ने अपने एक व्याख्यान में बड़ी बड़ी कंपनियों के सीईओ को सम्बोधित करते हुए साफ़ साफ़ कहा ..लुक फॉर रॉ  टेलेंट एंड नॉट फॉर इंग्लिश स्किल।


हिन्दी : ताकत की भाषा


अंतर्राष्ट्रीय जगत में हिंदी ताकत कि भाषा बन रही है, बीसवीं शती के अंतिम दो दशकों में हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास बहुत तेजी से हुआ है। वेब, विज्ञापन, संगीत, सिनेमा और बाजार के क्षेत्र में हिंदी की मांग जिस तेजी से बढी है वैसी किसी और भाषा में नहीं। विश्व के लगभग 150 विश्वविद्यालयों तथा सैंकडों छोटे-बडे क़ेंद्रों में विश्वविद्यालय स्तर से लेकर शोध स्तर तक हिंदी के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्था हुई है। विदेशों से 25 से अधिक पत्र-पत्रिकाएं लगभग नियमित रूप से हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं। यूएई क़े 'हम एफ एम' सहित अनेक देश हिंदी कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं, जिनमें बीबीसी, जर्मनी के डॉयचे वेले, जापान के एनएचके वर्ल्ड और चीन के चाइना रेडियो इंटरनेशनल की हिंदी सेवा विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


विश्व में हिंदी की स्थिति : चक दे हिंदी


विश्व में हिंदी की स्थिति पर चर्चा करते हुए यह जान लेना भी आवश्यक है कि प्रयोक्ताओं की संख्या के आधार पर 1952 में हिंदी विश्व में पांचवे स्थान पर थी। 1980 के आसपास वह चीनी और अंग्रेजी क़े बाद तीसरे स्थान पर आ गई। 1991 की जनगणना में हिंदी को मातृभाषा घोषित करने वालों की संख्या के आधार पर पाया गया कि यह पूरे विश्व में अंग्रेजी भाषियों की संख्या से अधिक है। इतना ही नहीं, डॉ जयंती प्रसाद नौटियाल ने निरंतर 20 वर्ष तक भारत तथा विश्व में भाषाओं संबंधी आंकडों का विश्लेषण करके सिद्ध किया है कि विश्व में हिंदी प्रयोग करने वालों की संख्या चीनी से भी अधिक है और हिंदी अब प्रथम स्थान पर है। उसने विश्व की अंग्रेज़ी समेत अन्य सभी भाषाओं को पीछे छोड़ दिया है। सन् 1998 के पूर्व, मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं के जो आँकड़े मिलते थे उनमें हिन्दी को तीसरा स्थान दिया जाता था । सन् 1997 में भारत की जनगणना का भारतीय भाषाओं के विश्लेषण का ग्रन्थ प्रकाशित होने तथा संसार की भाषाओं की रिपोर्ट तैयार करने के लिए यूनेस्को द्वारा सन् 1998 में भेजी गई यूनेस्को प्रश्नावली के आधार पर उन्हें भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान के तत्कालीन निदेशक प्रोफेसर महावीर सरन जैन द्वारा भेजी गई विस्तृत रिपोर्ट के बाद अब विश्व स्तर पर यह स्वीकृत है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से संसार की भाषाओं में चीनी भाषा के बाद हिन्दी का दूसरा स्थान है। चीनी भाषा के बोलने वालों की संख्या हिन्दी भाषा से अधिक है किन्तु चीनी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा सीमित है। अंग्रेज़ी भाषा का प्रयोग क्षेत्र हिन्दी की अपेक्षा अधिक है किन्तु मातृभाषियों की संख्या अंग्रेज़ी भाषियों से अधिक है। प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने आलेख " संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषाएँ एवं हिन्दी" में विश्व स्तरीय सन्दर्भ ग्रंथों से प्रमाण प्रस्तुत करते हुए प्रतिपादित किया है कि मातृभाषियों की संख्या की दृष्टि से विश्व में चीनी भाषा के बाद हिन्दी के बोलने वाले सर्वाधिक हैं।


हिंदी की आवश्यकता- चलो हिंदी सीखें


हिंदी भाषा और इसमें निहित भारत की सांस्कृतिक धरोहर इतनी सुदृढ अौर समृद्ध है कि इस ओर अधिक प्रयत्न न किए जाने पर भी विकास की गति बहुत तेज है। ध्यान, योग आसन और आयुर्वेद विषयों के साथ-साथ इनसे संबंधित हिंदी शब्दों का भी विश्व की दूसरी भाषाओं में विलय हो रहा है। भारतीय संगीत (चाहे वह शास्त्रीय हो या आधुनिक) हस्तकला, भोजन और वस्त्रों की विदेशी मांग जैसी आज है पहले कभी नहीं थी। लगभग हर देश में योग, ध्यान और आयुर्वेद के केन्द्र खुल गए हैं जो दुनिया भर के लोगों को भारतीय संस्कृति की ओर आकर्षित करते हैं। ऐसी संस्कृति जिसे पाने के लिए हिंदी के रास्ते से ही पहुंचा जा सकता है। डा जयंती प्रसाद नौटियाल की 2012 की नवींतम शोध से फिर यही सिद्ध हुआ कि हिंदी जानने वालोँ की दृष्टि से विश्व में हिन्दी जानने वाले सबसे अधिक हैं । चीनी जानने वाले 1050 मिलियन हैं और हिंदी जानने वाले 1200 मिलियन हैं।


हिंदी विज्ञापन- मुनाफ़े की भाषा


1980 और 1990 के दशक में भारत में उदारीकरण, वैश्वीकरण तथा औद्योगीकरण की प्रक्रिया तीव्र हुई। इसके परिणामस्वरूप अनेक विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में आईं तो हिंदी के लिए एक खतरा दिखाई दिया था, क्योंकि वे अपने साथ अंग्रेजी लेकर आई थीं। मीडिया महारथी रुपर्ट मरडोक स्टार चैनल लेकर आए। वह अंग्रेजी में बडी धूमधाम से शुरू हुआ था । इसी तर्ज पर सोनी, वगैरह दूसरे चैनल भी अंग्रेजी में अपने कार्यक्रम लेकर भारत में आए। मगर इन सबको विवश होकर हिंदी की ओर मुड़ना पडा, क्योंकि इन्हें अपनी दर्शक संख्या बढानी थी, अपना व्यापार, अपना लाभ बढाना था। आज टी वी चैनलों एवं मनोरंजन की दुनिया में हिंदी सबसे अधिक मुनाफ़े की भाषा है । कुल विज्ञापनों का लगभग 75 प्रतिशत हिंदी माध्यम में है।


लोकप्रियता की मिसाल- भाई हाली वुड मूवी देना हिंदी में


केंद्रीय हिन्दी संस्थान के सेवानिवृत निदेशक प्रोफ़ेसर महावीर सरन जैन ने अपने आलेख में हिन्दी की विश्व व्यापी लोकप्रियता का प्रतिपादन करते हुए यह अभिमत व्यक्त किया है कि हिन्दी की फिल्मों, गानों, टी.वी. कार्यक्रमों ने हिन्दी को कितना लोकप्रिय बनाया है इसका आकलन करना कठिन है। केन्द्रीय हिन्दी संस्थान में हिन्दी पढ़ने के लिए आने वाले 67 देशों के विदेशी छात्रों ने इसकी पुष्टि की कि हिन्दी फिल्मों को देखकर तथा हिन्दी फिल्मी गानों को सुनकर उन्हें हिन्दी सीखने में मदद मिली। लेखक ने स्वयं जिन देशों की यात्रा की तथा जितने विदेशी नागरिकों से बातचीत की उनसे भी जो अनुभव हुआ उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि हिन्दी की फिल्मों तथा फिल्मी गानों ने हिन्दी के प्रसार में अप्रतिम योगदान दिया है। सन्‌ 1995 के बाद से टी.वी. के चैनलों से प्रसारित कार्यक्रमों की लोकप्रियता भी बढ़ी है। इसका अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि जिन सेटेलाइट चैनलों ने भारत में अपने कार्यक्रमों का आरम्भ केवल अंग्रेजी भाषा से किया था, उन्हें अपनी भाषा नीति में परिवर्तन करना पड़ा है। अब स्टार प्लस, जी.टी.वी., जी न्यूज, स्टार न्यूज, डिस्कवरी, नेशनल ज्योग्राफिक आदि टी.वी.चैनल अपने कार्यक्रम हिन्दी में दे रहे हैं। दक्षिण पूर्व एशिया तथा खाड़ी के देशों के कितने दर्शक इन कार्यक्रमों को देखते हैं- यह अनुसन्धान का अच्छा विषय है। 'कौन बनेगा करोडपति' की लोकप्रियता ने मीडिया के क्षेत्र में हिंदी के झंडे गाड दिए, कमाई तथा प्रसिद्धि के अनेक कीर्तिमान भंग कर दिए तथा आने वाले समय में हिंदी के सुखद भविष्य के सपने जगा दिए हैं। आज सभी चैनल तथा फ़िल्म निर्माता अंग्रेजी क़ार्यक्रमों और फ़िल्मों को हिंदी में डब करके प्रस्तुत करने लगे हैं. जुरासिक पार्क जैसी अति प्रसिद्ध फ़िल्म को भी अधिक मुनाफ़े के लिए हिंदी में डब किया जाना जरूरी हो गया। इसके हिंदी संस्करण ने भारत में इतने पैसे कमाए जितने अंग्रेजी संस्करण ने पूरे विश्व में नहीं कमाए थे। आज भारत में सर्वाधिक पत्र-पत्रिकाएं तथा उनके पाठक हिंदी में हैं। सर्वाधिक फ़िल्में हिंदी में बनती हैं।


हिंदी- शक्ति एवं सामर्थ्य


हिंदी भारत की नहीं, पूरे विश्व में एक विशाल क्षेत्र की भाषा है। यह विशाल क्षेत्र अधिकतर मध्यम वर्ग को अपने में समेटे है। इस मध्यम वर्ग की क्रय-शक्ति पिछले कुछ वर्षों में बहुत बढी है। खाडी देशों का मजदूर वर्ग जो भारत पाकिस्तान बंगलादेश आदि देशों से आता है सबसे अधिक सहजता हिंदी बोलने में समझता हैं। वह यहां सादा जीवन जीता है लेकिन अपनी आमदनी का एक बडा हिस्सा अंतर्राष्ट्रीय उत्पादों की खरीद में व्यय करता है। आज अपने माल के प्रचार-प्रसार, पैकिंग, गुणवत्ता आदि के लिए हिंदी को अपनाना बहुराष्ट्रीय कंपनियों की विवशता है और उनकी यही विवशता हिंदी की शक्ति एवं सामर्थ्य की द्योतक है।


हिंदी- गंभीर दुनिया


भारतीयों ने अपनी कडी मेहनत, प्रतिभा और कुशाग्र बुद्धि से आज विश्व के तमाम देशों की उन्नति में जो सहायता की है उससे प्रभावित होकर समझ गए हैं कि भारतीयों से अच्छे संबंध बनाने के लिए हिंदी सीखना कितना जरूरी है। अमरीकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने 114 मिलियन डॉलर की एक विशेष राशि अमरीका में हिंदी, चीनी और अरबी भाषाएं सीखाने के लिए स्वीकृत की थी। इससे स्पष्ट होता है कि हिंदी के महत्व को विश्व में कितनी गंभीरता से अनुभव किया जा रहा है।


प्रवासी पत्रकारिता-माटी की सुगंध


यह एक उल्लेखनीय तथ्य है कि जिस प्रकार से भारत में हिन्दी-पत्रकारिता विभिन्न चरणों में विकसित हुई है, ठीक उसी प्रकार से विदेशों में भी प्रवासी भारतियों के द्वारा उसके विकास की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हुआ है। अनेक प्रवासी अपने धर्म, संस्कार और भाषा से भावात्मक रूप में जुड़े हुए हैं। इनके द्वारा समय-समय पर हिन्दी पत्रकारिता के उन्नयन के लिए पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन आरम्भ किया गया था, जो अनेक रूपों में आज भी हो रहा है। इनके मूल में हिन्दी पत्रकारिता के प्रति निष्ठा और अंतर्राष्ट्रीय विकास की भावना निहित है। अनेक स्थानों पर व्यावहारिक रूप से लोकप्रिय बनाने के उद्देश्य से उसमें हिन्दी के साथ ही स्थानीय भाषाओं का अंश भी प्रकाशित किया जाता है और वे द्विभाषी अथवा त्रिभाषी आदि रूपों में प्रकाशित हो रहे हैं। फिजी के कमला प्रसाद मिश्रा ,मारिसस के अभिमन्यु अनंत, सूरीनाम के मुंशी रहमान खान, सूर्य प्रताप वीरे के साहित्यिक अवदान को कौन भुला सकता है। अंग्रेज कवि चैम्बरलेन ने अनेक गीत लिखे हैं । ओदोलेन स्मेकल ने मेरे प्रीत मेरे गीत आदि कितने ही ग्रन्थ हिंदी में प्रकाशित किये।


हिंदी : विरोध नहीं सहयोग की आवश्यकता


आज हिंदी ने कंप्यूटर के क्षेत्र में अंग्रेजी का वर्चस्व तोड डाला है और हिंदीभाषी करोड़ों की आबादी कंप्यूटर का प्रयोग अपनी भाषा में कर सकती हैं। आवश्यकता इस बात की है, कि हिंदी के प्राध्यापक, साहित्यकार, संपादक एवं प्रकाशक कंप्यूटर पर हिंदी का प्रयोग करें और इसके सर्वांगीण विकास के लिए कदम बढाएं। प्रवासी भारतीयों में हजारों लोग हिंदी के विकास में संलग्न हैं। जिसमें से तीन सौ से अधिक से आप वेब पर संपर्क स्थापित कर सकते हैं। धैर्य के साथ इनसे संपर्क बनाते हुए बहुत कुछ सीखा जा सकता है। नेट के सूचना महामार्ग पर जो  हिंदी उंगली पकड़ के चल रही थी वो अब अपने पैरों पर खड़ी हो रही है । सुधा अरोड़ा कहती हैं कि राज भाषा को राज के चंगुल से बचाकर उसको जन कि भाषा बनाइये। उसको आवश्यकता की भाषा बनाइये। नामवर सिंह जी का कहना है की भूमंडलीकरण से हिंदी को खतरा है, पर वास्तविक खतरा हिंदी को हिंदी के शुद्धतावादियों से है .. भूमंडलीकरण से हिंदी लोकतंत्री हो गया है।

शुक्रवार, 1 जनवरी 2016

पता होगा

वक्त भी उड़ता रहा है रेत ओ हवा की तरह,
साहिल पर बैठे तलबगारों को पता होगा।
जुर्रतें मेरी कम है मशविरा दे नहीं सकता
मगर अरसे के बाद यारों को पता होगा।
अय्याशियों से तज़रबा नही बढता,
जीने का कोई और तरीका दयारों को पता होगा।
खो जाती हैं दिमागी हलचलें,
लुफ्ते दिल का नशा पैमानों को पता होगा।
होश की ताकत कहाँ की खलल डाले,
इसकी फितरत शामे बाजारों को पता होगा।
यूँ तो शराबी से बेहतर कोई इसां नहीं,
मगर कितने लौटे होश में चौबदारों को पता होगा।।....
..............…........................श्रीप्रकाश पाण्डेय

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...