मध्यकालीन भारत के इतिहास में शेरशाह का शासनकाल उसके उत्त्कृष्ट शासन प्रबन्ध के लिये प्रसिद्ध है। शेरशाह पहला शासक था जिसने धार्मिक आधार पर अपनी प्रजा में भेदभाव की नीति को त्याग दिया और उन्हें समान रूप से सुख तथा शान्ति से जीवन व्यतीत करने का अवसर दिया। उसका प्रशासन कुछ सिद्धांतों पर आधारित था जैसे —प्रजा को अत्याचारों से बचाना, शान्ति-व्यवस्था को स्थापित करना, राज्य की आर्थिक समृद्धि में वृद्धि करना, संचार-साधनों के विकास के द्वारा साम्राज्य को सुसंगठित करना तथा व्यापार को प्रोत्साहित करना तथा न्याय को सर्वोच्च स्थान देना। इन सिद्धान्तों के द्वारा उसने कल्याणकारी राज्य की स्थापना का प्रयास किया।
केन्द्रीय
प्रशासन
प्रशासन
का प्रमुख शेरशाह था और उसकी सत्ता निरंकुश थी लेकिन उसने अफगान अमीरों की निष्ठा
तथा सेवाओं को प्राप्त करने के लिये अफगान परम्पराओं का भी ध्यान रखा। प्रशासन की
सारी शक्तियाँ उसके हाथों में केन्द्रित थीं। यद्यपि उसके केन्द्रीय प्रशासन में
उसी प्रकार चार मन्त्री थे जिस प्रकार सल्तनत काल में पूर्व सुल्तानों के शासन काल
में रहे थे लेकिन शेरशाह की कार्य प्रणाली में अन्तर था। शेरशाह सभी विभागों के
कार्यों को स्वयं देखता था। सभी महत्वपूर्ण निर्णय शेरशाह स्वयं करता था और
मन्त्री तथा अमीर उनका पालन करते थे। वास्तव में,
उसके मन्त्रियों की स्थिति
सचिवों के समान थी।
शेरशाह
के शासनकाल में चार मन्त्री थे—
(1) दीवान-ए-वजारत—इस
विभाग का प्रमुख वजीर था। उसका मुख्य कार्य वित्त-सम्बन्धी होता था। वह राज्य की
आय और व्यय का हिसाब रखता था। अन्य विभागों के मन्त्रियों के कार्यों का निरीक्षण
करने का अधिकार भी उसे प्राप्त था। उसकी स्थिति प्रधानमन्त्री के समान थी।
मालगुजारी की व्यवस्था ठीक करने के लिये शेरशाह इस विभाग में विशेष रुचि रखता था
और वह स्वयं प्रतिदिन की आय और व्यय का हिसाब देखता था।
(2) दीवान-ए-अर्ज—इस
विभाग का प्रमुख आरिज था जो सेना मन्त्री था। वह सेनापति नहीं होता था। बल्कि उसका
कार्य सेना की भर्ती, रसद और संगठन से सम्बन्धित था। वह सेना
के अनुशासन तथा वेतन आदि कार्यों को भी देखता था। शेरशाह स्वयं सैनिकों की भर्ती
तथा उनके वेतन निर्धारण का कार्य देखता था। इससे इस विभाग की कुशलता बनी रहती थी।
(3) दीवान-ए-रसालत—इस
विभाग का प्रमुख विदेश मन्त्री के समान कार्य करता था। वह विदेशी राजदूतों का
स्वागत करता और अन्य राज्यों से पत्र-व्यवहार करता था। कभी-कभी दान विभाग का कार्य
भी उसके सुपर्द कर दिया जाता था।
(4) दीवान-ए-इंशा—इस
विभाग के प्रमुख को दबीर-ए-खास कहते थे। वह साम्राज्य के अन्दर सभी प्रकार के
पत्र-व्यवहार, आदेशों को भेजने का कार्य करता था। सूबेदारों
तथा अन्य अधिकारियों से वह उन पत्रों को प्राप्त करता था जो सम्राट् के लिये भेजे
जाते थे।
इन
चार मन्त्रियों के अतिरिक्त केन्द्रीय सरकार में दो अन्य प्रमुख अधिकारी होते थे
जिनका सम्मान और अधिकार मन्त्रियों के समान थे। इनमें से एक दीवान-ए-कजा था जिसका
प्रमुख अधिकारी मुख्य काजी होता था। न्याय प्रशासन में सम्राट् के बाद उसका दूसरा
स्थान था। दूसरा विभाग वारिद-ए-मुमालिक का था जो साम्राज्य के गुप्तचर विभाग का
प्रमुख था। उसका कार्य साम्राज्य के विभिन्न भागों से गुप्तचरों की रिपोर्टों को
प्राप्त करना था जो नगरों, कस्बों तथा प्रमुख बाजारों में नियुक्त
किए जाते थे। डाक का प्रबन्ध भी यहाँ विभाग करता था। सम्भवतः एक अन्य मुख्य अधिकारी
होता था जो महल की देखभाल करता था।
प्रान्तीय
प्रशासन—
शेरशाह
के प्रान्तीय प्रशासन के बारे में बहुत कम सूचना प्राप्त होती हैं। अतः इसके बारे
में निश्चित रूप से कुछ कहना कठिन है। डॉ. कानूनगो का मत है कि शेरशाह के प्रशासन
में ‘सरकार’ से ऊँची प्रशासन इकाई नहीं थी। सम्भवतः वह परगना तथा केन्द्र के मध्य
केवल ‘सरकार’ को रखना चाहता था और प्रान्तीय प्रशासन को उसने समाप्त करना चाहा था।
डॉ. परमात्माशरण का मत है कि शेरशाह के शासनकाल में फौजी गवर्नरों की प्रथा थी और
अकबर से पहले प्रान्तों का अस्तित्व था। डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव का मत है कि दोनों
स्थापनाओं में आंशिक सत्य है। वह कहते हैं कि शेरशाह के शासनकाल में प्रान्तों के
समान प्रशासनिक इकाई उपस्थित थी लेकिन इनका स्वरूप और आकार एक-सा नहीं था। इन
इकाइयों को सूबा न कहकर ‘इक्ता’ कहा जाता था। इक्ता के प्रमुख अधिकारी मुख्य सेनापति
या अमीर थे। प्रत्येक प्रान्त ‘सरकारों’ में विभाजित था और सरकारें ‘परगनों’ में
विभाजित थीं।
सरकार
प्रशासन—
सरकार
और परगना प्रशासन की विस्तृत सूचना अब्बास खाँ की रचना तारीखे शेरशाही में प्राप्त
होती हैं। प्रत्येक सरकार में दो प्रधान अधिकारी थे—प्रथम, शिकदार-ए-शिकदारान, और
द्वितीय, मुन्सिफ-ए-मुन्सिफान। मुख्य शिकदार सरकार का
सैनिक अधिकारी था। उसका कार्य सरकार या जिला में शान्ति बनाये रखना, परगना
शिकदारों के कार्य का निरीक्षण करना तथा मालगुजारी व अन्य करों की वसूली में
सहायता करना था। वह शिकदारों के फैसलों के विरुद्ध अपीलें भी सुनता था। इस पद पर
प्रमुख अमीरों की नियुक्ति शेरशाह स्वयं करता था। मुख्य मुन्सिफ का कार्य न्याय से
सम्बन्धित था और वह परगना-मुन्सिफों तथा अमीनों के कार्य का निरीक्षण भी करता था।
इनकी सहायता के लिये अन्य कर्मचारी भी थे।
परगना
प्रशासन—
परगना
प्रशासन में शेरशाह ने महत्वपूर्ण सुधार किये थे। उसने परगना स्तर पर न्याय
व्यवस्था को प्रभावशाली बनाया, जनता की सुख-सुविधाओं का ध्यान रखा गया, दो
समान अधिकार-सम्पन्न अधिकारियों को नियुक्त करके स्थानीय विद्रोहों की सम्भावना को
समाप्त कर दिया। ये दोनों अधिकारी एक-दूसरे पर नियन्त्रण करते थे। परगना
अधिकारियों की नियुक्ति भी शेरशाह स्वयं करता था,
इससे परगनों पर केन्द्रीय
नियन्त्रण बढ़ गया था। प्रत्येक परगना में शिकदार (सैनिक अधिकारी) और अमीन या
मुन्सिफ (नागरिक अधिकारी) होते थे। इनके अतिरिक्त,
एक फोतदार (खजांची) दो
कारकुन (फारसी और हिन्दी के लेखक) होते थे। एक अर्द्ध-सरकारी अधिकारी कानूनगो भी
होता था। शिकदार का कार्य शान्ति बनाये रखना और अमीन का कार्य भूमि की पैमाइश
कराना तथा मालगुजारी वसूल करना था।
ग्राम
प्रशासन—
शेरशाह
ने ग्राम प्रशासन स्थानीय लोगों के हाथों में ही छोड़ दिया। प्रत्येक गाँव में
मुखिया, पंचायतें और पटवारी होते थे जो स्थानीय
प्रशासन की व्यवस्था करते थे। शेरशाह के काल में गाँव के मुखिया के क्या अधिकार और
कर्तव्य थे यह ज्ञात नहीं है। यह महत्वपूर्ण है कि शेरशाह की नीति कृषकों से सीधे
सम्बन्ध रखने की थी। अतः ऐसा प्रतीत होता है कि कृषकों की मालगुजारी निर्धारित
करने तथा उसके संग्रह करने में मुखियाओं के अधिकार कम हो गये होंगे। लेकिन पटवारी
का महत्व यथावत् बना रहा क्योंकि वह गाँव का लेखा-जोखा रखता था और ग्राम का ही
वैतनिक अधिकारी था।
सैनिक
प्रशासन—
राज्य
की शक्ति तथा सुरक्षा का आधार सेना थी। इसलिये शेरशाह ने सैनिक प्रशासन पर विशेष
ध्यान दिया। उसने स्थायी सेना का निर्माण किया जो विभिन्न महत्वपूर्ण सुरक्षा
केन्द्रों तथा दुर्गों में रहती थी। उसकी सेना में चार अंग थे—घुड़सवार सैनिक जिनकी
संख्या 1,50,000 थी,
पदाति सैनिक जिनकी संख्या 25,000
थी, हस्ति सेना जिसमें अब्बास खाँ के अनुसार 5,000
हाथी थे, बन्दूकचियों की संख्या 50,000
बताई गई है। शेरशाह ने घुड़सवारों पर अधिक ध्यान दिया था और ऐसा प्रतीत होता है कि
तोपखाना अधिक शक्तिशाली नहीं था। उसके सैनिक प्रशासन की मुख्य विशेषताएँ इस प्रकार
थीं— (1) शेरशाह ने स्थायी केन्द्रीय सेना की व्यवस्था
की। सैनिकों को नकद वेतन दिया जाता था और इन्हें राज्य के विभिन्न भागों में रखा
जाता था। (2) शेरशाह ने सैनिकों की ‘हुलिया’ रखने तथा घोड़ों
को दागने की प्रथा पुनः प्रचलित की थी। (3)
शेरशाह स्वयं सैनिकों की
भर्ती करता था। उसने सैनिकों में कठोर अनुशासन रखा।
वित्त
प्रशासन—
शेरशाह
अपने वित्तीय सुधारों के लिये प्रसिद्ध है। वास्तव में, मालगुजारी
का प्रबन्ध उसकी प्रतिभा का स्थायी स्मारक है। शेरशाह ने मालगुजारी को खेतों की
पैमाइश के आधार पर निर्धारित किया। शेरशाह ने कृषकों को भूमि का पट्टा दिया जिसमें
भूमि का क्षेत्रफल, स्थिति,
प्रकार और मालगुजारी दर्ज
रहती थी। उसने मालगुजारी की कबूलियत भी किसानों से प्राप्त की। उसका सिद्धान्त था
कि मालगुजारी निर्धारित करते समय कृषकों से उदारता का व्यवहार किया जाये लेकिन
संग्रह में उदारता न की जाये। राजस्व
अधिकारियों के भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये शुल्क निश्चित कर दिये।
‘जरीबाना’ अर्थात् भूमि की पैमाइश का शुल्क और ‘महासीलाना’ अर्थात् कर-संग्रहक का
शुल्क किसान को देना पड़ता था जो कुल उत्पादन का 2.5% से 5% तक होता था।
न्याय
प्रशासन—
शेरशाह
ने निष्पक्ष न्याय व्यवस्था स्थापित की। वह कहता था कि, “धार्मिक
कृत्यों में न्याय सर्वश्रेष्ठ है” और काफिरों तथा मुसलमानों, दोनों
के राजा इसे स्वीकार करते हैं। उसने मजलूमों का सदैव पक्ष लिया और उत्पीड़कों के
विरुद्ध कार्यवाही की। वह न्याय-प्रार्थियों के मामलों की सावधानी से जाँच-पड़ताल
करता था और उसने न्याय करने में भी कभी उच्च पदस्थ या दुर्बल व्यक्तियों के मध्य
कोई भेदभाव नहीं किया। प्रत्येक बुधवार को वह खुले दरबार में मामलों की सुनवाई
करता था और सगे-सम्बन्धियों को भी दण्ड देने में नहीं हिचकता था। शेरशाह ने
अपराधों के मामलों में स्थानीय उत्तरदायित्व के सिद्धान्त को लागू किया था।
स्थानीय अधिकारियों का उत्तरदायित्व था कि वे शान्ति-व्यवस्था स्थापित करें। अगर अपराधी
का पता नहीं चलता था तो गाँव के मुकद्दम गिरफ्तार किये जाते थे और उन्हें
क्षतिपूर्ति करने के लिये बाध्य किया जाता था।
मुद्रा
सुधार—
शेरशाह
ने व्यापार, वाणिज्य,
संचार साधनों के विकास पर
विशेष ध्यान दिया था। इसके लिये उसने मुद्रा सुधार किया जो आर्थिक विकास के लिये
आवश्यक था। उसने पुरानी और खोटी मुद्राओं को प्रचलन से हटा दिया और उनके स्थान पर
नवीन सोने, चाँदी और ताँबे की मुद्रायें चलाई। उसके दो
प्रकार के सिक्के मुख्य थे—चाँदी का रुपया जिसका भार 178
ग्रेन था और ताँबे का दाम जिसका भार 380 ग्रेन था। शेरशाह का मुद्रा सुधार
स्थायी सिद्ध हुआ। विन्सेण्ट स्मिथ लिखते हैं कि,
“वर्तमान ब्रिटिश मुद्रा
प्रणाली का आधार रुपया है।” एडवर्ड टॉमस ने भी प्रशंसा करते हुए लिखा है कि, “मुगलों
ने भी उसके मुद्रा सुधार को अपनाया था।”
सड़कों
तथा सरायों का निर्माण—
शेरशाह
के प्रशासन की एक महान उपलब्धि सड़कों तथा सरायों का निर्माण करना था। उसने राजधानी
तथा मुख्य नगरों को जोड़ने वाली सड़कों का निर्माण कराया। इससे साम्राज्य के दृढ़ीकरण
के अतिरिक्त व्यापार तथा आवागमन की भी उन्नति हुई। उसने मुख्य रूप से चार सड़कों का
निर्माण और मरम्मत करायी—1. सोनारगाँव से सिन्धु नदी तक, 2. आगरा
से जोधपुर और चित्तौड़ तक जो गुजरात के समुद्र तट तक थीं, 3. आगरा
से बुरहानपुर तक, 4. लाहौर से मुल्तान तक। सरायों के व्यय के लिये
पास के गाँवों का राजस्व इन्हें दिया गया था। प्रत्येक सराय में चौकीदार, डाक
सेवक और दो घोड़े, सदैव तैयार रहते थे। इन सरायों का डाक-चौकी के
रूप में भी प्रयोग होता था। शेरशाह की इन सड़कों तथा सरायों को ‘साम्राज्य की
धमनियाँ’ कहा गया है। कहा जाता है कि शेरशाह ने 1,700 सरायों का निर्माण कराया था।
इस
प्रकार शेरशाह महान् प्रशासक था। सैनिक तथा असैनिक क्षेत्रों में उसकी उपलब्धियाँ
महान् थीं। यद्यपि उसने मौलिक सिद्धान्तों पर नवीन प्रशासन का निर्माण नहीं किया
था, फिर भी उसने पूर्ववर्ती प्रशासन को नवीन
उद्देश्य और प्रेरणा प्रदान की। उसे प्रशासन के लिये
लगभग पाँच वर्षों का ही समय मिला लेकिन इस सीमित समय में ही उसके कार्यों की सफलता
के कारण उसे महान् प्रशासक माना जाता है।
कीन के अनुसार किसी भी सरकार
ने यहाँ तक की अंग्रेजों ने भी इतनी बुद्धिमत्ता नहीं दिखाई जितनी इस पठान ने
दिखाई।
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