शेरशाह का भूराजस्व-सुधार उसकी प्रतिभा का स्थायी स्मारक है। शेर शाह ने बिहार में अपने पिता की जागीर में राजस्व प्रणाली के कामकाज को देखा था इसलिए उसे इस व्यवस्था की कमियों का ज्ञान था। अपने राज्याभिषेक पर उस प्रणाली की शुरुआत की जिसपर उसने सासाराम और खवासपुर टांडा में विस्तार से काम किया था। उसके भूराजस्व सुधार के अवयव इस प्रकार थे—
1.
खेतों
की पैमाइश
शेरशाह
ने मालगुजारी को खेतों की पैमाइश के आधार पर निर्धारित
किया। उसने अहमद खाँ के निरीक्षण में राज्य की कृषि योग्य भूमि की पैमाइश कराई। सम्भवतः
मुल्तान सूबे में पैमाइश नहीं कराई गई थी क्योंकि यह सीमावर्ती क्षेत्र था और सुरक्षा
कारणों से शेरशाह ने इस क्षेत्र को छोड़ दिया था।
2.
पैमाइश
की नई प्रणाली
शेरशाह
ने सम्पूर्ण राज्य में भूमि की पैमाइश के लिये एक ही नाप की जरीब का प्रयोग किया।
यह जरीब गज-ए-सिकन्दरी पर आधारित थी जो 32 इकाइयों की थी जरीब में 60 गज थे। एक
जरीब को बीघा (60 x 60) कहा जाता था। उसने कुशल राजस्व अधिकारियों को पुरस्कृत
करने के नियम भी बनाये।
3.
भूमि
का तीन श्रेणियों में विभाजन
शेरशाह
ने मालगुजारी के निर्धारण के लिये भूमि को तीन श्रेणियों में विभाजित किया—उत्तम, मध्यम
और निकृष्ट। इन तीनों श्रेणियों के उत्पादन का औसत निकाला गया और उसका 1/3 भाग
मालगुजारी के रूप में निश्चित कर दिया गया। इसके लिये शेरशाह ने ‘रई’ या फसल दरों
की सूची बनवायी। इसी के आधार पर विभिन्न फसलों के लिये मालगुजारी निश्चित की गई।
यह इतना महत्वपूर्ण कार्य था कि अकबर ने भी शेरशाह की ‘रई’ को स्वीकार किया था।
4.
मालगुजारी
का नकदीकरण
किसानों
को सुविधानुसार जिंस या नकद अदायगी की छूट थी हालाँकि सरकार को नकद अदायगी ज्यादा
पसंद थी। शेरशाह ने जहाँ तक सम्भव हुआ मालगुजारी को नकदी के रूप में अदा करने के
लिये कृषकों को प्रोत्साहित किया। नष्ट होने वाले उत्पाद जैसे तरकारी आदि पर
मालगुजारी केवल नकदी में ही ली जाती थी।
5.
भूमि
का पट्टा तथा कबूलियत
शेरशाह
ने कृषकों को भूमि का पट्टा दिया जिसमें भूमि का क्षेत्रफल, स्थिति, प्रकार
और मालगुजारी दर्ज रहती थी। उसने मालगुजारी की कबूलियत भी किसानों से प्राप्त की। उसका
सिद्धान्त था कि मालगुजारी निर्धारित करते समय कृषकों से उदारता का व्यवहार किया जाये
लेकिन संग्रह में उदारता न की जाये।
6.
जरीबाना
तथा महासिलाना कर
शेरशाह
ने राजस्व अधिकारियों के भ्रष्टाचार को समाप्त करने के लिये शुल्क निश्चित कर दिये।
‘जरीबाना’ अर्थात् भूमि की पैमाइश का शुल्क और ‘महासिलाना’ अर्थात् कर-संग्रहक का शुल्क
किसान को देना पड़ता था जो कुल उत्पादन का 2.5% से 5% तक होता था। कोई भी राजस्व अधिकारी इसके अलावा
किसी भी प्रकार का कोई अनुलाभ किसान से नहीं ले सकता था।
7.
खेती
की सुरक्षा
शेरशाह
ने खेती की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखा। अब्बास खाँ लिखता है कि सेना को विशेष
आदेश था कि वह खेतों को हानि न पहुँचायें। अगर कोई सैनिक खेतों को हानि पहुँचाता
था तो शेरशाह दोषी सैनिक को कठोर दण्ड देता था और कृषक की क्षतिपूर्ति की जाती थी।
8.
आपदा
के समय सुरक्षा के उपाय
शेरशाह
ने कृषकों की सुरक्षा के लिये भी कार्य किया। कुल मालगुजारी के ऊपर वह कृषकों से 2.5% अतिरिक्त
कर लेता था। इसे अनाज के रूप में ही लिया जाता था और इस अनाज को गोदामों में सुरक्षित
रखा जाता था जिससे प्राकृतिक आपदा के समय कृषकों को इससे सहायता प्रदान की जा सके।
दोष
लेकिन
इस व्यवस्था में कई दोष भी थे—औसत उत्पादन की प्रक्रिया दोषपूर्ण थी और मध्यम तथा निम्न
भूमियों पर कर-भार अधिक था। मालगुजारी के अलावा जरीबाना, ‘महासिलाना’
आदि कर देने से कृषक पर कर-भार बढ़ गया था। वार्षिक बन्दोस्त होने से कृषकों को असुविधा
होती थी। विभिन्न मण्डियों में अनाज के मूल्यों में अन्तर होने से भी कृषक को हानि
होती थी। सारी सावधानी करने के बाद भी शेरशाह राजस्व विभाग से भ्रष्टाचार को समाप्त
नहीं कर पाया। जागीरदारी प्रथा अभी भी प्रचलित थी अतः
जागीर क्षेत्रों के कृषकों को राजस्व सुधार का लाभ प्राप्त नहीं था।
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