सोमवार, 19 सितंबर 2022

सिकन्दर लोदी का राजत्व सिद्धांत

सुल्तान की शक्ति में वृद्धि करने तथा अमीरों को नियन्त्रण में लाने के लिए सिकन्दर ने कठोर नीति अपनायी। इसके लिए उसने राजत्व के स्वरूप में ही परिवर्तन कर दिया। उसका उद्देश्य सुल्तान की निरंकुश सत्ता स्थापित करना था।

1.   राजत्व को पुनः परिभाषित करना

बहलोल का पुत्र सिकन्दर जब शासक बना तो उसे नये सिरे से न केवल राजत्व परिभाषित करना पड़ा, अपितु बड़ी संख्या में अफ़गान सरदारों व अपने भाईयों के ही विरुद्ध शक्ति प्रदर्शन करके अपनी योग्यता व श्रेष्ठता प्रदर्शित करनी पड़ी। उदाहरण के लिए आलम खाँ एवं आज़म हुमायूँ को उसने पराजित किया फिर बन्धुत्व के प्रदर्शन के साथ - साथ सुल्तान की श्रेष्ठता व उदारता भाव के चलते क्षमा कर के उनके क्षेत्र उन्हें वापस लौटा दिये। अपने एक अन्य भाई बारबक को अधीनता स्वीकार करने का प्रस्ताव भेजा। संदेश सुस्पष्ट था, दिल्ली का सुल्तान वह है, बारबक उसके अधीन जौनपुर के शासक के ही रूप में रह सकता था। किन्तु बारबक की अफ़गान प्रवृत्तियों को यह स्वीकार नहीं था, अतः उसे युद्धों में पराजित करके आत्मसमर्पण के लिए बाध्य किया गया। किन्तु, बन्धुत्व के भाव का प्रदर्शन करते हुए सुल्तान ने इस भाई को क्षमा दान के साथ-साथ जौनपुर के गवर्नर के रूप में वहाँ उसे पुनर्स्थापित भी किया।

2.  बंधुत्व की जगह राजत्व को तरज़ीह

सिकन्दर की स्पष्ट मान्यता थी, कि राजत्व और बन्धुत्व में चुनाव का प्रश्न हो तो स्पष्टतः राजत्व का चुवाव करना चाहिए। बहलोल ने राजत्व को बन्धुत्व का एक आवरण प्रदान किया था, किन्तु सिकन्दर बन्धुत्व की अफ़गान भावनाओं को एक सीमा तक तुष्ट करने के उपकरण के ही रूप में प्रयोग किया, ताकि राज्य की स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़े। शेष उसने कभी बन्धुत्व को राजत्व के दैवीय स्वरूप को सीमित नहीं करने दिया। उसके पिता व पूर्ववर्ती शासक के काल में अड़तीस वर्षीय शान्ति से राज्य सुदृढ़, स्थायित्त्वपूर्ण एवं अनुशासित हो चुका था। अतः उसके लिए अब अग्रिम कार्यवाही स्वाभाविक थी।

3.  सुल्तान के पद की महिमा एवं प्रतिष्ठा

अन्ततः उसने सुल्तान के पद की महिमा एवं प्रतिष्ठा का स्तर बढ़ाने के लिए अफ़गान अमीरों को सुल्तान की श्रेष्ठ स्थिति स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। हालाँकि, वह अफ़गानी जनतांत्रिक परम्पराओं में आसक्त होने की अभिव्यक्ति ही करता रहा। सिकन्दर लोदी ने अपने पिता का अनुसरण न करते हुए सिंहासन पर बैठना शुरू किया। अतः उसने सुस्पष्ट किया कि वह सुल्तान है न कि समान कबीलाई सदस्यों में योग्यता के आधार पर निर्वाचित सरदार अथवा जनजातीय नेता। अतः आसन या सिंहासन पर उसका एकाधिकार था, उसमें किसी का भागीदारी का अधिकार नहीं था।

4.  राजकीय फरमानों के लिए नियम

उसने दिल्ली के तुर्क सुल्तानों की भाँति अपने अमीरों, प्रांतपतियों व अन्य राज्याधिकारियों के लिए एक सामान्य नियम बना दिया कि राजकीय फ़रमानों का कैसे स्वागत के साथ स्वीकार किया जाये। प्रत्येक अमीर को, जिसको फ़रमान प्रेषित किया गया है, अपने नियत नियुक्ति स्थान से छह मील आगे चलकर पूरी श्रद्धा व सम्मान के साथ फ़रमान माथे पर लगाकर स्वीकार करना अनिवार्य था।

5.  अमीरों के लिए अनुशासन

अमीरों को प्रशासन की कड़ाई से यह आभास कराया जाता था कि वे सुल्तान के सेवक हैं न कि समान अधिकारों वाले अमीर, जिनके पद व अधिकार, नियुक्ति, स्थानान्तरण एवं अपदस्थ किया जाना पूर्णतया सुल्तान की इच्छा पर निर्भर था। जागीरदारों एवं विभागाध्यक्षों को नियमित 'दिवाने विज़ारत' में लेखा-विवरण प्रेषित करना पड़ता था। भ्रष्टाचार, कुप्रबन्धन, दुर्व्यवहार व रिश्वतखोरी आदि के प्रकरणों में कोई उदारता नहीं प्रदर्शित की जाती थी। कठोर अनुशासनबद्धता शासन का आदर्श वाक्य हो गया था।

6.  गुप्तचर व्यवस्था

उमरा या अमीर वर्ग को नियंत्रित करने की निश्चित नियत से उसने बलबन की भाँति गुप्तचर व्यवस्था स्थापित की एवं राज्य की समस्त सूचनाओं को एकत्रित करने पर बल दिया। अपनी सूचनाओं के आधार पर वह अमीरों को आश्चर्यचकित करके बलबन की भाँति यही प्रमाणित करना चाहता था कि सुल्तान के पास अल्लाह की छाया व प्रतिनिधि होने के कारण असीम अलौकिक शक्तियाँ होती हैं। अतः राजत्व के दैवीय स्वरूप को, वह भी बलबन की गुप्तचरी का अनुसरण करके पुनर्स्थापित करना चाहता था।

7.  निष्पक्ष न्याय

बलबन की ही भाँति उसने निष्पक्ष न्याय प्रदान करना सुल्तान का पुनीत कर्तव्य माना। वह बलबन के समान ही सैन्य बल का महत्व समझता था। उसने भी केन्द्रीय सेना गठित की एवं उनके कल्याण के प्रति सजग रहा। वह जनता को न्याय व व्यवस्था, सुरक्षा एवं संरक्षण देने में सफल रहा। वह प्रजापालक सुल्तान के रूप में प्रतिष्ठित होकर यही साबित करने का इच्छुक रहता था कि जिस प्रकार ईश्वर जीवों को संरक्षण प्रदान करता है, उसी प्रकार राजा को भी उसके प्रतिनिधि के रूप में इन्हीं दायित्त्वों का निर्वहन करना पड़ता है

इस प्रकार जहाँ तक सम्भव हो सका उसने अफगान अमीरों की भावनाओं का सम्मान किया लेकिन साम्राज्य की सुरक्षा के लिए उन्हें इतना नियन्त्रण में रखा जितना आवश्यक था। अपने राजत्व सिद्धांत में बदलाव से उसने अमीरों के प्रति कठोर नीति का विवेक पूर्ण रूप से प्रयोग किया और उन्हें अनुशासन में लाने में सफलता प्राप्त की लेकिन सत्ता के कमजोर होते ही उसके उत्तराधिकारी के समय अमीरों की नाराज़गी दृष्टिगोचर होने लगी जो जो बाबर के लिए सहायक सिद्ध हुई।

कोई टिप्पणी नहीं:

व्यावसायिक क्रांति का महत्त्व

व्यावसायिक क्रांति, जो 11वीं से 18वीं शताब्दी तक फैली थी, यूरोप और पूरी दुनिया के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदलने में अत्यंत म...