गुरुवार, 21 दिसंबर 2023

अकबर की दक्कन नीति


जटिल राजनीतिक परिवेश में अकबर ने अपने राज्य को अखिल भारतीय राज्य के रूप में परिवर्तित करने का स्वप्न देखा। अकबर पहला मुगल शासक था जिसने दिल्ली सल्तनत के शासक अलाउद्दीन खिलजी की भांति दक्षिण विजय का स्वप्न देखा। अकबर का जिस युग में जन्म हुआ था वह साम्राज्यवाद का युग था जिसमें किसी राज्य की कोई आखिरी सीमा नहीं हो सकती थी। नए राज्य क्षेत्र की संभावना पर सैन्य तंत्र एवं राज्य तंत्र की धुरी टिकी हुई थी। उत्तर भारत के पश्चात दक्षिण के राज्य निश्चय ही अकबर के लिए नए रण क्षेत्र थे जो उसके राज्य की सीमाओं को विस्तार देने के साथ-साथ उसके यश में वृद्धि कर सकते थे।

                    दक्कन विजय का कारण/उद्देश्य

1. उत्तर का मॉडल दक्षिण में: अबुल फजल

“बुद्धिमान और न्यायी लोग जो युग की प्रवृत्ति को समझते हैं, ने कहा है कि यह सब विश्व जो महान आत्माओं के ध्यान न देने के कारण विभाजित हो गया है, अगर कुशल और बहुमुखी योग्यता के न्याय-परायण शासक के अंतर्गत होता तो निश्चित रूप से मतभेदों की धूल बैठ जाती और मानव सुख पाते। इसलिए हमारे युग के भाग्य का पुजारी अकबर अनवरत रूप से दूसरे देशों की विजय में लगा है’’।

2. दक्षिण में नस्ली तथा सांप्रदायिक हिंसा

दक्षिण के राज्यों में इन दिनों शिया सुन्नी तथा महदवी लोग एक दूसरे को उन्मूलित करने का प्रयास कर रहे थे। दक्षिण भारत के मुसलमान की धार्मिक कट्टरता अंततः इस्लाम का नुकसान कर रही थी । इसलिए अकबर दक्षिण भारत पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन करना चाहता था।

3. साम्राज्यवादी नीति: ईश्वरी प्रसाद/ आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव

ईश्वरी प्रसाद - मौर्य, गुप्त, खिलजियों की तरह प्रसार वादी

आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव का मत है कि यद्यपि विश्व सरकार का मत 20वीं सदी की देन है परंतु अकबर ने 16वीं शताब्दी में ही अर्थात चार शताब्दी पूर्वी इसे अपने राजनीतिक आदर्शवाद का अंग बना लिया था। 16वीं शताब्दी में विश्व सरकार से तात्पर्य संपूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के एकीकरण से था। यह प्रथम सम्राट था जिसने संपूर्ण भारत को एक छत्र के नीचे लाने का स्वप्न देखा और आजीवन व इसके लिए प्रयत्नशील रहा।

4. आर्थिक हित : शीरी मूसवी

मुगल शासक दक्षिण की ओर अपनी इच्छा अथवा अनिच्छा से नहीं गए बल्कि मुगल वर्ग की संरचना ही ऐसी थी की शाही संसाधनों एवं राजकोष में वृद्धि आवश्यक थी जिसने मुगलों को उस ओर दक्षिण में बढ़ने पर विवश कर दिया। दक्षिण के राज्यों खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुंडा के ऊपर लगाए गए कर एवं संधियों से उगाहे धन एवं बहुमूल्य रत्न ने मुगल राजकोष में वृद्धि की।

5. पुर्तगालियों से निपटना : आर पी त्रिपाठी विंसेंट स्मिथ

विंसेंट आर्थर स्मिथ का मानना था कि अकबर के दक्षिणी राज्यों से संबंध व प्रसार का मूल कारण पश्चिमी समुद्र तट पर पुर्तगालियों के वर्चस्व एवं गुजरात प्रांत के बंदरगाह दमन एवं दीव पर उनका नियंत्रण था। स्मिथ के अनुसार यद्यपि अकबर ने प्रत्यक्ष रूप से दरबार में ईसाई पादरियों का स्वागत किया लेकिन वह परोक्ष रूप से पुर्तगालियो को भारत की पश्चिमी सीमा से बाहर निकलना चाहता था पुर्तगालियों का व्यवहार जिसमें धूर्तता पाखंड और अनैतिकता का समावेश था साथ ही इनके द्वारा स्थानीय निवासियों पर धर्म परिवर्तन का भी दबाव डाला जाता था। कर्ताज़ जारी करते थे।

4. गुजरात के विद्रोहियों का ठिकाना

 

7. जटिल सामाजिक आर्थिक राजनीतिक कारक : सतीस चंद्र

मुगल सम्राट् अकबर का दक्षिण के राज्यों खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर, गोलकुण्डा, बरार एवं बीदर के साथ संपर्कों एवं सम्बन्धों का अवलोकन करने पर अकबर की दक्षिण नीति के चार चरणों में विभाजित किया जा सकता है।

              प्रथम चरण 1556-1576 ई० तक : तटस्थता की नीति

इस समय मुगल सम्राट् का अभी उत्तर भारत पर पूर्णरूप से आधिपत्य स्थापित नहीं हुआ था इसलिए वह दक्षिण के सुल्तानों की गतिविधियों पर विशेष ध्यान नहीं देते हुए तटस्थता की नीति का पालन करता रहा।

इस अवधि में मालवा के सुल्तान बाज बहादुर को खानदेश और बरार के सुल्तानों ने न केवल मुगल सम्राट् के विरूद्ध अपने राज्य में शरण दी अपितु उसकी सहायता कर पुनः उसे मालवा का राज्य प्रदान करवाया।

इसके अतिरिक्त अहमदनगर के सुल्तान मुर्तजा निजामशाह ने 15740 में बरार अधिकृत कर लिया यद्यपि मुगल सम्राट् अकबर ने मुर्तजा निजामशाह को बरार छोड़ देने की आज्ञा दी थी लेकिन मुर्तजा निजामशाह ने इसकी उपेक्षा की और बरार को अहमदनगर में सम्मिलित कर लिया।

मुगल सम्राट् अकबर ने दक्षिण के सुल्तानों के उपर्युक्त मुगल विरोधी आचरण पर किसी प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की बल्कि शान्त भाव से तटस्थ रहते हुए अपना ध्यान उत्तर भारत में अपनी अन्य समस्याओं को सुलझाने में लगाये रखा। इसके अतिरिक्त उसने दक्षिण के सुल्तानों व राज्यों के साथ अपने सम्बन्ध को भविष्य पर छोड़ दिया।

                द्वितीय चरण 1576-1584 ई0 तक: अवलोकन की नीति

इस काल में मुगल सम्राट् अकबर का दक्षिण भारत के राज्यों खानदेश, बीजापुर, अहमदनगर एवं गोलकुण्डा के सुल्तानों से मात्र औपचारिक स्तर का ही संबंध बना रहा।

मुगल दूत समय-समय पर दक्षिण के सुल्तानों के दरबार में गए और शिष्टतावश दक्षिण के सुल्तानों ने भी मुगल सम्राट् अकबर के दरबार में अपने दूत एवं उपहार भेजे।

यद्यपि इस अवधि में अपवाद स्वरूप 1576 ई० में खानदेश के विरूद्ध मुगल सैन्य अभियान किया गया था लेकिन शीघ्र ही मुगल साम्राज्य और खानदेश के मध्य सन्धि स्थापित हो गई। इस सन्धि द्वारा मुगल पक्ष को ही अधिक लाभ हुआ।

खानदेश का सुल्तान (राजा अली खाँ) आजीवन मुगल साम्राज्य का मित्र बन गया।

1576 से 15840 तक मुगल सम्राट् अकबर औपचारिक रूप से दक्षिण के सुल्तानों के साथ राजनयिक स्तर पर दूतों एवं भेटों के आदान-प्रदान से ही संतुष्ट दिखाई पड़ता है।

             तृतीय चरण 1584-1591 ई0 तक: आंशिक हस्तक्षेप की नीति

इन सात वर्षों में मुगल सम्राट् ने दक्षिण भारत के सुल्तानों के साथ अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नीति का पालन किया। वस्तुतः दक्षिण के राज्यों खानदेश, अहमदनगर, बीजापुर एवं गोलकुण्डा के साथ मुगल सम्राट का सम्बन्ध इस अवधि में अहमदनगर राज्य के साथ उसके सम्बन्ध तक ही सिमट कर रह गया। मुगल सम्राट् का पूरा ध्यान अहमदनगर की गतिविधियों पर लगा रहा।

इस अवधि में एक ओर मुगल सम्राट् अकबर बुरहान निजामशाह के माध्यम से अप्रत्यक्ष रूप से अहमदनगर पर मुगल नियंत्रण स्थापित करना चाहता था। वहीं बुरहान निजामशाह मुगल सम्राट् के अप्रत्यक्ष सहयोग से अहमदनगर की सत्ता प्राप्त कर सका।

लेकिन इसके बाद उसने मुगल सम्राट् अकबर की सम्प्रभुता स्वीकार नहीं करते हुए स्वतंत्र आचरण करने लगा। मुगल सम्राट् अकबर को बुरहान निजामशाह का यह व्यवहार पसन्द नहीं था।

दूसरे अकबर उत्तर भारत की समस्याओं को सुलझा चुका था। अतः उसने दक्षिण भारत की सल्तनतों के साथ अपने सम्बन्धों को पुर्नस्थापित किया। इस चरण में मुगल सम्राट् ने दक्षिण की सल्तनतों के साथ अप्रत्यक्ष हस्तक्षेप ही किया।

                    चतुर्थ चरण 1591-1605 ई0 तक: प्रत्यक्ष हस्तक्षेप की नीति

1591 में चारों दक्कनी शासकों को अधीनस्थता के सन्देश के साथ मिशन भेजे गये।

खानदेश- फैजी

खानदेश के शासक राजा अली ने मुगल-आधिपत्य स्वीकार कर लिया और अपनी बेटी को विवाह के लिए भेज दिया।

अहमदनगर- ख्वाजा अमीनुद्दीन

वास्तव में, बुरहान निज़ाम शाह ने असभ्यता का व्यवहार किया : उसने कोई उपहार नहीं भेजा, बल्कि मुगल दूत को बेइज्जत भी किया। क्योंकि वह जानता था कि अकबर उत्तर-पश्चिम में इतना व्यस्त है कि उसके ख़िलाफ़ कोई कड़ी कार्रवाई नहीं कर सकता।

बीजापुर-मीर मोहम्मद मसूदी

गोलकुंडा- मिर्जा मसूदी

अन्य मिशन उपहार और सद्भावना पत्र लेकर वापस आ गए।

1591 में अकबर की कूटनीतिक विफलता ने दक्कन में अधिक सक्रिय हस्तक्षेप शुरुआत की ।

             अकबर द्वारा उपयुक्त समय की तलाश और दक्कन में आपसी संघर्ष

1595 में, बुरहान निज़ाम शाह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र इब्राहिम उसका उत्तराधिकारी बना। इब्राहिम निज़ाम शाह ने शोलापुर को लेकर बीजापुर के साथ युद्ध फिर से शुरू कर दिया, लेकिन वह हार गया और युद्ध में अपनी जान गंवा दी।

अब सिंहासन के लिए विभिन्न दावेदार उभरे: मियां मंजू, जो पेशवा था और दक्कनी पार्टी का नेता भी था, ने अपना उम्मीदवार खड़ा किया, हालांकि वह एक नकली दावेदार था, क्योंकि वह निज़ाम शाही वंश से संबंधित नहीं था।

बुरहान निज़ाम शाह की बहन चाँद बीबी, जिनकी शादी 1564 में आदिल शाही शासक से हुई थी, ने हब्शी पार्टी द्वारा समर्थित, दिवंगत राजा इब्राहिम निज़ाम शाह के नवजात पुत्र बहादुर के दावे का समर्थन किया।

अब दक्कनी पार्टी के नेता मियां मंजू ने मुगलों से मदद की अपील की। अकबर पहले से ही दक्कन पर आक्रमण के लिए तैयार बैठा था।

                      अहमदनगर की प्रथम घेराबंदी

कूटनीति- खानदेश का शासक राजा अली मुगलों से मिल गया।

अभियान- अभियान का नेतृत्व अब्दुल रहीम खान-ए-खाना ने किया था। निज़ाम शाही सरदारों के बीच आंतरिक मतभेदों के कारण मुगलों को अहमदनगर पहुँचने तक किसी विरोध का सामना नहीं करना पड़ा

विश्वासघात, पछतावा और देशभक्ति-  मियां मंजू को अपने पर खेद हुआ कि उसने मुगलों को आमंत्रित किया था, और उसने अब तय किया कि अब वह चांद बीबी का साथ देगा। चांद बीबी ने बीजापुर और गोलकुंडा से भी मदद की अपील की।

युद्ध- सात हजार की बीजापुरी सेना के आगमन ने चांद बीबी को हौसला दिया तथा वह पूरी बहादुरी से अपनी रक्षा में जुट गई, हालाँकि चार महीने की घेराबंदी के बाद हार कर चांद बीबी को एक समझौते के लिए मजबूर होना पड़ा।

संधि-

1.  बरार मुगलों को सौंप दिया गया।

2. शिशु, बहादुर निज़ाम शाह को को शासक तथा चाँद बीबी को उसका संरक्षक स्वीकार कर लिया गया।

3. मुगल आधिपत्य स्वीकार कर लिया गया।

समझौते का कारण-

सीमा पर बीजापुर-गोलकुंडा की मजबूत सेना की मडराने के कारण मुगलों ने इस समझौते को स्वीकार कर लिया। अत: कोई भी पक्ष इस समझौते से संतुष्ट नहीं था।

                        अहमदनगर की दूसरी घेराबंदी

कारण

1. मुगल बालाघाट को पाने के इच्छुक थे जो गुजरात और अहमदनगर के बीच विवाद का कारण था।

2. अहमदनगर के एक समूह ने बरार को मुगलों को सौंपने का विरोध किया।

3. वकील और पेशवा मुहम्मद खान के नेतृत्व में एक अन्य समूह ने मुगलों के साथ बातचीत शुरू की।

4. चांद बीबी ने बीजापुर और गोलकुंडा के शासकों को उनकी मदद के लिए तत्काल अतिरिक्त सेना भेजने के लिए संदेश भेजा।

5. बीजापुर और गोलकुंडा के शासकों ने भी अहमदनगर की मदद की सोची क्योंकि उनको लग रहा था कि अगर बरार मुगलों के हाथ लग गया तो उनके पैर दक्कन में जम जायेंगे।

युद्ध-

इसलिए, बीजापुर के कमांडर सुहैल खान के नेतृत्व में बीजापुर, गोलकुंडा और अहमदनगर की एक संयुक्त सेना ने बड़ी संख्या में बरार में प्रवेश किया।

नतीजा- हार

1597 में सोनीपत में एक भीषण युद्ध में मुगलों ने अपने से तीन गुना अधिक दक्कनी सेना को हरा दिया।

बुरे वक्त में छोड़ा साथ-

बीजापुरी और गोलकुंडा सेनाएँ अब पीछे हट गईं, और चाँद बीबी को स्थिति का सामना करने के लिए अकेला छोड़ दिया गया।

समर्पण, समझौता और हत्या-

हालाँकि चांद बीबी 1596 की संधि का पालन करने के पक्ष में थीं, लेकिन वह बरार में अपने सरदारों द्वारा मुगलों पर किए जा रहे हमलों को नहीं रोक सकीं।

इसके परिणामस्वरूप अहमदनगर की एक और मुगल घेराबंदी हुई। किसी भी तरफ से मदद के अभाव में, चांद बीबी ने किले का समर्पण करने का फैसला किया। मुगलों के साथ बातचीत शुरू की जिसकी प्रमुख शर्तें थी - बहादुर को एक अधीनस्थ शासक के रूप में मान्यता और खुद को उसका संरक्षक बनाया जाए, बहादुर को मनसब और अहमदनगर  में एक जागीर दी जाए।

हालाँकि, उसके विरोधी गुट द्वारा उस पर विश्वासघात का आरोप लगाया गया और उसकी हत्या कर दी गई। इस प्रकार, दक्कनी राजनीति में सबसे रोमांटिक शख्सियतों में से एक का जीवन समाप्त हो गया।

मुगलों को क्या मिला- मुगलों ने अब अहमदनगर पर आक्रमण कर कब्जा कर लिया। बालक राजा बहादुर को ग्वालियर के किले में भेज दिया गया

अहमदनगर किला और उसके आस-पास के क्षेत्र मुगलों को सौंप दिये गये। बालाघाट सहित. दौलताबाद जिस पर पहले मुगलों ने दावा किया था, उसे भी साम्राज्य में शामिल कर लिया गया और अहमदनगर में एक मुगल सेना तैनात कर दी गई। यह 1600 की बात है।

                        खानदेश

कारण

1. 1600 में, अकबर मौके पर स्थिति का अध्ययन करने के लिए मालवा और फिर खानदेश की ओर बढ़ा था। खानदेश में उसे पता चला कि जब राजकुमार दानियाल अहमदनगर के रास्ते में इस क्षेत्र से गुजर रहा था तो खानदेश के नए शासक मिरान ने राजकुमार के प्रति उचित सम्मान नहीं दिखाया।

2. इससे भी बुरी बात यह थी कि बार-बार बुलाए जाने के बावजूद वह अकबर के सामने पेश नहीं हुआ।

3. हालाँकि कार्रवाई करने का मुख्य कारक असीरगढ़ के किले को अपने कब्जे में करने की उसकी इच्छा थी, जो दक्कन में सबसे मजबूत किले के रूप में प्रतिष्ठित था।

4. वह खानदेश पर कब्ज़ा करने का भी इच्छुक था, जिसकी राजधानी बुरहानपुर थी, जिसे दक्कन का प्रवेश द्वार कहा जाता था।

5. आगरा से सूरत तक का मार्ग बुरहानपुर से होकर गुजरता था।

                   असीरगढ़ की घेराबंदी (फरवरी 1600-6 जनवरी 1601)

अभियान का नेतृत्व

राजधानी बुरहानपुर पहुँच कर अकबर ने फरवरी 1600 के अंत में असीरगढ़ के किले को घेरने का हुक्म दिया। यह घेराबंदी खान-ए-आज़म आसफ खान, मुर्तजा खान एवं थट्टा के जानी बेग के संयुक्त नेतृत्व में की गई; जल्द ही अबुल फजल भी उसमें सम्मिलित हो गया। ऐसा कहा जाता है कि अपने जीवन में अकबर ने जितने भी किले जीते उनमें असीरगढ़ सर्वाधिक दुर्दम्य साबित हुआ।

किले की स्थिति

अबुल फजल के अनुसार, "ऐसा कोई दूसरा किला नहीं है जिसमें इतने प्रचुर संग्रह, इतने संख्या में बंदूक, इतने रक्षक और रक्षा-सामग्री हों। खास बात तो यह है कि महामहिम के पास घेराबंदी के लिए साधन न होने के बावजूद उन्होंने ऐसा कर दिया। "

अकबर का नेतृत्व

घेराबंदी महीनों तक बनी रही। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि इस कार्रवाई की बागडोर अपने हाथों में लेने के लिए अकबर विवश हो गया। असीरगढ़ में ही अकबर को यह सूचना मिली की अगस्त में अहमदनगर पर फतेह हो गयी; और मुगलों ने इस जीत की खुशी को नगाड़ा पीटकर और आसमान को फाड़ देने वाले चिंग्घाड़ों से व्यक्त किया ताकि घिरी सेना घबड़ा उठे।

धोखा और छल

यह जानकार कि असीरगढ़ का किला लगभग अजेय है अकबर ने अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए रिश्वत और कपट का सहारा लिया। मिरान बहादुर के सेना-नायकों और दूतों को रिश्वत दी गई। और अभयपत्र के आश्वासन पर उस मुगल शहंशाह से वार्ता करने के लिए किले से बाहर आने को प्रेरित किया गया। लेकिन मुगल शिविर में मिरान बहादुर को रोक लिया गया और उसके एक ऐसे पत्र पर दस्तखत करने को मजबूर किया गया जिसका अभिप्राय घिरी हुई सेना को आदेश देना था कि वह मुगलों के हाथों में किलो सौंप दे। किले के हब्शी सेनापति के पुत्र मुकर्रब खान, जो मुगल शिविर में एक दूत के रूप में आया था, की अकारण हत्या कर दी गई। इन सबके बावजूद घिरी सेना ने दो सप्ताहों तक

प्रतिरोध किया और तब कहीं जाकर 6 जनवरी, 1601 को हथियार डालने के लिए सहमत हुई। अकबर की यह अंतिम विजय थी जो अनुचित तरीके से प्राप्त की गई थी।

परिणाम

खानदेश को मुगल साम्राज्य में मिला लिया गया और मिरान बहादुर को कैद कर ग्वालियर के किले में भेज दिया गया; एक विशेष अनुग्रह के रूप में उसके परिवार को किले में उसके साथ रहने की इजाज़त मिल गई। शहजादे दनियाल को मालवा और गुजरात का सूबेदार नियुक्त किया गया और दक्कन के सारे मुगल भूभाग (खानदेश समेत) को उसके नाम पर दानदेश की संज्ञा दी गई।

अकबर 1 अगस्त, 1601 को फतेहपुर सीकरी लौटा जहां उसने असीरगढ़ पर अपनी विजय को यादगार बनाने के लिए प्रसिद्ध बुलंद दरवाजा के निर्माण का आदेश दिया।

मूल्यांकन

आरपी त्रिपाठी के अनुसार अकबर की दक्षिण नीति में हमें एक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षी विजय की लालसा नहीं बल्कि उसमें हमें एक महान सम्राट की प्रबुद्ध नीति की झलक मिलती है।

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