सोमवार, 22 अप्रैल 2024

प्रार्थना-समाज

सन् 1864 ई. में केशवचन्द्र सेन बम्बई गए और वहाँ उन्होंने ब्राह्म-समाज की शाखा खोलनी चाही। उनके प्रभाव से बम्बई में 1867 में प्रार्थना-समाज की स्थापना की गई ।

इसके संस्थापक अध्यक्ष आत्माराम पांडुरंग थे, पर उसके पीछे वास्तविक प्रेरणा महादेव गोविन्द रानाडे की थी ।

सभी धर्मों के बीच एकता बिठाने का जो प्रयास बंगाल के ब्राह्म-समाजी करते थे, कुछ वैसा ही ध्येय प्रार्थना-समाजियों का भी था।

प्रार्थना-समाज की भी प्रार्थनाओं में मन्त्र, वेद, उपनिषद्, कुरान, जेन्दावेस्ता और बाइबिल, सभी धर्म-ग्रन्थों से लिये जाते थे और समाज के सदस्य सभी धर्मों पर एक समान श्रद्धा रखते थे

इनके प्रमुख नेता एम. जी. रानाडे, आर जी भंडारकर तथा एन जी चंदावरकर थे।

रानाडे ने 1884 में दक्कन एजुकेशनल सोसाइटी तथा 1891 में विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना की।

प्रार्थना समाज ने सुबोध पत्रिका नामक एक समाचार पत्र प्रकाशित किया  तथा दलित उद्धार मिशन की भी स्थापना की।

मजदूर वर्ग को शिक्षित करने के लिए एक रात्रि विद्यालय खोला गया।

एक प्रतिभाशाली मराठी महिला पंडिता रमा बाई ने आर्य महिला समाज की स्थापना में योगदान दिया ।

प्रार्थना समाज का उद्देश्य-

1.       जाति-प्रथा का विरोध

2.       विधवा-विवाह का समर्थन

3.       स्त्री-शिक्षा का प्रचार

4.       बाल-विवाह का अवरोध

सावधानी – अतीत से नाता न तोडा जाए और हमारे समाज से सारे सम्बन्ध भंग न हों

महादेव गोविन्द रानाडे

उपलब्धियां - जिस प्रकार बंगाल में हिन्दू-नवोत्थान के पहले नेता राजा राममोहन राय हुए, उसी प्रकार, महाराष्ट्र में इस आन्दोलन का श्रीगणेश महादेव गोविन्द रानाडे ने किया। बौद्धिक ऊँचाई में रानाडे, प्राय: राममोहन राय के समकक्ष थे।

रानाडे चितपावन ब्राह्मण थे। उनका जन्म सन् 1842 ई. में नासिक जिले में हुआ था। वे साहित्य, राजनीति और अर्थशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। वे सरकारी नौकरी में थे एवं, अन्त में, वे हाईकोर्ट के जज भी हुए थे।

उनके हाथों अनेक संस्थाओं का जन्म हुआ। पूने में तो उन्होंने इतनी संस्थाएँ खोलीं कि पूना सार्वजनिक कार्यकर्ताओं का तीर्थ ही हो गया।

ईसाइयत और यूरोपीय विचारों के आक्रमणों से बचने के लिए हिन्दुत्व ने जैसे बंगाल में राममोहन राय को उत्पन्न किया था, वैसे ही, महाराष्ट्र में उसने रानाडे को जन्म दिया और राममोहन राय के समान ही, रानाडे भी यूरोप का जवाब यूरोप के साधनों से देना चाहते थे।

कमियां - वे उत्कट सुधारवादी थे एवं रूढ़ियों को मिटाकर वे हिन्दुत्व का निर्मल रूप प्रस्तुत करना चाहते थे। किन्तु, उनका समय सुधारों के केवल जन्म का समय था एवं हिन्दू-कट्‌टरता सुधारकों से उस समय दबने को तैयार नहीं थी।

कुछ वह दुर्भाग्य भी उनके साथ रहा, जिसने बंगाल में केशवचन्द्र का पीछा किया था। बात यह हुई कि रानाडे की पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया और दूसरा विवाह उन्होंने विधवा से नहीं करके एक ग्यारह साल की कुमारी बालिका से किया।

कहते हैं, यह विवाह उन्हें अपनी इच्छा और भावना के विरुद्ध, अपने पिता के दुराग्रह के कारण करना पड़ा था। किन्तु, दंड इसका उन्हें भोगना पड़ा और आजीवन वे आलोचकों के ताने नीरव होकर सुनते रहे।

तिलक का विरोध

यह भी इतिहास का व्यंग्य ही था कि रानाडे जिन सुधारों को समाज में लाना चाहते थे, उनका विरोध लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को करना पड़ा। जीवन-भर रानाडे और तिलक दो विरोधी शिविरों में विभक्त रहे और जीवन-भर रानाडे पर तिलक के बाण बरसते रहे।

1.       ‘एज ऑफ कान्सेंट बिल’

सन् 1891 ई. में जब ‘एज ऑफ कान्सेंट बिल’ इम्पीरियल काउंसिल में पेश हुआ, तब उनका तीव्र विरोध तिलक ने किया था। ऐसा लगता है कि तिलकजी अपने समकालीन अन्य सुधारकों से कुछ अधिक व्यावहारिक और कालज्ञ थे। उन्नीसवीं सदी की हिन्दू-जनता भयानक रूप से कट्‌टर थी। वह जात-पाँत और छुआछूत के मामलों में अत्यन्त सतर्क रहती थी और किसी को भी थोड़ी-सी भी छूट देने को तैयार नहीं थी।

2.       शारदा-सदन

दूसरी घटना शारदा-सदन नामक संस्था को लेकर घटी। यह संस्था पंडिता रामा बाई की कायम की हुई थी। पंडिता रामा बाई ब्राह्मणी थीं एवं संस्कृत विद्या पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने एक अब्राह्मण से विवाह कर लिया था, और अमेरिका से वे ईसाई बनकर वापस आईं। शारदा-सदन उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए खोला था। किन्तु, उनके उग्र विचारों और आचरणों के कारण बहुत-से लोग उनके खिलाफ हो गए। रानाडे और आगरकर मानते थे कि हिन्दू बालिकाएँ शारदा-सदन में पढ़ें, इसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु, तिलकजी का कहना था कि यह संस्था हिन्दू बालिकाओं को ईसाइयत की राह पर ले जानेवाली है। अतएव, इसका बहिष्कार होना चाहिए।

तिलक का प्रभाव

उस पर, सन् 1893-94 ई. में बम्बई और पूने में जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, उन्होंने परिस्थिति को और भी बिगाड़ दिया। इन्हीं दंगों के बाद तिलकजी ने महाराष्ट्र में गणेश-पूजा और शिवाजी-महोत्सव का प्रवर्तन किया, जिससे हिन्दू-राष्ट्रीयता के भाव जोर से लहरा उठे। अतीतोन्मुखी भावनाओं की इस बाढ़ के सामने सुधारकों के पाँव उखड़ गए और महाराष्ट्र का नेतृत्व तिलकजी के हाथ में चला गया।

श्री डी.एस. शर्मा ने कहा है कि जब तिलक जी का दाय गांधीजी को मिला, तब एक प्रकार से, राष्ट्रीयता के धनुष का भार परशुराम से छूटकर राम के हाथों में आया था।

प्रार्थना-समाज का महत्त्व

1.       रानाडे, यद्यपि, राजनीति में नहीं उतरे, किन्तु, सांस्कृतिक धरातल पर उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारत की राष्ट्रीयता को यथेष्ट उत्तेजना मिली।

2.       प्रार्थना-समाज जाति-प्रथा का विरोधी था, जन्मना एक मनुष्य को उत्तम और दूसरे को अधम मानने की प्रथा को वह तोड़ना चाहता था एवं स्त्री-शिक्षा तथा नर-नारी की समानता का वह पोषण करना चाहता था।

3.       इस समाज के लोग निराकारवादी थे, यह ठीक है; किन्तु, मूर्ति-पूजा एवं परम्परागत अनुष्ठानों के त्याग की शर्त इस समाज में नहीं थी, जैसी अनेक शर्तें बंगाल में ब्राह्म-समाजियों ने लगा रखी थीं।

4.       ब्राह्म-समाजी बंगाल में केवल धनी-विद्वान् वर्गों के ही लोग हुए थे, किन्तु, रानाडे चाहते थे कि प्रार्थना-समाज में अशिक्षित जनता का भी प्रवेश हो, यद्यपि उनका यह अरमान कभी पूरा नहीं हुआ।

5.       मध्यकालीन महाराष्ट्र में भक्ति का जो आन्दोलन उठा था, उसी के समान रानाडे प्रार्थना-समाज को भी सर्वत्र ले जाना चाहते थे और इसमें कोई दोष भी नहीं था। ज्ञानदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास और जनार्दन पन्त, ये सन्त बहुत उदार रहे थे। उन्होंने मनुष्य की समानता को प्रश्रय दिया था।

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