तात्पर्य
जब इस्लामी जनता
मूल-धर्म से अलग हटकर रूढ़ियों और अन्धविश्वासों में जकड़ी जा रही थी, ठीक उसी समय, इस्लाम का प्राचीन तेज बाहर निकला और
इस्लाम के जन्म-स्थान, अरब के रेगिस्तान में, एक धार्मिक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ जिससे रूढ़ियों और कुरीतियों को झाड़ गिराने
में इस्लाम को बहुत बड़ी सहायता मिली। इतिहास में यह आन्दोलन वहाबी आन्दोलन के नाम
से विख्यात है।
कब और
किसने
वहाबी आन्दोलन के
प्रवर्तक मुहम्मद इब्न-अब्दुल वहाब थे जिनका जन्म सन् 1700 ई. के करीब अरब-देश के नज्द प्रान्त में हुआ था।
कहाँ
स्टोडार्ड ने लिखा है
कि इस्लाम के इस विश्वव्यापी पतन के काल में भी, नज्द
ही ऐसा प्रान्त था जहाँ लोग पूर्ण रूप से पतित नहीं हुए थे तथा जहाँ अब भी धर्म का
दीपक झिलमिला रहा था।
कैसे
1.
मौलिक इस्लाम पर जोर
अब्दुल वहाब बचपन से ही
विचारशील थे। उन्होंने बचपन में ही हज की यात्रा की थी तथा मदीने में काफी साल
रहकर उन्होंने इस्लाम के मौलिक साहित्य का अध्ययन भी किया था। इस्लाम का गम्भीर
अध्ययन करते-करते उनका ध्यान तत्कालीन इस्लाम के पतन पर गया और रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के विरुद्ध उनके भीतर सात्विक क्रोध के भाव
भर गए।
2.
भोग विलास की निंदा
जीवन के भीतरी और बाहरी
विलासों की उन्होंने कड़े शब्दों में निन्दा प्रारम्भ की। उन्होंने संगीत, रेशम, सोना, चाँदी और हीरे को
भी विलासिता की वस्तु कह कर निंदा की थीं।
3.
बुतपरस्ती के खिलाफ
निंदा
पीरों, औलियाओं तथा अन्य मानवों की पूजा एवं उनकी कब्रों की आराधना के खिलाफ
उन्होंने युद्ध-घोषणा कर दी। फकीरों एवं साधुओं की पूजा को वे घृणित पाप बताने
लगे। बुजुर्गों की क़ब्रों की कौन कहे, हज़रत मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर पूजा करने को भी उन्होंने शिर्क करार दिया।
4.
कयास की निंदा
तसव्वुफ और सूफी-मत की
आलोचना वे इसलिए करने लगे कि सूफी इस्लाम के नियमों का उल्लंघन करते थे। उलमाओं के
द्वारा कुरान की की जानेवाली व्याख्याओं को उन्होंने अमान्य बताया और लोगों से यह
कहा कि कुरान का अर्थ तुम्हें सुन्नत के प्रसंग में समझना चाहिए और पंडितों के
मतवाद के फेरे में नहीं पड़ना चाहिए। कुरान का, कल्पना से जो
अर्थ लगाया जाता था, उसे उन्होंने बिलकुल रोक दिया एवं
परम्परा से जो अर्थ मान्य समझा जाता था, उसे ही उन्होंने
प्रामाणिक ठहराया।
5.
नशा खोरी की निंदा
टर्की के सुलतान मुराद
ने तम्बाकू पीने पर रोक लगा रखी थी। एक दूसरे सुलतान ने कॉफी पीने की मनाही कर रखी
थी। ये धार्मिक नहीं, राजकीय फरमान थे। अब्दुल वहाब
ने रोकों की जो धार्मिक सूची तैयार की, उसमें तम्बाकू और
कॉफी ही नहीं, बल्कि संगीत, रेशम,
सोना, चाँदी और हीरे भी आ गए क्योंकि ये
सामग्रियाँ भी विलासिता की थीं।
6.
सूदखोरी की आलोचना
सूदखोरी इस्लाम में पाप
समझी जाती थी, किन्तु, इस पाप से
फायदा उठानेवाले लोगों की कमी नहीं थी। अब्दुल वहाब इस पाप पर अग्नि के वेग से
टूटे और, इस प्रकार, धार्मिक जनता के
साथ-साथ वे निर्धन मुसलमानों के भी श्रद्धा-भाजन हो उठे। सारी गरीब जनता अब्दुल
वहाब की पूजा करने लगी।
इस प्रकार अब्दुल वहाब
के आन्दोलन का उद्देश्य इस्लाम के उस रूप को वापस लाना था, जिसकी रचना हज़रत मुहम्मद ने की थी और जिसका विकास आरम्भ के चार खलीफों ने
किया था। आरम्भिक इस्लाम ईश्वर के सिवा और किसी की पूजा नहीं करता था। उसमें
वैराग्य-वृत्ति का अभाव था। उसमें सामाजिक कुरीतियाँ नहीं थीं, न उसमें मुसलमान-मुसलमान में कोई भेद था। । यह अतीत की ओर चलने का संकेत
था। यह इस्लाम को घसीटकर फिर से सातवीं सदी में ले जाने का आग्रह था।
राजनीतिक
रुझान
शेख अहमद सरहिन्द, इब्ने तीमिया, औरंगजेब, वहाब,
हाली और इक़बाल ने इस्लाम के लिए जो कुछ किया, वह
लगभग एक ही प्रकार का कार्य था। जब से नज्द के सऊद-खानदान के सरदार मुहम्मद अब्दुल
वहाब के शिष्य हुए, वहाबियों का जोर बहुत अधिक बढ़ गया और वे
धर्म के साथ राजनैतिक प्रभुता का गठबन्धन करके सारे संसार के मुसलमानों को एक छत्र
के नीचे लाने का स्वप्न देखने लगे।
अब्दुल वहाब की मृत्यु
(सन् 1787 ई.) के बाद, सऊद वहाबी-सम्प्रदाय के नेता हुए।
प्रतिष्ठा में उनका राज्य अबूबक्र और हजरत उमर की खिलाफत की याद दिलाने लगा,
क्योंकि मुसलमान उन्हें अपना धार्मिक गुरु भी मानते थे तथा राजनैतिक
नेता भी। सऊद का देहान्त सन् 1814 ई. में हुआ। किन्तु,
तब तक वहाब-सम्प्रदाय शक्ति और धार्मिक प्रतिष्ठा में इतना उन्नत हो
चुका था कि लोग उसे प्राचीन खिलाफत का सहज उत्तराधिकारी मानने लगे थे।
टर्की
के सुलतान से बैर तथा पराजय
चूँकि वहाबी लोग
सऊद-राज्य को खिलाफत का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे, इसलिए, टर्की के सुलतान से उनका विरोध हो गया,
क्योंकि खिलाफत का ओहदा अभी टर्की के ही सुलतान के पास था। टर्की का
सुलतान जानता था कि वहाबियों में जो धार्मिक उन्माद है, उसके
सामने कोई भी मुस्लिम देश घुटने टेक सकता है। अतएव, सुलतान
ने अल्बानिया के मुहम्मद अली से सन्धि की और यूरोपीय बन्दूकों के सहारे उसने
वहाबियों को मिट्टी चूमने को लाचार कर दिया।
आध्यात्मिक
उत्तरजीविता
किन्तु, यह वहाबियों की सामरिक पराजय मात्र थी। आध्यात्मिक दृष्टि से वे तब भी
मुसलमानों के धार्मिक नेता बने रहे। इस्लाम को प्राचीन गरिमा पर फिर से प्रतिष्ठित
करने का स्वप्न वहाबी लोग, हमेशा, मुसलमानों
में फैलाते रहे और मक्का में हज करने को जो भी मुसलमान जाते, उनके जरिए वहाबियों का यह सन्देश आसानी से विश्व के कोने-कोने में पहुँचता
रहा।
भारत
में वहाबी आन्दोलन
भारतीय
इस्लाम में कुरीतियाँ
मक्का जानेवाले हाजियों
के द्वारा ही इस आन्दोलन का सन्देश अरब से भारत पहुँचा। अरब, सीरिया, मिस्र और ईरान में इस्लाम जिस दुरवस्था में
जा फँसा था, भारत में उसकी उससे अच्छी अवस्था नहीं थी।
हिन्दु-समाज से जो लोग निकलकर इस्लाम में दीक्षित हुए थे, वे
अपने साथ हिन्दुओं की बहुत-सी तथाकथित कुरीतियाँ भी ले गए थे। हिन्दुओं का
सगुन-विचार, सधवा स्त्रियों का सिन्दूर तथा नथ और शंख की
चूड़ी पहनना एवं दहेज और श्राद्ध, ये सारे आचार, हिन्दुओं के समान, मुसलमानों में भी प्रचलित हो गए
थे ।
अरब
से प्रेरणा
अब अरब के वहाबी
आन्दोलन से प्रेरणा लेकर भारत के उलमा भी इस्लाम को उन कुरीतियों से मुक्त कराने
के काम में लग गए। यद्यपि, इस बात का उन्हें तनिक भी ज्ञान
नहीं था कि सुधारों के जरिए वे मुसलमानों को हिन्दू-समाज से अलग कर रहे हैं।
फ़रायज़ी
सन् 1804 ई. के लगभग हाजी शरीयतुल्लाह ने बहादुरपुर (जिला फरीदपुर, बंगाल) में किसान-आन्दोलन का आरम्भ किया। उनके अनुयायी फ़रायज़ी कहलाते थे।
इन लोगों ने इस्लाम पर पड़े हुए हिन्दू-प्रभावों को गर्हित बतलाया और जनता से कहा
कि इन प्रभावों से निकलकर उस मार्ग पर आओ, जो शुद्ध कुरान का
मार्ग है।
उन्होंने यह भी कहा कि
भारत भर अब मुसलमानों का राज्य नहीं है, अतएव, यह देश दारुल-हरब (शत्रु-देश) हो गया है। इसलिए, मुसलमानों को चाहिए कि वे इस देश में जुमे की नमाज़ पढ़ना छोड़ दें। जो लोग
इस उपदेश को मानने पर आमादा हुए, वे बेजुमा कहलाने लगे।
शरीयतुल्लाह की मृत्यु के बाद उनके बेटे दुधू मियाँ ने उनके उपदेश को जोर-शोर से
फैलाया तथा दुधू मियाँ के समय में पूर्वी बंगाल में बेजुमा सम्प्रदाय की संख्या
काफी बड़ी हो गई।
रायबरेली
के सैयद अहमद
भारत में वहाबी-आन्दोलन
के सबसे प्रभावशाली नेता रायबरेली के सैयद अहमद हुए। सन् 1822 ई. में उन्होंने मक्का की तीर्थ-यात्रा की और वहीं वे वहाबी आन्दोलन के
मूल-प्रवर्तकों के सम्पर्क में आए। वहीं उन्होंने यह प्रभाव भी ग्रहण किया कि
विलासिता और आराम-तलबी इस्लाम की शिक्षा के विरुद्ध है एवं यूरोपीय जातियाँ इस्लाम
से शत्रुता रखती हैं। सैयद अहमद शीघ्र भड़क उठने वाले स्वभाव के थे और उन्हें 'हाल' या आवेश आया करता था जिसमें उन्हें यह दैवी
संदेश सुनाई पड़ता था कि तुम धर्म की सेवा के लिए अपनी जान कुरबान कर दो।
1.
इस्लाम के वास्तविक रूप
पर जोर
सैयद अहमद ने भारत में
भी सारे देश की यात्रा की और अपने धर्म-बन्धुओं को बताया कि उनका धर्म कितना
रूढ़िपूर्ण हो गया है तथा कैसे वे रूढ़ियों को छोड़कर धर्म के वास्तविक मार्ग पर आ
सकते हैं। कुरान और हदीस में जिनका उल्लेख नहीं है, उन
रीति-रस्मों, आचारों और विश्वासों को उन्होंने इस्लाम-विरोधी
माना एवं कुरान और हदीस की नई व्याख्याओं को भी उन्होंने गलत कहा।
2.
भारत दारुल हर्ब
सैयद अहमद ने भी ऐलान
किया था कि भारत पर मुसलमानों का राज्य नहीं रहने के कारण यह देश दारुल-हरब हो गया
है और यहाँ के मुसलमानों को भी जिहाद का धर्म-सिद्ध अधिकार है। किन्तु, धर्म के भीतर से यह राजनीति झाँक रही थी, इसलिए,
वहाबियों की पहले रणजीत सिंह फिर अंग्रेजों से ठन गई और अंग्रेज
उनका दमन करने लगे, यहाँ तक कि थोड़े ही दिनों में भारत का
वहाबी-आन्दोलन बिलकुल ठंडा पड़ गया।
3.
तरीका- इ-मुहम्मदिया पर
जोर
तरीका- इ-मुहम्मदिया को
फिर से स्थापित कर वह पैगम्बर मोहम्मद के चरणचिह्नों पर चलना चाहते थे। मुसलिम
समाज को ऊपर उठाने के लिए उनके तीन सूत्र थे-इलहामी किताब कुरान शरीफ को धर्मराज्य
के लिए सबसे ऊपर रखना, मजहब में कौल और अमल से अकीदा
रखना और पवित्र जेहाद। उन्होंने सबसे अधिक महत्व कर्म या अमल को दिया। मजहब के 5
स्तंभों - नमाज, अपने गुनाहों का एतराफ, खैरात, रोजा और हज, में वह
अंतिम तरीके को सबसे अच्छा मानते थे।
4.
शिर्क से बचाव
यानी एक अल्लाह के
अलावा किसी को न मानो, न किसी को अल्लाह के समकक्ष या
उनकी शक्तिवाला समझो। वह कहते थे कि सच्चे मुसलमान को यह न मानना चाहिए कि फरिश्ते,
जिन, पीर, मुर्शिद,
पैगम्बर और संत, अल्ला से इंसान को मिला सकते
हैं या उनकी इच्छा पूरी कर सकते हैं। किसी भी मुसलमान को उनसे दुआ नहीं मांगनी
चाहिए या उनसे डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वे भी उतने ही असहाय
हैं जितने कि दूसरे।
5.
बिदत की आलोचना
सब लोग 'बिदत' यानी नई बातें छोड़ दें और 'सुन्नत' यानी हजरत द्वारा बताए हुए नियमों का हर बात
में पालन करें, चाहे वह बात बड़ी हो या छोटी। सैयद अहमद के
सरल जीवन, उनके जोश और ईमानदारी ने लोगों पर बड़ा असर डाला।
उनके बहुत से अनुयायी हो गए और उन्होंने उनका हुक्म मानने की प्रतिज्ञा की।
6.
जेहाद
जेहाद शुरू करने से
पहले उन्होंने मक्का की यात्रा करने की सोची। भारत में लौटने के बाद ही उन्होंने
अपने जेहादी आंदोलन का संगठन शुरू किया। उन्होंने भारतीय इतिहास के एक सबसे बड़े
पुनरुत्थान आंदोलन का प्रवर्तन किया जिससे 50 सालों तक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध
विद्रोह का झंडा बुलंद रहा।'
जेहाद की तैयारी में
तीन बातें खास थीं- (1) योद्धाओं की ऐसी टोली तैयार करना जो संख्या और हथियार
दोनों दृष्टि से विरोधियों का मुकाबला कर सके, (2) उपयुक्त
नेता या सिपहसालार का चुनाव तथा (3) ऐसा इलाका चुनना जिसमें मुसलिम शासन हो,
जहां से जेहाद का संचालन सुरक्षित ढंग से किया जाए।
पहली दो शर्तें तो इस
प्रकार पूरी हो गईं कि सैकड़ों भारतीय मुसलमान जेहादियों की टुकड़ी में भर्ती किए
गए और सैयद अहमद इनके इमाम चुने गए। पर तीसरी बात, सुरक्षित
अड्डा भारत की सीमा के अंदर नहीं मिल सका। इसके लिए उत्तर- पश्चिमी सरहद का इलाका
चुना गया। सरहदी कबीलों में धर्मांधता का जोर था, जिसका
मुल्ला लोग अच्छा उपयोग कर सकते थे। यह भी मालूम था कि इस इलाके में अरब के अब्दुल
वहाब का वहरवी आंदोलन कुछ हद तक फैल चुका था।
7.
हिजरत
पहला कदम यह था कि
दारुल अर्ब 'भारत' से इन दीनदार
लोगों की हिजरत दारुल इस्लाम, सरहदी इलाके में कराई जाए।
पांच-छः सौ पुरुष, कुछ स्त्रियों और बच्चों तथा 5,000 रुपये
की एक थैली के साथ वह अपनी ऐतिहासिक हिजरत पर चले। यह दल बोलान दरें के जरिए क्वेटा
पहुंचा, क्वेटा से कंदहार, गजनी और
काबुल गया और अंततोगत्वा 20 नवंबर, 1826 को पेशावर पहुंचा।
लगभग 3,000 मील की इस यात्रा में 10 महीने लगे।
यह बहुत ही आश्चर्यजनक
तथा साहसिक कार्य था पर इससे भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि ब्रिटिश सरकार, जो अवश्य ही सैयद अहमद की यात्राओं और उद्देश्यों से परिचित होगी, इन लोगों की तरफ से आंखें मूंदे रही और यह छोटी-सी सेना उन्हीं के राज में
निर्बाध प्रचार और यात्रा करती रही। क्या अंग्रेजी सरकार ने इनको इसलिए नहीं रोका
कि इस जेहाद का लक्ष्य महाराजा रणजीत सिंह का राज्य था, न कि
ब्रिटिश भारत । सैयद अहमद का आंदोलन विफल हुआ, पर यह अपने
पीछे एक सुदूरगामी परिणामों की लीक छोड़ गया। इसने भारतीय समाज की पृथकतावादी
प्रवृत्तियों को उत्तेजना दी।
सैयद अहमद ने इस बात पर
जोर दिया कि अच्छी हों या बुरी, महत्वपूर्ण हों या तुच्छ
भारत में हिंदुओं के साथ रहने के कारण मुसलमानों ने जो रिवाज और आदतें प्राप्त की
(बिदत-इ-हसना और विदत-इ-सू) उनको छोड़ देना है और हजरत मुहम्मद के समय की खालिस
अरबी रूढ़ियों को लौट जाना है।
इससे दोनों संप्रदायों
में खाई बढ़ने की ही संभावना थी। इस आंदोलन से एक ऐसी विचारधारा चल निकली जिससे
पृथकता और कूपमंडूकता की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला।
इस आंदोलन से मुसलमानों
में पुनरुज्जीवनवादी या पुराने जमाने को फिर से लाने के प्रचार को उत्तेजना मिली।
इस परिवर्तन का नतीजा यह हुआ कि राजनीति में धार्मिक कठमुल्लापन का प्रभाव प्रकट
होने लगा। फिर भी सैयद अहमद के आंदोलन की स्मृति ने मुसलमानों में स्वतंत्रता की
इच्छा को जीवित रखा। बाद में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जितने भी संग्राम हुए, उनमें, उदाहरणस्वरूप 1857 के विद्रोह में मौलवियों
ने शक्तिशाली सहायता दी।
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