रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उनका जन्म 1836 ई. में बंगाल के हुगली जिले में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था।
उन्हें
बचपन से ही शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। वे हर समय धार्मिक चिंतन में मग्न
रहते थे। जब वे 17 वर्ष के थे, उनके पिता का देहान्त हो गया।
21 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर
में कालीदेवी के मन्दिर में पुजारी बन गये।
उन्होंने
भैरवी नामक एक ब्राह्मण सन्यासिन से दो वर्ष तक तान्त्रिक साधना सीखी।
तोतापुरी
नामक एक महान् वेदान्तिक साधु ने उन्हें वेदान्त-साधना सिखाई।
उन्होंने
अपनी साधना द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म तथा ज्ञान, विद्या का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय
है।
16 अगस्त 1886 को क्षय रोग से रामकृष्ण का निधन हुआ।
उनकी
जीवनी मैक्समूलर ने लिखी थी। फिर एक जीवन-चरित रोम्याँ रोलाँ ने भी प्रकाशित किया।
परम
हंस का व्यक्तित्व
1. पण्डित नहीं बल्कि संत
पंडित
और सन्त में वही भेद होता है, जो हृदय और बुद्धि में है। बुद्धि जिसे लाख
कोशिश करने पर भी नहीं समझ पाती, हृदय उसे अचानक देख लेता है।
दयानन्द
और राममोहन राय तथा एनी बीसेंट के प्रचारों से यह तो सिद्ध हो गया कि हिन्दू-धर्म
निन्दनीय नहीं, वरेण्य है, किन्तु, जनता तो यह देखना चाहती थी कि धर्म का
जीता-जागता रूप कैसा होता है। धर्म का यह जीता-जागता रूप उसे तब दिखाई पड़ा, जब परमहंस रामकृष्ण
(1836-1886 ई.) का आविर्भाव हुआ।
2. तर्क नहीं बल्कि अनुभूति
रामकृष्ण
के आगमन से धर्म की अनुभूति प्रत्यक्ष
हुई। उन्होंने अपने जीवन से यह बता दिया कि धार्मिक सत्य केवल बौद्धिक अनुमान की
वस्तु नहीं हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं और उनके सामने संसार की सारी
तृष्णाएँ, सारे सुख-भोग तृणवत् नगण्य हैं।
उन्होंने
हिन्दुत्व के सभी मार्गों की साधना की। वे कुछ दिन सच्चे मुसलमान बनकर इस्लाम की
भी साधना करते रहे और कुछ काल तक उन्होंने ईसाइयत का भी अभ्यास किया था। भारतवर्ष
की धार्मिक समस्या का जो समाधान रामकृष्ण ने दिया है, उससे बड़ा और अधिक
उपयोगी समाधान और कोई हो नहीं सकता। वैष्णव, शैव, शाक्त, तान्त्रिक, अद्वैतवादी, मुसलमान और ईसाई बनकर परमहंस रामकृष्ण ने यह
सिद्ध कर दिखाया कि धर्मों के बाहरी रूप तो केवल बाहरी रूप हैं। उनसे मूल तत्त्व
में कोई फर्क नहीं पड़ता है। साधन और मार्ग अनेक हैं। उनमें से मनुष्य किसी को भी
चुन सकता है।
3. धर्म की साकार प्रतिमा
अद्वैत
साधना की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली जो स्वयं उनकी कुटी में आ गए थे।
तन्त्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई जो स्वयं घूमते-फिरते दक्षिणेश्वर तक आ
पहुँची थीं। इसी प्रकार, इस्लामी साधना के उनके गुरु कोई गोविन्द राय थे
जो हिन्दू से मुसलमान हो गए थे और ईसाइयत की साधना उन्होंने शम्भुचरण मल्लिक के
साथ की थी जो ईसाई धर्म-ग्रन्थों के अच्छे जानकार थे। किन्तु, सभी साधनाओं में रमकर
धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी काली के चरणों में उनका विश्वास अचल
रहा।
हिन्दू-धर्म
में जो गहराई और माधुर्य है, परमहंस रामकृष्ण उसकी प्रतिमा थे। उनकी
इन्द्रियाँ पूर्णरूप से उनके वश में थीं। सिर से पाँव तक वे आत्मा की ज्योति से
परिपूर्ण थे। आनन्द, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन-रात
परमार्थ-चिन्तन में निरत रहते थे। सांसारिक सुख-स्मृद्धि, यहाँ तक कि सुयश का भी
उनके सामने कोई मूल्य नहीं था।
4. कंचन से विरक्ति
रामकृष्ण
रुपये-पैसे को नहीं छूते और द्रव्य के स्पर्शमात्र से उन्हें पीड़ा होने लगती है, इस बात की जाँच करने के
लिए नरेन्द्र दत्त ने एक दिन, चोरी-चोरी, परमहंस जी के बिस्तर के
नीचे एक रुपया छिपा दिया। रामकृष्ण लौटकर जो बिस्तर पर बैठे तो उन्हें ऐसा लगा, मानो बिच्छू ने डंक मार
दिया हो और वे उचककर खड़े हो गए। लोगों ने चारों ओर देखा, मगर कहीं भी कोई चीज
नहीं थी। निदान, उन्होंने बिस्तर हटाकर नीचे देखा तो क्या देखते हैं कि उसके
नीचे एक रुपया पड़ा है। सब लोग अचकचाए हुए थे। केवल नरेन्द्र अचरज के मारे गम्भीर
थे। रामकृष्ण उनकी शैतानी को लख गए और बोले, “ठीक है रे; गुरु की जाँच जी भर कर लेनी चाहिए।” द्रव्य के
प्रति यह वितृष्णा उनमें बढ़ती ही गई। अन्त समय तो ऐसा हो गया कि हाथ में कपड़ा
लपेटे बिना वे काँसे के बर्तन को भी नहीं छू सकते थे।
5. कामिनी के प्रति आसक्ति
रामकृष्ण
एक ऐसे संन्यासी हुए हैं जो अन्त समय तक अपनी धर्मपत्नी के साथ रहे। गृह-त्याग
उन्होंने विवाह के बाद किया था और सच तो यह है कि,
विधिवत् उन्होंने गृह-त्याग
किया भी नहीं था क्योंकि, सिद्धावस्था आने पर भी, वे अपने गाँव गए और
वहाँ अपने परिवार के साथ वैसे ही घुल-मिलकर रहे,
जैसे गृहस्थ को रहना चाहिए।
इसी यात्रा के बाद उनकी पत्नी दक्षिणेश्वर में उनसे आन मिलीं एवं परमहंसजी ने
उन्हें अपने साथ रखने में तनिक भी आनाकानी नहीं की। किन्तु, पत्नी के साथ उनका
शारीरिक सम्बन्ध नहीं हुआ, यह सभी विवरणों से विदित होता है।
उनका
कहना था कि यद्यपि, स्त्रियाँ जगदम्बा के ही अंश हैं, तथापि साधक-साधु के लिए
वे त्याज्य ही हैं।
6. सन्त पद्धति से उपदेश
उनकी
विषय-प्रतिपादन की शैली ठीक वही थी जिसका आश्रय भारत के प्राचीन ऋषियों तथा
पार्श्वनाथ, बुद्ध और महावीर ने लिया था तथा जो परम्परा से भारतीय सन्तों
के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्कों का सहारा कम लेते थे, जो कुछ समझाना होता उसे
उपमाओं और दृष्टान्तों से समझाते थे।
उन्होंने
कहा, “कामिनी-कंचन
की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए, तो देह अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट रूप से दीखने
लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा (गरी) नरेटी से
खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दीखने लगते हैं
(वैसे), या जैसे म्यान के भीतर रखी हुई तलवार के विषय में कह सकते
हैं कि म्यान और तलवार दोनों भिन्न चीजें हैं, वैसे ही, देह और आत्मा के बारे में जानो।”
प्रतिमा-पूजन
का भी ईश्वराराधन में वास्तविक महत्त्व है, इस विचार को समझने के लिए वे कहते, “जैसे
वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, उसी तरह, प्रतिमा पर से ईश्वर की याद आती है।”
“माया
ईश्वर की शक्ति है, वह ईश्वर में ही वास करती है,
तब क्या ईश्वर भी हमारे समान
ही मायाबद्ध है?” इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वे कहते, “अरे, नहीं रे भाई! वैसा नहीं
है।...यही देखो न। सर्प के मुँह में सदा विष रहता है। उसी मुँह से वह हरदम
खाता-पीता है, पर, वह स्वयं उस विषय से नहीं मरता।”
प्रसिद्ध
ब्राह्म-समाजी साधक और विद्वान् आचार्य प्रतापचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि “श्री
रामकृष्ण के दर्शन होने के पूर्व धर्म किसे कहते हैं, यह कोई समझता भी नहीं
था। सब आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है,
यह बात रामकृष्ण की संगति का
लाभ होने पर जान पड़ी।”
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