सोमवार, 23 जनवरी 2023

कुतुबुद्दीन ऐबक की उपलब्धियां

कुतुबुद्दीन ऐबक के समक्ष चुनौतियाँ

जिन परिस्थितियों में उसने भारत के प्रशासनिक दायित्व का निर्वहन करना प्रारम्भ किया था, वे नितान्त प्रतिकूल थीं। मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु ने गज़नी - गौर से लेकर लखनौती तक में लगभग राजनीतिक अराजकता सी स्थिति थी। ऐबक को अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उसकी प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं-

1.   प्रतिद्वन्द्वियों की समस्या:

सर्वप्रथम ऐबक को अपने प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना था जिनमें इख्तियारूद्दीन, यल्दूज तथा कुबाचा प्रमुख थे। इनके अधिकार में बहुत बड़े क्षेत्र थे और वे अपने को ऐबक का समकक्षी समझते थे। यल्दूज गजनी में और कुबाचा मुल्तान में शासन करता था।

2.  हिन्दू सरदारों की समस्या:

ऐबक की दूसरी कठिनाई यह थी कि प्रमुख हिन्दू सरदार, खोई हुई स्वतन्त्रता को पुनः प्राप्त करने के लिए प्रयास कर रहे थे। 1026 ई. में चंदेल राजपूतों ने अपनी राजधानी कालिंजर पर फिर से अधिकार स्थापित कर लिया। गहड़वाल राजपूतों ने हरिश्चन्द्र के नेतृत्व में फर्रूखाबाद तथा बदायूँ में धाक जमा ली। ग्वालियर फिर से प्रतिहार राजपूतों के हाथों में चला गया। बंगाल तथा बिहार में भी इख्तियारूद्दीन के मर जाने के बाद विद्रोह की अग्नि प्रज्वलित हो उठी।

3.  मध्य एशिया से आक्रमण की आशंका:

ऐबक को सर्वाधिक भय मध्य एशिया से आक्रमण का था। ख्वारिज्म के शाह की दृष्टि गजनी तथा दिल्ली पर लगी हुई थी।

4.  गज़नी साम्राज्य

लाहौर को गज़नी साम्राज्य अपना अंग समझता था, अतः ऐबक लाहौर को गज़नी के प्रभुत्व से मुक्त कराना चाहता था

5.  इस्लामी कानून का रोड़ा

इस्लामी कानून के अनुसार एक दास शासक नहीं बन सकता था, अतः ऐबक के लिए स्वयं को गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से अपने को दासता से से मुक्त कराना आवश्यक था।

                 भारत में ऐबक का जीवन

भारत में ऐबक के जीवन को तीन चरणों में बाटा जा सकता है-

प्रथम चरण 1206 ईसवी तक

जब वह मुइजुद्दीन का प्रतिनिधि था तब उसका शासनकाल सैनिक गतिविधियों से पूर्ण था।

द्वितीय चरण 1206 से 1208 तक

जब गोरी की भारतीय सल्तनत का मलिक या सिपहसालार था तब उसका जीवन राजनीतिक कार्यों में व्यतीत हुआ।

तृतीय चरण 1208 से 1210 तक

जब वह भारतीय राज्य का औपचारिक अधिकार प्राप्त शासक था तब उसने दिल्ली सल्तनत का मानचित्र निर्मित किया।

             चुनौतियों का समाधान : उपलब्धियां

ऐबक में कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर करने की पूर्ण क्षमता थी उसने साहस और धैर्य से कठिनाइयों एवं बाधाओं को दूर किया।

(क) प्रबुद्ध मार्ग 

1. विवाह कूटनीति

उसने विवाह के द्वारा कूटनीतिक सम्बन्ध स्थापित करके, तात्कालिक समाधान खोजा। इसने तुर्की सरदारों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करके अपनी स्थिति सुदृढ़ करने का भरसक प्रयास किया। इसने नासिरुद्दीन कुबाचा के साथ अपनी बहन का विवाह कर दिया और कुबाचा ने उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया। इसने अपना विवाह ताजुद्दीन याल्दौज़ की पुत्री के साथ किया और इल्तुतमिश की बढती हैसियत और उपयोगिता को देखते हुए उससे अपनी लड़की का विवाह करके उसने अपनी स्थिति को मजबूत कर ली।

2. कुशल अकर्मण्यता की नीति

राजपूत : ऐबक उत्तर-पश्चिम की राजनीति तथा बंगाल के झगड़े में इतना व्यस्त था कि वह राजपूतों की शक्ति को नहीं दबा सकता था। अतः उसने बदायूं पर अपना आधिपत्य स्थापित करके अपने दास इल्तुतमिश को वहाँ का शासक नियुक्त कर दिया और अन्य छोटे-छोटे राजाओं से कर वसूल किया परन्तु उसने कालिंजर तथा ग्वालियर को फिर से अधिकार में करने का प्रयास नहीं किया।

गज़नी : यह गज़नी में विद्रोह होते ही वहां से खिसक लिया।

बंगाल : साथ ही बंगाल की परिस्थिति से समझौता करने अलीमर्दान को समर्थन दिया।  दरअसल 1206 ईसवी में बख्तियार खिलज़ी का वध अलीमर्दा खाँ ने कर दिया परन्तु स्थानीय खिलजी सरदारों ने उसे कैद करके कारागार में डाल दिया और उसके स्थान पर मुहम्मद शेख को शासक बना दिया। अलीमर्दा खाँ कारगार से निकल भागा और दिल्ली पहुँच कर ऐबक से, बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए कहा। अलीमर्दा खाँ बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। उसने ऐबक की अधीनता स्वीकार कर ली और दिल्ली को वार्षिक कर देने के लिए उद्यत हो गया।

मध्य एशिया : कुतुबुद्दीन ऐबक ने बुद्धिमानी दिखाते हुए स्वयं को मध्य-एशिया की राजनीति से अलग रखा। अतः वह उस ओर से आने वाली सम्भाव्य आपत्तियों से सर्वथा विमुक्त रहा।

3. कट्टरपंथियों के लिए खुराक की व्यवस्था

27 हिन्दू और जैन मंदिरों को तोड़ कर कुव्वत–उल–मस्जिद बनाई गई। उसने अजमेर में एक संस्कृत महाविद्यालय को को तुड़वाकर ढाई दिन का झोपड़ा नामक एक मस्जिद भी बनवाई।

(ख) तुर्की निर्भीकता का मार्ग: विजय अभियान  

1. प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय:

भारत में ऐबक के तीन प्रमुख प्रतिद्वन्द्वी थे- इख्तियारूद्दीन, कुबाचा तथा यल्दूज। इख्तियारूद्दीन ने सदैव ऐबक का आदर किया और उसी की अधीनता में शासन किया। कुबाचा अब ऐबक का बहनोई था। अतः कुबाचा ने उसका विरोध नहीं किया और न उसे किसी प्रकार कष्ट पहुँचाया। यल्दूज ऐबक का श्वसुर था परन्तु यल्दूज ने ऐबक का विरोध किया। 1208 ई. में यल्दूज ने गजनी में एक सेना तैयार की और मुल्तान पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया परन्तु ऐबक ने कुबाचा का सहयोग लेकर शीघ्र ही उसे वहाँ से मार भगाया तथा गजनी पर अधिकार कर लिया। लेकिन गजनी के लोग यह सहन नहीं कर सके। ऐबक को विवश होकर दिल्ली लौट जाना पड़ा परन्तु उसने यल्दूज के भारतीय साम्राज्य पर प्रभुत्व स्थापित करने के समस्त प्रयत्नों को विफल कर दिया।

(ग)परिष्कृत फ़ारसी उदारता का मार्ग

1. मलिक के पद से संतुष्ट 

यहाँ एक बात विशेष महत्वपूर्ण है, जिसका उल्लेख आवश्यक है। 1206 ई. में मोहम्मद गौरी की आकस्मिक मृत्यु के पश्चात् उसने प्रशासनिक दायित्व तो ग्रहण कर लिया था, किन्तु, मात्र 'मलिक' एवं 'सिपहसालार' के विरूद ही धारण किए। उसने कभी अपने आप को 'सुल्तान' नहीं सम्बोधित किया और न ही सुल्तान का विरूद धारण किया।

2. परंपरा का सम्मान

उसे राजत्व के सिद्धान्त की पूर्ण जानकारी थी, जिसके अनुसार 'एक दास, सुल्तान नहीं बन सकता था'। ऐबक ने गज़नी पर शासन के दौरान फिरोजकोह में दिन काट रहे गोरी के उत्तराधिकारी राजकुमार मेहमूद से मुक्तिपत्र प्राप्त कर दासता से मुक्ति प्राप्त कर ली। गयासुद्दीन मेहमूद ने उसे राजकीय सत्ता के आवश्यक चिह्न “छत्र” तथा “दुरबाश” दे दिए। इस प्रकार जब उसे दासता से मुक्ति मिल गयी तब 1208-9 ई. में उसने सुल्तान का विरूद धारण किया।

3. संरक्षण व न्यायप्रिय शासन तथा उदारता

फ़ख़े मुदब्बिर एक स्थान पर लिखता है कि 'यद्यपि उसके सैनिकों में विभिन्न जातियों, जनजातियों, क्षेत्रों के लोग थे; यथा तुर्क, गौरी, खुरासानी, ख़ल्जी, अफ़गान व हिन्दुस्तानी, फिर भी किसी सैनिक को यह साहस न था कि वह किसी किसान के घास का एक तिनका, रोटी का टुकड़ा, बकरी या पक्षी लेता या उस  के घर-जमीन पर बलात् अधिकार कर लेता।' अतः उसने न्याय एवं उदारता के साथ शासन किया और अपनी उदारता के लिए तो वह शताब्दियों तक प्रसिद्ध रहा। अतः समकालीन साहित्य में उसे  लाख बख़्श (लाखों दान करने वाले) के सम्बोधन से पुकारा जाता है। अतः सैन्य गुणों के साथ-साथ दानवीरता, न्यायप्रियता एवं प्रजा के प्रति पितृ-तुल्य चिन्ता सहज ही उसका राजत्व सिद्धान्त स्थापित कर देते हैं।

मिन्हाज़ के अनुसार सुलतान दूसरा हातिम था और बड़ा वीर तथा उदार शासक था। वह विशाल हृदय का महान दानी था इसलिये उसे लाख बक्श भी कहा जाता था। उसने कुतुबमीनार तथा ढाई दिन का झोपड़ा मस्जिद भी बनवाया।

हसन निजामी के अनुसार उसके राज्य में शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते थे।

निष्कर्ष

इस प्रकार, ऐबक एक सामान्य गुलाम से अपनी योग्यता के बल पर सुल्तान बन गया। उसने अपनी कूटनीति तथा वीरता से अपने मार्ग की बाधाओं को दूर किया। डॉ. ए. बी. एम. हबीबुल्ला अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में उसका मूल्यांकन करते हुए लिखते हैं "उसमें तुर्कों की निर्भीकता एवं फ़ारसियों की परिष्कृत अभिरूचि एवं शालीनता पायी जाती थी।”  

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