1830 ई. की क्रान्ति के
पश्चात् बूर्वां वंश का अन्त हो गया और 1830 ई. में लुई फिलिप जनता की इच्छा से
फ्रांस की गद्दी पर बैठा। लुई फिलिप की स्वर्णिम मध्यम नीति,
गृहनीति
एवं असफल विदेश नीति ने फ्रांस में जो विरोधी राजनीतिक एवं सामाजिक वातावरण बना
दिया था उन सभी में 1848 ई. की क्रान्ति के अंकुर छिपे थे।
1. समाजवाद का विकास
नए कल-कारखानों के आने
से समाज में पूंजीपति और मजदूर दो वर्ग बन गए। पूंजीपतियों का आर्थिक साधनों पर
एकाधिकार था, अतः वे दिन-प्रतिदिन अमीर होते
जा रहे थे, लेकिन मजदूर वर्ग दिन-प्रतिदिन
गरीब होता जा रहा था, अतः इस समय देश में
अनेक समाजवादियों का उदय हुआ। सेण्ट साइमन (Saint
Simon) वह पहला व्यक्ति था जिसने समाज के बहुसंख्यक
मजदूर वर्ग के लिए एक समाजवादी योजना प्रस्तुत की। उसका मानना था कि उत्पादन के
साधनों पर राज्य का स्वामित्व हो तथा प्रत्येक व्यक्ति को क्षमतानुसार कार्य एवं
सेवानुसार प्रतिफल मिले। दूसरा समाजवादी लुई ब्लांक (Louis
Blank) था। लुई ब्लांक ने अपने विचारों को 'श्रम
संगठन' (Organization of Labour) नामक
पुस्तक के माध्यम से व्यक्त किया। लुई ब्लांक की यह पुस्तक 1848 ई. की 'क्रान्ति
की बाइबिल' (Bible of the 1848
Revolution) बन गयी। वास्तव में 1848 ई. की क्रान्ति में इस
पुस्तक का वही महत्व था जो 1789 की क्रान्ति में रूसो की पुस्तक 'सामाजिक
समझौता' (Social Contract) का
था। श्रम संगठन (Organization of Labour) नामक
पुस्तक की मूल विचारधारा थी कि हर व्यक्ति को काम पाने का अधिकार है तथा राज्य का
कर्तव्य है कि वह उसको कार्य दे, प्रत्येक
व्यक्ति को काम के आधार पर समाज में मान्यता मिलनी चाहिए। उत्पादन के साधनों पर
सरकार का आधिपत्य हो, जिससे पूंजीपति वर्ग
श्रमिकों की मेहनत के फल को हड़प न कर सके।
2. लुई फिलिप का आंशिक समर्थन
गद्दी पर बैठते समय लुई
फिलिप की स्थिति अच्छी नहीं थी, देश
की तत्कालीन समस्त पार्टियां उसकी विरोधी थीं। ये पार्टियां निम्नलिखित थीं :
(i)
बुर्बो
दल यह दल बूर्वां वंश के किसी भी राजकुमार को गद्दी पर बैठाना चाहता था।
(ii)
रिपब्लिकन
दल (गणतन्त्रवादी)- यह फ्रांस में गणतन्त्र की स्थापना करना चाहते थे,
इसका
नेता लामार्तीन था।
(iii)
बोनापारिस्ट
दल यह दल नेपोलियन बोनापार्ट के किसी सम्बन्धी को गद्दी पर बैठाना चाहता था।
(iv)
समाजवादी
पार्टी ये लोग फ्रांस में मजदूरों की सरकार स्थापित करना चाहते थे।
(v)
कट्टर
राजतन्त्रवादी- ये लोग चार्ल्स के पौत्र को गद्दी पर बैठाना चाहते थे।
इस प्रकार फ्रांस में
कोई भी दल लुई फिलिप का समर्थक नहीं था। ये समस्त दल इसको गद्दी से उतारने के लिए
समय-समय पर विद्रोह कर रहे थे।
3. लुई फिलिप का अस्थायी मन्त्रिमण्डल तथा
प्रधानमन्त्री ग्वीजो की अनुदार नीति
लुई फिलिप के
प्रारम्भिक 10 वर्षों का शासन काल अस्थिर एवं अशान्ति का था। 10 वर्षों में उसने
10 मन्त्री बदले। अन्त में 1840 ई. में फिलिप ने स्वेच्छाचारिता के अवतार ग्बीजो (Guizot)
को
अपना प्रधानमन्त्री बनाया। जनता के कड़े विरोध के बावजूद भी 1848 ई. तक वह इस पद
पर बना रहा। ग्वीजो का विश्वास था कि जनता को अधिकार देना शासन को खतरे में डालना
है। अतः ग्वीजो ने स्पष्ट रूप से यह घोषणा की कि यह शासन में कोई सुधार नहीं करेगा
तथा विदेश नीति में सक्रिय रूप से भाग नहीं लेगा। राजा की स्वेच्छाचारिता के
समर्थन में उसने कहा था कि "राज सिंहासन कोई खाली कुर्सी नहीं है।"
दूसरी ओर फ्रांस की जनता ग्वीजो को इसलिए भी नहीं चाहती थी क्योंकि वह
प्रोटेस्टेण्ट था जबकि फ्रांसीसी जनता कैथोलिक थी। व्यक्तिगत जीवन पवित्र होते हुए
भी ग्वीजो का राजनीतिक जीवन बहुत भ्रष्ट था। अतः जनता ने ग्वीजो का घोर विरोध
किया।
4. मध्यम वर्ग की प्रधानता
सिंहासन पर बैठने के
पश्चात् लुई फिलिप ने जनता को एक उदार संविधान दिया। इसके अन्तर्गत मतदान व्यापक
करने का प्रयास किया, लेकिन इससे जन साधारण
का भला न हो सका क्योंकि मत का आधार धन होने के कारण प्रतिनिधि सभा में सदैव
मध्यमवर्ग के लोगों की ही प्रधानता रही। निम्न वर्ग के लिए प्रतिनिधि सभा में
मध्यम वर्ग का बहुमत होने के कारण कानून भी मध्यम वर्ग के हित में बनते थे। लुई
फिलिप ने 18 वर्ष तक इसी मध्यम वर्ग की सहायता से शासन किया,
इसी
से उसकी सरकार को मध्यमवर्गीय सरकार (Middle Class
Government) भी कहा जाता है और मताधिकार का अधिकार भी मध्यम
एवं उच्च वर्ग को ही प्राप्त था। लुई की इस नीति से अन्य राजनीतिक दल उसकी हंसी
उड़ाते हुए उसे 'नागरिक राजा'
(Citizen King) की पदवी से विभूषित करने लगे। अतः 1848 ई. की
क्रान्ति से निम्न वर्ग लुई फिलिप को गद्दी से हटाने की सोचने लगा।
5. लुई फिलिप की असफल विदेश नीति
लुई फिलिफ असफल रहा।
लुई फिलिप में वह योग्यता नहीं थी जिसके बल पर वह फ्रांसीसी जनता को एक गौरवपूर्ण
विदेश नीति दे सके। वास्तव में, लुई
फिलिप की विदेश नीति से फ्रांस की अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति को गहरा धक्का लगा।
फ्रांस में सर्वत्र उसकी विदेश नीति की आलोचना होने लगी तथा सारे राजनीतिक दल उसके
कड़े विरोधी हो गए, यूरोप के लगभग प्रत्येक
देश से उसके सम्बन्ध खराब ही रहे।
वास्तव में,
यह
फिलिप का दुर्भाग्य था कि विवेकशील होते हुए भी वह गृह तथा विदेश दोनों ही
क्षेत्रों में असफल रहा। देश के भीतर अशान्ति तथा दमनचक्र आरम्भ हो गया। विदेश
नीति में उसकी दुर्बलता फ्रांसीसी जनता को अच्छी न लगी। यद्यपि लुई ने धैर्य,
कूटनीति
तथा विवेक से काम लेकर कभी ऐसा मौका नहीं आने दिया कि फ्रांस को युद्ध के लिए
तैयार होना पड़े। लुई का यह कार्य तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए देश के हित
में था, किन्तु फ्रांस की जनता इससे
सन्तुष्ट नहीं थी क्योंकि इससे उसकी गौरव भावना की पूर्ति न हो सकी थी। अतः जनता
की यही मनोभावना फ्रांस को एक बार पुनः क्रान्ति के कगार पर ले आयी।
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