बुधवार, 8 जनवरी 2025

अल्लाउद्दीन खिलजी के उत्तर भारत का विजय अभियान

 

अलाउद्दीन खिलजी के विजय का कारण

1. व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा

अलाउद्दीन खिलजी के भीतर साम्राज्य विस्तार की तीव्र महत्वाकांक्षा थी। उसने स्वयं को 'सिकंदर द्वितीय' कहा और विश्व विजय का स्वप्न देखा। हालाँकि, अपने सलाहकार अला-उल-मुल्क की सलाह पर उसने अपने विजय अभियानों को भारत तक सीमित रखा। व्यक्तिगत गौरव प्राप्त करने और अपनी शक्ति की अमिट छाप छोड़ने की लालसा ने उसे निरंतर युद्ध और विजय के लिए प्रेरित किया।

2. राजनीतिक कारण

अलाउद्दीन का शासनकाल मंगोल आक्रमणों और बाहरी खतरों से भरा हुआ था। उसने सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों को अपने अधीन करने की योजना बनाई ताकि सल्तनत को सुरक्षित और शक्तिशाली बनाया जा सके।

  • रणनीतिक विजय: रणथंभौर और चित्तौड़ जैसे किले न केवल सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थे, बल्कि वे राजपूत प्रतिरोध के प्रतीक थे।
  • विद्रोह दमन: उसने विद्रोही राजाओं और शासकों को पराजित करके अपने राजनीतिक वर्चस्व को स्थापित किया। उदाहरण के लिए, गुजरात के राजा कर्ण और रणथंभौर के हम्मीरदेव पर विजय।
  • क्षेत्रीय स्थायित्व: राज्यों के अधीनता स्वीकारने पर उन्होंने वार्षिक कर (खिराज) के माध्यम से राजस्व और प्रशासनिक नियंत्रण सुनिश्चित किया।

3. आर्थिक कारण

अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियानों का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य आर्थिक था।

  • समृद्धि का लालच: गुजरात, देवगिरि, और दक्षिण भारत के समृद्ध राज्यों पर आक्रमण आर्थिक दृष्टि से अत्यंत लाभकारी थे। गुजरात में सोमनाथ मंदिर की लूट और देवगिरि की धन-संपत्ति ने सल्तनत के खजाने को समृद्ध किया।
  • आर्थिक नियंत्रण: उसने व्यापार मार्गों और संपन्न क्षेत्रों पर अधिकार कर सल्तनत की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ किया। गुजरात और राजस्थान की विजय ने उसे पश्चिमी व्यापार मार्गों पर नियंत्रण प्रदान किया।
  • कर संग्रह: दक्षिण भारत के राज्यों को वार्षिक कर देने के लिए बाध्य करना उसकी आर्थिक नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा था।

4. धार्मिक कारण

अलाउद्दीन खिलजी की विजय धार्मिक उद्देश्यों से भी प्रेरित थीं।

  • इस्लाम का प्रसार: उसने कई स्थानों पर हिंदू मंदिरों को नष्ट कर वहाँ इस्लामी प्रतीक स्थापित किए।
  • मजहबी कट्टरता: सोमनाथ मंदिर की मूर्ति को तोड़कर उसके टुकड़े दिल्ली लाने की घटना ने धार्मिक कट्टरता को प्रदर्शित किया।

                                विजय अभियान

1. जैसलमेर और गुजरात पर विजय

गुजरात का आर्थिक और राजनीतिक महत्व

गुजरात उस समय एक समृद्धशाली राज्य था जिसकी राजधानी अन्हिलवाड़ (पाटन) थी। यहाँ का व्यापारिक और सांस्कृतिक महत्व इसे उत्तर भारत के अन्य राज्यों से अलग बनाता था। बघेला-शासक कर्ण (राय करन) के नेतृत्व में गुजरात एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में स्थापित था। गुजरात पर मुसलमानों ने पहले भी कई बार आक्रमण किए थे, लेकिन निर्णायक विजय नहीं मिली थी।

आक्रमण का कारण

राजा कर्ण के एक मंत्री माधव द्वारा दिल्ली दरबार में शरण मांगना इस आक्रमण का प्रमुख कारण बना। मंत्री ने आरोप लगाया कि राजा कर्ण ने उसकी अनुपस्थिति में उसकी पत्नी पर अधिकार कर लिया। यह स्थिति अलाउद्दीन खिलजी के लिए एक राजनीतिक बहाना बन गई।

आक्रमण और विजय

1298 ई. के उत्तरार्ध में उलुगखाँ और नसरतखाँ के नेतृत्व में गुजरात पर हमला किया गया। मार्ग में जैसलमेर को जीत लिया गया। अहमदाबाद के निकट राजा कर्ण ने प्रतिरोध किया, लेकिन पराजित होकर देवगिरि के शासक रामचन्द्रदेव के पास शरण लेने भाग गया।

  • गुजरात की लूट में सूरत, सोमनाथ, और काम्बे के बंदरगाह शामिल थे।
  • सोमनाथ मंदिर को नष्ट किया गया, और उसकी मूर्ति को दिल्ली लाकर अपमानित किया गया।
  • राजा कर्ण की पत्नी कमलादेवी और खजाना दिल्ली ले जाया गया। कमलादेवी ने बाद में अलाउद्दीन से विवाह किया।
  • इस अभियान में नसरतखाँ ने काफूर हजारदीनारी को गुलाम के रूप में खरीदा, जो बाद में अलाउद्दीन का एक प्रमुख सेनापति बना।

2. रणथम्भौर पर विजय

रणथम्भौर का रणनीतिक महत्व

रणथम्भौर चौहान राजपूतों की शक्ति का केंद्र था। इस किले को जीतना राजस्थान की विजय के लिए अनिवार्य था। राणा हम्मीरदेव ने अपनी कुशलता और राजनीतिक शक्ति से किले को सुदृढ़ बनाया था।

कारण : मंगोल शरणार्थियों का मुद्दा

अलाउद्दीन ने रणथम्भौर पर आक्रमण का मुख्य बहाना यह बनाया कि राणा हम्मीरदेव ने मंगोल शरणार्थियों को आश्रय दिया था।

पहला असफल प्रयास

उलुगखाँ और नसरतखाँ के नेतृत्व में पहला हमला किया गया। राजपूतों के प्रतिरोध के कारण यह अभियान असफल रहा और नसरतखाँ मारा गया।

अलाउद्दीन का प्रत्यक्ष नेतृत्व

अलाउद्दीन ने 1301 ई. में स्वयं रणथम्भौर पर आक्रमण किया।

  • किले की घेरेबंदी लगभग एक वर्ष तक चली।
  • कूटनीति का सहारा लेते हुए राणा हम्मीरदेव के मंत्री रनमल को अपनी ओर मिलाया।
  • अंततः जुलाई 1301 ई. में रणथम्भौर पर कब्जा किया गया।

राजपूतों का जौहर और बलिदान

  • युद्ध से पूर्व राजपूत महिलाओं ने जौहर कर लिया।
  • राणा हम्मीरदेव सहित सभी राजपूत योद्धा युद्ध में मारे गए।
  • रनमल और उसके साथी, जो विश्वासघात करके अलाउद्दीन के पक्ष में गए थे, को मार दिया गया।

3. बंगाल पर असफल प्रयास

बंगाल की स्थिति

1303 ई. में बंगाल में शम्सुद्दीन ने खुद को स्वतंत्र सुल्तान घोषित कर दिया और अपने नाम से सिक्के चलाए।

वारंगल आक्रमण का संदर्भ

डॉ. के. एस. लाल के अनुसार, अलाउद्दीन ने वारंगल पर हमला किया, लेकिन इसके पीछे वास्तविक उद्देश्य बंगाल को अधीन करना था।

परिणाम

  • मुस्लिम सेना की वारंगल में पराजय हुई।
  • बंगाल पर नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास विफल रहा।
  • बंगाल 1324 ई. तक स्वतंत्र बना रहा।

·       बंगाल की असफलता अलाउद्दीन खिलजी के विजय अभियानों में एक अपवाद थी। यह घटना दर्शाती है कि खिलजी साम्राज्य की सीमाएं पूर्व में विस्तार करने में विफल रहीं।

4. चितौड़ की विजय

चित्तौड़ के किले का सामरिक महत्व

चित्तौड़ का किला एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित था और इसे अजेय माना जाता था। इसकी भौगोलिक स्थिति और वास्तुकला इसे किसी भी शासक के लिए चुनौतीपूर्ण बनाती थी। यह किला केवल एक सैन्य ठिकाना नहीं, बल्कि राजपूतों के गर्व और स्वाभिमान का प्रतीक था।

अलाउद्दीन ने जनवरी 1303 ई. में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। राजा रतनसिंह और राजपूत सैनिकों ने सात महीनों तक इस अभियान का दृढ़ता से सामना किया। लेकिन अगस्त 1303 में किले का पतन हुआ। राजपूत स्त्रियों ने रानी पद्मिनी के नेतृत्व में 'जौहर' किया, जिससे यह घटना भारतीय इतिहास में साहस और बलिदान का प्रतीक बन गई।

इतिहासकारों की दृष्टि से घटना का आकलन

चित्तौड़ विजय के बारे में ऐतिहासिक विवरणों में मतभेद है।

  • प्राचीन विवरण: इसामी और अमीर खुसरव जैसे समकालीन इतिहासकारों के अनुसार, राजा रतनसिंह ने आत्मसमर्पण किया और अलाउद्दीन की शरण में चले गए। लेकिन राजपूत परंपराओं में इसे वीरगति के रूप में वर्णित किया गया है।
  • कत्लेआम का आदेश: चित्तौड़ की विजय के बाद अलाउद्दीन ने 30,000 राजपूतों का कत्लेआम किया। यह राजपूतों के कड़े प्रतिरोध को दर्शाता है।
  • चित्तौड़ का प्रशासन: अलाउद्दीन ने किले का नाम बदलकर 'खिज्राबाद' रखा और इसे अपने पुत्र खिज्रखाँ को सौंप दिया।

पद्मिनी की कहानी का ऐतिहासिक और साहित्यिक पक्ष

चित्तौड़ विजय से जुड़ी सबसे प्रसिद्ध कहानी रानी पद्मिनी की है।

(क) साहित्यिक स्रोत

  • पद्मिनी की कहानी का मुख्य आधार मलिक मुहम्मद जायसी द्वारा 1540 ई. में रचित 'पद्मावत' है।
  • अमीर खुसरव ने अपनी रचनाओं में संकेतों के माध्यम से इस कहानी को प्रेरित किया हो सकता है।

(ख) कहानी का कथानक

'पद्मावत' के अनुसार, अलाउद्दीन ने रानी पद्मिनी की सुंदरता से प्रभावित होकर चित्तौड़ पर आक्रमण किया। रानी को दर्पण में देखने के बाद अलाउद्दीन ने राजा रतनसिंह को कैद कर लिया। राजपूतों ने गोरा बादल की वीरता तथा रानी की बुधिमत्ता का सहारा लेकर राणा को छुड़ाया। कहानी के अन्य रूपों में यह कहा गया है कि राणा को अलाउद्दीन के खेमे से मुक्त कराया गया था।

(ग) इतिहासकारों की राय

पद्मिनी की कहानी ऐतिहासिक सत्य है या नहीं, इस पर इतिहासकारों के विचार विभाजित हैं:

  • संदेह करने वाले: डॉ. गौरीशंकर ओझा, डॉ. बी. पी. सक्सेना, और डॉ. के. एस. लाल इसे केवल काव्यात्मक कल्पना मानते हैं।
  • समर्थन करने वाले: अबुल फजल, हाजी उद्दबीर, और कर्नल टॉड जैसे विद्वान इसे सत्य मानते हैं।
  • मध्य मार्ग के समर्थक: डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव और डॉ. एस. रॉय इसे आंशिक रूप से सत्य मानते हैं।

चित्तौड़ विजय के परिणाम

चित्तौड़ की विजय ने राजपूतों के स्वाभिमान को गहरी चोट पहुँचाई।

  • राजपूत प्रतिरोध: रतनसिंह के वंशज हम्मीरदेव ने चित्तौड़ को पुनः स्वतंत्र कराने के लिए संघर्ष जारी रखा। 1321 ई. में हम्मीरदेव ने चित्तौड़ को स्वतंत्र कर लिया।

5. मालवा की विजय

मालवा पर अलाउद्दीन खिलजी का अभियान उसकी सामरिक कुशलता और रणनीतिक योजना का प्रतीक था। मालवा का तत्कालीन शासक महलकदेव एक सशक्त राजा था, और उसका सेनापति हरनंद (कोका प्रधान) एक कुशल राजनीतिज्ञ और योद्धा था। अलाउद्दीन के पहले भी मालवा पर हमले हुए थे, लेकिन 1305 ई. में अलाउद्दीन ने इस क्षेत्र को अपने अधिकार में लाने की निर्णायक योजना बनाई।

महत्वपूर्ण बिंदु:

1.      रणनीति: अलाउद्दीन ने मलिक काफूर के स्थान पर आईन-उल-मुल्क को इस अभियान का नेतृत्व सौंपा। आईन-उल-मुल्क ने महलकदेव की सेना को उज्जैन और भिलसा के क्षेत्रों में निर्णायक रूप से हराया।

2.      युद्ध का परिणाम: हरनंद युद्ध में मारा गया और महलकदेव मांडू भाग गया। आईन-उल-मुल्क ने मांडू के किले का घेरा डालकर विश्वासघात के माध्यम से उसे जीत लिया।

3.      विजय का प्रभाव: इस विजय के बाद उज्जैन, धारनगरी, और चंदेरी को भी दिल्ली सल्तनत में मिला लिया गया। यह विजय मालवा को सल्तनत के सामरिक और प्रशासनिक नियंत्रण में लाने में सहायक सिद्ध हुई।

6. सिवाना का अभियान

1308 ई. में सिवाना पर आक्रमण, राजस्थान के शक्तिशाली शासकों को दबाने की अलाउद्दीन की व्यापक योजना का हिस्सा था। सिवाना का परमार शासक शीतलदेव एक साहसी योद्धा था जिसने मुसलमानों के आक्रमण का वीरतापूर्वक सामना किया।

महत्वपूर्ण बिंदु:

1.      किले की रणनीतिक स्थिति: सिवाना का किला राजस्थान के सामरिक दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्वपूर्ण था।

2.      युद्ध: कई महीनों तक चले इस युद्ध में राजपूतों ने साहसिक प्रतिरोध किया, लेकिन अंततः एक विश्वासघाती की मदद से किले का जल स्रोत बंद कर दिया गया।

3.      परिणाम:

·       शीतलदेव को युद्ध में घेरकर मार दिया गया, और अलाउद्दीन ने किले की सुरक्षा कमालुद्दीन गुर्ग को सौंपी।

·       सिवाना की विजय ने राजस्थान में अलाउद्दीन के प्रभुत्व को और मजबूती दी। यह किला रणनीतिक दृष्टि से दक्षिण-पश्चिम राजस्थान के मार्गों को नियंत्रित करता था, जिससे गुजरात और राजस्थान के बीच सैन्य संचार सुलभ हो गया।

7. जालौर की विजय

जालौर पर अलाउद्दीन का आक्रमण राजस्थान की विजय को पूर्णता प्रदान करने वाला था। इस किले का शासक कान्हणदेव एक साहसी योद्धा था, जिसने कई वर्षों तक मुसलमानों के आक्रमणों का सामना किया।

आरंभिक विरोध: कान्हणदेव ने अलाउद्दीन की अधीनता स्वीकार नहीं की और गुजरात से लौटते समय नसरत खां की सेना को पराजित किया।

दीर्घकालिक संघर्ष: 1311 ई. में कमालुद्दीन गुर्ग के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर आक्रमण हुआ।

युद्ध का अंत: जालौर का किला कई वर्षों के संघर्ष के बाद विजित हुआ। कान्हणदेव की वीरता की गाथाएँ राजस्थान में लोकगीतों के माध्यम से आज भी जीवित हैं।

राजस्थान की विजय का व्यापक महत्व

राजस्थान की विजय अलाउद्दीन खिलजी की विजय-योजना का एक अभिन्न अंग थी। इसने न केवल उत्तर भारत में सल्तनत के सैन्य नियंत्रण को मजबूत किया बल्कि गुजरात और दक्षिण भारत के मार्गों को सुरक्षित किया।

इतिहासकारों का मत:

1.      डॉ. बी. पी. सक्सेना ने राजस्थान विजय को अलाउद्दीन के लिए आर्थिक दृष्टि से अप्रभावी बताया है।

2.      डॉ. दशरथ शर्मा ने इसे उसकी सामरिक और राजनीतिक योजना का अनिवार्य हिस्सा माना।

3.      अधिकांश इतिहासकार सहमत हैं कि राजस्थान की विजय ने अलाउद्दीन के साम्राज्य के विस्तार और उसकी सैन्य श्रेष्ठता को स्थापित किया।

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