वा
न करना फ़िरक़ाबन्दी के लिए अपनी ज़ुबाँ, छिपके
है बैठा हुआ हंगाम-ए-महशर यहाँ।
वस्ल
के सामान पैदा हों तेरी तहरीर से, देख, कोई
दिल न दुख जाए तेरी तक़रीर से।
महफ़िले-नव
में पुरानी दास्तानों को न छेड़, रंग पर जो
अब न आएँ उन फ़सानों को न छेड़।
सर सैयद अहमद के लिए इकबाल
हिन्दी होने पर नाज़
जिसे कल तक था,
हिजाज़ी बन बैठा
अपनी महफ़िल का रिन्द
पुराना आज नमाज़ी बन बैठा।
इकबाल
के लिए आनंद नारायण "मुल्ला"
ये दाग़ दाग़ उजाला
ये शब-गज़ीदा सहर, वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं
ये वो सहर तो नहीं
जिस की आरज़ू ले कर , चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
सुबहे आज़ादी, फैज़ अहमद फैज़
हिन्दू भी सुकूँ से
है मुसलमाँ भी सुकूँ से, इंसान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी
उठता है दिल-ओ-जाँ से
धुआँ दोनों तरफ़ ही, ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी
निदा फ़ाज़ली
भारत का विभाजन क्यों
हुआ ?
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेताओं ने सामान्यतया इसका
उत्तरदायित्व अंग्रेजों की 'फूट डालो और राज करो' की नीति पर ठहराया है जबकि यूरोपीय लेखकों ने विभाजन का कारण भारतीयों में
एकता का अभाव तथा हिन्दू एवं मुसलमानों के पारस्परिक वैमनस्य बताया है। मुस्लिम
लीग की दृष्टि से पाकिस्तान की स्थापना 'अपने आदर्शों एवं
संस्कृति को गढ़ने के लिए नवीन राष्ट्र की आकांक्षा से प्रेरित थी जो, पृथक् राज्य के अतिरिक्त अन्य किसी बात से सन्तुष्ट नहीं हो सकती थी। यदि भारत के विभाजन के समय की विभिन्न
परिस्थितियों का अध्ययन किया जाए तो ज्ञात होता है कि वास्तव में भारत के विभाजन
के लिए किसी एक कारण को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता। भारत के विभाजन के लिए
मुख्य रूप से निम्नलिखित कारण उत्तरदायी थे -
1. मुस्लिम
साम्प्रदायिकता का विकास
1857 ई. के
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में हिन्दू व मुसलमानों ने संयुक्त रूप से अंग्रेजी
शासन का विरोध किया था, किन्तु समय के साथ-साथ मुसलमानों में
साम्प्रदायिकता का विकास हुआ तथा उनको यह अनुभव होने लगा कि उनके व हिन्दुओं के
हित अलग-अलग हैं। मुसलमान यह भी सोचने लगे कि भारत में हिन्दू अधिक संख्या में थे
तथा शैक्षणिक दृष्टि से भी मुसलमान पिछड़े हुए थे। ऐसी स्थिति में यदि अंग्रेज
भारत छोड़कर चले गये तो वे हिन्दुओं पर आश्रित हो जाएंगे। इस बात की पुष्टि जिन्ना
के उस वक्तव्य से होती है जो उसने माउण्टबेटन से कहा था। जिन्ना के शब्दों में,
“मेरा विचार है कि विभाजन आवश्यक है। हम हिन्दुओं पर विश्वास नहीं
कर सकते।"
2. हिन्दुत्व
की पुनरुत्थानवादी राजनीति
उन्नीसवीं सदी में
अनेक ऐसे सुधारकों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने भारतवासियों को प्राचीन भारत के
गौरवमयी अतीत की याद दिलाई तथा जनता को हिन्दू धर्म के पुनरुत्थान के लिए कार्य
करने की प्रेरणा दी। यद्यपि इन समाज सुधारकों उद्देश्य भारत की स्थिति को सुधारना
था,
किन्तु इससे मुसलमान हिन्दुओं को सन्देह की दृष्टि से देखने लगे।
उदाहरणार्थ, तिलक ने 'गणेश' चतुर्थी' तथा 'शिवाजी त्योहार',
अरविन्द ने 'काली पन्थ' व
लाला लाजपत राय ने आर्य समाज में नवीन जान फूंकी। यद्यपि ये कार्य इस्लाम विरोधी
नहीं थे, किन्तु इन्होंने हिन्दू व मुसलमानों में पृथकतावादी
नीतियों की अप्रत्यक्ष रूप से सहायता की।
3. ब्रिटिश
शासन की फूट डालो और राज करो की नीति
अंग्रजों द्वारा प्लासी
के युद्ध को प्लासी क्रांति कहा गया और हिन्दुओ को समझाया गया कि यह मुस्लिमों के
क्रूर शासन से उनकी मुक्ति है। सोमनाथ पर आक्रमण से हिंदुओं की आत्मा हज़ार सालों
से तड़पती रही इसका पहला दावा 1848 में ब्रिटेन की कॉमन
सभा में किया गया। 1857 की क्रांति के बाद हंटर की इंडियन
मुस्लमान के माध्यम से मुसलमानों से यह कहा गया कि हिंदुओं से अलग रहने में ही
उनकी भलाई है और इसके लाभ गिनाये गए। अतः उन्होंने 'फूट डालो
और राज करो' की नीति का पालन करना प्रारम्भ कर दिया। उनकी इस
नीति के परिणामस्वरूप हिन्दू व मुसलमानों की दूरी निरन्तर बढ़ती गयी। प्रारम्भ में
उन्होंने सर सैयद अहमद खां को अपने प्रभाव में लेकर साम्प्रदायिकता की भावना को
भड़काने का प्रयास किया, किन्तु इसमें जब वांछित सफलता न
मिली तो 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया गया। इससे भी
सन्तुष्ट न होने पर 1909 ई. में अधिनियम पारित करके
साम्प्रदायिक चुनाव पद्धति को लागू करने की घोषणा की गई। लार्ड मिण्टो के इस कार्य
ने साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में अत्यधिक मदद की व हिन्दू तथा मुसलमानों के बीच की
दूरी को बहुत बढ़ा दिया। इसी कारण डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने लिखा है, “पाकिस्तान के वास्तविक जन्मदाता इकबाल या जिन्ना नहीं वरन् लार्ड मिण्टो
थे”।
4. कांग्रेस की मुस्लिम लीग के प्रति नीति
भारत के विभाजन के
लिए कांग्रेस की कुछ नीतियां भी उत्तरदायी थीं। कांग्रेस ने सदैव मुस्लिम लीग के
प्रति तुष्टीकरण की नीति को अपनाया व उसकी गलत मांगों को भी स्वीकार किया, जिससे साम्प्रदायिकता की भावना बढ़ती चली गई। उदाहरण के तौर पर,
1916 ई. में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग से समझौता करके पृथक निर्वाचन
प्रणाली को स्वीकार कर लिया। इसी प्रकार साम्प्रदायिक निर्णय (1932 ई.) के समय भी कांग्रेस ने गलत नीति अपनाई जिससे अलगाववाद को बढ़ावा
मिला। इसी तरह अन्तरिम सरकार में भी मुस्लिम लीग को सम्मिलित करके कांग्रेस ने
भारी भूल की, क्योंकि मुस्लिम लीग के मन्त्रियों ने अन्तरिम
सरकार का चलना दूभर कर दिया। इससे यह निष्कर्ष निकला कि कांग्रेस व मुस्लिम लीग
संयुक्त रूप से शासन नहीं कर सकते, अतः पाकिस्तान की मांग को
बल मिला।
5. जिन्ना की हठधर्मिता
पाकिस्तान बनाने का
मूल विचार यद्यपि जिन्ना का नहीं था, किन्तु एक
बार इसे मान लेने के पश्चात् जिन्ना पाकिस्तान से कम कुछ भी मानने को तैयार न थे।
अंग्रेजी नीतियों ने भी जिन्ना को बढ़ावा दिया। जिन्ना की इस हठधर्मिता के कारण
भारतीय समस्या का हल ढूंढना असम्भव हो गया। इस सन्दर्भ में तत्कालीन वायसराय लार्ड
माउण्ट बेटन का यह कथन उल्लेखनीय है, "मुझे इस बात का
घमण्ड था कि मैं लोगों को सही व उचित कार्य करने के लिए तैयार कर सकता परन्तु
जिन्ना के मामले में कुछ भी करना सम्भव न था। उसने अपना मन बना (पाकिस्तान के लिए)
लिया था और कोई भी शक्ति उसे हिला नहीं सकती थी मैं स्वीकार करता हूं कि जिन्ना के
मामले में मैं असफल रहा।
6. साम्प्रदायिक दंगे
जिन्ना की हठधर्मिता
के कारण भारत का विभाजन आवश्यक हो गया था। उसके साथ-साथ समय-समय पर जिस प्रकार
साम्प्रदायिक दंगे भारत में हुए उनसे भी यह स्पष्ट होने लगा कि भारत का विभाजन
आवश्यक था। 16 अगस्त, 1946 ई. को
जिस प्रकार 'प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस' को बड़ी संख्या में लोग मारे गये उसने कांग्रेस को भी यह सोचने पर विवश कर
दिया कि वास्तव में मुस्लिम लीग के साथ समझौता होना व उसका स्थायी होना असम्भव था।
इसकी पुष्टि आचार्य कृपलानी के इस कथन से भी होती है, "इन
भयानक दृश्यों को देखकर इस समस्या के सम्बन्ध में मेरे विचारों पर बहुत प्रभाव
पड़ा है और अन्य लोगों के समान मैं भी यह सोचने पर विवश हूं कि विभाजन ही इस
समस्या का एकमात्र विकल्प है।''
7. पाकिस्तान के स्थायित्व में सन्देह
कांग्रेस के अनेक
नेताओं का विचार था कि पाकिस्तान बनने के पश्चात् भी टिक नहीं सकेगा व पुनः भारत
में उसका विलय हो जाएगा, अतः इन नेताओं ने पाकिस्तान
के निर्माण को समस्या के अस्थायी हल के रूप में स्वीकार किया, किन्तु दुर्भाग्यवश यह आशा कभी पूर्ण न हो सकी।
8. सत्ता हस्तान्तरण की धमकी
1947 ई. तक
आते-आते अंग्रेजी सरकार को यह स्पष्ट हो चुका था कि भारत पर अब अधिक समय तक अधिकार
बनाए रखना उनके लिए सम्भव न था । अतः ब्रिटिश प्रधानमन्त्री एटली ने 20 फरवरी, 1947 ई. को यह घोषणा की थी कि जून,
1948 ई. तक सत्ता भारतीयों को सौंप दी जाएगी। अंग्रेजों की इस घोषणा
से भारतीय नेता यह सोचने पर विवश हुए कि यदि शीघ्र ही भारतीय समस्या का हल न निकला
तो अंग्रेजी सरकार अपने विवेक से कार्य कर सत्ता हस्तान्तरित कर देगी जो कि भारत
के लिए हानिकारक हो सकता था तथा गृह युद्ध होने पर भारत दो से अधिक भागों में
विभक्त हो सकता था, अतः कांग्रेसी नेता माउण्टबेटन समझौते को
स्वीकार कर भारत के विभाजन के लिए तैयार हो गये।
9. अंततः कांग्रेस की सहमति
कांग्रेस प्रारम्भ
में भारत का विभाजन किए जाने की घोर विरोधी थी। माउण्टबेटन ने लिखा है कि,
"विभाजन के विचार से नेहरू भयभीत हो गये थे "। महात्मा
गांधी ने माउण्टबेटन से कहा था, “कुछ भी हो जाए उन्हें भारत
के विभाजन के विषय में सपने में भी नहीं सोचना चाहिए।” किन्तु तत्कालीन परिस्थिति
को देखकर अन्ततः कांग्रेसी नेता अपने विचारों में परिवर्तन लाने के लिए विवश हुए व
उन्हें अनुभव हो गया कि विभाजन के अतिरिक्त और अन्य कोई रास्ता न था। सरदार पटेल
ने भी इस तथ्य को स्वीकारते हुए कहा, "मैंने यह अनुभव
किया कि यदि हम विभाजन को स्वीकार न करते तो भारत अनेक टुकड़ों में विभक्त हो जाता
और बिल्कुल बर्बाद हो जाता, मैंने अनुभव किया कि हमारे देश में एक के बजाय अनेक पाकिस्तान
बन जाएंगे।"
10.
माउण्टबेटन का प्रभाव
भारत आने के कुछ समय
पश्चात् ही माउण्टबेटन को स्पष्ट हो गया था कि भारत का विभाजन आवश्यक है, क्योंकि उसने देख लिया था कि कांग्रेस व मुस्लिम लीग में जिन्ना के होते
हुए कोई समझौता होना असम्भव है। माउण्टबेटन के ही शब्दों में ही भारत में स्थिति
इतनी विस्फोटक हो चुकी थी मानो किसी ज्वालामुखी पर खड़े हों। अतः उसने कांग्रेसी
नेताओं को विभाजन के लिए तैयार होने हेतु समझाया। माउण्टबेटन की इस कार्य में लेडी
माउण्टबेटन (एडविना) ने भी बहुत सहायता की। लार्ड माउण्टबेटन के भारतीय नेताओं पर
प्रभाव का उल्लेख करते हुए मौलाना अबुल कलाम आजाद ने लिखा है, “लार्ड माउण्टबेटन के भारत आगमन के एक माह के अन्तराल में ही पाकिस्तान
बनाये जाने के दृढ़ विरोधी पं. नेहरू यदि विभाजन के समर्थक नहीं तो कम से कम तटस्थ
हो गए। मेरा विचार है कि इस परिवर्तन का एक प्रमुख कारण लेडी माउण्टबेटन का
व्यक्तित्व था। "
इस प्रकार उपरोक्त
सभी कारणों ने इस प्रकार की परिस्थितियां उत्पन्न कर दीं कि भारत के विभाजन के
अतिरिक्त भारतीय समस्या का कोई अन्य विकल्प न रहा। इस प्रकार भारत 15 अगस्त, 1947 ई. को स्वतन्त्र हुआ, किन्तु उससे एक दिन पूर्व भारत का विभाजन हो गया था।
जो भी हो लेकिन आज
हमें अपनी ऐतिहासिक दृष्टि को 'विभाजन के कारणों' से परे फेर कर उसे उन लोगों की
तरफ करनी चाहिए जिन लोगों ने विभाजन को जिया, उस दुःस्वप्न को
याद करना चाहिए जो उससे पैदा हुआ, और जो स्थानांतरण वह ले आया उसकी ओर देखना चाहिए। दरअसल
"विभाजन का सत्य" उससे पैदा
हिंसा में निहित था और इसलिए हालिया इतिहासलेखन कारण-केंद्रीयता से सार्थक सीमा तक
हटा है और उसके अनुभवों में और भी दिलचस्पी ली जाने लगी है। यह बात प्रकाशनों की
हाल की बाढ़ से सिद्ध होती है, जो विभाजन की यादों पर,
उस दुखद अनुभव को प्रस्तुत करने वाले रचनात्मक साहित्य पर और
"महात्रासदी" की चित्रमय प्रस्तुतियों पर केंद्रित हैं https://www.youtube.com/watch?v=3hee6EMHMAk ।
ताकि इससे सीख लेते हुए पुनः हम इसके शिकार न बनें।
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