गुरुवार, 20 फ़रवरी 2025

नूरजहाँ का राजनीतिक प्रभुत्व: समीक्षा

असाधारण योग्यता वाली विदुषी महिला नूरजहाँ का भारतीय इतिहास में विशेष महत्त्व है। 1611 में जहाँगीर से विवाह तथा उसकी योग्यता का स्वाभाविक परिणाम प्रशासनिक मामलों में उसके सहयोग के रूप में दिखा। सम्राट् ने उसे प्रभुसत्ता और शासन का भी अधिकार दे दिया था। कभी-कभी वह सम्राट् के समान झरोखा दर्शन देती थी और लोग उपस्थित होकर उसका आदेश सुनते थे। उसके नाम के सिक्के ढाले गए। ऐसे सभी फरमानों पर जिन पर सम्राट् के हस्ताक्षर आवश्यक होते थे, नूरजहाँ बेगम का नाम भी साथ-साथ लिखा जाता था। मुअतमिद खाँ ने लिखा है कि नूरजहाँ की प्रभुसत्ता इस सीमा तक पहुँच गई थी कि सम्राट् केवल नाम का सम्राट् रह गया था। मुअतमिद खाँ ने यह भी लिखा है कि जहाँगीर बार-बार यह घोषणा करता था कि मैंने प्रभुत्व नूरजहाँ को सौंप दिया है और मुझे सेर भर शराब और आधा सेर कबाब के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहिए।

सर टॉमस रो सन् 1615 ई. में भारत आया था। वह दरबार में नूरजहाँ गुट का उल्लेख करता है। डॉ. बेनी प्रसाद ने नूरजहाँ के प्रभाव को दो कालों में बाँटा है। प्रथम काल सन् 1611 ई. तक था जिसमें उसके माता-पिता जीवित थे और उन्होंने नूरजहाँ को मर्यादित किया था। दूसरा काल सन् 1622 से 1627 ई. तक रहा। इस काल में जहाँगीर अशक्त हो गया था और नूरजहाँ गुट को विरोधी गुट का सामना करना पड़ रहा था

प्रथम काल (सन् 1611-1622 ई.) जुनता का उदय

सम्राट् ने नूरजहाँ को बादशाह की उपाधि प्रदान की थी। अपने गुट को शक्तिशाली बनाने के लिए नूरजहाँ ने अपने समर्थकों को ऊँचे पद दिलाए और अपने विरोधियों को दुर्बल किया। इससे दरबार में दो दल बन गए। डॉ. बेनी प्रसाद का कहना है कि एक दल नूरजहाँ समर्थक था और दूसरा दल खुसरो समर्थक था। नूरजहाँ के समर्थकों को ऊँचे मनसब प्रदान किए गए। एतमादुद्दौला का मनसब जो सन् 1611 ई. में 2000/5000 था। सन् 1616 ई. में 7000/5000 किया गया। आसफ खाँ का मनसब जो सन् 1611 ई. में 500/100 था सन् 1616 ई. में 5000/3000 किया गया। इब्राहीम खाँ को सन् 1616 ई. में 2000 का मनसब दिया गया और उसे बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया गया। खुर्रम का मनसब सन् 1610 ई. में 10000/5000 था जो सन् 1617 ई. में 30000/20000 किया गया। महाबत खाँ, खान-ए-आजम और शहजादा परवेज की अवनति की गई। महाबत खाँ जो प्रशासन में स्त्री-प्रभाव का विरोधी था, काबुल भेज दिया गया। डॉ. बेनी प्रसाद ने लिखा है कि, “इससे नूरजहाँ, एतमादुद्दौला और आसफ खाँ का युवराज खुर्रम से गठबन्धन हो गया। अगले दस वर्षों में अत्यधिक योग्य चार व्यक्तियों के इस गुट ने वास्तव में साम्राज्य पर शासन किया।”

द्वितीय काल (सन् 1622-1627 ई.) जुनता का टूटना

सन् 1621 ई. में जहाँगीर बीमार हो गया। इससे खुर्रम को ज्यादा चिन्ता हुई। वह आगरा में रहकर सम्राट् की अस्वस्थता के कारण प्रशासन अपने हाथों में लेना चाहता था। नूरजहाँ और उसके मध्य मनोमालिन्य तथा सन्देह बढ़ रहा था। अतः जब सम्राट् ने उसे कान्धार जाने का आदेश दिया तो उसने इन्कार कर दिया। शाहजहाँ यही समझता था कि नूरजहाँ शहरयार को बढ़ाने तथा उसे मिटाने के लिए ये कार्य कर रही है। अतः उसने विद्रोह कर दिया। विद्रोह चार साल तक चला और महाबत खाँ ने कुशलतापूर्वक खुर्रम के विद्रोह को कुचल दिया। दक्षिण उसके हाथ से निकल गया और उसे अपने दो पुत्र दारा और औरंगजेब दरबार में जमानत के रूप में भेजने पड़े। नूरजहाँ की यह बड़ी सफलता थी।

नूरजहाँ  जहाँगीर के गिरते हुए स्वास्थ्य से चिन्तित रहती थी लेकिन आसफ खाँ ने चतुरतापूर्वक उसके समक्ष महाबत खाँ के विद्रोह की समस्या प्रस्तुत कर दी। दरअसल आसफ खाँ अपने दामाद खुर्रम के पक्ष में कार्य करना आरम्भ कर दिया। उसका उद्देश्य महाबत खाँ को परवेज से पृथक् करना था जिससे दोनों निर्बल हो जाएँ और उसके दामाद का मार्ग-प्रशस्त हो जाए। आसफ खाँ ने महाबत खाँ से बंगाल की लूट और हाथियों का हिसाब माँगा। दुर्भाग्य से महाबत खाँ यह समझता रहा कि यह सर्वशक्तिशाली नूरजहाँ का कार्य है जो अब उसे कुचलना चाहती है। महाबत खाँ ने विद्रोह कर दिया लेकिन उसका उद्देश्य केवल सम्राट् को अपने नियन्त्रण में रखना था जिससे नूरजहाँ उसके विरुद्ध कोई कार्य न कर सके। लेकिन वह एक योग्य सैनिक मात्र था और वह राजनीतिक दाँव-पेच नहीं समझ सका जिन्हें उस समय आसफ खाँ संचालित कर रहा था। अतः वह असफल हो गया और उसे भागना पड़ा। आसफ खाँ ने कूटनीतिक चातुर्य में अपनी बहन नूरजहाँ को पराजित कर दिया। सन् 1622 से 1627 ई. तक नूरजहाँ आसफ खाँ की कुटिलता को समझने में असमर्थ रही। सन् 1627 ई. में जहाँगीर की मृत्यु होते ही उसने अपनी नीति को खुले रूप में प्रकट कर दिया। उसने खुसरो के पुत्र दावरबख्स को नाममात्र का सम्राट् बनाकर खुर्रम को शीघ्र आगरा पहुँचने के लिए लिखा। उसने शहरयार को युद्ध में पराजित किया, जिसमें शहरयार मारा गया।

वास्तव में, नूरजहाँ की प्रतिष्ठा तथा शक्ति का आधार सम्राट् था। जहाँगीर के मरते ही उसकी शक्ति का सारा भवन धराशायी हो गया। शाहजहाँ ने कृपा करके उसे पेन्शन प्रदान की। नूरजहाँ और उसकी पुत्री लाडली बेगम ने अपना शेष जीवन वैधव्य रूप में लाहौर में बिताया जहाँ जहाँगीर को दफन किया गया था

डॉ. बेनी प्रसाद के अनुसार उसने गुट का निर्माण किया था तथा सम्राट् जहाँगीर केवल नाममात्र का सम्राट् रह गया था और शासन सत्ता उसके हाथों में थी। इस मत को नुरुल हसन सहित अनेक विद्वान् स्वीकार नहीं करते हैं। माना जाता है कि प्रथम काल में उसका प्रभाव रचनात्मक था। लेकिन द्वितीय काल में वह संकीर्ण स्वार्थों से प्रेरित हुई और उसने सिंहासन के योग्यतम दावेदार शाहजहाँ की अपेक्षा अयोग्य शहरयार को बढ़ाना शुरू कर दिया। स्त्रियोचित ईर्ष्या के कारण उसने शाहजहाँ और महाबत खाँ की शक्तियों को कुचला। डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है कि, “नूरजहाँ के कारण जहाँगीर विलासिता में डूब गया और उसने अपने पद के कर्तव्यों की उपेक्षा की।” उन्होंने आगे लिखा है कि, “राज्य पर नूरजहाँ का प्रभाव पूर्णरूप से अच्छा नहीं था। सत्ता के प्रति उसका असीमित मोह, उसकी स्त्रियोचित ईर्ष्या, अपने पति को अपना दास बनाने के लिए उसकी चतुर युक्तियाँ, इन सबसे संकट उत्पन्न हुए जिससे साम्राज्य की शान्ति भंग हुई।” लेकिन नूरजहाँ ने गुट का निर्माण किया था यह मत यूरोपीय स्रोतों (सर टॉमस रो) पर आधारित है। मुअतमिद खाँ ने इसका उल्लेख नहीं किया है। डॉ. आर. पी. त्रिपाठी के अनुसार, नूरजहाँ के पिता और भाई को जो उच्च मनसब मिले थे, वे उनकी योग्यता के कारण मिले थे, इनमें कोई पक्षपात नहीं था। शाहजहाँ को भी जो उपाधि, मनसब मिले थे वे भी उसकी योग्यता के कारण मिले थे। विद्रोह के बाद नूरजहाँ ने शाहजहाँ को क्षमा देने का विरोध नहीं किया था। मुगल दरबार में अमीरों के विभिन्न गुट रहा करते थे, यह कोई नई बात नहीं थी। 


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