जहांगीर को दक्षिण के राज्यों के साथ संबंधों तथा दक्षिण नीति को आगे बढ़ाने
की परिस्थिति विरासत में मिली थी। जहांगीर द्वारा दक्षिण में प्रवेश के कारण लगभग
वही थे जिनसे मुगल सम्राट अकबर प्रेरित हुआ था। साम्राज्य की प्रकृति, आर्थिक कारण
एवं राजनीतिक एकीकरण इसका प्रमुख कारण था। अपने पिता की तरह जहांगीर भी दक्षिण
भारत की विजय के लिए समर्पित था ताकि देश में राजनीतिक एकता स्थापित हो सके। इस
प्रकार यह अकबर की नीति की निरंतरता थी जिसमें दक्षिण के समस्त क्षेत्रीय राज्यों
से आक्रामक युद्ध की कल्पना की गई थी। मुगल सम्राट जहांगीर और दक्षिण के राज्यों
के साथ उसके संबंध को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
जहाँ ज्यादातर समय में संघर्ष के दो मोर्चे थे – एक शत्रु के विरुद्ध तथा दूसरा
मुगलों की सेना के अन्दर।
प्रथम चरण (1605
से 1616) : मलिक अंबर का प्रतिरोध
प्रथम चरण में 1605 से 1616 ईसवी तक की अवधि को
लिया जा सकता है। इस समय दक्षिण में अहमदनगर सल्तनत का अमीर मलिक अंबर मुगल सम्राट
अकबर के नियंत्रण में गए अहमदनगर राज्य के क्षेत्रों को प्राप्त करने के लिए
प्रयासरत रहा। 1608 में जहाँगीर ने अब्दुल रहीम खाने खाना को दकन की कमान सौंपी। खाने
खाना ने यह यह घोषणा की कि वह दो साल के अन्दर न केवल अम्बर के हाथों में चले गए
प्रदेशों को वापस लेगा, बल्कि वह बीजापुर को भी शाही साम्राज्य का हिस्सा बना देगा।
इस धमकी से घबरा कर मलिक अम्बर ने बीजापुर के आदिल शाह से मदद की अपील की। तथा यह
दलील दी की सभी दृष्टियों से दोनों राज्य एक हैं। बीजापुर के समर्थन और मराठों के सक्रिय
सहायता से लैस अम्बर ने खान-ए-खाना को बुरहानपुर तक हट जाने के लिए मजबूर कर दिया।
अब 1610 में शहजादा परवेज के बाद खान-ए-जहाँ लोदी को आजमाया गया परन्तु वह भी
अम्बर की चुनौती का सामना नहीं कर पाया। इधर मलिक अंबर धीरे-धीरे उद्धत होता चला
गया और उसने अपने मित्रों को नाराज़ कर लिया। खान-ए-खाना, जिसे फिर से दक्कन में मुगल प्रतिनिधि नियुक्त किया गया था,
इस स्थिति से लाभ उठाकर बहुत-से हब्शियों और मराठा सरदारों
को जैसे जगदेव राय, बाबाजी काटे, उदाजी राम आदि को अपने पक्ष में मिला लेने में कामयाब हो
गया। मराठा सरदारों की मदद से खान-ए-खाना ने 1616 ई में, अहमदनगर, बीजापुर और गोलकुंडा की संयुक्त सेना को गहरी शिकस्त दी।
दूसरा चरण (1617 से 1620) : जब
खुर्रम शाहजहाँ बना
दूसरा चरण 1617 से 1620 ईसवी
के मध्य रख सकते हैं जब विजय को पक्का करने के लिए मुगल शहजादा खुर्रम को दक्षिण
अभियान का नेतृत्व दिया गया। इस अवधि में मुगलों द्वारा बीजापुर राज्य के सुल्तान
इब्राहिम आदिलशाह को अन्य दो राज्यों के सुल्तानों अहमदनगर तथा गोलकुंडा की
अपेक्षा प्राथमिकता देकर दक्षिण की स्थिति को नियंत्रित करने का प्रयास किया गया। जहाँगीर
ने आदिलशाह को फरजंद अथवा पुत्र की उपाधि दी। वास्तव में बीजापुर और अहमदनगर के
गठबंधन को तोड़कर मुगल सम्राट जहांगीर अहमदनगर को अकेला कर देना चाहता था। इससे
मुगल सेना ने सुगमता से अहमदनगर पर अधिकार स्थापित कर लिया।
12 अक्तूबर, सन 1617 को खुर्रम पाये हुए अपार भेंट के साथ मांडू के शाही डेरे
में पहुंचा जहाँ भेंटो की कीमत 22 लाख 60 हज़ार रुपये आंकी गई। जहाँगीर लिखता है कि
“सजदा और पाबोश के बाद मैंने शहजादे को झरोखे में बुलाया तथा प्रसन्नता और अनुग्रह
के साथ उठकर उसका प्रेमपूर्वक आलिंगन किया।.....उसको 30 हजार का मंसब दिया जो
अभूतपूर्व था तथा शाहजहाँ की उपाधि से सम्मानित किया”।
तृतीय चरण (1621
से 1627) : मुग़ल दरबार में सत्ता संघर्ष
मुगल सम्राट जहांगीर के साथ दक्षिण के राज्यों के संबंध का तृतीय चरण 1621 से 1627 ईस्वी तक चलता रहा। दो वर्षों के भीतर ही मलिक अंबर मुगल
एवं बीजापुर राज्य के क्षेत्रों पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल रहा। मलिक
अंबर बीजापुर की राजधानी तक पहुँच गया। उसने इब्राहीम आदिलशाह द्वारा बनवाई नई
राजधानी नौरसपुर को जला डाला और शाह को भाग कर किले में शरण लेने को मजबूर कर
दिया। इसे अंबर की शक्ति की पराकाष्ठा माना जा सकता है। अतः शाहजहाँ ने दूसरी बार
दक्कन सैन्य अभियान की कमान इस शर्त पर संभाली कि अपने बड़े भाई राजकुमार खुसरो को
अपनी व्यक्तिगत हिरासत में रखने दिया जाए। अंबर के विरुद्ध अपने सैन्य अभियान को
वह अभी अंजाम दे ही रहता कि उसे बुरहानपुर में नूरजहाँ के राजनैतिक षड़यंत्र की
गुप्त सूचना प्राप्त हुई। दरअसल नूरजहाँ अपने दामाद शहरयार को उत्तराधिकारी के लिए
आगे बढ़ाना चाह रही थी। सशंकित शाहजहाँ ने मलिक अंबर तथा उसके सहयोगियों के साथ
आसान शर्तों पर संधि स्थापित कर ली। अहमदनगर बीजापुर तथा गोलकुंडा के सुल्तानों ने
क्रमशः बारह, अठारह और बीस लाख रुपये दिए तथा ताज में अपनी अधीनता को स्वीकार कर
लिया। शाहजहाँ अपने कैदी भाई खुसरो को निपटा कर सेना के साथ उत्तर की तरफ बढ़ गया।
मौका मिलते ही अंबर ने विद्रोह का लाभ उठाया। हालाँकि अब वह वृद्ध हो गया था तथा
1626 में 80 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार जहांगीर के शासनकाल में दक्षिण के साथ मुगल संबंध का सबसे
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि मुगल सम्राट अकबर के समय से अधिक स्थलीय सीमा में
विस्तार नहीं हुआ। किंतु अहमदनगर के हब्शी अमीर मलिक अंबर के प्रबल विरोध के
उपरांत भी मुगल खानदेश, अहमदनगर क्षेत्र पर अपना वर्चस्व बनाए रहे। यद्यपि मुगल
सम्राट जहांगीर ने दक्षिण में कोई विशेष उपलब्धि नहीं प्राप्त की परंतु इतना अवश्य
रहा कि उसके शासनकाल में पूर्व में स्थापित दक्षिण में मुगल सीमाएं यथावत बनी रहीं।
मलिक अंबर
एक अनजान आरंभिक जीवन वाला इथियोपिया का हब्शी दास संभावनाओं से भरे दकन में आ
पहुंचा। अहमदनगर के पतन के बाद मलिक अंबर ने एक निजामशाही शाहजादे को ढूंढ़ निकाला
और बीजापुर के मूक समर्थन से उसे द्वितीय मुर्तजा निजामशाह के नाम से अहमदनगर की
गद्दी पर बैठा दिया तथा खुद उसका पेशवा बन गया। उसने निष्काषित सिपाहियों, अफगान
लड़ाकों, हब्शियों तथा मराठा बारगीरों का झुण्ड तैयार कर लिया। छापामार युद्ध
प्रणाली जिसे बर्जागिरी या बर्गागिरी कहा जाता था, से जिसके मुग़ल अभ्यस्त नहीं थे,
उसने मुगलों का जीना हराम कर दिया। इसने बरार, अहमदनगर और बालाघाट में अपनी स्थिति
मजबूत कर ली।
एक समकालीन मुग़ल इतिहासकार मुहम्मद खां के अनुसार युद्ध कला, सैन्य सञ्चालन,
सही निर्णय और प्रशासन में उसका कोई स्पर्शी नहीं था। वह दकनी स्वतंत्रता का
पराक्रमी योद्धा था। मलिक अंबर ने भूराजस्व की टोडरमल वाली प्रणाली आरंभ करके
निज़ामशाही के प्रशासन में सुधार करने की कोशिश की। उसने ठेके (इजारे) पर जमीन
देने की पुरानी प्रथा को समाप्त कर दिया क्योंकि वह किसानों के लिए तबाही का कारण
थी। उसने कृषि सम्बंधित समस्याओं को दूर कर कृषि का विस्तार किया। उसने स्थानीय
कानून व्यवस्था पर जोर दिया।
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