शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

शोध आलेख - डॉ बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और बुद्धिज्म : नव यान

सन्दर्भ के लिए - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “डॉ॰ बाबासाहब भीमराव अंबेडकर और बुद्धिज्म : नवयान.” समसामयिक सृजन अक्तूबर - दिसंबर (2021): 220–222. Print.


सार

डॉ० अंबेडकर के आध्यात्मिक अंतर्द्वंद्व का अनथक बौद्धिक प्रयास उनके जीवन के अंतिम पड़ाव में स्पष्ट हो गया। उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकार ही नहीं किया बल्कि संकल्प लिया कि वह अब उसके बारह सौ वर्ष के बनवास को दूर करेंगे तथा उसे उसकी मातृभूमि में पुनः स्थापित कर भारतीय संस्कृति को एक शाश्वत संशोधनवादी पुनर्जीवन देंगे। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि की तार्किकता तथा नैतिकता के आग्रह ने धर्म का एक ‘नया रास्ता’ विकसित किया जिस पर उनके लाखो लोग चल पड़े।

बीज शब्द

डॉ अंबेडकर, नवयान, बुद्धिज्म, धर्म, भारत, संस्कृति  

1. पृष्ठभूमि

धर्म के उद्देश्य को रेखांकित करते हुए डॉ अंबेडकर कहते हैं कि व्यक्ति के सद्गुणों का विकास सच्चे धर्म का अन्तिम उद्देश्य है। वह सनातन संस्कृति के अग्रणी नेता तिलक की इस बात से इत्तेफाक रखते थे कि ’’जिस कारण प्रजा का धारण होता है वही धर्म है।’’ धर्म प्रजा के धारण के लिए बंधुभाव, समता और स्वतंत्रता के सद्गुणों के संस्कार डाले, ऐसी अपेक्षा ही नहीं बल्कि धर्म की अहम जिम्मेदारी होती है। हिन्दू धर्म इन सद्गुणों के संस्कार पैदा नहीं करता इसलिए इसको नकारना पड़ता है। उनकी यह स्थापना है कि अस्पृश्यता के कारण ही करोड़ों व्यक्तियों के गुणो का विकास नहीं हो सका। ऐसा धर्म जो सदियों से एक पूरे वर्ग को मानवीय अधिकारों से, धन संचय से, शस्त्र से वंचित करता गया वह धर्म कहलाने की योग्यता नहीं रखता। जो धर्म अज्ञानियों को अज्ञानी, निर्धनों को निर्धन रहने की सीख देता हो, वह धर्म न होकर भयावह कैदखाना है। इसलिए डॉ अंबेडकर ने 13 अक्तूबर 1935 को येवला कांफ्रेंस में, बहुत सोच समझ कर, धर्मान्तरण की घोषणा की और कहा - ’’दुर्भाग्य से मैं हिन्दू समाज में एक अछूत के रूप में पैदा लिया। यह मेरे वश में नहीं था लेकिन हिन्दू समाज में बने रहने से इनकार करना मेरे नियंत्रण में हैं और मैं आपको आश्वासन देता हूँ कि मैं मरते समय हिन्दू नहीं रहूँगा।’’1

15 अक्तूबर 1956 को, अपनी मृत्यु से लगभग डेढ़ माह पूर्व, इस बात का ध्यान रखते हुये कि इससे भारतीय इतिहास और परम्परा को कोई नुकसान न हो उन्होंने अपने तीन लाख अस्सी हज़ार अनुयायिओं के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया।2 इससे अनेक आलोचक यह प्रश्न उठातें हैं कि जब अंबेडकर ने हिन्दू धर्म को त्यागने का संकल्प कर ही लिया था तो उन्होंने बीस साल का समय क्यों लिया। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने जान बुझ कर बुद्ध के 2500 वें जन्म दिन का इंतजार किया। जबकि बी एस मूर्ति को ऐसा लगता है कि हिन्दू धर्म में जो सबसे बेहत्तर था अंबेडकर उसे काफी पसंद करते थे।3 अंबेडकर का दावा था कि संविधान के निर्माण के दौरान उन्होंने इसका आधार विकसित किया तथा राष्ट्रीय झण्डे पर अशोक चक्र लगवाया तथा अशोक स्तम्भ के शेरों को राष्ट्रीय प्रतीक बनवाया जिससे भारतीय संस्कृति के दायरे को विस्तृत तथा समावेशी बनाया जा सके।

2. शोधपत्र का उद्देश्य

इस शोध पत्र का उद्देश्य उन बौद्धिक कारणों, सामाजिक परिस्थितिओं तथा व्यवहारिक कारणों की पड़ताल करना है जिन्होंने डॉ अंबेडकर को बौद्ध धर्म अपनाने के लिए आकृष्ट किया। यह लेख तर्कशील बौद्ध धर्म के उस नयेपन की विशेषताओं की भी पहचान करेगा जिसको स्वयं एक डॉ ने रचा।

3. शोध परिणाम 

3.1. धर्म की आवश्यकता : मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व

डॉ अंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता का जो तर्क बुना वह जीवन तथा समाज के आचार के लिये धर्म को आवश्यक आधारशिला तथा सामाजिक धरोहर घोषित करता है। यह कर्मकाण्डीय पाखण्ड के परे सकारात्मक मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व है। वो मार्क्सवाद की आलोचना करते हुए कहते हैं कि इंसानी जीवन की शर्त सिर्फ रोटी नहीं है क्योंकि उसके पास एक दिमाग भी है जिसे विचार रूपी भोजन चाहिए। धर्म मनुष्य में आशा जगाता है तथा उसे क्रियाशील बनाता है।4 

3.2. धर्म की विशेषताएं : सदाचार, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व

’बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’ नामक एक लेख में डॉ बाबा साहेब ने मानवीय जीवन में धर्म और उसकी विशेषताओं को इस प्रकार स्पष्ट करते हैं -

1- समाज की ’स्थिरता’ और ’नियंत्रण’ के लिए नीति की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के अभाव में समाज रसातल में जा सकता है। इसलिये किसी भी समाज को धर्म की आवश्यकता होती है।

2- धर्म को अगर बने रहना हो तो उसे बुद्धि प्रामाण्यवादी होना चाहिए। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवादी है।

3- केवल ’नीति की संहिता’ का अर्थ धर्म नहीं हैं। धर्म की नीति संहिता में स्वतंत्रता, समता और बन्धुता इन मूलभूत तत्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिये।

4- दरिद्रता को पवित्र मानने का आग्रह किसी भी धर्म को नहीं करना चाहिए, अथवा दरिद्रता का गौरवगान भी नहीं होना चाहिए।5

3.3. बौद्ध धर्म ही क्यों? : करुणा, सदाचार और तर्क

डॉ अंबेडकर जी जैसी प्रतिभा को बौद्ध धर्म आकृष्ट क्यों कर गया इसका उत्तर उनके विवेचन में मिलता है। हिन्दू धर्म में असामाजिक और विखण्डनकारी वर्ण व्यवस्था की कल्पना, इस्लाम की लोकतंत्रघाती कट्टरता तथा ईसाई धर्म की साम्राज्यवादिता और रंगभेद की नीति का खुला समर्थन के कारण इन धर्मो ने उन्हें आकर्षित नहीं किया। समता, बन्धुता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों का समावेश जिस धर्म में हो वे उसकी खोज में भटक रहे थे। सिद्धार्थ नामक व्यक्ति ने जिस धर्म की बात की वह इन प्रचलित धर्मों से एकदम भिन्न था। इस धर्म में गूढ़ शक्ति का किसी प्रकार का स्थान नहीं है। ईश्वरीय कृपा, वरदान या शाप, स्वर्ग या नरक इसकी कोई गुंजाइश इस धर्म में नहीं है। सिद्धार्थ का यह धर्म हाड़ मांस के व्यक्ति द्वारा उसके ही जैसे हाड़- मांस के लोगों के लिए, उनकी ही भाषा में, उनके ही शब्दों में कहा गया है। इस धर्म में श्रद्धा के लिए कोई स्थान नहीं है। प्रश्न करो, शकाएँ उपस्थित करो, विचार करो और अगर तुम्हारे विवेक को मान्य हो तभी स्वीकार करो। सिद्धार्थ कहीं पर भी सर्वज्ञता का दावा नहीं करते। कोई आदेश, संदेश या कोई निर्णायक बात नहीं और यही इस धर्म की शक्ति है।

3.4. बौद्ध धर्म में कालगत बुराइयाँ : अंध श्रद्धा और कर्मकांड

परन्तु गौतम बुद्ध की मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म में अनेक अंधश्रद्धायें और कर्मकांड घुस गए थे। बाद के सैकड़ों वर्षों में इसके कई पंथ उपपंथ बने ढाई हजार वर्ष की परंपरा में मुक्त बौद्ध धर्म खो सा गया था। डॉ बाबासाहेब बौद्ध धर्म को उसकी तेजस्विता के साथ प्रस्तुत करना चाह रहे थे। ’बुद्ध एंड हिज धम्म’ में उन्होंने यह कार्य पूर्ण किया। यह ग्रंथ केवल बौद्ध धर्म की महिमा को ही स्पष्ट नहीं करता उसका नया स्वरूप प्रस्तुत करता है। हिंदू धर्म की तरह बौद्ध धर्म की भी एक सीमा थी कि बाइबल, कुरान या जेंद अवेस्ता की तरह बौद्ध धर्म का कोई एक मूल ग्रंथ नहीं है। ग्रंथ के नाम पर अनेक ग्रंथ तथा  सैकड़ों भारतीय संस्करण उपलब्ध थे। कुछ को परंपरा ने बहुत महत्व दिया है कुछ में मतभेद या मीमांसा भेद है। उसके दार्शनिक सिद्धांत, संघ संबंधी नियम, उसकी शिक्षा आदि को लेकर अराजकता की स्थिति है इन सबके बीच से मार्ग निकालकर बौद्ध धर्म के मूलभूत तत्वों को प्रस्तुत करना काफी परिश्रम का काम था। बौद्ध धर्म की श्रेष्ठता को सिद्ध करने हेतु उन्होंने इस चुनौती को स्वीकार किया। सिद्धार्थ के गौतम बुद्ध पद प्राप्त हो जाने के बाद उनके चरित्र के सभी प्रश्न, उनके सभी प्रवचन उनके संदर्भ, इन सब का गंभीर अध्ययन डॉ बाबासाहेब ने किया। यह 1935 से 1956 तक चलता रहा। बुद्ध के स्वतंत्र जीवन दर्शन की खोज में अंबेडकर जी ने अपनी बुद्धिमत्ता तथा शास्त्रीय दृष्टि को दांव पर लगा दी। व्यापक अध्ययन के बाद परंपरागत बुद्ध चरित्र की कई विसंगतियां उनके ध्यान में आ गईं।

3.5. बौद्ध धर्म का पुनर्जीवन : डॉ का उपकार

बुद्ध चरित्र और बौद्ध दर्शन की नई सीधी-सादी तर्क बुद्धि और वैज्ञानिक दृष्टि पर आधारित व्याख्या करना वास्तव में एक साहस का कार्य था। यह ग्रंथ वास्तव में बीसवीं शताब्दी का एक नया भाष्य था। इस भाष्य की नैतिकता को पढ़कर विद्वानों ने इसकी तुलना ’नये बाइबल’ के साथ की है’। यह भाष्य उन्होंने नव बौद्धों के लिए तैयार किया है। बौद्ध धर्म का स्वीकार सिर्फ राजनीतिक या केवल सामाजिक ही नहीं है अपितु यह एक नए जीवन दर्शन को स्वीकारने का प्रश्न है। इस कारण बौद्ध धर्म में प्रवेश एक विशिष्ट काल की घटना ना होते हुए निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, ऐसी उनकी धारणा थी। इसलिए नव बौद्धों को स्थाई रूप से मार्गदर्शन करने वाले अभिनव ग्रंथ की रचना उन्होंने की।

3.6. ’बुद्ध और उनका धम्म’ : बौद्ध धर्म का संशोधन और उद्घाटन

यह पुस्तक बौद्ध धर्म के आधुनिक छात्रों के लिए लिखी गई है जो उनके तमाम आध्यात्मिक तथा सांसारिक प्रश्नों का उत्तर देती है। बाबा साहेब ने इस पुस्तक में बौद्ध धर्म की कुछ समस्याओं के निदान के लिए चार प्रश्नों को सूचीबद्ध किया है। पहला प्रश्न है कि भगवान बुद्ध ने प्रव्रज्या क्यों ग्रहण किया? दूसरा प्रश्न है कि क्या चार आर्य सत्य भगवान बुद्ध की मूल शिक्षाओं में समाविष्ट हैं? तीसरी समस्या है कि अगर आत्मा ही नहीं है तो कर्म कैसा और पुनर्जन्म कैसा? चौथा प्रश्न यह है कि भगवान बुद्ध ने भिक्षु संघ की स्थापना किस उद्देश्य से की? डॉ अंबेडकर ने अपनी पुस्तक में परंपरागत जवाबों को दरकिनार कर इन प्रश्नों के नए तथा तर्कसंगत उत्तर ढूढ़ने का प्रयास करतें हैं तथा पाठकों से  इस पर नए सिरे से विचार की मांग करते हैं। डॉ अंबेडकर की यह पुस्तक भारतीय इतिहास तथा बौद्ध धर्म की कई गलत मान्यताओं को खारिज़ करती है। जैसे बुद्ध के पलायनवादी होने की धारणा को यह पुस्तक नकारती है। इस पुस्तक में अंबेडकर की मुख्य पुनर्व्याख्या बुद्ध के लौकिक जीवन की पुनर्स्थापना करती है। बुद्ध की परम्परागत जीवनी का युवा राजकुमार मानवीय पीड़ा को देख भावुक हो जाता है तथा सन्यासी बन जाता है जबकि अंबेडकर जल अधिकारों पर संघर्ष के दौरान बुद्ध की उस सामाजिक अंतरात्मा की शक्ति पर प्रकाश डालते हैं जो युद्ध विरोधी तर्कसंगत और शांतिपूर्ण समाधान के एवज में अपने देश निकाले को सहर्ष स्वीकार करता है।

3.7. सिद्धार्थ : एक मनुष्य दुसरे मनुष्य के लिए

अंबेडकर बौद्ध धर्म के संस्थापक सिद्धार्थ को वे एक मनुष्य के रूप में ही देखतें हैं। उसका चरित्र महामानव का चरित्र नहीं, एक मनुष्य का चरित्र है। एक ऐसे मनुष्य का जो मनुष्य मात्र को दुखों से मुक्त करना चाह रहा था। बौद्ध  धर्म  की विशेषता उसके संघ में है। इस संघ में सभी को खुला प्रवेश था। इस संघ को बुद्ध ने ’त्रिशरण’ तथा ’पंचशील’ दिया। समाज परिवर्तन के लिए बुद्ध ने भिक्षु संघ की आवश्यकता पर बल दिया। संघ स्वयंभू शासित थे। सम्पूर्ण समाज ही स्व शासित हो ऐसी बुद्ध की अपेक्षा थी।

3.8. ज्ञान मीमांसा : शब्द और ग्रन्थ नहीं तर्क और प्रत्यक्ष है प्रमाण

बुद्ध की ज्ञानमीमांसा में शब्दप्रमाण तथा ग्रंथप्रमाण को कहीं पर भी स्थान नहीं दिया गया है। प्रत्यक्ष प्रमाण और अनुमान प्रमाण पर ही बुद्ध का ज्ञानमीमांसीय तर्कशास्त्र खड़ा है। बुद्ध ने एक स्थान पर कहा है कि मेरे शब्दों को प्रमाण ना मानो। तुम्हारी बुद्धि अथवा अनुभव से जो बात जंचती हो उसे ही सत्य मानों। इस विश्व में अंतिम और अपरिवर्तनीय कुछ भी नहीं है, सतत परिवर्तन ही सत्य है। डॉ बाबासाहेब बुद्ध के इन बातों से अत्यधिक प्रभावित थे। दुनिया के और धर्म और धर्म ग्रंथ शब्दप्रमाण को महत्व देते हैं परंतु बुद्ध ऐसा कोई दावा नहीं करते। अपने उत्तराधिकारी के रूप में भी अपने धम्म की ओर इशारा करते हुये कहतें हैं कि किसी भी प्रश्न पर अगर निर्णय लेना हो तो संघ में उस पर खुली चर्चा हो ऐसा उनका आग्रह था। इस चर्चा में अगर सहमत ना हो रही हो तो मतदान से निर्णय लिया जाए। जनतंत्र में निष्ठा रखने वाले बाबा साहब को इसी कारण बौद्ध धर्म अच्छा लगा।

3.9. तत्व मीमांसा : चर्चा योग्य नहीं

जिन प्रश्नों के कारण व्यक्ति का विवेक कुंठित हो जाता है, अंधश्रद्धा का आरंभ होता है, ऐसे प्रश्नों की चर्चा को बुद्ध ने वर्जित किया जिसे तत्व मीमांसा के प्रश्न कहा जाता है। इसको व्याख्याकर्ताओं ने बुद्ध के अव्यक्तानी प्रश्नानी कहा है क्योंकि ऐसे प्रश्नों के समक्ष वह चुप हो जाया करते थे। यह प्रश्न कि मैं कौन हूं, कहां से आया हूं, कहां जाऊंगा, आत्मा क्या है, परमात्मा क्या है, संसार क्या है इत्यादि। ये सभी कल्पनाएं मानव को वास्तविक समस्याओं के समाधान से भटकाती हैं अतः बुद्ध ने इनको नकारा है। जबकि इन्हीं  की सर्वाधिक चर्चा दुनिया के अन्य धर्मों में हुई है। यही वे प्रश्न है जिनके आधार पर अंधश्रद्धा और कर्मकाण्ड की शुरुआत होती है। धर्मभीरु बनते हैं, मनुष्य और मनुष्य में अंतर किया जाता है इन्हीं प्रश्नों के आधार पर ईश्वर के तथाकथित दलाल सामान्य आदमियों का शोषण करते हैं, सत्ता प्रतिष्ठान या संपत्ति की प्राप्ति कर लेते हैं। यही वे प्रश्न थे जिनका उत्तर देते देते हिंदू धर्म में वर्ण व्यवस्था का जन्म हुआ था।

3.10. रचनात्मक बुद्धिवाद : कार्यकारण तथा अष्टांगिक मार्ग

बुद्ध की रचनात्मक दृष्टि ने कार्यकारण का महान सिद्धांत दिया। मनुष्य और उसके संसार में जो भी घटित होता है वह ईश्वरीय इच्छा के अनुसार ही घटित होता है इस सिद्धांत को नकारते हुए उन्होंने यह शास्त्रीय सिद्धांत दिया। आत्मा की मुक्ति तथा मोक्ष के स्थान पर उन्होंने निर्माण का तत्व स्वीकार किया। दुखों की निवृति का अष्टांगिक मार्ग सुझाया मानव गतिविधि का प्रेरक तत्व बुद्ध के अनुसार सभी वस्तु में श्रेष्ठ, सभी बातों का केंद्र बिंदु है मन है। यह वस्तु को निर्मित करता है, मन ही वस्तु पर सत्ता चलाता है, सभी मानसिक क्रियाओं पर नियंत्रण का नेतृत्व मन करता है मन को संस्कारित करना बहुत महत्व की बात है। सभी अच्छाइयों और बुराइयों का मूल स्रोत मन है। इस कारण मन शुद्ध सच्चे धर्म का सार है, केवल मन की शुद्धि से बात पूरी नहीं होती, उसके अनुसार आचरण की आवश्यकता भी है। उपर्युक्त विशेषताओं के कारण अंबेडकर जी को बौद्ध धर्म आधुनिक मनोविज्ञान के निकट लगा था तथा परिवर्तन के प्रति प्रतिबद्धता और व्यक्ति के प्रति निष्ठा इन दो कारणों से यह अधिक वैज्ञानिक लगा।

3.11. बुद्ध : अहिंसक मार्क्सवाद

इसके अलावा ’बुद्ध और मार्क्स’ नामक अपने एक भाषण में उन्होंने बौद्ध धर्म की एक और विशेषता को स्पष्ट किया। बाबा साहेब बुद्ध और मार्क्स को एक दूसरे का शत्रु अथवा प्रतिस्पर्धी के रूप में नहीं देखते हैं बल्कि इन दोनों के बीच स्थित साम्यता को भी सामने लाते हैं। डॉ अंबेडकर के अनुसार इनमें हिंसा के सिवा दूसरा भेद ही नहीं है। इस कारण उन्होंने बौद्ध साम्यवाद शब्द का प्रयोग किया है। साम्यवाद से अगर हिंसा निकाल दी जाए तो बुद्ध ही शेष रह जाते हैं।6

3.12. नवयान बौद्ध धर्म : भविष्य का धर्म

बौद्ध धर्म के संबंध में उनके निष्कर्ष इस प्रकार के हैं - बुद्ध का धम्म परलोक के संबंध में नहीं है। इहलोक से ही उसका संबंध है। वह न स्वर्गवादी है, न नर्कवादी है, वह पृथ्वीवादी है। यह धम्म व्यक्तिगत मोक्ष की बात नहीं करता, सामाजिक मुक्ति का संदेश देता है। यह धम्म निरीश्वरवादी, अनात्मवादी, भौतिकवादी और बुद्धिवादी है। यह धम्म अपरिवर्तनीय नहीं है, परिवर्तनवाद का खुला समर्थक है। अपने 45 वर्ष के धर्म प्रसार कार्य में खुद बुद्ध ने अपने धर्म में, उसकी शिक्षा में, उसके आचार विचारों में, नियम उप नियमों नियमों में सतत परिवर्तन किए हैं अर्थात बौद्ध धर्म विकासशील तथा यह धर्म विचारशील है।

इन अनेक विशेषताओं के कारण विश्व के अन्य धर्मों की तुलना में बौद्ध धर्म की मौलिकता को वे स्पष्ट करते जाते हैं। इन धर्मों की तुलना में बुद्ध धम्म आधुनिक, वैज्ञानिक निष्कर्षों पर, कसौटी पर श्रेष्ठ सिद्ध होता है। आधुनिक युग की चुनौतियों को वह स्वीकार कर सकता है। बुद्धिवाद, सामाजिक सत्ता, बंधुता स्वतंत्रता, समाजवाद, जनतंत्र आदि आधुनिक मूल्यों के आलोक में इस धम्म  को सिद्ध किया जा सकता है। ऐसा अंबेडकर जी का दावा था। इस धम्म की उपर्युक्त शक्तियों से अपने अनुयाई परिचित हो जाएं इस उद्देश्य से उन्होंने इस ग्रंथ की रचना की। इसके मूल में इतनी ही दृष्टि थी कि इस धम्म की जीवंतता और आधुनिकता को विश्व को विश्व के सभी लोग जान लें और बौद्ध धम्म वैश्विक धर्म बने।5

4. निष्कर्ष : नैतिक समाज का निर्माण

इस प्रकार अंबेडकर की इस धम्म यात्रा को उनके जीवन के लगभग 40 वर्षों में खोजा जा सकता है। उनका यह सामूहिक प्रयाण मानवता पर एक महान उपकार के तौर पर गिना गया जिसने करोड़ो लोगों का जीवन बदल दिया। इस घटना को अकसर हिन्दू धर्म के विरुद्ध, जो सुधारों के परे है, विरोध के एक चरम सार्वजनिक कृत्य के रूप में पेश किया गया। अंबेडकर ने बौद्ध धर्म को पुनर्निरुपित किया, धार्मिक मताग्रहों की आलोचना की, अतिवादी सामाजिक सन्देश को उभारा ताकि भारतीय समाज में धर्म की जिस नैतिक भूमिका की वे कल्पना करते थे उसे पूरा कर सकें। दलित समाज को हिंदू धर्म से निकालकर नव बौद्ध धर्म में प्रवेश करवाते समय उनका या अटूट विश्वास था कि बौद्ध धर्म के श्रेष्ठ मूल्यों को दलित अपनाएंगे। प्रखर बुद्धिवाद, अनात्मवाद  और स्वशासन  की वृति को स्वीकार करते हुए वे संगठित होंगे संघर्ष करेंगे तथा अपनी यातनाओं से मुक्त हो जाएंगे। समाज जैसे-जैसे अधिक बुद्धिवादी होता जाएगा वैसे-वैसे बौद्ध धर्म की तरफ आकृष्ट होता जाएगा।


सन्दर्भ

 

1.     Dirks, Nicholas B. (2011). Castes of Mind: Colonialism and the making of modern India. Princeton University Press. pp. 267–274.

2.     Robert E. Buswell Jr.; Donald S. Lopez Jr. (2013). The Princeton Dictionary of Buddhism. Princeton University Press. p. 34.

3.   Shetty, V. T. R. (1980). In Ambedkar and His Conversion: a critique.  Dalit Action Committee, Karnataka. p. 79

4.    Fuchs, Martin (2001). "A religion for civil society? Ambedkar's Buddhism, the Dalit issue and the imagination of emergent possibilities". In Dalmia, Vasudha; Malinar, Angelika; Christof, Martin (eds.). Charisma and Canon: Essays on the religious history of the Indian subcontinent. Oxford University Press. pp. 250–273.

5.     Buddha and future of his religion – dr. B. R. Ambedkar     . Dr. B. R. Ambedkar's Caravan. (2015, May 29). Retrieved April 18, 2021, from https://drambedkarbooks.com/2015/05/31/buddha-and-future-of-his-religion-dr-b-r-ambedkar/  

6.   Skaria, A. (2015). Ambedkar, Marx and the Buddhist question. South Asia: Journal of South Asian Studies, 38(3), 450–465. https://doi.org/10.1080/00856401.2015.1049726


पुस्तक समीक्षा - सेपियंस


अग्नि ने हमें शक्ति दी
वार्तालाप ने हमें परस्पर सहयोग करने में मदद कीकृषि ने हमें और अधिक के लिए भूखा बनायामिथकों ने कानून और व्यवस्था कायम कीधन ने हमें एक ऐसी चीज दी जिस पर हम सचमुच् भरोसा कर सकते थेअंतर्विरोधों ने संस्कृति की रचना कीविज्ञान ने हमें घातक बनायायह साधारण वानरों से लेकर विश्व के शासकों  तक के हमारे असाधारण इतिहास का रोमांचक वर्णन है। हम बात कर रहे हैं युवाल नोआ हरारी की अंतरराष्ट्रीय बेस्टसेलर पुस्तक सेपियंस मानव जाति का संक्षिप्त इतिहास कीजिसका हिन्दी अनुवाद मदन सोनी ने किया है। बड़ी बहसों को जन्म देने वाली यह पुस्तक अपनी उत्तेजक तथा आकर्षक भाषा से न केवल पाठकों को बाँध देती है बल्कि उसकी तमाम धारणाओं को भी ध्वस्त करती है। लेकिन यह पुस्तक अक्सर बिना स्रोत वाले दावे करती है जिससे ग्रन्थवादी इसे कल्पना कहेंगे परन्तु फिर भी इसे इतिहास की एक बेहतरीन समझ पैदा करने वाली पुस्तक कहा जाएगा क्योंकि अगर हम प्रशिक्षित इतिहासकार रामशरण शर्मा से कुछ शब्द उधार लें तो तो कह सकते हैं कि ‘कल्पना नहीं तो इतिहास नहीं’।

यह पुस्तक न केवल भिन्न विश्वास वाली दुनिया में इतिहास के बुनियादी आख्यानों पर सवाल उठाने के लिए हमें प्रोत्साहित करती हैबल्कि यह खोज करती है कि हमारी प्रजाति वर्चस्व की लड़ाई में किस तरह कामयाब हुई हमारे आहार खोजी पूर्वज नगरों और राजवंशों का निर्माण करने के लिए क्यों एकजुट हुए हमने देवताओंराष्ट्रोंऔर मानव अधिकारों में विश्वास करना कैसे शुरु किया साथ ही यह पुस्तक आने वाली सहस्त्राब्दियों में हमारी दुनिया कैसी होगी इसकी भी पड़ताल करती है। लगभग साढ़े चार सौ पृष्ठों वाली यह पुस्तक चार भागों में तथा बीस अध्यायों में बटी हुई है।

पुस्तक के प्रथम भाग में सेपियंस की क़ामयाबी के रहस्य से पर्दा उठाया गया है। इंसानऔर प्रजातियों से अलग है क्योंकि इन्सान अनंत अंतहीन कहानियां बना सकता है। इन्सान ने अपनी अनूठी तथा लचीली भाषा की वजह से दुनिया पर विजय प्राप्त की है। हरारी इसे संज्ञानात्मक क्रांति कहते हैंजिसने 70000 साल पहले इतिहास को क्रियाशील बना दिया। इस गपबाज़ी ने उस ज्ञान के वृक्ष का निर्माण किया जिसने न केवल आने वाली पीढ़ियों को अपनी इस कुशलता को हस्तांतरित किया बल्कि जीन समूह को भी बाईपास किया। इसने दुनिया के बारे में सूचना को दक्षता के साथ  प्रसारित किया जिसके परिणामस्वरूप सेपियंस ने न केवल योजना बनाना सीखा बल्कि उसे क्रियान्वित भी करने लगे।

किताब के दूसरे भाग में 12000 साल पूर्व हुई दूसरी क्रांति का विवरण हैं जिसे हम कृषि क्रांति कहते हैं। हरारी इसे इतिहास का सबसे बड़ा धोखा कहते हैं जिसमें इंसान ने गेहूं को पालतू बना लियाजी नहीं दरअसल गेहूँ ने इन्सान को पालतू बना लिया। गेहूँ ने अपने फायदे के लिए सेपियंस को नियंत्रित किया। इंसान ने चैन से घूमते हुए जीना छोड़ सारी दुनिया में गेहूँ की खेती करने लगा। चूंकि गेहूँ को कंकड़ पत्थर नहीं पसंद थे तो इंसान ने अपनी कमर तोड़ कर उन्हें खेतों से साफ किया। गेहूँ को अपनी जगहपानी और पोषक तत्वों में दूसरी वनस्पतियों से साझा करना पसंद नहीं था तो मर्द और औरतों ने तीखी धूप में निराई की। बीमारी में देखभाल की तथा कीड़ोखरगोश तथा टिड्डी से सुरक्षा प्रदान की। यहाँ तक कि गेहूं ने अपने पोषण के लिए सेपियंस को अन्य जानवरों का मल तक इकट्ठा करने को विवश किया। मनुष्य ने दयनीय अस्तित्व चुना लेकिन इससे फायदा क्या हुआगेहूँ की खेती ने क्षेत्र की प्रति इकाई को कहीं ज्यादा भोजन मुहैया कराया और इस तरह होमो सेपियंस को तीव्रतम गति से अपनी वंशवृद्धि करने में सक्षम बनाया। साथ ही इसने विलासिता का पिंजरा भी दिया। जिसकी सुरक्षा के लिए कानूनधर्मराज्य तथा समाज जैसे कल्पित वास्तविकताओं को रचा गया। इन कल्पनाओं ने उस दुश्चक्र को पैदा किया जहाँ कोई न्याय नहीं था।

पुस्तक के अगले भाग में मानव के एकीकरण की कहानी है। ईसा पूर्व पहली सहस्त्राब्दी में तीन सम्भावित वैश्विक व्यवस्थाओं का प्रादुर्भाव हुआजिसके पक्षधर पहली बार समूची दुनिया और समस्त मानव प्रजाति को नियमों की एक एकल व्यवस्था के अधीन शासित एक इकाई के रूप में कल्पित कर सके। हर कोईकम से कम सम्भावित रूप से हम‘ था। अब कोई वे‘ नहीं थे। ऐसी पहली व्यवस्था आर्थिक थी : वित्तीय व्यवस्था। दूसरी वैश्विक व्यवस्था राजनैतिक थी : साम्राज्यवादी व्यवस्था। तीसरी वैश्विक व्यवस्था धार्मिक थी : बौद्धईसाइयत और इस्लाम जैसे सार्वभौमिक धर्मों की व्यवस्था। व्यापारीविजेता और पैगम्बर वे पहले लोग थेजो हम बनाम वे‘ के युग्म परक विकासवादी विभाजन से ऊपर उठ सके और मानव-जाति की सम्भावित एकता का पूर्वानुमान कर सके। व्यापारियों के लिए पूरी दुनिया एक बाज़ार थी और सारे मनुष्य सम्भावित ग्राहक थे । उन्होंने एक ऐसी आर्थिक व्यवस्था विकसित करने की कोशिश कीजो हर कहींहर किसी पर लागू हो सकती थी। विजेताओं के लिए सारी दुनिया एक एकल साम्राज्य थी और सारे मनुष्य सम्भावित प्रजा थे।पैग़म्बरों के लिए सारी दुनिया में एक ही सत्य था और सारे मनुष्य सम्भावित आस्तिक थे। उन्होंने भी एक ऐसी व्यवस्था खड़ी करने की कोशिश कीजो हर कहीं हर किसी पर लागू हो सकती थी ।

पुस्तक के अंतिम भाग में पिछले 500 वर्षों के बारे में बात की गई है जब पहली बार इंसान ने अपनी अज्ञानता को स्वीकार कर उस चीज़ की शुरुआत की जो शायद इतिहास को समाप्त कर सर्वथा किसी पूरी तरह से भिन्न चीज़ की शुरुआत कर सकती हैबात हो रही है वैज्ञानिक क्रांति की। विज्ञान में अनुसंधान के द्वारा लालची इंसान ने शक्ति ग्रहण की जिसकी भनक को शीघ्र ही साम्राज्यों तथा पूंजी ने भांप कर विज्ञान के साथ गठजोड़ कर लिया। हम आज इस दौर में हैं जहाँ सिर्फ काया ही नहीं गढ़ी जाती बल्कि अंतःकरण भी गढ़ा जाता है। लेकिन हमें सचेत रहना चाहिए क्योंकि अगर हम गिलगमेश को नहीं रोक सकते तो हम डॉ फ़्रैंकेन्स्टाइन को भी नहीं रोक सकते। और सवाल यह नहीं है कि हम क्या बनना चाहते हैं बल्कि सवाल यह है कि हम क्या आकांक्षा करना चाहते है। अगर आप इन सवालों से नहीं डरते तो शायद आपने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया है।

शोध आलेख : डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र निर्माण की परियोजना तथा उसके उपकरण -राजीव कुमार पाण्डेय व डॉ. सिद्धार्थ शंकर राय

Pandey, R. K., & Rai, S. S. (2021). डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र निर्माण की परियोजना तथा उसके उपकरण
Dr. Ambedkar's project of nation building and its tools. अपनी माटी, 38.


शोध-सार : आधुनिक राष्ट्र निर्माण की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आरम्भिक प्रतिरोध भारतीय समाज के भीतर से आया, जिसका आधार जाति में निहित था। गहन नकारात्मक फलितार्थ वाली तथा आधुनिकता विरोधी भारत की जाति व्यवस्था व्यावहारिक रूप से उलझी तथा सैद्धांतिक रूप से एक इन्द्रजाल है इस बेहद दुर्बोध सामाजिक कारीगरी की यह विशेषता है कि यह अपने सामाजिक परिणामों, अन्याय और दमन की जवाबदेही को अमूर्त बना देती है। यह राष्ट्र निर्माण के सबसे आवश्यक उपकरणों समतावादी सामाजिक समागम तथा बंधुता की शर्तों को न केवल दूषित करती है बल्कि सामाजिक तनावों तथा संघर्षों को धारण भी करती है प्रस्तुत शोध आलेख राष्ट्र निर्माता डॉ. अम्बेडकर की समझ के उन तर्कों तथा उपकरणों को पहचानने की एक कोशिश है जिनकी सहायता से राष्ट्र निर्माण में बाधा बनने वाली इस सामाजिक व्याधि का उपचार तथा एक प्रगतिशील तथा आधुनिक समतावादी लोकतान्त्रिक समाज की रचना संभव बनती है।

 

बीज शब्द : बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर, राष्ट्र निर्माण, जाति व्यवस्था, लोकतंत्र, समानता, बंधुता

 

मूल आलेख : तमाम बहसों के बावजूद इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य उपनिवेशी आधुनिकता की भिन्न मगर व्युत्पन्न संवाद की उपज है।[1] जॉन स्ट्रेची तथा जॉन सीले “भारत” नाम देने के लिए जिस राष्ट्र को खोज रहे थे दरअसल वैसा राष्ट्र कहीं होता नहीं हैअतः उन्हें यह मिला भी नहीं। हाँ इसे बनाया जाता हैऔर सिर्फ बनाया जाता है क्योंकि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है भारतीयों की यह अनथक कोशिश अभी भी जारी है। आधुनिक अर्थ में राष्ट्र एक ऐसा कल्पित समुदाय[2] है जो वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को लाँघ जाता है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगती हैं। पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहते हैं तो हमे यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा। दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की कोशिश है। तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद का कोई भी विरोध नहीं है बजाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी परिणति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद की असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशों में हम विफल रहते हैं। भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन तथा विभाजन इसकी गवाही देता है

 

मुस्लिमों के अलावा राष्ट्रवाद की कांग्रेसी धारणा के प्रति जिस दूसरे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूहों ने विरोध व्यक्त किया वे गैर-ब्राह्मण जातियों और अछूतों के समूह थे जिन्होंने 1930 के दशक के आसपास खुद को दलित कहना शुरू किया।[3] अपने आरंभिक चरण में उपनिवेशी शासन ने न सिर्फ जाति व्यवस्था को वरीयता और समर्थन दिया बल्कि आगे चलकर उसने इसे नस्ली आयाम देकर तथा सूचीबद्ध करके और भी रूढ़ किया। फिर राष्ट्रवादी आन्दोलन के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल भी किया गया जहाँ यह पुनर्निरुपित जाति व्यवस्था भारत के नागरिक समाज का उपनिवेशी रूप बन गई।[4] अपनी तीक्ष्ण बुद्धि की सुधारमूलक तार्किकता तथा सभ्यता के संशोधनवादी पुनर्जीवन के प्रयत्नों से डॉ. अम्बेडकर ने राष्ट्रवाद के इस भिन्न स्वर को उस आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य में मिला दिया जिसके परिपक्व प्रारूप के निर्माण के उपकरणों का चयन तथा नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं ली थी

 

जाति व्यवस्था : राष्ट्र निर्माण की प्रमुख बाधा –

 

भारत के इतिहास में आधुनिक राष्ट्र के इस परिपक्व रूप तथा इसके निर्माणकारी उपकरणों का उद्भव डॉ. अम्बेडकर के जीवनवृत्त तथा उनकी अकादमिक यात्रा में है। कांग्रेसी धारणा के राष्ट्रवाद को जिसे मुस्लिम नेतृत्व हिन्दू राष्ट्रवाद तथा दलित नेतृत्व ब्राह्मण राष्ट्रवाद कहता था, तथा अंग्रेजी सत्ता से मिल कर अलग-अलग राग अलाप रहा था, के कारणों को उन्होंने तर्कबद्ध किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में दलितों के भिन्न स्वर को उन्होंने हिन्दू धर्म की विफलता बताया तथा उसके कारणों को जातिव्यवस्था में अन्तर्निहित माना डॉ. अम्बेडकर की रचनाओं में इस अलगाव के कुछ स्पष्ट कारण नज़र आते हैं जो जातिव्यवस्था के दुर्गुणों से जुड़े हुए हैं।[5]

 

1.    जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को मिथक बना दिया। हिन्दू समाज नाम की कोई वस्तु नहीं रह गई। यह अनेक जातियों का समवेत स्वरूप बन गया। यह जातियों का मिलाजुला संघ भी नहीं है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय को छोड़कर कभी जुड़ाव का एहसास भी नहीं है। दरअसल हर आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह है जो अपने बिल में घुसा रहता है। हिन्दुओ में उस चेतना का सर्वथा अभाव हैजिसे समाजविज्ञानी समग्र वर्ग की चेतना कहते हैं। यह चेतना बस अपनी जाति के बारे में पाई जाती है।

 

2.    जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज की एकता खण्डित की। यह आग्रह और निष्कर्ष सही नहीं है कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता हैजो हिंदुओं के जीवन की विशेषता हैक्योंकि आदतोंप्रथाओंविश्वासों और विचारों में एकरूपता हैजो भारत में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। परन्तु इसमें समाज रचना के अपरिहार्य तत्त्व शामिल नहीं हैं। व्यवहार में समभाव होना समानुरूप व्यवहार से सर्वथा भिन्न है। हिंदुओं ने अपने ही लोगों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया

 

3.    असामाजिक भावना जाति प्रथा का सबसे घृणित पक्ष है। स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से निंदा और विरोध समाज और साहित्य में भरा पड़ा है। एक जाति के लोग आनंद लेकर ऐसे गीत गाते हैंजिनमें दूसरी जाति के लिए नफरत भरी रहती है। हिंदुओं के साहित्य में जाति विशेषों के उद्गम के विषय में अनेक ऐसे गीत हैं जो एक जाति को श्रेष्ठ तथा दूसरी जाति को निंदा का पात्र बनाते हैं। ऐसे साहित्य का एक घृणित नमूना 'सहयाद्रि खण्डहै। यह असामाजिक भावना जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह इससे भी गहरे उपजातियों में समाई हुई है।

 

4.    आदिवासियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि आज की भरी पूरी सभ्यता में एक करोड़ तीस लाख लोग जंगलियों की तरह रह रहे हैं। अपराधियों का जीवन जी रहें हैं परन्तु प्राचीन सभ्यता का दम्भ भरने वाले हिंदुओं को कभी इससे शर्म महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन्हें बस अपनी जाति की परवाह थी, इन्हें सभ्य बनाने का प्रयास कभी नहीं किया गया। इनको सबसे बड़ी चिंता यह थी कि इन्हें अगर अपने में शामिल किया जाए तो इनकी जाति क्या होगीअब अगर ग़ैर हिन्दू उन्हें अपना लेंधर्म परिवर्तन करा लेंतो हिंदूओं के शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो इसके कारण स्वयं हिन्दू और उनकी जाति प्रथा होगी।

 

5.    हिंदूओं ने जानबूझकर हिन्दू समाज की निचली जातियों को ऊँची जाति के सांस्कृतिक स्तर तक उठने की मोहलत नहीं दी। जैसे सुनार और पथरे प्रभु। ये दोनों ही समुदाय महाराष्ट्र में काफी मशहूर हैं। ये दोनों ही समुदाय ब्राह्मणों के तौर-तरीके और आदतों को अपनाकर अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे परन्तु समाज के ताकतवर तत्त्व ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। अगर मुसलमानों को क्रूर माना जाय तो हिन्दुओ को निकृष्ट माना जाएगा जो अधिक निंदनीय है।

 

6.    जाति के कारण हिन्दू धर्म प्रचारमूलक नहीं रह गया। इसमें से जाने के रास्ते तो बहुत है मगर आने का रास्ता बंद है। धर्म-परिवर्तन में सिर्फ यही समस्या नहीं होती कि नई धारणाएँ और नए सिद्धांत अपना लिए जाएँ बल्कि दूसरी सबसे बड़ी समस्या इसमें यह पैदा होती है कि धर्म-परिवर्तित व्यक्ति को किस जाति में स्वीकार किया जाएजो भी हिन्दू अन्य धर्मियों को अपने धर्म में शामिल करना चाहता हैउसे यह समस्या अनिवार्य रूप से झेलनी पड़ती है। किसी क्लब की सदस्यता तो सबके लिए समान रूप से खुली होती हैकिन्तु किसी जाति की सदस्यता हर ऐरे-गैरे के लिए समान रूप से खुली नहीं होती है।

 

7.    जातिप्रथा के कारण हिंदुओं में संगठन और सहयोग नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई है। जब तक संगठन नहीं होगा तब तक हिन्दू कमजोर और डरपोक रहेंगें। हिन्दू कहते हैं कि उनकी कौम बहुत ही सहनशील है परंतु यह सही नहीं है। क्योंकि कई अवसरों पर यह बेहद आक्रामक होतें हैं और कई अवसरों पर बेहद सहनशील, इसका कारण यह है कि ये विरोध करने में ये अक्षम होते हैं। हिन्दुओं की उदासीनता उन पर इस कदर हावी है तथा आदत में शामिल है कि किसी हिन्दू का अपमान या उस पर हो रहे अत्याचार को ये बुज़दिल बन कर सहते रहते हैं।

 

8.    जाति ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित किया। कोई भी सुधार तब शुरू होता है जब व्यक्ति अपने समाज के स्थिर मानकों के खिलाफ कुछ नया सोचते हैं। इसके लिये यह जरूरी है कि समाज इसके लिए सहनशील हो। परन्तु हिन्दू मान्यताएँ धार्मिक रंग में रंगी हैं अतः यह मुश्किल है। साथ ही इसके लिए जाति बहीष्करण का दण्ड भी दिया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अभाव में सुधार नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करना जाति बहीष्करण का कारण बन सकता है जो मृत्यु से भयंकर कष्ट है क्योंकि आपको कोई और जाति स्वीकार नहीं करती है और बिना किसी जाति की सदस्यता के आप हिन्दू नहीं हैं।

 

9.    हिन्दूओं की नीति और आचार पर जाति-प्रथा का प्रभाव अत्यंत शोचनीय है। जाति प्रथा ने जनचेतना को नष्ट कर दिया है। इसने सार्वजनिक धर्मार्थ की भावना को भी नष्ट कर दिया है। जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव हो गया है। हिन्दूओं का उत्तरदायित्व और निष्ठा उनकी जाति तक ही सीमित है। अन्य के लिए कोई सहानुभूति कोई सराहना या कोई सहयोग नहीं है

 

इस प्रकार भारत में जाति-व्यवस्था पर धार्मिकता के प्रभाव ने इस व्यवस्था की हानियों को बड़ी गंभीरता से बढ़ाया। जाति सदा ही सामाजिक अपराध के समतुल्य रही हैलेकिन जब जाति को धार्मिक व्याख्या के जरिये समर्थन मिला तो इस व्यवस्था के पीछे छिपा महाअपराध जहरीले उत्तक और दैत्याकार भागों के विकृत सामाजिक वृद्धि में प्रफुल्लित हुआ।[6]

 

इस राष्ट्रीय पाप के अपराधी -

 

उन्होंने ब्राह्मणों पर आरोप लगाया कि यह प्रथा अपनी पूरी दृढ़ता के साथ केवल एक जाति अर्थात ब्राह्मणों में प्रचलित हैजो हिंदू समाज की संरचना में सर्वोच्च स्थान पर हैं और गैर-ब्राह्मण जातियों ने इसका केवल अनुसरण कियाजहाँ इसके पालन में न तो उतनी दृढ़ता है और न संपूर्णता।[7] कुछ जातियों की संरचना नकल से हुई। ब्राह्मण अर्द्ध देवता माना जाता है और उसे अंशावतार जैसा कहा जाता है। वह विधि नियोजित करता है और सभी को उसके अनुसार ढालता है। उसकी प्रतिष्ठा असंदिग्ध है। उनका तर्क है कि शास्त्रों द्वारा प्रायोजित और पुरोहितवाद द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त ऐसा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डालने में विफल हो सकता हैयदि यह कहानी सही है तो उसके बारे में यह विश्वास क्यों नहीं किया जाए कि वह जातिप्रथा की उत्पत्ति का कारण है। यदि वह सजातीय विवाह का पालन करता है तो क्या दूसरों को उसके पद-चिह्नों पर नहीं चलना चाहिए। निरीह मानवता को चाहे वह कोई दार्शनिक हो या तुच्छ गृहस्थउसे इस गोरखधंधे में फँसना ही पड़ता हैयह अवश्यंभावी है। अनुसरण सरल है, आविष्कार कठिन। उनका तर्क है कि वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह है जिससे खून के रिश्ते की भावना से "सजातीयता" पैदा होगीपरायापन समाप्त होगाजाति विलय होगाएक सामाजिक कारक के रूप में यह एक "महान शक्ति" सिद्ध होगी। परन्तु इसमें कठिनाई यह है कि लोग इसे नहीं मानेंगे  क्योंकि यह शास्त्र सम्मत नहीं है और लोग अत्यधिक धार्मिक हैं इसका वास्तविक उपाय यह है कि शास्त्रों से लोगों का विश्वास समाप्त किया जाए। हिन्दुओं से यह कहने का साहस होना चाहिए कि दोष उनके धर्म का है जिसने जाति व्यवस्था को पवित्र माना। परंतु यह कार्य असंभव है..क्योंकि ब्राह्मण ऐसा नहीं चाहेंगे। वो और उनके ग्रंथ इसकी इज़ाजत नहीं देते हैं जाति व्यवस्था के चारों तरफ बनाई गई दीवार अभेद्य है...इसके प्रहरी ब्राह्मण हैं जो हर शक्ति से सम्पन्न हैं। तर्क और नैतिकता दो ऐसे हथियार हैं जो किसी भी समाज के सुधार के लिए आवश्यक तत्त्व हैं परन्तु यही हिन्दू समाज से उसके धर्म ने छीन लिया है।[8]

 

अगला आरोप उन्होंने कांग्रेस और समाज सुधारकों पर लगाया। उनका कहना है कि समाज सुधार में कठिनाई है क्योंकि इसमें सहायक कम आलोचक ज्यादा हैं। पहले हैं राजनीतिक सुधारक तथा दूसरे हैं समाजवादी सुधारक। राष्ट्रीय आन्दोलन के मुखिया कि दावेदारी पेश करने वाली राष्ट्रीय कांग्रेस की समानांतर संस्था सामाजिक सम्मेलन गुम हो गई। जबकि "पेशवाई का काल", "बलाइयों की स्थिति" तथा नवम्बर 1935 के "जानू गाँवकी घटना जैसे सामाजिक तथ्य इसके ताकतवर पहल की उम्मीद करते थे। यह स्थिति सत्ता के लिए राजनीतिक अयोग्यता को जन्म देती है। उनका कहना है कि समाज सुधार की हारी हुई लड़ाई को समझने के लिए ध्यातव्य है कि हम हिन्दू परिवार के सुधार तथा हिन्दू समाज के पुनर्गठन के दो अर्थ में समाज सुधार में अंतर करें जिसमें पहले का संबंध बालविवाह इत्यादि से है जबकि दूसरे का संबंध जाति प्रथा के उन्मूलन से है जिसे कभी उठाया नहीं गया।[9]

 

दूसरी बात की इतिहास इस प्रस्ताव पर बल देता है कि राजनीतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं। जैसे लूथर और यूरोप की क्रांतियाँ, जैसे प्यूरितनवाद और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, जैसे शिवाजी और महाराष्ट्र के संत। जाति विभेद मिटाए बिना भारत बदलाव से महरूम रहेगा। आर्थिक सुधारों को सामाजिक बदलाव का उपागम समझने और आग्रह रखने वाले समाजवादियों के लिए प्लेबीयनों और डेल्फी की देवी का रोमन उदाहरण तथा भारत में संत-महात्माओं का उदाहरण उनके इतिहास की आर्थिक व्याख्या के मूल सिद्धांत पर प्रहार करता है क्योंकि यहाँ व्यक्ति का सामाजिक स्तर ही शक्ति का स्रोत बन जाता है, जिसका प्रभाव प्राधिकार को जन्म देता है। यदि शक्ति और प्रभुत्व का स्रोत समाज और धर्म है तो सुधार भी वहीं होना चाहिए। सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना आर्थिक सुधार असंभव है। आप किसी भी दिशा में देखें जाति एक ऐसा दैत्य हैजो आपके मार्ग में खड़ा है। आप जब तक इस दैत्य को नहीं मारोगेआप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकतें हैं न कोई आर्थिक सुधार।[10]

 

राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उपकरण तथा परियोजना -

 

डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्र निर्माण की परियोजना के उपकरणों को हम मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं -

 

1.    राष्ट्र निर्माण के उपकरणों की पहली श्रेणी सामाजिक रचना से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का आधार राजनीतिक लोकतंत्र है और वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ हैइसका अर्थ है जीवन का एक तरीका जो स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है। आदर्श समाज ऐसा होना चाहिए जो स्वाधीनतासमानता और भाईचारे पर आधारित हो।[11] डॉ अम्बेडकर इसका स्रोत फ़्रांस की क्रांति को नहीं बल्कि बौद्ध धर्म को मानते हैं जो भारत की संशोधनवादी संस्कृति रही है। समाज में विभिन्न लोगों के बीच सम्पर्क के ऐसे बहुविध और निर्विवाद बिंदु होने चाहिएजहाँ साहचर्य या संगठन के अन्य रूपों से भी संवाद हो सके। समाज के भीतर सम्पर्क का सर्वत्र प्रसार होना चाहिए। इसी को भाईचारा कहतें हैं। भारत के संविधान की कुंजी; उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों मेंव्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना हैक्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। अगर स्वाधीनता का अधिकार निर्बाध आवागमनजीविका उपार्जन इत्यादि पर अधिकार है तो इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। सामाजिक न्याय हेतु निदेशक सिद्धांत के रूप में समानता एक आवश्यक शर्त के तौर पर होनी चाहिए तभी यह समाज एक प्रजातान्त्रिक समाज होगा जो एक राष्ट्र का निर्माण करेगा।

 

2.    दूसरी श्रेणी धर्म से है जहाँ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं वो और कुछ नहीं निषेधाज्ञाओं और आदेशों का पुलिंदा है।[12] हिन्दू धर्म में आध्यात्मिकता और सिद्धांत विद्यमान नहीं है। इसे धर्म नहीं कानून मानिए आप तभी इसे बदल पाएँगे। हालांकि समाज को धर्म कि आवश्यकता हैयहाँ वे बर्क से बिलकुल सहमत है क्योंकि सच्चा धर्म समाज की नींव हैजिस पर सभी नागरिक सरकारे टिकी हैं। परिणामतः ऐसा उम्मीद करना चाहिए कि जीवन के ऐसे पुराने नियम समाप्त कर दिए जाए और उसका स्थान 'धर्म के सिद्दांतग्रहण कर ले।[13] धर्म आवश्यक है अतः धर्म में सुधार का पहलू भी अति आवश्यक है डॉ. अंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता का जो तर्क बुना वह जीवन तथा समाज के आचार के लिये धर्म को आवश्यक आधारशिला तथा सामाजिक धरोहर घोषित करता है। 'बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य'[14] नामक एक लेख में डॉ. बाबा साहेब ने मानवीय जीवन में धर्म और उसकी विशेषताओं को इस प्रकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि समाज की 'स्थिरताऔर 'नियंत्रणके लिए नीति की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के अभाव में समाज रसातल में जा सकता है। इसलिये किसी भी समाज को धर्म की आवश्यकता होती है।धर्म को अगर बने रहना हो तो उसे बुद्धि प्रामाण्यवादी होना चाहिए। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवादी है। केवल 'नीति की संहिताका अर्थ धर्म नहीं हैं। धर्म की नीति संहिता में स्वतंत्रतासमता और बन्धुता इन मूलभूत तत्त्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। दरिद्रता को पवित्र मानने का आग्रह किसी भी धर्म को नहीं करना चाहिएअथवा दरिद्रता का गौरवगान भी नहीं होना चाहिए। धर्म प्रजा के धारण के लिए बंधुभावसमता और स्वतंत्रता के सद्गुणों के संस्कार डालेऐसी अपेक्षा ही नहीं बल्कि धर्म की अहम जिम्मेदारी होती है। हिन्दू धर्म इन सद्गुणों के संस्कार पैदा नहीं करता इसलिए इसको नकारना पड़ता है।

 

3.    तीसरी श्रेणी राजनीति से जुड़ी हुई है। डॉ अम्बेडकर के अनुसार दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं कि अगर हम सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न समस्या की उपेक्षा करते हैं तो इसे हमें एक राजनीतिक समस्या के रूप में हल करना होगा[15] वैसे ही जैसे भारत में साम्प्रदायिक अधिनिर्णय सामाजिक सुधार की उपेक्षा से उत्पन्न प्रतिशोध है। यह एक सामाजिक शल्य-चिकित्सा है इस पीड़ा को उठाना ही होगा। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर लेतेकानून द्वारा जो भी स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैवह आपके किसी काम की नहीं है हमारे पास यह स्वतंत्रता किस लिए हैहमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए मिल रही हैजो असमानताभेदभाव और अन्य चीजों से भरी हैजो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है। राज्य प्रायोजित सामाजिक सुधारों तथा सकारात्मक राजनीतिक पहलों ने एक सिलसिला शुरू किया जिससे अस्पृश्यता को क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया वहीं राष्ट्र निर्माण में भागीदारी के लिए अनुसूचित जातियों को तथा अनुसूचित जन जातियों को तथा बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाता है राष्ट्र निर्माण में योगदान की यह प्रतिनिधिमूलक अनुभूति नागरिकों में बंधुता का भाव भरती है तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करती है।

 

निष्कर्ष :

 

इस प्रकार राष्ट्र निर्माण के अनिवार्य अवयवों स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व जिसको धर्म में सन्निहित सामाजिक आदर्श नकारता था, संविधान की प्रस्तावना ने उसे राष्ट्र निर्माण का प्रयोजनमूलक राजनीतिक आदर्श बना दिया अब तक अविजित तथा अपरिवर्तनशील रहा भारतीय समाज, राज्य के हस्तक्षेप से राष्ट्र में समाकर एक सफल तथा मजबूत राष्ट्र राज्य के रूप में अग्रसर है जिसे कभी एक अस्वाभाविक राष्ट्र[16] समझा गया था। ऐसा नहीं है कि भारतीय राष्ट्र राज्य में जाति व्यवस्था ख़त्म हो गई है या जातिगत अत्याचार, पूर्वाग्रह या शोषण ख़त्म हो गया है लेकिन यह भी सही है की लोकतंत्र की चक्की ने धीमे ही सही पर हमारे समाज को बारीक पिसा है। आज भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ उपराष्ट्रीयताओं के बीच छोटे-मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता को धारण करने वाला लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल-बैठकर सुलझा भी लिया जाएगा इस तरह राष्ट्र को बनाने की डॉ अम्बेडकर की यह पसंदीदा कहानी निरंतर चलती रहेगी।

 

सन्दर्भ : 



[1]Chatterjee, Partha. Nationalist Thought and the Colonial World: A Derivative Discourse?, Zed Books for the United Nations University, London, U.K., 1986, p. 42.

[2]Anderson Benedict R. Imagined Communities: Reflections on the Origin and Spread of Nationalism. Verso, London, 1983.

[3]बंद्योपाध्याय  शेखर. पलासी से विभाजन तक और उसके बाद ओरियंट ब्लैकस्वान नई दिल्ली , 2015, p. 338.

[4]Dirks, Nicholas B. Castes of Mind: Colonialism and the Making of Modern India. Princeton University Press, 2001.

[5]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 69-77.

[6]Toynbee, Arnold Joseph. A Study of History, vol. 12, Oxford Univ. Press, Oxford, 1979, p. 230.

[7]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 32-33.

[8]वही, p. 99.

[9]वही, p. 59-62.

[10]वही, p.62-66.

[11]वही, p. 78.

[12]वही, p. 100.

[13]वही, p. 101.

[14] Buddha and future of his religion – dr. B. R. Ambedkar     .Dr. B. R. Ambedkar's Caravan. (2015, May 29). Retrieved April 18, 2021, from https://drambedkarbooks.com/2015/05/31/buddha-and-future-of-his-religion-dr-b-r-ambedkar/

[15]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 60.

[16]गुहा  रामचन्द्र. भारत गाँधी के बाद पेंगुइन बुक्स गुड़गावं , 2011, p. ix.

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