शुक्रवार, 8 मार्च 2024

खुसरो का विद्रोह

                            

खुसरो : निष्कलंक चरित्र का योग्य शहजादा

जहाँगीर के समय का यह विद्रोह मुग़ल शहजादे खुसरो की दारुण गाथा है। यह सत्ता की आकांक्षा तथा सत्ता के खोने के भय के बीच के संघर्ष की कहानी है, जहाँ पिता और पुत्र के सम्बन्धों की त्रासदी मानव मन में पीड़ा जगाती हैं। खुसरो जहाँगीर की राजपूत पत्नी मानबाई से उत्पन्न दूसरी संतान था। मानबाई आम्बेर के राजा भगवान् दास की पुत्री थी।  खुसरो का मामा राजा मानसिंह बंगाल का गवर्नर तथा मिर्जा अजीज़ कोका उसका ससुर था। खुसरो अपने दादा अकबर के संरक्षण में पला बढ़ा एक सुन्दर, सुशील, बुद्धिमान, आकर्षक, निष्कलंक चरित्र का युवक था। यह दरबारियों का प्रिय तथा नागरिकों में लोकप्रिय था

जहाँगीर की चिंता : सत्ता खोने का भय

प्रश्न उठता है कि आखिर इतने अच्छे युवराज का अपने बादशाह पिता से दुराव का क्या कारण था ? दरअसल खुसरो के अपने गुण, पहचान, रिश्तेदारी तथा लोकप्रियता ही उसके जान के दुश्मन बन गए। बादशाह पिता अपने पुत्र को ही अपनी गद्दी के लिए संकट समझने लगा। ऐसा हो भी क्यों न ? दादा अकबर एक समय अपने शराबी और विद्रोही पुत्र सलीम जो अब जहाँगीर हो गया था से तंग आकर खुसरो को एक विकल्प के रूप में देखने लगा था। जहाँगीर बादशाह बनने के बाद भी इससे मुक्त नहीं हो पाया। वह खुसरो को कपटी तथा षड़यंत्रकारी समझता रहा। हालाँकि रहने के लिए मुनीब खान का पुराना महल तथा पुनरुद्धार के लिए 1 लाख रुपये भी दिया था।

खुसरो की शिकायत : सत्ता की कामना

दूसरी तरफ सत्ता की कामना का जो बीज खुसरो के मन में बोया गया था वह उसे मार नहीं पाया। खुसरो की यह शिकायत एक तरफ से वाजिब भी थी क्योंकि उसे युवराज के अनुरूप कोई पद या मंसब नहीं मिला। प्रशासन में उसकी भूमिका नगण्य बना दी गई थी। उस पर एक बड़ा दुःख यह कि उसके मित्रों को कोई सुविधा या अनुग्रह नहीं दिया गया था। वह यह सब बर्दास्त कर सकता था पर पिता की आँखों में प्यार की जगह हमेशा संदेह और नफ़रत को वह कैसे झुठला देता। अतः सदैव दुखी और उदास रहने लगा। सशंकित पिता को पुत्र का यह व्यवहार नागवार गुजरा और उसने खुसरो को शहर में स्थानान्तरण पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

विद्रोह : अंधकारमय भविष्य से बेचैनी

खुसरो अपनी नज़रबंदी और अन्धकारमय भविष्य से बेचैन हो उठा। वह 6 अप्रैल 1606 को 350 घुड़सवारों के साथ सिकंदरा में अकबर के मकबरे की यात्रा के बहाने आगरा के किले से निकल कर दिल्ली की तरफ बढ़ चला। मथुरा में हुसैनबेग 300 घुड़सवारों के साथ उससे आ मिला। रास्ते में आगरा आ रहे शाही खजाने को लूट लिया गया। समाचार फैलते ही समर्थक जिसमें सैनिक तथा किसान भी थे दिल्ली के आसपास इक्कठा होने लगे जिनकी संख्या लगभग 12000 के आसपास थी। लेकिन दिल्ली की तगड़ी सुरक्षा का भान होते ही वह लाहौर की तरफ मुड़ गया। लौहार मार्ग पर प्रान्त का दीवान अब्दुल रहीम मिला जिसे शाही दीवान बना दिया गया। विद्रोहियों ने लाहौर के किले की घेरा बंदी कर दी लेकिन सूबेदार दिलावर खान उसकी सफलता पूर्वक सुरक्षा करता रहा।

विद्रोह के दमन की तैयारी : कोई कसर बाकी न रह जाए

इधर रात में ही जहांगीर को जगा कर प्रधान मंत्री शरीफ खान ने विद्रोही के भाग जाने की सूचना दी। जवाबी कार्यवाई के अभियान के नेतृत्व का दायित्व मीरबक्शी फ़रीद खान को दिया गया साथ में सतर्कता के लिए बादशाह ने अपने अहदियों को भी साथ भेज दिया। गलती की कोई गुंजाइश न रहे तथा कोई और षड्यंत्र न हो जाए इससे बचने के लिए आगरा के कोतवाल को गुप्तचर अधिकारी बना दिया गया। बंगाल के रास्ते को ब्लाक कर दिया गया ताकि वह मामा मानसिंह से न मिलने पाये। प्रधानमंत्री को चेतावनी दी गई की खुसरो के साथ जो भी किया जाएगा वह अपराध नहीं होगा क्योंकि  राजा का कोई सम्बन्धी नहीं होता। इतना सब होने के बाद भी जहांगीर को संतोष नहीं हुआ तो वह स्वयं भी साथ लग गया।

खुसरो की पराजय : एक तयशुदा परिणाम

इधर खुसरो अभी भी लाहौर का किला लेने में असफल था तब तक उसे बादशाह के नेतृत्व में शाही फौज आने की सूचना मिली। वह किले की घेराबंदी जारी रखते हुए कुछ 10000 सैनिको के साथ शाही सेना से मोर्चा लेने के लिए चल दिया। एक तयशुदा परिणाम भैरोवाल के खूनी संघर्ष में दिखा जहाँ खुसरो की करारी हार हुई। पलायन के दरम्यान चिनाव नदी के सोधराव तट पर शेख फरीद जिसे जिसे इनाम के तौर पर मुर्तजा खा की पदवी दी गई, उसने खुसरो को धर लिया।  

विद्रोहियों को दण्ड : ताकि आगे के लिए एक नजीर बने

विद्रोहियों को जहाँगीर के समक्ष लाया गया जहाँ हुसैन बेग तथा अब्दुल रहीम को बैल और गधहे की खाल में सिल दिया गया जिससे हुसैन बेग तो मर गया परन्तु अब्दुल रहीम बच गया तो उसे पुराना ओहदा वापस दे दिया गया। अन्य समर्थकों को लाहौर के बाहर सड़क पर दोनों तरफ फांसी पर लटका दिया गया। मुख्य विद्रोही खुसरो को गंदे हाथी पर बैठा कर उसके अनुयाइयों के बीच घुमाया गया।

गुरु अर्जुनदेव : राजदण्ड या धार्मिक कट्टरता

इस घटना में सिखों के पांचवे गुरु का 30 मई 1606 में वध कर दिया गया था। गुरु पर आरोप था कि गोंड्वाल में उसने खुसरो की सहायता माथे पर केसर कश्क का तिलक तथा पांच हजार रुपये से की। शाही मांग थी कि गुरु अपने अपराध को स्वीकार करें तथा 2 लाख का जुरमाना दें। इनकार करने पर सजा दी गई। घटना में धार्मिक असहिष्णुता के पक्ष की तसदीक जहाँगीर स्वयं करता है हालाँकि विन्सेंट आर्थर स्मिथ इसमें साम्प्रदायिक पक्ष नहीं बल्कि राजदण्ड को देखते हैं।

षड्यंत्र : और वह अँधा कर दिया गया

खुसरो को आगरा के किले में कैद कर दिया गया। सुरक्षा कर्मियों से अंतरंगता का परिणाम एक किन्नर एतबार खान तथा नुरुद्दीन के सहयोग में दिखा जिससे शायद जहाँगीर की हत्या का षड्यंत्र रचा गया जिसका खुलासा हो गया। फिर क्या खुसरो को अँधा बना दिया गया ताकि वह दुबारा ऐसी हरकत न कर सके। पिता का दिल एक बार पसीज गया और बाद में फारस के चिकित्सक हकीम सद्र से इलाज हुआ और कहा जाता है कि एक आँख कि रोशनी लौट आई, इनाम में चिकित्सक को मासिम उज जमा की उपाधि दी गई।

खुसरो बाग़ : माँ अब सोने दो

नूरजहाँ के प्रभाव तथा खुर्रम के संभावित प्रतिद्वंद्वी होने के कारण खुर्रम इसे दक्कन ले गया जहाँ बुरहानपुर में कैद रखा फिर मार्च 1622 में मौत के घाट उतार दिया। जहाँगीर के आदेश से उसकी कब्र बुरहानपुर से आगरा, फिर इलाहाबाद लाई गई। यहाँ खुल्दाबाद में उसकी माँ के बगल में उसे दफना दिया गया जिसे अब खुसरो बाग़ कहा जाता है।  

गुरुवार, 7 मार्च 2024

मेइजी काल के अंतर्गत जापान की आन्तरिक नीति : कायाकल्प

 मेईजी पुनःस्थापना ने जापान को एक नया जीवन प्रदान किया जिससे वह कुछ ही वर्षों में प्रथम श्रेणी की शक्ति तथा एक आधुनिक राज्य बन गया। जापान में देश के आधुनिकीकरण के लिए एक प्रबल आन्दोलन चल पड़ा जिससे देश के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आमूल परिवर्तन हुआ और जापान का कायाकल्प हो गया।

1.       सामन्ती प्रथा का अन्त

5 मार्च, 1869 को सातसूमा, चोशू, तोसा और हीजन के डैम्यो ने एक आवेदनपत्र द्वारा अपनी रियासतें सम्राट को अर्पित कर केन्द्रीय शासन की अधीनता कबूल कर ली और उनकी सारी सामन्ती सुविधाएँ समाप्त कर दी गईं। अन्य डैम्यो ने भी ऐसा ही किया। जो कुछ बच रहे थे उन्हें 25 जुलाई को सम्राट् ने ऐसा करने का आदेश दिया। सब रियासतें सम्राट के अधीन हो गईं। लेकिन, जागीरों पर से सामन्तों के शासन का अन्त नहीं हुआ। रियासतों को जिले का रूप दे दिया गया और उनमें उनके डैम्यो की ही प्रशासक नियुक्त किया गया और साथ-साथ केन्द्रीय सरकार का उन पर नियंत्रण बहुत कड़ा कर दिया गया।

2.       सैनिक सुधार

जापानी सेना का निर्माण सामूराई लोगों द्वारा होता आया था। सामूराई लोग सामन्तों की सेवा में रहकर सैनिक सेवा प्रदान करते थे। सेना में प्रवेश इसी वर्ग तक सीमित था और जनसाधारण को सैनिक सेवा का अवसर नहीं दिया जाता था, पर जब सामन्ती प्रथा का अन्त हो गया तो सामुराई लोगों के इस एकाधिकार का भी अन्त हो गया और जापान के सभी वर्गों के लिए सेना में भर्ती के लिए दरवाजा खोल दिया गया। दूसरे शब्दों में, जापान की सेना का स्वरूप अब राष्ट्रीय हो गया।1872 ई० में राजाज्ञा प्रकाशित कर जापान में सैनिक सेवा को अनिवार्य घोषित कर दिया गया।

3.       कानूनी समानता की स्थापना

1869 ई० में सरकारी और व्यावसायिक नौकरियों पर से वर्ग-विषयक पाबन्दियाँ हटा ली गई। 1880 ई० में सामान्य जनता को पारिवारिक नाम धारण करने का अधिकार मिल गया जो सामन्तों तक ही सीमित था। 1871 ई० में समाज के सबसे निम्न वर्ग- जो अछूत था-को पूरी समानता दे दी गई। सामन्त वर्ग विशेष चिह्न के रूप में दो तलवारें रख सकता था। सामान्य व्यक्ति इन्हें नहीं रख सकता था। किन्तु, 1871 ई० में सरकार ने इजाजत दे दी कि जो सामन्त या सामूराई इन तलवारों को छोड़ना चाहें, वे ऐसा कर सकते हैं। 1876 ई० में कानून द्वारा तलवार रखना बन्द कर दिया गया। इससे सामन्ती प्रतिष्ठा और पार्थक्य का दिखावटी चिह्न खत्म हो गया।

4.       औद्योगिक विकास

जापान में शीघ्र ही नए-नए कारखाने स्थापित किए गए और यूरोप तथा अमेरिका से मशीनें मंगवाई गईं। वहाँ के विशालकाय कारखानों में कपड़ा, रेशम, लोहे के सामान आदि प्रचुर मात्रा में तैयार होने लगे। जापानी सरकार की एक यह भी नीति थी कि ऐसे व्यवसायों के विकास पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाए जो सैनिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण हों। इसलिए, जापान में खानें खोदी गईं, लोहा-इस्पात के व्यवसाय को उन्नत किया गया तथा युद्धोपयोगी सामग्री के उत्पादन के लिए कारखाने खोले गए। वाष्प शक्ति के विकास पर विशेष बल दिया गया। 1890 ई० तक जापान के अधिकांश कल-कारखाने भाप की शक्ति से ही काम करने लगे।  1872 ई० में जापान में सर्वप्रथम रेल लाइनों का निर्माण शुरू हुआ और 1894 ई० तक सारे देश में रेल की लाइनें फैल गईं। 1868 ई० में टेलीग्राफ का जापान में पहले-पहल प्रवेश हुआ। कुछ ही दिनों में जापान में डाकघरों की स्थापना हो गई। 1883 ई० तक नागासाकी के कारखाने में दस और हयोगी के कारखाने में तेईस भाप से चलनेवाले जहाज तैयार हुए। वह संसार की एक प्रमुख नाविक शक्ति बन गया।

5.       कृषि में सुधार 

1872 ई में किसानों का अपने खेतों पर स्वत्व स्थापित हो गया और सामन्ती असुविधाओं से उन्हें छुटकारा मिल गया। पहले सामन्त लोग अपनी जागीरों की भूमि जोतने वाले किसानों से उपज का एक निश्चित भाग लगान के रूप में लिया करते थे। पर, अब सरकार ने उपज का भाग लेने के स्थान पर सिक के रूप में मालगुजारी लेनी प्रारम्भ की। इससे किसानों को बहुत लाभ पहुँचा। कृषि के क्षेत्र में उन्नति कर पैदावार बढ़ाने के लिए विशेष यत्न किए गए। किसानों को हर तरह की राजकीय सहायता दी गई, ताकि वे पैदावार बढ़ा सकें। उन्हें नए वैज्ञानिक तरीकों से खेती करने की विधि बताई गई। लेकिन, इससे भी किसान संतुष्ट नहीं हुए, क्योंकि उनसे बड़ा कड़ा लगान वसूल किया जाता था। 1883 ई० से 1890 ई० तक कर वसूलने के लिए किसानों पर घोर अत्याचार किए गए।

6.        शिक्षा में सुधार

1868 ई० के शाही शपथ के निर्देश 'हर स्थान से ज्ञान प्राप्त किया जाए' के अनुसार 1871 ई० में शिक्षा विभाग की स्थापना की गई। इसके लिए एक कानून बनाकर व्यवस्था कर दी गई कि "हर व्यक्ति ऊँचा और नीचा, स्त्री और पुरुष, शिक्षा प्राप्त करे जिससे सारे समाज में कोई भी परिवार और परिवार का कोई भी व्यक्ति अशिक्षित और अज्ञानी न रह जाए।" अमेरिका की प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में संशोधन कर जापान ने उसे अपनी पद्धति का आधार बना लिया। सारे देश को आठ विश्वविद्यालय क्षेत्रों में बाँटा गया। इन क्षेत्रों के बत्तीस माध्यमिक विद्यालय प्रदेश बनाए गए। हर प्रदेश को दो सौ दस प्राथमिक पाठशाला हलकों में विभक्त किया गया। इस प्रकार हर छह सौ आदमियों के लिए एक प्राथमिक पाठशाला उपलब्ध हो गई। छह वर्ष के बालक-बालिकाओं के लिए चार वर्ष का और बाद में छह वर्ष का शिक्षणकाल पूरा करना अनिवार्य कर दिया गया। उन्हें सामान्य आवश्यक विषयों के अतिरिक्त सम्राट् के प्रति आदर और निष्ठा से सम्बद्ध चारित्रिक शिक्षा भी दी जाने लगी।

7.       नई जीवन-शैली का विकास

1872 ई० में सभी राजकीय पदाधिकारियों का पाश्चात्य वेश भूषा धारण करना अनिवार्य कर दिया गया। सूट पहनने का प्रचार इतना बढ़ा कि लन्दन की बढ़िया दर्जियों की गली 'साबिल रो' की नकल पर जापान में भी दर्जियों का 'सेबीरो' मुहल्ला बस गया। हाथ मिलाकर अभिवादन करने के रिवाज का भी प्रचलन हुआ। औरतें विक्टोरियन ढंग के कपड़े पहनने लगीं। 1873 ई० में सम्राज्ञी ने दाँतों को काला करना और भौहें मुड़वाना बन्द कर दिया। यह जापान में विवाहित स्त्रियों का पुराना रिवाज था। तब से यह बिलकुल बन्द हो गया। दाँतों पर ब्रश से मंजन करने का रिवाज इतना बढ़ा कि जापान में टूथपेस्टों की सबसे ज्यादा खपत होने लगी।

8.       धार्मिक तथा राजनीतिक जीवन में परिवर्तन 

बौद्धधर्म के बदले अब शन्तो धर्म को लोकप्रिय बनाया जाने लगा। यह जापान का राजधर्म बन गया। इस धर्म के द्वारा राष्ट्रीयता के विकास में सहायता मिली। लोग सम्राट् के प्रति पहले से अधिक राजभक्ति और सम्मान प्रदर्शित करने लगे। राष्ट्र में देशभक्ति की भावना लाने में धर्म का उपयोग किया गया। इसके फलस्वरूप, जापानी लोगों में राष्ट्रीय चेतना और एकता की भावना का प्रादुर्भाव हुआ। जापान पर पश्चिम के राजनीतिक दर्शन, विशेष रूप से उन्नीसवीं शताब्दी के व्यापक उदारवाद का प्रभाव पड़ा।  इसी समय जापान में कुछ प्रगतिशील विचारक पैदा हुए, जिन्होंने शासन में सुधार के लिए आन्दोलन चलाया। इस आन्दोलन का एक नेता था ईतागाकी ताईसूके। 1874 ई० में उसने सम्राट् से अनुरोध किया कि 1868 ई० की घोषणा के अनुसार जापान में संसद की स्थापना की जाए जो जापान के लोकमत का वास्तविक प्रतिनिधित्व करे। इस माँग को राष्ट्रीय रूप देने के लिए 1875 ई० में 'आईकोकुशा' (देशभक्तों का समाज) नामक एक संगठन बनाया गया। । 1878 ई० में जापान में स्थानीय स्वशासन का सूत्रपात किया गया । 11 फरवरी, 1889 को नए संविधान की घोषणा की गई। इसे 'मेईजी संविधान' कहते हैं।

9.       न्याय और कानूनी व्यवस्था

1873 ई० में एक दण्ड संहिता तथा फौजदारी कानून की रचना आरम्भ की गई। यह कार्य 1880 ई० में समाप्त हुआ और 1882 ई० में उसे स्वीकार कर लिया गया। इन कानूनों पर फ्रांसीसी कानूनों का गहरा प्रभाव था। एक दीवानी संहिता बनाने का काम 1870 ई० में आरम्भ हुआ और 1890 ई० में पूरा होने पर उसे स्वीकार कर लिया गया। इसी वर्ष राज्यक्षेत्रातीत अधिकार भी समाप्त कर दिए गए। दीवानी संहिता का आधार भी फ्रांसीसी कानून ही था, यद्यपि इसमें जर्मनी और कुछ अन्य देशों के कानूनों की भी कुछ बातें ली गई थीं। दीवानी मामलों के लिए कानून 1891 ई० से लागू था। जर्मन मूल से तैयार व्यापार संहिता भी दीवानी संहिता के समान ही लागू की गई। जापान के न्याय विभाग का संगठन भी नए सिरे से किया गया। छोटे और बड़े न्यायालयों का निर्माण करते हुए फ्रांस की न्याय पद्धति को आदर्श माना गया। 1889 ई० तक न्यायालय से सम्बद्ध नई व्यवस्था की रूपरेखा तैयार हो गई और 1894 ई० में सम्पूर्ण देश में इस पद्धति के अनुसार न्याय का प्रशासन चलने लगा।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि पुनःस्थापना के बाद जापान के जीवन के प्रत्येक पक्ष का कायापलट हुआ। खाने-पीने, रहने-सहने, ओढ़ने-पहनने, सोचने-विचारने तथा राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन की सारी क्रियाएँ आश्चर्यजनक तेजी के साथ बदलती गईं। जापान एक उन्नत, आधुनिक देश के रूप में संसार के रंगमंच पर आया।

मंगलवार, 5 मार्च 2024

Meiji Restoration in Japan: Meaning

                          Background: Reason

1.     Reaction to western contact

The arrival and pressure of foreigners in the mid-nineteenth century led to diverse reactions in Japan.

·       Japan's classicists and conservatives opposed the increasing contact with the West, but their voice was not effective.

·       Another ideology also appeared which emphasized on 'coordination of Eastern morality and Western science' and stressed on adopting the same means to counter the West.

·       There was also a third group of Japanese. The basic mantra of which was complete westernization and modernization of Japan. He wanted to completely adopt the western lifestyle. He believed that Japan would not benefit by clinging to the old traditions and simultaneously adopting the new culture. Japan must choose one of two paths.

After contact with the Western world, this ideology prevailed in Japan. The Meiji Restoration of 1868 was the result of this trend.

2.    Opposition to Shogun rule

At the time of European pressure, Japan had a strange type of political system. The Mikado or Emperor was the head of the state. But he was a nominal ruler. He lived in seclusion in Kyoto and was considered a pure soul who was detached from the world. The actual ruler was the Shogun known as the 'Shogun of Yedo'. Although the Shogun of Yedo was running all the state affairs in the name of Mikado, still he could not completely bring the other feudal dynasties under his control. The entry of Europeans into Japan gave these rival feudal lords a golden opportunity to depose the Tokugawa shogun.

3.     Dissatisfaction of feudal lords

All the other feudal houses of Japan had turned against the Tokugawa shogun. To maintain his control over the big feudal lords, the Shogun had made various arrangements which caused immense suffering to them. According to the 'Sankin Kotai' law, feudal lords were prohibited from building forts, repairing them, building war ships, minting coins, and marrying without the permission of the Shogun. He had to be present in the Shogun's capital Yedo for four months every two years. When they went back to their kingdom from Yedo, they had to leave their wives and children there as hostages. Due to this, every feudal lord had to keep his household in the capital itself, which was a burden from the economic point of view.

4.     Discrimination in state appointments

The Shogun was also very partial in the appointment to high posts of the state. These posts were limited to the people of the Tokugawa family and other feudal lords were kept away from them. The feudal lords of Choshu, Satsuma and Tosa clan were very angry with this discrimination policy of the Shogun and wanted to get rid of him. This rift was increasing with time.

5.     Dissatisfaction among samurai warriors

Under the Shogun rule, the feudal lords of other families were greatly oppressed from the economic point of view due to which their economic condition worsened day by day. They were forced to cut back on their spending and eliminate samurai troops. This created dissatisfaction among the samurai. They started committing theft and robbery which caused chaos in the society. The samurai were deeply dissatisfied with their situation and wanted a change in the prevailing system – that is, the dominance of the Tokugawa shogun.

6.     Dissatisfaction among traders and farmers

In the nineteenth century, there was considerable progress in Japan's trade and a new business class emerged which became a very prosperous section of the society. The feudal lords had to take loans from these traders to meet their needs. Still, the position of traders in the society was very low compared to the feudal lords. The feeling of inferiority of the feudal class towards them was very irritating to the traders due to which they were in favor of social change.

The Japanese peasantry was also not satisfied with its condition. The entire burden of the feudal system fell on the farmers. They were being crushed by the burden of taxes and the strictness of governance. But gradually political awakening was coming among them and they started rebelling. Their rebellion was against the Shogun system.

7.     Opposition to the Shogun by the feudal lords

Other feudal lords said that due to the weakness and short-sightedness of the Shogun, Japan's independence and sovereignty were in danger. He tried to sway public opinion in his favor regarding the soft policy of the Shogun regime towards foreigners. They felt that with this pretext they could escape from the clutches of the Shogun. But there was no harmony among the feudal lords. Therefore, they had to make the emperor the center of their activity. He raised the slogan of 'drive out the barbarians', remove the shogun and increase the power of the emperor. Their real objective was to increase his power under the guise of the emperor and remove the restrictions imposed on him by the Shogun rule.

8.     Increase anti-foreign sentiment

Meanwhile, sentiment against foreigners continued to intensify in Japan. The feudal lords greatly instigated this anti-feeling. Emperor Komei had also turned against the foreigners. Coming under the influence of the Choshu feudal lords, he ordered the Shogun to decide to expel all foreigners from the country by June 25, 1863. But, the officials of the Shogun government thought that this work was no longer possible. But, the Choshu people had exactly the opposite idea. They believed that foreigners could be easily driven out of Japan and they themself took the initiative to do so.

§  An American ship was destroyed by shelling on June 25, 1863 by Choshu feudals.

§  On September 14, 1862, Richardson was killed by samurai warriors for insulting the Satsuma feudal lord.

They had to suffer the consequences of both these incidents.

9.     Conflict between Choshu and Shogun: Friendship between Choshu and Satsuma

The Choshu and Satsuma feudal lords had to look inferior to the foreigners. Now they started feeling their weakness. He decided to carry out military reforms and organized a standing army composed of Choshu samurai and common people.

The Shogun was enraged by the Choshu people's provocative policy towards foreigners and decided to suppress them (the Choshus) by taking military action. The Shogun sent a huge army against them and the Choshu feudal lords were badly crushed. But, at the same time the Satsuma people opposed it. They did not want the Choshus to be completely exterminated. This time in the war, Choshu's army badly defeated the Shogun. After this incident Choshu and Satsuma became very close to each other. On March 7, 1866, a secret treaty was signed between them by which it was decided to end the Shogun rule.

                        End of Shogun rule and Meiji Restoration

Tokugawa Keiki became shogun in January, 1867. He had progressive views and wanted to work together with everyone. He made many reforms in the administrative military system. Seeing the Shogun regaining control, the leaders of Choshu and Satsuma decided to quickly remove him by force. Emperor Komei died in February 1867 and Mutsuhito ascended the throne in his place. The new emperor was only fifteen years old at that time. Therefore, anti-Shogun chieftains immediately established their influence over him. On January 3, 1868, the troops of Satsuma and Choshu captured the imperial palace and announced the restoration of the emperor's power. The emperor assumed the surname 'Meiji' (The Magnificent). This event is called 'Meiji Ishin' (Meiji Restoration). Due to this, the next era was also named 'Meiji period'.

Tokugawa Keiki was a far-sighted man, so he decided to accept this change and left the capital peacefully. But other Tokugawa feudal lords did not agree to this. They decided to fight. But, they could not stand before the royal army and were badly defeated. The royal army moved towards Yedo. Keiki decided to surrender and sent his letter of resignation to the Emperor. Some Tokugawa feudal lords still opposed this change. But, it did not work for him. They were completely crushed and the emperor's sole rule was established over the entire country. The Shogun rule that had been going on for centuries ended.

New Constitution:

With the end of the Shogun rule, there was a need for a new government system. In April, 1868, a 'Legislative Oath' was prepared which had the following five sections -

1.    Assemblies will be established on a large scale to consider state affairs and all government actions will be decided on the basis of public opinion.

2.    All classes, high and low, will unite among themselves to vigorously implement the plan of the State.

3.    All sections of the public will get an opportunity to fulfill their legitimate aspirations so that there is no dissatisfaction.

4.    The uncivilized customs of earlier ages will be broken and everything will depend on the just and fair principles of nature.

5.     Knowledge will be obtained from the entire world so that the welfare of the empire will increase.

On April 7, 1868, all the feudal lords and courtiers supported it and took oath and put their seals on it. The emperor appointed some advisors to run the government. All of them were young and determined to work with renewed enthusiasm. They resolved to rapidly adopt Western knowledge, culture and way of life. A central organization was formed under the direction of these persons. It had a plan of supreme administrator, supreme assembly, co-operative assembly and seven departments. Daimyo and samurai were placed in the councils. Legislature was divided into three houses. Sa-in (Left House), U-in (South House) and Sei-in (Middle House) which were responsible for making laws, running ministries and general maintenance respectively. But, all the power was in the hands of the emperor and the people of the upper feudal class. Later, there was a struggle against this system. But, in 1868 AD the Meiji restoration work was completed.

                          Importance of Meiji Restoration

1.     End of feudal system

The seeds of Japan's creation begin with the Meiji Restoration. Many such actions took place during this period which led to many changes in the political and social sphere of Japan. The feudal system was abolished in Japan. The history of feudalism in Japan was very old. As a result, Japan's progress was halted. But, with the end of feudalism, the path to progress also opened.

2.     Development of Japanese nationalism

The Restoration saved Japan from getting trapped in the clutches of foreign imperialism. Due to the Restoration, unprecedented nationalism developed in Japan. Due to this, the people of Japan became alert from the beginning against the intentions of the foreigners and they saved the country from subjugation.

3.     Growth of imperialist sentiment

As a result of the Restoration, imperialist sentiments developed in Japan. There were many changes in the internal condition of Japan due to which the rule there became very strong and efficient. Japan's industrialization took place very rapidly and Japan's military force increased immensely. Within a few days it became a very powerful country. Because of this power, they adopted the policy of imperial expansion and within no time it also transformed into an imperialist country.

4.     Reconstruction of Japan

Due to the restoration, the governance of Japan became organized. Now a parliament was established to run the government and a new constitution was also made. Many types of rights were provided to the citizens. Japan's army was also organized in a new way. From this point of view also, restoration can be given a lot of importance.

5.     Westernization of Japan

The Restoration paved the way for Japan's progress. Contact with foreigners was established and the Japanese started progressing in various fields by following Western civilization and culture. Japan had to become equal to the western countries, hence factories developed rapidly in Japan, new scientific weapons were made, arrangements were made for higher education and a new army was organized on the western style.

 

All these things made Japan the greatest country in Asia. Japan was completely rejuvenated and the Restoration gave it a new birth as a nation.

जापान में मेईजी पुनःस्थापना : अर्थ

                         

                                                     पृष्ठभूमि : कारण

1.       पाश्चात्य सम्पर्क की प्रतिक्रिया

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में विदेशियों के आगमन और उनके दबाव के फलस्वरूप जापान में विविध प्रतिक्रियाएँ हुईं।

§  जापान के  पुरातनपन्थियों और रूढ़िवादियों ने पश्चिम के साथ बढ़ते हुए सम्पर्क का विरोध किया, लेकिन उनकी आवाज कारगर नहीं हुई।

§  दूसरी विचारधारा भी प्रकट हुई जिसने 'प्राच्य नैतिकता और पाश्चात्य विज्ञान के समन्वय' पर जोर दिया और पश्चिम का मुकाबला करने के लिए उसी के साधन अपनाने पर बल दिया।

§  जापानियों का तीसरा दल भी था। जिसका मूलमंत्र जापान का पूर्ण पश्चिमीकरण और आधुनिकता था। वे पाश्चात्य जीवनशैली को पूरी तरह अपनाना चाहते थे। उनका ख्याल था कि पुरानी रूढ़ियों से चिपटे रहने और साथ-साथ नई संस्कृति को अपनाए रहने से जापान को कोई लाभ न होगा। जापान को दो में से किसी एक मार्ग को ही चुनना है।

पश्चिमी जगत से सम्पर्कस्थापन के उपरान्त जापान में इसी विचारधारा की विजय हुई। 1868 ई० की मेईजी पुनःस्थापना इसी प्रवृत्ति का परिणाम थी।

2.       शोगून शासन का विरोध

यूरोपीय दबाव के समय जापान में एक विचित्र प्रकार की राज्य-व्यवस्था थी। मिकाडो या सम्राट् राज्य का अध्यक्ष होता था। लेकिन, वह नाममात्र का शासक था। वह क्योटो में एकान्तवास में रहता था और उसे एक ऐसी पवित्र आत्मा के समान समझा जाता था जो संसार के प्रति विरक्त हो। वास्तविक शासक शोगून था जिसे 'येदो का शोगून' कहा जाता था। यद्यपि येदो का शोगून मिकाडो के नाम पर सारा राज्यकार्य चला रहा था, फिर भी वह अन्य सामन्ती वंशों को पूर्णरूपेण अपने वश में न ला सका। जापान में यूरोपीयों के प्रवेश से इन विरोधी सामन्तों को तोकूगावा शोगून को अपदस्थ करने का एक सुनहरा अवसर मिला।

3.       सामंतों का असन्तोष

जापान के अन्य सभी सामन्ती घराने तोकूगावा शोगून के खिलाफ हो गए थे। बड़े-बड़े सामन्तों पर अपना नियन्त्रण कायम रखने के लिए शोगून ने कई तरह के इन्तजाम किए थे जिससे उन्हें अपार कष्ट पहुँचता था। 'सान्किन कोताई' कानून के अनुसार सामन्तों को किले बनाने, उनकी मरम्मत कराने, लड़ाकू जहाज बनाने, सिक्का ढालने और शोगून के इजाजत के बिना शादी-विवाह करने की मनाही थी। उन्हें हर दो साल पर चार महीने के लिए शोगून की राजधानी येदो में हाजिर रहना पड़ता था। जब वे येदो से अपनी रियासत में वापस जाते तो उन्हें अपने बीबी-बच्चों को बन्धक के रूप में वहीं छोड़ देना पड़ता था। इससे हर सामन्त को राजधानी में ही अपना घरबार रखना पड़ता था जो आर्थिक दृष्टि से भारस्वरूप था।

4.       राज्य की नियुक्तियों में भेदभाव

 राज्य के ऊँचे-ऊँचे पदों की नियुक्ति में भी शोगून बड़ा पक्षपात करता था। तोकूगावा परिवार के लोगों तक ही इन पदों को सीमित रखा जाता था और अन्य सामन्तों को इनसे अलग रखा जाता था। शोगून की इस भेदनीति से चोशू, सातसूमा और तोसा कुटुम्ब के सामन्त बड़े नाराज थे और उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे। यह मनमुटाव समय के साथ-साथ बढ़ता जा रहा था।

5.       समुराई योद्धाओं में असंतोष

शोगून शासन के अन्तर्गत अन्य घरानों के सामन्तों को आर्थिक दृष्टिकोण से बड़ा दबाया गया जिससे उनकी आर्थिक स्थिति दिनोंदिन खराब होती गई। उन्हें मजबूर होकर अपने खर्च में कटौती करनी पड़ी और सामूराई सैनिकों को हटाना पड़ा। इससे सामूराइयों में असन्तोष पैदा हुआ। वे चोरी-डकैती करने लगे जिससे समाज में अव्यवस्था फैली। सामूराई अपनी स्थिति से एकदम असंतुष्ट थे और प्रचलित व्यवस्था - अर्थात तोकूगावा शोगून के प्रभुत्व - में परिवर्तन चाहते थे।

6.       व्यापारियों और किसानों में असंतोष

उन्नीसवीं शताब्दी में जापान के व्यापार में पर्याप्त उन्नति हुई और एक नवीन व्यापारिक वर्ग का उदय हुआ जो समाज का एक अत्यन्त सम्पन्न वर्ग हो गया। सामन्तों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए इन व्यापारियों से कर्ज लेना पड़ा। फिर भी समाज में व्यापारियों का स्थान सामन्तों के मुकाबले अत्यन्त निम्न था। सामन्ती वर्ग का उनके प्रति हीनता का भाव व्यापारियों को काफी अखरता था जिससे वे सामाजिक परिवर्तन के हामी थे।

जापान का किसानवर्ग भी अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं था। सामन्ती व्यवस्था का सारा बोझ किसानों पर ही पड़ता था। वे करों के भार और शासन की सख्ती से पिसे जा रहे थे। लेकिन, धीरे-धीरे उनमें राजनीतिक जागरण आ रहा था और वे विद्रोह करने लगे थे। उनका यह विद्रोह शोगून-व्यवस्था के विरुद्ध होता था।

7.       सामन्तों द्वारा शोगून का विरोध

अन्य सामन्तों का कहना था कि शोगून की कमजोरी और अदूरदर्शिता के कारण ही जापान की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता खतरे में पड़ रही है। विदेशियों के प्रति शोगून शासन की नरम नीति को लेकर उन्होंने लोकमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। उन्हें लगा कि इस बहाने शोगून के चंगुल से निकला जा सकता है। किन्तु, सामन्तों के बीच आपस में मेल नहीं था। अतएव, उन्हें सम्राट् को अपनी गतिविधि का केन्द्र बनाना पड़ा। उन्होंने 'बर्बरों' को निकालो, शोगून को हटाओ तथा सम्राट् की शक्ति बढ़ाओ' का नारा बुलन्द किया। उसका वास्तविक उद्देश्य सम्राट् की आड़ में अपनी शक्ति बढ़ाना तथा अपने ऊपर शोगून शासन द्वारा लगाई गई पाबन्दियाँ दूर करना था।

8.       विदेशी-विरोधी भावना में वृद्धि

इस बीच जापान में विदेशियों के खिलाफ भावना तीव्र होती रही। सामन्तों ने इस विरोधी भावना को खूब भड़काया। सम्राट् कोमेई भी विदेशियों के विरुद्ध हो गया था। चोशु के सामन्तों के प्रभाव में आकर उसने शोगून को आदेश दिया कि 25 जून, 1863 तक सभी विदेशियों को देश से बाहर निकालने की व्यवस्था की जाए। किन्तु, शोगून शासन के अधिकारी समझते थे कि यह कार्य अब सम्भव नहीं है। लेकिन, चोशू लोगों का विचार ठीक इसके विपरीत था। उनका ख्याल था कि विदेशियों को सरलतापूर्वक जापान से खदेड़ा जा सकता है और उन्होंने स्वयं इसका बीड़ा उठाया।

§  चोशू सामन्त ने 25 जून, 1863 को एक अमरीकी जहाज को गोलाबारी कर के  नष्ट कर दिया गया।  

§  14 सितम्बर, 1862 को सातसूमा सामन्त के अपमान पर सामूराई योद्धाओं ने रिचर्डसन की हत्या कर दी।

इन दोनों घटनाओं का दुष्परिणाम इन्हें भोगना पड़ा ।

9.       चोशू और शोगून में संघर्ष  : चोशु और सातसूमा में मित्रता

चोशू और सातसूमा सामन्तों को विदेशियों के समक्ष नीचा देखना पड़ा था। अब वे अपनी कमजोरी महसूस करने लगे। उन्होंने सैनिक सुधार करने का निश्चय किया और चोशू सामूराई तथा सामान्य जनता की मिली-जुली स्थायी सेना संगठित की।

विदेशियों के प्रति चोशू लोगों की उत्तेजनात्मक नीति से शोगून को बड़ा गुस्सा आया और सैनिक कार्यवाही कर उसने उनका (चोशुओं का) दमन करने का निश्चय किया। शोगून ने उनके विरुद्ध एक विशाल सेना भेजी और चोशू सामन्त बुरी तरह कुचल दिए गए। लेकिन, इसी समय सातसूमा लोगों ने इसका विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि चोशुओं को बिलकुल खत्म कर दिया जाए।  युद्ध में इस बार चोशू की सेना ने शोगून को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस घटना के बाद चोशू और सातसूमा एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए। 7 मार्च, 1866 को उनके बीच एक गुप्त सन्धि हुई जिसके द्वारा शोगून शासन का अन्त करने का निश्चय किया गया।

                              शोगून शासन का अन्त और मेईजी पुनःस्थापना 

जनवरी, 1867 में तोकूगावा केईकी शोगून बना। वह प्रगतिशील विचारों का था और सबके साथ मिलजुलकर काम करना चाहता था। उसने प्रशासनिक सैनिक-व्यवस्था में कई सुधार किए। शोगून को सम्भलते देखकर चोशू और सातसूमा के नेताओं ने उसे जल्दी से बलपूर्वक हटाने का निश्चय किया। फरवरी, 1867 में सम्राट् कोमेई का देहान्त हो गया और उसकी जगह मूतसुहीतो गद्दी पर बैठा। नए सम्राट् की उम्र उस समय केवल पन्द्रह वर्ष की थी। अतः, उस पर शोगूनविरोधी सरदारों ने तुरन्त अपना प्रभाव कायम कर लिया। 3 जनवरी, 1868 को सातसूमा और चोशू की फौजों ने शाही महल पर अधिकार कर सम्राट् की शक्ति की पुनःस्थापना की घोषणा कर दी। सम्राट् ने 'मेईजी' (शानदार) उपनाम धारण कर लिया। इस घटना को 'मेईजी ईशीन' (मेईजी पुनःस्थापना) कहते हैं। इससे आगामी युग का नाम भी 'मेईजी काल' पड़ा।

तोकूगावा केईकी एक दूरदर्शी व्यक्ति था, अतः उसने इस परिवर्तन को मान लेने का निश्चय किया और राजधानी को शान्तिपूर्वक छोड़ दिया। लेकिन, अन्य तोकूगावा सामन्त इसके लिए राजी नहीं हुए। उन्होंने युद्ध करने का निश्चय किया। लेकिन, शाही फौज के सामने वे नहीं टिक सके और बुरी तरह पराजित हुए। शाही फौज येदो की ओर बढ़ी। केईकी ने समर्पण करने का फैसला किया और सम्राट् के पास अपना त्यागपत्र भेज दिया। कुछ तोकूगावा सामन्त अब भी इस परिवर्तन का विरोध करते रहे। लेकिन, उनकी एक न चली। उन्हें पूरी तरह कुचल दिया गया और सारे देश पर सम्राट् का एकछत्र शासन कायम हो गया। सदियों से चला आ रहा शोगून शासन समाप्त हो गया।

नया विधान-शोगून शासन के अन्त होने पर एक नई शासन-व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी। अप्रैल, 1868 की ओर से एक 'विधान शपथ' तैयार किया गया जिसमें निम्नलिखित पाँच धाराएँ थीं-

1.       राज्य के मामलों पर विचार करने के लिए विस्तृत पैमाने पर सभाएँ स्थापित की जाएँगी और सब सरकारी कार्यों का निर्णय जनमत के आधार पर होगा।

2.       ऊँचे और नीचे सब वर्ग राज्य की योजना को सशक्त रूप से कार्यान्वित करने के लिए आपस में एक हो जाएँगे।

3.       जनता के सभी वर्गों को अपनी-अपनी न्यायोचित आकांक्षाओं को पूरा करने का अवसर मिलेगा जिससे कहीं कोई असन्तोष न रहे।

4.       पहले युगों की असभ्य प्रथाएँ तोड़ी जाएँगी और हर बात प्रकृति के न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण सिद्धान्तों पर निर्भर होगी।

5.       समस्त जगत से ज्ञान प्राप्त किया जाएगा जिससे साम्राज्य के कल्याण की श्रीवृद्धि हो।

7 अप्रैल, 1868 को सभी सामन्तों और दरबारियों ने इसका समर्थन किया और शपथ लेकर इस पर अपनी मोहरें लगाई। शासन चलाने के लिए सम्राट् ने कुछ परामर्शदाता नियुक्त किए। ये सब के सब नौजवान थे और नए जोश के साथ काम करने पर दृढ़ थे। इन्होंने तेजी से पश्चिमी विद्या, संस्कृति और जीवन-पद्धति अपनाने का संकल्प किया। इन व्यक्तियों के निर्देशन में एक केन्द्रीय संगठन का निर्माण किया गया। इसमें सर्वोच्च प्रशासक, सर्वोच्च सभा, सहकारी सभा और सात विभागों की योजना थी। सभाओं में डैम्यो और सामूराइयों को रखा गया। राज्यसभा को तीन सदनों में बाँटा गया। सा-ईन (वाम सदन), यू-ईन (दक्षिण सदन) और सेई-ईन (मध्य सदन) जो क्रमशः कानून बनाने, मन्त्रालयों को चलाने और आम देखभाल का काम करते थे। किन्तु, सारी सत्ता सम्राट् और उच्च सामन्ती वर्ग के लोगों के हाथ थी। आगे चलकर इस व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष भी चला। लेकिन, 1868 ई० में मेईजी पुनःस्थापना का कार्य सम्पन्न हो गया।

                                             मेईजी पुनःस्थापना का महत्व

1.       सामंती व्यवस्था का अंत

जापान के निर्माण का बीजारोपण मेईजी पुनःस्थापना से ही शुरू होता है। इस काल में अनेक ऐसे कार्य हुए जिनके कारण जापान के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में कई तरह के परिवर्तन आए। जापान से सामन्त प्रथा का उन्मूलन हो गया। जापान में सामन्तवाद का इतिहास बहुत पुराना था। इसके फलस्वरूप जापान की उन्नति रुक गई थी। लेकिन, सामन्तवाद के अन्त होते ही उन्नति का रास्ता भी खुल गया।

2.       जापानी राष्ट्रीयता का विकास

पुनःस्थापना ने जापान को विदेशी साम्राज्यवाद के चंगुल में फँसने से बचा लिया। पुनःस्थापना के कारण जापान में अपूर्व राष्ट्रीयता का विकास हुआ। इसके कारण जापान के लोग शुरू से ही विदेशियों के इरादे के विरुद्ध सतर्क हो गए और उन्होंने देश को पराधीनता से बचा लिया।

3.       साम्राज्यवादी भावना का विकास

पुनःस्थापना के फलस्वरूप जापान में साम्राज्यवादी भावना का विकास हुआ। जापान की आन्तरिक दशा में कई ऐसे परिवर्तन हुए, जिनसे वहाँ का शासन अत्यन्त दृढ़ और कुशल हो गया। जापान का औद्योगिकीकरण बड़ी तेजी से हुआ और जापान के सैन्यबल में अपार वृद्धि हुई। कुछ ही दिनों में वह अत्यन्त शक्तिशाली देश बन गया। इस शक्ति के आधार पर उसने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनाई और देखते-देखते वह भी एक साम्राज्यवादी देश के रूप में परिवर्तित हो गया।

4.       जापान का पुनर्निर्माण

पुनःस्थापना के कारण जापान का शासन व्यवस्थित हुआ। अब शासन चलाने के लिए एक संसद की स्थापना हुई और नया संविधान भी बना । नागरिकों को कई तरह के अधिकार प्रदान किए गए। जापान की सेना भी नए ढंग से संगठित की गई। इस दृष्टिकोण से भी पुनःस्थापना को बहुत अधिक महत्त्व दिया जा सकता है।

5.       जापान का पश्चिमीकरण

पुनःस्थापना ने जापान की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। विदेशियों से सम्पर्क कायम हुआ और जापानियों ने पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति का अनुशीलन कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करना आरम्भ किया। जापान को पश्चिमी देशों के बराबर बनना था, इसलिए जापान में बड़ी तेजी के साथ कल-कारखानों का विकास हुआ, नए-नए वैज्ञानिक हथियार बने, उच्च शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था हुई तथा पाश्चात्य ढंग पर नई सेना का संगठन हुआ।

इन सारी बातों ने जापान को एशिया का सबसे महान देश बना दिया। जापान का पूर्ण कायाकल्प हुआ और पुनःस्थापना ने राष्ट्र के रूप में उसे एक नया जन्म दिया।

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