मंगलवार, 5 मार्च 2024

जापान में मेईजी पुनःस्थापना : अर्थ

                         

                                                     पृष्ठभूमि : कारण

1.       पाश्चात्य सम्पर्क की प्रतिक्रिया

उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य में विदेशियों के आगमन और उनके दबाव के फलस्वरूप जापान में विविध प्रतिक्रियाएँ हुईं।

§  जापान के  पुरातनपन्थियों और रूढ़िवादियों ने पश्चिम के साथ बढ़ते हुए सम्पर्क का विरोध किया, लेकिन उनकी आवाज कारगर नहीं हुई।

§  दूसरी विचारधारा भी प्रकट हुई जिसने 'प्राच्य नैतिकता और पाश्चात्य विज्ञान के समन्वय' पर जोर दिया और पश्चिम का मुकाबला करने के लिए उसी के साधन अपनाने पर बल दिया।

§  जापानियों का तीसरा दल भी था। जिसका मूलमंत्र जापान का पूर्ण पश्चिमीकरण और आधुनिकता था। वे पाश्चात्य जीवनशैली को पूरी तरह अपनाना चाहते थे। उनका ख्याल था कि पुरानी रूढ़ियों से चिपटे रहने और साथ-साथ नई संस्कृति को अपनाए रहने से जापान को कोई लाभ न होगा। जापान को दो में से किसी एक मार्ग को ही चुनना है।

पश्चिमी जगत से सम्पर्कस्थापन के उपरान्त जापान में इसी विचारधारा की विजय हुई। 1868 ई० की मेईजी पुनःस्थापना इसी प्रवृत्ति का परिणाम थी।

2.       शोगून शासन का विरोध

यूरोपीय दबाव के समय जापान में एक विचित्र प्रकार की राज्य-व्यवस्था थी। मिकाडो या सम्राट् राज्य का अध्यक्ष होता था। लेकिन, वह नाममात्र का शासक था। वह क्योटो में एकान्तवास में रहता था और उसे एक ऐसी पवित्र आत्मा के समान समझा जाता था जो संसार के प्रति विरक्त हो। वास्तविक शासक शोगून था जिसे 'येदो का शोगून' कहा जाता था। यद्यपि येदो का शोगून मिकाडो के नाम पर सारा राज्यकार्य चला रहा था, फिर भी वह अन्य सामन्ती वंशों को पूर्णरूपेण अपने वश में न ला सका। जापान में यूरोपीयों के प्रवेश से इन विरोधी सामन्तों को तोकूगावा शोगून को अपदस्थ करने का एक सुनहरा अवसर मिला।

3.       सामंतों का असन्तोष

जापान के अन्य सभी सामन्ती घराने तोकूगावा शोगून के खिलाफ हो गए थे। बड़े-बड़े सामन्तों पर अपना नियन्त्रण कायम रखने के लिए शोगून ने कई तरह के इन्तजाम किए थे जिससे उन्हें अपार कष्ट पहुँचता था। 'सान्किन कोताई' कानून के अनुसार सामन्तों को किले बनाने, उनकी मरम्मत कराने, लड़ाकू जहाज बनाने, सिक्का ढालने और शोगून के इजाजत के बिना शादी-विवाह करने की मनाही थी। उन्हें हर दो साल पर चार महीने के लिए शोगून की राजधानी येदो में हाजिर रहना पड़ता था। जब वे येदो से अपनी रियासत में वापस जाते तो उन्हें अपने बीबी-बच्चों को बन्धक के रूप में वहीं छोड़ देना पड़ता था। इससे हर सामन्त को राजधानी में ही अपना घरबार रखना पड़ता था जो आर्थिक दृष्टि से भारस्वरूप था।

4.       राज्य की नियुक्तियों में भेदभाव

 राज्य के ऊँचे-ऊँचे पदों की नियुक्ति में भी शोगून बड़ा पक्षपात करता था। तोकूगावा परिवार के लोगों तक ही इन पदों को सीमित रखा जाता था और अन्य सामन्तों को इनसे अलग रखा जाता था। शोगून की इस भेदनीति से चोशू, सातसूमा और तोसा कुटुम्ब के सामन्त बड़े नाराज थे और उससे पीछा छुड़ाना चाहते थे। यह मनमुटाव समय के साथ-साथ बढ़ता जा रहा था।

5.       समुराई योद्धाओं में असंतोष

शोगून शासन के अन्तर्गत अन्य घरानों के सामन्तों को आर्थिक दृष्टिकोण से बड़ा दबाया गया जिससे उनकी आर्थिक स्थिति दिनोंदिन खराब होती गई। उन्हें मजबूर होकर अपने खर्च में कटौती करनी पड़ी और सामूराई सैनिकों को हटाना पड़ा। इससे सामूराइयों में असन्तोष पैदा हुआ। वे चोरी-डकैती करने लगे जिससे समाज में अव्यवस्था फैली। सामूराई अपनी स्थिति से एकदम असंतुष्ट थे और प्रचलित व्यवस्था - अर्थात तोकूगावा शोगून के प्रभुत्व - में परिवर्तन चाहते थे।

6.       व्यापारियों और किसानों में असंतोष

उन्नीसवीं शताब्दी में जापान के व्यापार में पर्याप्त उन्नति हुई और एक नवीन व्यापारिक वर्ग का उदय हुआ जो समाज का एक अत्यन्त सम्पन्न वर्ग हो गया। सामन्तों को अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए इन व्यापारियों से कर्ज लेना पड़ा। फिर भी समाज में व्यापारियों का स्थान सामन्तों के मुकाबले अत्यन्त निम्न था। सामन्ती वर्ग का उनके प्रति हीनता का भाव व्यापारियों को काफी अखरता था जिससे वे सामाजिक परिवर्तन के हामी थे।

जापान का किसानवर्ग भी अपनी स्थिति से सन्तुष्ट नहीं था। सामन्ती व्यवस्था का सारा बोझ किसानों पर ही पड़ता था। वे करों के भार और शासन की सख्ती से पिसे जा रहे थे। लेकिन, धीरे-धीरे उनमें राजनीतिक जागरण आ रहा था और वे विद्रोह करने लगे थे। उनका यह विद्रोह शोगून-व्यवस्था के विरुद्ध होता था।

7.       सामन्तों द्वारा शोगून का विरोध

अन्य सामन्तों का कहना था कि शोगून की कमजोरी और अदूरदर्शिता के कारण ही जापान की स्वतंत्रता और सम्प्रभुता खतरे में पड़ रही है। विदेशियों के प्रति शोगून शासन की नरम नीति को लेकर उन्होंने लोकमत को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया। उन्हें लगा कि इस बहाने शोगून के चंगुल से निकला जा सकता है। किन्तु, सामन्तों के बीच आपस में मेल नहीं था। अतएव, उन्हें सम्राट् को अपनी गतिविधि का केन्द्र बनाना पड़ा। उन्होंने 'बर्बरों' को निकालो, शोगून को हटाओ तथा सम्राट् की शक्ति बढ़ाओ' का नारा बुलन्द किया। उसका वास्तविक उद्देश्य सम्राट् की आड़ में अपनी शक्ति बढ़ाना तथा अपने ऊपर शोगून शासन द्वारा लगाई गई पाबन्दियाँ दूर करना था।

8.       विदेशी-विरोधी भावना में वृद्धि

इस बीच जापान में विदेशियों के खिलाफ भावना तीव्र होती रही। सामन्तों ने इस विरोधी भावना को खूब भड़काया। सम्राट् कोमेई भी विदेशियों के विरुद्ध हो गया था। चोशु के सामन्तों के प्रभाव में आकर उसने शोगून को आदेश दिया कि 25 जून, 1863 तक सभी विदेशियों को देश से बाहर निकालने की व्यवस्था की जाए। किन्तु, शोगून शासन के अधिकारी समझते थे कि यह कार्य अब सम्भव नहीं है। लेकिन, चोशू लोगों का विचार ठीक इसके विपरीत था। उनका ख्याल था कि विदेशियों को सरलतापूर्वक जापान से खदेड़ा जा सकता है और उन्होंने स्वयं इसका बीड़ा उठाया।

§  चोशू सामन्त ने 25 जून, 1863 को एक अमरीकी जहाज को गोलाबारी कर के  नष्ट कर दिया गया।  

§  14 सितम्बर, 1862 को सातसूमा सामन्त के अपमान पर सामूराई योद्धाओं ने रिचर्डसन की हत्या कर दी।

इन दोनों घटनाओं का दुष्परिणाम इन्हें भोगना पड़ा ।

9.       चोशू और शोगून में संघर्ष  : चोशु और सातसूमा में मित्रता

चोशू और सातसूमा सामन्तों को विदेशियों के समक्ष नीचा देखना पड़ा था। अब वे अपनी कमजोरी महसूस करने लगे। उन्होंने सैनिक सुधार करने का निश्चय किया और चोशू सामूराई तथा सामान्य जनता की मिली-जुली स्थायी सेना संगठित की।

विदेशियों के प्रति चोशू लोगों की उत्तेजनात्मक नीति से शोगून को बड़ा गुस्सा आया और सैनिक कार्यवाही कर उसने उनका (चोशुओं का) दमन करने का निश्चय किया। शोगून ने उनके विरुद्ध एक विशाल सेना भेजी और चोशू सामन्त बुरी तरह कुचल दिए गए। लेकिन, इसी समय सातसूमा लोगों ने इसका विरोध किया। वे नहीं चाहते थे कि चोशुओं को बिलकुल खत्म कर दिया जाए।  युद्ध में इस बार चोशू की सेना ने शोगून को बुरी तरह पराजित कर दिया। इस घटना के बाद चोशू और सातसूमा एक-दूसरे के बहुत निकट आ गए। 7 मार्च, 1866 को उनके बीच एक गुप्त सन्धि हुई जिसके द्वारा शोगून शासन का अन्त करने का निश्चय किया गया।

                              शोगून शासन का अन्त और मेईजी पुनःस्थापना 

जनवरी, 1867 में तोकूगावा केईकी शोगून बना। वह प्रगतिशील विचारों का था और सबके साथ मिलजुलकर काम करना चाहता था। उसने प्रशासनिक सैनिक-व्यवस्था में कई सुधार किए। शोगून को सम्भलते देखकर चोशू और सातसूमा के नेताओं ने उसे जल्दी से बलपूर्वक हटाने का निश्चय किया। फरवरी, 1867 में सम्राट् कोमेई का देहान्त हो गया और उसकी जगह मूतसुहीतो गद्दी पर बैठा। नए सम्राट् की उम्र उस समय केवल पन्द्रह वर्ष की थी। अतः, उस पर शोगूनविरोधी सरदारों ने तुरन्त अपना प्रभाव कायम कर लिया। 3 जनवरी, 1868 को सातसूमा और चोशू की फौजों ने शाही महल पर अधिकार कर सम्राट् की शक्ति की पुनःस्थापना की घोषणा कर दी। सम्राट् ने 'मेईजी' (शानदार) उपनाम धारण कर लिया। इस घटना को 'मेईजी ईशीन' (मेईजी पुनःस्थापना) कहते हैं। इससे आगामी युग का नाम भी 'मेईजी काल' पड़ा।

तोकूगावा केईकी एक दूरदर्शी व्यक्ति था, अतः उसने इस परिवर्तन को मान लेने का निश्चय किया और राजधानी को शान्तिपूर्वक छोड़ दिया। लेकिन, अन्य तोकूगावा सामन्त इसके लिए राजी नहीं हुए। उन्होंने युद्ध करने का निश्चय किया। लेकिन, शाही फौज के सामने वे नहीं टिक सके और बुरी तरह पराजित हुए। शाही फौज येदो की ओर बढ़ी। केईकी ने समर्पण करने का फैसला किया और सम्राट् के पास अपना त्यागपत्र भेज दिया। कुछ तोकूगावा सामन्त अब भी इस परिवर्तन का विरोध करते रहे। लेकिन, उनकी एक न चली। उन्हें पूरी तरह कुचल दिया गया और सारे देश पर सम्राट् का एकछत्र शासन कायम हो गया। सदियों से चला आ रहा शोगून शासन समाप्त हो गया।

नया विधान-शोगून शासन के अन्त होने पर एक नई शासन-व्यवस्था की आवश्यकता पड़ी। अप्रैल, 1868 की ओर से एक 'विधान शपथ' तैयार किया गया जिसमें निम्नलिखित पाँच धाराएँ थीं-

1.       राज्य के मामलों पर विचार करने के लिए विस्तृत पैमाने पर सभाएँ स्थापित की जाएँगी और सब सरकारी कार्यों का निर्णय जनमत के आधार पर होगा।

2.       ऊँचे और नीचे सब वर्ग राज्य की योजना को सशक्त रूप से कार्यान्वित करने के लिए आपस में एक हो जाएँगे।

3.       जनता के सभी वर्गों को अपनी-अपनी न्यायोचित आकांक्षाओं को पूरा करने का अवसर मिलेगा जिससे कहीं कोई असन्तोष न रहे।

4.       पहले युगों की असभ्य प्रथाएँ तोड़ी जाएँगी और हर बात प्रकृति के न्यायसंगत और औचित्यपूर्ण सिद्धान्तों पर निर्भर होगी।

5.       समस्त जगत से ज्ञान प्राप्त किया जाएगा जिससे साम्राज्य के कल्याण की श्रीवृद्धि हो।

7 अप्रैल, 1868 को सभी सामन्तों और दरबारियों ने इसका समर्थन किया और शपथ लेकर इस पर अपनी मोहरें लगाई। शासन चलाने के लिए सम्राट् ने कुछ परामर्शदाता नियुक्त किए। ये सब के सब नौजवान थे और नए जोश के साथ काम करने पर दृढ़ थे। इन्होंने तेजी से पश्चिमी विद्या, संस्कृति और जीवन-पद्धति अपनाने का संकल्प किया। इन व्यक्तियों के निर्देशन में एक केन्द्रीय संगठन का निर्माण किया गया। इसमें सर्वोच्च प्रशासक, सर्वोच्च सभा, सहकारी सभा और सात विभागों की योजना थी। सभाओं में डैम्यो और सामूराइयों को रखा गया। राज्यसभा को तीन सदनों में बाँटा गया। सा-ईन (वाम सदन), यू-ईन (दक्षिण सदन) और सेई-ईन (मध्य सदन) जो क्रमशः कानून बनाने, मन्त्रालयों को चलाने और आम देखभाल का काम करते थे। किन्तु, सारी सत्ता सम्राट् और उच्च सामन्ती वर्ग के लोगों के हाथ थी। आगे चलकर इस व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष भी चला। लेकिन, 1868 ई० में मेईजी पुनःस्थापना का कार्य सम्पन्न हो गया।

                                             मेईजी पुनःस्थापना का महत्व

1.       सामंती व्यवस्था का अंत

जापान के निर्माण का बीजारोपण मेईजी पुनःस्थापना से ही शुरू होता है। इस काल में अनेक ऐसे कार्य हुए जिनके कारण जापान के राजनीतिक और सामाजिक क्षेत्र में कई तरह के परिवर्तन आए। जापान से सामन्त प्रथा का उन्मूलन हो गया। जापान में सामन्तवाद का इतिहास बहुत पुराना था। इसके फलस्वरूप जापान की उन्नति रुक गई थी। लेकिन, सामन्तवाद के अन्त होते ही उन्नति का रास्ता भी खुल गया।

2.       जापानी राष्ट्रीयता का विकास

पुनःस्थापना ने जापान को विदेशी साम्राज्यवाद के चंगुल में फँसने से बचा लिया। पुनःस्थापना के कारण जापान में अपूर्व राष्ट्रीयता का विकास हुआ। इसके कारण जापान के लोग शुरू से ही विदेशियों के इरादे के विरुद्ध सतर्क हो गए और उन्होंने देश को पराधीनता से बचा लिया।

3.       साम्राज्यवादी भावना का विकास

पुनःस्थापना के फलस्वरूप जापान में साम्राज्यवादी भावना का विकास हुआ। जापान की आन्तरिक दशा में कई ऐसे परिवर्तन हुए, जिनसे वहाँ का शासन अत्यन्त दृढ़ और कुशल हो गया। जापान का औद्योगिकीकरण बड़ी तेजी से हुआ और जापान के सैन्यबल में अपार वृद्धि हुई। कुछ ही दिनों में वह अत्यन्त शक्तिशाली देश बन गया। इस शक्ति के आधार पर उसने साम्राज्य-विस्तार की नीति अपनाई और देखते-देखते वह भी एक साम्राज्यवादी देश के रूप में परिवर्तित हो गया।

4.       जापान का पुनर्निर्माण

पुनःस्थापना के कारण जापान का शासन व्यवस्थित हुआ। अब शासन चलाने के लिए एक संसद की स्थापना हुई और नया संविधान भी बना । नागरिकों को कई तरह के अधिकार प्रदान किए गए। जापान की सेना भी नए ढंग से संगठित की गई। इस दृष्टिकोण से भी पुनःस्थापना को बहुत अधिक महत्त्व दिया जा सकता है।

5.       जापान का पश्चिमीकरण

पुनःस्थापना ने जापान की प्रगति का मार्ग प्रशस्त कर दिया। विदेशियों से सम्पर्क कायम हुआ और जापानियों ने पश्चिमी सभ्यता-संस्कृति का अनुशीलन कर विभिन्न क्षेत्रों में प्रगति करना आरम्भ किया। जापान को पश्चिमी देशों के बराबर बनना था, इसलिए जापान में बड़ी तेजी के साथ कल-कारखानों का विकास हुआ, नए-नए वैज्ञानिक हथियार बने, उच्च शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था हुई तथा पाश्चात्य ढंग पर नई सेना का संगठन हुआ।

इन सारी बातों ने जापान को एशिया का सबसे महान देश बना दिया। जापान का पूर्ण कायाकल्प हुआ और पुनःस्थापना ने राष्ट्र के रूप में उसे एक नया जन्म दिया।

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