शुक्रवार, 8 मार्च 2024

खुसरो का विद्रोह

                            

खुसरो : निष्कलंक चरित्र का योग्य शहजादा

जहाँगीर के समय का यह विद्रोह मुग़ल शहजादे खुसरो की दारुण गाथा है। यह सत्ता की आकांक्षा तथा सत्ता के खोने के भय के बीच के संघर्ष की कहानी है, जहाँ पिता और पुत्र के सम्बन्धों की त्रासदी मानव मन में पीड़ा जगाती हैं। खुसरो जहाँगीर की राजपूत पत्नी मानबाई से उत्पन्न दूसरी संतान था। मानबाई आम्बेर के राजा भगवान् दास की पुत्री थी।  खुसरो का मामा राजा मानसिंह बंगाल का गवर्नर तथा मिर्जा अजीज़ कोका उसका ससुर था। खुसरो अपने दादा अकबर के संरक्षण में पला बढ़ा एक सुन्दर, सुशील, बुद्धिमान, आकर्षक, निष्कलंक चरित्र का युवक था। यह दरबारियों का प्रिय तथा नागरिकों में लोकप्रिय था

जहाँगीर की चिंता : सत्ता खोने का भय

प्रश्न उठता है कि आखिर इतने अच्छे युवराज का अपने बादशाह पिता से दुराव का क्या कारण था ? दरअसल खुसरो के अपने गुण, पहचान, रिश्तेदारी तथा लोकप्रियता ही उसके जान के दुश्मन बन गए। बादशाह पिता अपने पुत्र को ही अपनी गद्दी के लिए संकट समझने लगा। ऐसा हो भी क्यों न ? दादा अकबर एक समय अपने शराबी और विद्रोही पुत्र सलीम जो अब जहाँगीर हो गया था से तंग आकर खुसरो को एक विकल्प के रूप में देखने लगा था। जहाँगीर बादशाह बनने के बाद भी इससे मुक्त नहीं हो पाया। वह खुसरो को कपटी तथा षड़यंत्रकारी समझता रहा। हालाँकि रहने के लिए मुनीब खान का पुराना महल तथा पुनरुद्धार के लिए 1 लाख रुपये भी दिया था।

खुसरो की शिकायत : सत्ता की कामना

दूसरी तरफ सत्ता की कामना का जो बीज खुसरो के मन में बोया गया था वह उसे मार नहीं पाया। खुसरो की यह शिकायत एक तरफ से वाजिब भी थी क्योंकि उसे युवराज के अनुरूप कोई पद या मंसब नहीं मिला। प्रशासन में उसकी भूमिका नगण्य बना दी गई थी। उस पर एक बड़ा दुःख यह कि उसके मित्रों को कोई सुविधा या अनुग्रह नहीं दिया गया था। वह यह सब बर्दास्त कर सकता था पर पिता की आँखों में प्यार की जगह हमेशा संदेह और नफ़रत को वह कैसे झुठला देता। अतः सदैव दुखी और उदास रहने लगा। सशंकित पिता को पुत्र का यह व्यवहार नागवार गुजरा और उसने खुसरो को शहर में स्थानान्तरण पर प्रतिबन्ध लगा दिया।

विद्रोह : अंधकारमय भविष्य से बेचैनी

खुसरो अपनी नज़रबंदी और अन्धकारमय भविष्य से बेचैन हो उठा। वह 6 अप्रैल 1606 को 350 घुड़सवारों के साथ सिकंदरा में अकबर के मकबरे की यात्रा के बहाने आगरा के किले से निकल कर दिल्ली की तरफ बढ़ चला। मथुरा में हुसैनबेग 300 घुड़सवारों के साथ उससे आ मिला। रास्ते में आगरा आ रहे शाही खजाने को लूट लिया गया। समाचार फैलते ही समर्थक जिसमें सैनिक तथा किसान भी थे दिल्ली के आसपास इक्कठा होने लगे जिनकी संख्या लगभग 12000 के आसपास थी। लेकिन दिल्ली की तगड़ी सुरक्षा का भान होते ही वह लाहौर की तरफ मुड़ गया। लौहार मार्ग पर प्रान्त का दीवान अब्दुल रहीम मिला जिसे शाही दीवान बना दिया गया। विद्रोहियों ने लाहौर के किले की घेरा बंदी कर दी लेकिन सूबेदार दिलावर खान उसकी सफलता पूर्वक सुरक्षा करता रहा।

विद्रोह के दमन की तैयारी : कोई कसर बाकी न रह जाए

इधर रात में ही जहांगीर को जगा कर प्रधान मंत्री शरीफ खान ने विद्रोही के भाग जाने की सूचना दी। जवाबी कार्यवाई के अभियान के नेतृत्व का दायित्व मीरबक्शी फ़रीद खान को दिया गया साथ में सतर्कता के लिए बादशाह ने अपने अहदियों को भी साथ भेज दिया। गलती की कोई गुंजाइश न रहे तथा कोई और षड्यंत्र न हो जाए इससे बचने के लिए आगरा के कोतवाल को गुप्तचर अधिकारी बना दिया गया। बंगाल के रास्ते को ब्लाक कर दिया गया ताकि वह मामा मानसिंह से न मिलने पाये। प्रधानमंत्री को चेतावनी दी गई की खुसरो के साथ जो भी किया जाएगा वह अपराध नहीं होगा क्योंकि  राजा का कोई सम्बन्धी नहीं होता। इतना सब होने के बाद भी जहांगीर को संतोष नहीं हुआ तो वह स्वयं भी साथ लग गया।

खुसरो की पराजय : एक तयशुदा परिणाम

इधर खुसरो अभी भी लाहौर का किला लेने में असफल था तब तक उसे बादशाह के नेतृत्व में शाही फौज आने की सूचना मिली। वह किले की घेराबंदी जारी रखते हुए कुछ 10000 सैनिको के साथ शाही सेना से मोर्चा लेने के लिए चल दिया। एक तयशुदा परिणाम भैरोवाल के खूनी संघर्ष में दिखा जहाँ खुसरो की करारी हार हुई। पलायन के दरम्यान चिनाव नदी के सोधराव तट पर शेख फरीद जिसे जिसे इनाम के तौर पर मुर्तजा खा की पदवी दी गई, उसने खुसरो को धर लिया।  

विद्रोहियों को दण्ड : ताकि आगे के लिए एक नजीर बने

विद्रोहियों को जहाँगीर के समक्ष लाया गया जहाँ हुसैन बेग तथा अब्दुल रहीम को बैल और गधहे की खाल में सिल दिया गया जिससे हुसैन बेग तो मर गया परन्तु अब्दुल रहीम बच गया तो उसे पुराना ओहदा वापस दे दिया गया। अन्य समर्थकों को लाहौर के बाहर सड़क पर दोनों तरफ फांसी पर लटका दिया गया। मुख्य विद्रोही खुसरो को गंदे हाथी पर बैठा कर उसके अनुयाइयों के बीच घुमाया गया।

गुरु अर्जुनदेव : राजदण्ड या धार्मिक कट्टरता

इस घटना में सिखों के पांचवे गुरु का 30 मई 1606 में वध कर दिया गया था। गुरु पर आरोप था कि गोंड्वाल में उसने खुसरो की सहायता माथे पर केसर कश्क का तिलक तथा पांच हजार रुपये से की। शाही मांग थी कि गुरु अपने अपराध को स्वीकार करें तथा 2 लाख का जुरमाना दें। इनकार करने पर सजा दी गई। घटना में धार्मिक असहिष्णुता के पक्ष की तसदीक जहाँगीर स्वयं करता है हालाँकि विन्सेंट आर्थर स्मिथ इसमें साम्प्रदायिक पक्ष नहीं बल्कि राजदण्ड को देखते हैं।

षड्यंत्र : और वह अँधा कर दिया गया

खुसरो को आगरा के किले में कैद कर दिया गया। सुरक्षा कर्मियों से अंतरंगता का परिणाम एक किन्नर एतबार खान तथा नुरुद्दीन के सहयोग में दिखा जिससे शायद जहाँगीर की हत्या का षड्यंत्र रचा गया जिसका खुलासा हो गया। फिर क्या खुसरो को अँधा बना दिया गया ताकि वह दुबारा ऐसी हरकत न कर सके। पिता का दिल एक बार पसीज गया और बाद में फारस के चिकित्सक हकीम सद्र से इलाज हुआ और कहा जाता है कि एक आँख कि रोशनी लौट आई, इनाम में चिकित्सक को मासिम उज जमा की उपाधि दी गई।

खुसरो बाग़ : माँ अब सोने दो

नूरजहाँ के प्रभाव तथा खुर्रम के संभावित प्रतिद्वंद्वी होने के कारण खुर्रम इसे दक्कन ले गया जहाँ बुरहानपुर में कैद रखा फिर मार्च 1622 में मौत के घाट उतार दिया। जहाँगीर के आदेश से उसकी कब्र बुरहानपुर से आगरा, फिर इलाहाबाद लाई गई। यहाँ खुल्दाबाद में उसकी माँ के बगल में उसे दफना दिया गया जिसे अब खुसरो बाग़ कहा जाता है।  

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