शुक्रवार, 1 अप्रैल 2022

शोध आलेख : डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र निर्माण की परियोजना तथा उसके उपकरण -राजीव कुमार पाण्डेय व डॉ. सिद्धार्थ शंकर राय

Pandey, R. K., & Rai, S. S. (2021). डॉ. अम्बेडकर की राष्ट्र निर्माण की परियोजना तथा उसके उपकरण
Dr. Ambedkar's project of nation building and its tools. अपनी माटी, 38.


शोध-सार : आधुनिक राष्ट्र निर्माण की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का आरम्भिक प्रतिरोध भारतीय समाज के भीतर से आया, जिसका आधार जाति में निहित था। गहन नकारात्मक फलितार्थ वाली तथा आधुनिकता विरोधी भारत की जाति व्यवस्था व्यावहारिक रूप से उलझी तथा सैद्धांतिक रूप से एक इन्द्रजाल है इस बेहद दुर्बोध सामाजिक कारीगरी की यह विशेषता है कि यह अपने सामाजिक परिणामों, अन्याय और दमन की जवाबदेही को अमूर्त बना देती है। यह राष्ट्र निर्माण के सबसे आवश्यक उपकरणों समतावादी सामाजिक समागम तथा बंधुता की शर्तों को न केवल दूषित करती है बल्कि सामाजिक तनावों तथा संघर्षों को धारण भी करती है प्रस्तुत शोध आलेख राष्ट्र निर्माता डॉ. अम्बेडकर की समझ के उन तर्कों तथा उपकरणों को पहचानने की एक कोशिश है जिनकी सहायता से राष्ट्र निर्माण में बाधा बनने वाली इस सामाजिक व्याधि का उपचार तथा एक प्रगतिशील तथा आधुनिक समतावादी लोकतान्त्रिक समाज की रचना संभव बनती है।

 

बीज शब्द : बाबासाहेब डॉ भीमराव अम्बेडकर, राष्ट्र निर्माण, जाति व्यवस्था, लोकतंत्र, समानता, बंधुता

 

मूल आलेख : तमाम बहसों के बावजूद इस बात से इनकार करना मुश्किल है कि आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य उपनिवेशी आधुनिकता की भिन्न मगर व्युत्पन्न संवाद की उपज है।[1] जॉन स्ट्रेची तथा जॉन सीले “भारत” नाम देने के लिए जिस राष्ट्र को खोज रहे थे दरअसल वैसा राष्ट्र कहीं होता नहीं हैअतः उन्हें यह मिला भी नहीं। हाँ इसे बनाया जाता हैऔर सिर्फ बनाया जाता है क्योंकि यह वास्तव में पूर्ण रूप से कभी बनता नहीं है भारतीयों की यह अनथक कोशिश अभी भी जारी है। आधुनिक अर्थ में राष्ट्र एक ऐसा कल्पित समुदाय[2] है जो वर्गीय, जातिगत और धार्मिक विभाजनों को लाँघ जाता है। इसे बनाने में मुख्य रूप से तीन चीजें लगती हैं। पहली चीज है इच्छा। अगर हम भारत नामक राष्ट्र बनाते रहना चाहते हैं तो हमे यह कोशिश करते रहना होगा कि भारत के हर नागरिक की यही इच्छा हो। मतलब हर रूठे को मनाने की कोशिश करते रहनी होगी अन्यथा एक रूठा मतलब हमारा राष्ट्र एक कम का होगा। दूसरी चीज है संस्कृति। सबको पता है भारत संस्कृतियों का अजायबघर है। यह एकता की कोशिश है। तीसरी चीज है विचारधारा। जाहिर सी बात है कि राष्ट्र बनाने के लिए राष्ट्रवादी विचार चाहिए। यह उस सोई हुई राजकुमारी(राष्ट्र) की तरह है जिसे जगने के लिए एक राजकुमार(राष्ट्रवाद) का इंतजार रहता है। एक चीज यहाँ ध्यान रखना चाहिए कि राष्ट्रवाद से किसी भी विचार या वाद का कोई भी विरोध नहीं है बजाय अलगाववाद के। दिल पर पत्थर रख कर हमें यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि अलगाववाद भी एक तरह का राष्ट्रवाद ही होता है जिसकी परिणति एक और बनते राष्ट्र में होती है यह पहले वाले राष्ट्रवाद की असफलता होती है। राष्ट्रवाद से भिन्न अलगाववादी विचार तब पनपते हैं जब ऊपर की दोनों कोशिशों में हम विफल रहते हैं। भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन तथा विभाजन इसकी गवाही देता है

 

मुस्लिमों के अलावा राष्ट्रवाद की कांग्रेसी धारणा के प्रति जिस दूसरे महत्त्वपूर्ण सामाजिक समूहों ने विरोध व्यक्त किया वे गैर-ब्राह्मण जातियों और अछूतों के समूह थे जिन्होंने 1930 के दशक के आसपास खुद को दलित कहना शुरू किया।[3] अपने आरंभिक चरण में उपनिवेशी शासन ने न सिर्फ जाति व्यवस्था को वरीयता और समर्थन दिया बल्कि आगे चलकर उसने इसे नस्ली आयाम देकर तथा सूचीबद्ध करके और भी रूढ़ किया। फिर राष्ट्रवादी आन्दोलन के ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल भी किया गया जहाँ यह पुनर्निरुपित जाति व्यवस्था भारत के नागरिक समाज का उपनिवेशी रूप बन गई।[4] अपनी तीक्ष्ण बुद्धि की सुधारमूलक तार्किकता तथा सभ्यता के संशोधनवादी पुनर्जीवन के प्रयत्नों से डॉ. अम्बेडकर ने राष्ट्रवाद के इस भिन्न स्वर को उस आधुनिक भारतीय राष्ट्र राज्य में मिला दिया जिसके परिपक्व प्रारूप के निर्माण के उपकरणों का चयन तथा नेतृत्व की जिम्मेदारी उन्होंने स्वयं ली थी

 

जाति व्यवस्था : राष्ट्र निर्माण की प्रमुख बाधा –

 

भारत के इतिहास में आधुनिक राष्ट्र के इस परिपक्व रूप तथा इसके निर्माणकारी उपकरणों का उद्भव डॉ. अम्बेडकर के जीवनवृत्त तथा उनकी अकादमिक यात्रा में है। कांग्रेसी धारणा के राष्ट्रवाद को जिसे मुस्लिम नेतृत्व हिन्दू राष्ट्रवाद तथा दलित नेतृत्व ब्राह्मण राष्ट्रवाद कहता था, तथा अंग्रेजी सत्ता से मिल कर अलग-अलग राग अलाप रहा था, के कारणों को उन्होंने तर्कबद्ध किया। राष्ट्रीय आन्दोलन में दलितों के भिन्न स्वर को उन्होंने हिन्दू धर्म की विफलता बताया तथा उसके कारणों को जातिव्यवस्था में अन्तर्निहित माना डॉ. अम्बेडकर की रचनाओं में इस अलगाव के कुछ स्पष्ट कारण नज़र आते हैं जो जातिव्यवस्था के दुर्गुणों से जुड़े हुए हैं।[5]

 

1.    जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज को मिथक बना दिया। हिन्दू समाज नाम की कोई वस्तु नहीं रह गई। यह अनेक जातियों का समवेत स्वरूप बन गया। यह जातियों का मिलाजुला संघ भी नहीं है। इसमें हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय को छोड़कर कभी जुड़ाव का एहसास भी नहीं है। दरअसल हर आदर्श हिन्दू उस चूहे की तरह है जो अपने बिल में घुसा रहता है। हिन्दुओ में उस चेतना का सर्वथा अभाव हैजिसे समाजविज्ञानी समग्र वर्ग की चेतना कहते हैं। यह चेतना बस अपनी जाति के बारे में पाई जाती है।

 

2.    जाति व्यवस्था ने हिन्दू समाज की एकता खण्डित की। यह आग्रह और निष्कर्ष सही नहीं है कि ऊपर से अलग-अलग दिखने वाली हमारी जनता में एक मूलभूत एकता हैजो हिंदुओं के जीवन की विशेषता हैक्योंकि आदतोंप्रथाओंविश्वासों और विचारों में एकरूपता हैजो भारत में सर्वत्र दृष्टिगत होती है। परन्तु इसमें समाज रचना के अपरिहार्य तत्त्व शामिल नहीं हैं। व्यवहार में समभाव होना समानुरूप व्यवहार से सर्वथा भिन्न है। हिंदुओं ने अपने ही लोगों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार किया

 

3.    असामाजिक भावना जाति प्रथा का सबसे घृणित पक्ष है। स्वार्थपूर्ण उद्देश्यों से निंदा और विरोध समाज और साहित्य में भरा पड़ा है। एक जाति के लोग आनंद लेकर ऐसे गीत गाते हैंजिनमें दूसरी जाति के लिए नफरत भरी रहती है। हिंदुओं के साहित्य में जाति विशेषों के उद्गम के विषय में अनेक ऐसे गीत हैं जो एक जाति को श्रेष्ठ तथा दूसरी जाति को निंदा का पात्र बनाते हैं। ऐसे साहित्य का एक घृणित नमूना 'सहयाद्रि खण्डहै। यह असामाजिक भावना जाति तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह इससे भी गहरे उपजातियों में समाई हुई है।

 

4.    आदिवासियों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने कहा कि आज की भरी पूरी सभ्यता में एक करोड़ तीस लाख लोग जंगलियों की तरह रह रहे हैं। अपराधियों का जीवन जी रहें हैं परन्तु प्राचीन सभ्यता का दम्भ भरने वाले हिंदुओं को कभी इससे शर्म महसूस नहीं हुई। क्योंकि इन्हें बस अपनी जाति की परवाह थी, इन्हें सभ्य बनाने का प्रयास कभी नहीं किया गया। इनको सबसे बड़ी चिंता यह थी कि इन्हें अगर अपने में शामिल किया जाए तो इनकी जाति क्या होगीअब अगर ग़ैर हिन्दू उन्हें अपना लेंधर्म परिवर्तन करा लेंतो हिंदूओं के शत्रुओं की संख्या बढ़ जाएगी। अगर ऐसा हुआ तो इसके कारण स्वयं हिन्दू और उनकी जाति प्रथा होगी।

 

5.    हिंदूओं ने जानबूझकर हिन्दू समाज की निचली जातियों को ऊँची जाति के सांस्कृतिक स्तर तक उठने की मोहलत नहीं दी। जैसे सुनार और पथरे प्रभु। ये दोनों ही समुदाय महाराष्ट्र में काफी मशहूर हैं। ये दोनों ही समुदाय ब्राह्मणों के तौर-तरीके और आदतों को अपनाकर अपनी सामाजिक हैसियत बढ़ाने का प्रयास कर रहे थे परन्तु समाज के ताकतवर तत्त्व ब्राह्मणों ने उन्हें ऐसा नहीं करने दिया। अगर मुसलमानों को क्रूर माना जाय तो हिन्दुओ को निकृष्ट माना जाएगा जो अधिक निंदनीय है।

 

6.    जाति के कारण हिन्दू धर्म प्रचारमूलक नहीं रह गया। इसमें से जाने के रास्ते तो बहुत है मगर आने का रास्ता बंद है। धर्म-परिवर्तन में सिर्फ यही समस्या नहीं होती कि नई धारणाएँ और नए सिद्धांत अपना लिए जाएँ बल्कि दूसरी सबसे बड़ी समस्या इसमें यह पैदा होती है कि धर्म-परिवर्तित व्यक्ति को किस जाति में स्वीकार किया जाएजो भी हिन्दू अन्य धर्मियों को अपने धर्म में शामिल करना चाहता हैउसे यह समस्या अनिवार्य रूप से झेलनी पड़ती है। किसी क्लब की सदस्यता तो सबके लिए समान रूप से खुली होती हैकिन्तु किसी जाति की सदस्यता हर ऐरे-गैरे के लिए समान रूप से खुली नहीं होती है।

 

7.    जातिप्रथा के कारण हिंदुओं में संगठन और सहयोग नाम की कोई चीज़ नहीं रह गई है। जब तक संगठन नहीं होगा तब तक हिन्दू कमजोर और डरपोक रहेंगें। हिन्दू कहते हैं कि उनकी कौम बहुत ही सहनशील है परंतु यह सही नहीं है। क्योंकि कई अवसरों पर यह बेहद आक्रामक होतें हैं और कई अवसरों पर बेहद सहनशील, इसका कारण यह है कि ये विरोध करने में ये अक्षम होते हैं। हिन्दुओं की उदासीनता उन पर इस कदर हावी है तथा आदत में शामिल है कि किसी हिन्दू का अपमान या उस पर हो रहे अत्याचार को ये बुज़दिल बन कर सहते रहते हैं।

 

8.    जाति ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित किया। कोई भी सुधार तब शुरू होता है जब व्यक्ति अपने समाज के स्थिर मानकों के खिलाफ कुछ नया सोचते हैं। इसके लिये यह जरूरी है कि समाज इसके लिए सहनशील हो। परन्तु हिन्दू मान्यताएँ धार्मिक रंग में रंगी हैं अतः यह मुश्किल है। साथ ही इसके लिए जाति बहीष्करण का दण्ड भी दिया जा सकता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अभाव में सुधार नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा करना जाति बहीष्करण का कारण बन सकता है जो मृत्यु से भयंकर कष्ट है क्योंकि आपको कोई और जाति स्वीकार नहीं करती है और बिना किसी जाति की सदस्यता के आप हिन्दू नहीं हैं।

 

9.    हिन्दूओं की नीति और आचार पर जाति-प्रथा का प्रभाव अत्यंत शोचनीय है। जाति प्रथा ने जनचेतना को नष्ट कर दिया है। इसने सार्वजनिक धर्मार्थ की भावना को भी नष्ट कर दिया है। जाति प्रथा के कारण किसी भी विषय पर सार्वजनिक सहमति का होना असंभव हो गया है। हिन्दूओं का उत्तरदायित्व और निष्ठा उनकी जाति तक ही सीमित है। अन्य के लिए कोई सहानुभूति कोई सराहना या कोई सहयोग नहीं है

 

इस प्रकार भारत में जाति-व्यवस्था पर धार्मिकता के प्रभाव ने इस व्यवस्था की हानियों को बड़ी गंभीरता से बढ़ाया। जाति सदा ही सामाजिक अपराध के समतुल्य रही हैलेकिन जब जाति को धार्मिक व्याख्या के जरिये समर्थन मिला तो इस व्यवस्था के पीछे छिपा महाअपराध जहरीले उत्तक और दैत्याकार भागों के विकृत सामाजिक वृद्धि में प्रफुल्लित हुआ।[6]

 

इस राष्ट्रीय पाप के अपराधी -

 

उन्होंने ब्राह्मणों पर आरोप लगाया कि यह प्रथा अपनी पूरी दृढ़ता के साथ केवल एक जाति अर्थात ब्राह्मणों में प्रचलित हैजो हिंदू समाज की संरचना में सर्वोच्च स्थान पर हैं और गैर-ब्राह्मण जातियों ने इसका केवल अनुसरण कियाजहाँ इसके पालन में न तो उतनी दृढ़ता है और न संपूर्णता।[7] कुछ जातियों की संरचना नकल से हुई। ब्राह्मण अर्द्ध देवता माना जाता है और उसे अंशावतार जैसा कहा जाता है। वह विधि नियोजित करता है और सभी को उसके अनुसार ढालता है। उसकी प्रतिष्ठा असंदिग्ध है। उनका तर्क है कि शास्त्रों द्वारा प्रायोजित और पुरोहितवाद द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त ऐसा व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का प्रभाव डालने में विफल हो सकता हैयदि यह कहानी सही है तो उसके बारे में यह विश्वास क्यों नहीं किया जाए कि वह जातिप्रथा की उत्पत्ति का कारण है। यदि वह सजातीय विवाह का पालन करता है तो क्या दूसरों को उसके पद-चिह्नों पर नहीं चलना चाहिए। निरीह मानवता को चाहे वह कोई दार्शनिक हो या तुच्छ गृहस्थउसे इस गोरखधंधे में फँसना ही पड़ता हैयह अवश्यंभावी है। अनुसरण सरल है, आविष्कार कठिन। उनका तर्क है कि वास्तविक उपचार अंतरजातीय विवाह है जिससे खून के रिश्ते की भावना से "सजातीयता" पैदा होगीपरायापन समाप्त होगाजाति विलय होगाएक सामाजिक कारक के रूप में यह एक "महान शक्ति" सिद्ध होगी। परन्तु इसमें कठिनाई यह है कि लोग इसे नहीं मानेंगे  क्योंकि यह शास्त्र सम्मत नहीं है और लोग अत्यधिक धार्मिक हैं इसका वास्तविक उपाय यह है कि शास्त्रों से लोगों का विश्वास समाप्त किया जाए। हिन्दुओं से यह कहने का साहस होना चाहिए कि दोष उनके धर्म का है जिसने जाति व्यवस्था को पवित्र माना। परंतु यह कार्य असंभव है..क्योंकि ब्राह्मण ऐसा नहीं चाहेंगे। वो और उनके ग्रंथ इसकी इज़ाजत नहीं देते हैं जाति व्यवस्था के चारों तरफ बनाई गई दीवार अभेद्य है...इसके प्रहरी ब्राह्मण हैं जो हर शक्ति से सम्पन्न हैं। तर्क और नैतिकता दो ऐसे हथियार हैं जो किसी भी समाज के सुधार के लिए आवश्यक तत्त्व हैं परन्तु यही हिन्दू समाज से उसके धर्म ने छीन लिया है।[8]

 

अगला आरोप उन्होंने कांग्रेस और समाज सुधारकों पर लगाया। उनका कहना है कि समाज सुधार में कठिनाई है क्योंकि इसमें सहायक कम आलोचक ज्यादा हैं। पहले हैं राजनीतिक सुधारक तथा दूसरे हैं समाजवादी सुधारक। राष्ट्रीय आन्दोलन के मुखिया कि दावेदारी पेश करने वाली राष्ट्रीय कांग्रेस की समानांतर संस्था सामाजिक सम्मेलन गुम हो गई। जबकि "पेशवाई का काल", "बलाइयों की स्थिति" तथा नवम्बर 1935 के "जानू गाँवकी घटना जैसे सामाजिक तथ्य इसके ताकतवर पहल की उम्मीद करते थे। यह स्थिति सत्ता के लिए राजनीतिक अयोग्यता को जन्म देती है। उनका कहना है कि समाज सुधार की हारी हुई लड़ाई को समझने के लिए ध्यातव्य है कि हम हिन्दू परिवार के सुधार तथा हिन्दू समाज के पुनर्गठन के दो अर्थ में समाज सुधार में अंतर करें जिसमें पहले का संबंध बालविवाह इत्यादि से है जबकि दूसरे का संबंध जाति प्रथा के उन्मूलन से है जिसे कभी उठाया नहीं गया।[9]

 

दूसरी बात की इतिहास इस प्रस्ताव पर बल देता है कि राजनीतिक क्रांतियाँ हमेशा सामाजिक और धार्मिक क्रांतियों के बाद हुई हैं। जैसे लूथर और यूरोप की क्रांतियाँ, जैसे प्यूरितनवाद और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम, जैसे शिवाजी और महाराष्ट्र के संत। जाति विभेद मिटाए बिना भारत बदलाव से महरूम रहेगा। आर्थिक सुधारों को सामाजिक बदलाव का उपागम समझने और आग्रह रखने वाले समाजवादियों के लिए प्लेबीयनों और डेल्फी की देवी का रोमन उदाहरण तथा भारत में संत-महात्माओं का उदाहरण उनके इतिहास की आर्थिक व्याख्या के मूल सिद्धांत पर प्रहार करता है क्योंकि यहाँ व्यक्ति का सामाजिक स्तर ही शक्ति का स्रोत बन जाता है, जिसका प्रभाव प्राधिकार को जन्म देता है। यदि शक्ति और प्रभुत्व का स्रोत समाज और धर्म है तो सुधार भी वहीं होना चाहिए। सामाजिक व्यवस्था में सुधार लाये बिना आर्थिक सुधार असंभव है। आप किसी भी दिशा में देखें जाति एक ऐसा दैत्य हैजो आपके मार्ग में खड़ा है। आप जब तक इस दैत्य को नहीं मारोगेआप न कोई राजनीतिक सुधार कर सकतें हैं न कोई आर्थिक सुधार।[10]

 

राष्ट्र निर्माण के प्रमुख उपकरण तथा परियोजना -

 

डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्र निर्माण की परियोजना के उपकरणों को हम मुख्यतः तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं -

 

1.    राष्ट्र निर्माण के उपकरणों की पहली श्रेणी सामाजिक रचना से जुड़ी हुई है। राष्ट्र का आधार राजनीतिक लोकतंत्र है और वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक कि उसके आधार पर सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ हैइसका अर्थ है जीवन का एक तरीका जो स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में मान्यता देता है। आदर्श समाज ऐसा होना चाहिए जो स्वाधीनतासमानता और भाईचारे पर आधारित हो।[11] डॉ अम्बेडकर इसका स्रोत फ़्रांस की क्रांति को नहीं बल्कि बौद्ध धर्म को मानते हैं जो भारत की संशोधनवादी संस्कृति रही है। समाज में विभिन्न लोगों के बीच सम्पर्क के ऐसे बहुविध और निर्विवाद बिंदु होने चाहिएजहाँ साहचर्य या संगठन के अन्य रूपों से भी संवाद हो सके। समाज के भीतर सम्पर्क का सर्वत्र प्रसार होना चाहिए। इसी को भाईचारा कहतें हैं। भारत के संविधान की कुंजी; उद्देशिका में कहा गया है कि हम भारत के लोग समस्त नागरिकों मेंव्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, "बंधुता" बढ़ाने के लिए इस संविधान को अंगीकृतअधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं। यहाँ उद्देश्य भारतीय नागरिकों के मध्य "बंधुत्व" की भावना स्थापित करना हैक्योंकि इस के बिना देश मे एकता स्थापित नही की जा सकती है। अगर स्वाधीनता का अधिकार निर्बाध आवागमनजीविका उपार्जन इत्यादि पर अधिकार है तो इस पर किसी को क्या आपत्ति हो सकती है। सामाजिक न्याय हेतु निदेशक सिद्धांत के रूप में समानता एक आवश्यक शर्त के तौर पर होनी चाहिए तभी यह समाज एक प्रजातान्त्रिक समाज होगा जो एक राष्ट्र का निर्माण करेगा।

 

2.    दूसरी श्रेणी धर्म से है जहाँ अम्बेडकर कहते हैं कि हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं वो और कुछ नहीं निषेधाज्ञाओं और आदेशों का पुलिंदा है।[12] हिन्दू धर्म में आध्यात्मिकता और सिद्धांत विद्यमान नहीं है। इसे धर्म नहीं कानून मानिए आप तभी इसे बदल पाएँगे। हालांकि समाज को धर्म कि आवश्यकता हैयहाँ वे बर्क से बिलकुल सहमत है क्योंकि सच्चा धर्म समाज की नींव हैजिस पर सभी नागरिक सरकारे टिकी हैं। परिणामतः ऐसा उम्मीद करना चाहिए कि जीवन के ऐसे पुराने नियम समाप्त कर दिए जाए और उसका स्थान 'धर्म के सिद्दांतग्रहण कर ले।[13] धर्म आवश्यक है अतः धर्म में सुधार का पहलू भी अति आवश्यक है डॉ. अंबेडकर ने धर्म की आवश्यकता का जो तर्क बुना वह जीवन तथा समाज के आचार के लिये धर्म को आवश्यक आधारशिला तथा सामाजिक धरोहर घोषित करता है। 'बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य'[14] नामक एक लेख में डॉ. बाबा साहेब ने मानवीय जीवन में धर्म और उसकी विशेषताओं को इस प्रकार स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि समाज की 'स्थिरताऔर 'नियंत्रणके लिए नीति की आवश्यकता होती है। इनमें से किसी एक के अभाव में समाज रसातल में जा सकता है। इसलिये किसी भी समाज को धर्म की आवश्यकता होती है।धर्म को अगर बने रहना हो तो उसे बुद्धि प्रामाण्यवादी होना चाहिए। विज्ञान बुद्धि प्रामाण्यवादी है। केवल 'नीति की संहिताका अर्थ धर्म नहीं हैं। धर्म की नीति संहिता में स्वतंत्रतासमता और बन्धुता इन मूलभूत तत्त्वों को मान्यता प्राप्त होनी चाहिए। दरिद्रता को पवित्र मानने का आग्रह किसी भी धर्म को नहीं करना चाहिएअथवा दरिद्रता का गौरवगान भी नहीं होना चाहिए। धर्म प्रजा के धारण के लिए बंधुभावसमता और स्वतंत्रता के सद्गुणों के संस्कार डालेऐसी अपेक्षा ही नहीं बल्कि धर्म की अहम जिम्मेदारी होती है। हिन्दू धर्म इन सद्गुणों के संस्कार पैदा नहीं करता इसलिए इसको नकारना पड़ता है।

 

3.    तीसरी श्रेणी राजनीति से जुड़ी हुई है। डॉ अम्बेडकर के अनुसार दुनिया में ऐसे कई उदाहरण हैं कि अगर हम सामाजिक व्यवस्था से उत्पन्न समस्या की उपेक्षा करते हैं तो इसे हमें एक राजनीतिक समस्या के रूप में हल करना होगा[15] वैसे ही जैसे भारत में साम्प्रदायिक अधिनिर्णय सामाजिक सुधार की उपेक्षा से उत्पन्न प्रतिशोध है। यह एक सामाजिक शल्य-चिकित्सा है इस पीड़ा को उठाना ही होगा। जब तक आप सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर लेतेकानून द्वारा जो भी स्वतंत्रता प्रदान की जाती हैवह आपके किसी काम की नहीं है हमारे पास यह स्वतंत्रता किस लिए हैहमें यह स्वतंत्रता अपनी सामाजिक व्यवस्था में सुधार करने के लिए मिल रही हैजो असमानताभेदभाव और अन्य चीजों से भरी हैजो हमारे मौलिक अधिकारों के साथ संघर्ष करती है। राज्य प्रायोजित सामाजिक सुधारों तथा सकारात्मक राजनीतिक पहलों ने एक सिलसिला शुरू किया जिससे अस्पृश्यता को क़ानूनी रूप से प्रतिबंधित कर दिया वहीं राष्ट्र निर्माण में भागीदारी के लिए अनुसूचित जातियों को तथा अनुसूचित जन जातियों को तथा बाद में अन्य पिछड़ा वर्ग को प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया जाता है राष्ट्र निर्माण में योगदान की यह प्रतिनिधिमूलक अनुभूति नागरिकों में बंधुता का भाव भरती है तथा राष्ट्रीय एकता को मजबूत करती है।

 

निष्कर्ष :

 

इस प्रकार राष्ट्र निर्माण के अनिवार्य अवयवों स्वतंत्रतासमानता और बंधुत्व जिसको धर्म में सन्निहित सामाजिक आदर्श नकारता था, संविधान की प्रस्तावना ने उसे राष्ट्र निर्माण का प्रयोजनमूलक राजनीतिक आदर्श बना दिया अब तक अविजित तथा अपरिवर्तनशील रहा भारतीय समाज, राज्य के हस्तक्षेप से राष्ट्र में समाकर एक सफल तथा मजबूत राष्ट्र राज्य के रूप में अग्रसर है जिसे कभी एक अस्वाभाविक राष्ट्र[16] समझा गया था। ऐसा नहीं है कि भारतीय राष्ट्र राज्य में जाति व्यवस्था ख़त्म हो गई है या जातिगत अत्याचार, पूर्वाग्रह या शोषण ख़त्म हो गया है लेकिन यह भी सही है की लोकतंत्र की चक्की ने धीमे ही सही पर हमारे समाज को बारीक पिसा है। आज भारत स्वरूपतः एक विकासशील लोकतंत्र है। चूँकि यह विकासशील है अतः विकास के सीमित संसाधनों तक अपनी पहुँच बनाने के लिए यहाँ उपराष्ट्रीयताओं के बीच छोटे-मोटे टकराव होते रहेंगें। लेकिन चूँकि यहाँ स्वतंत्रता, समानता तथा बंधुता को धारण करने वाला लोकतंत्र भी है अतः इन टकरावों को मिल-बैठकर सुलझा भी लिया जाएगा इस तरह राष्ट्र को बनाने की डॉ अम्बेडकर की यह पसंदीदा कहानी निरंतर चलती रहेगी।

 

सन्दर्भ : 



[1]Chatterjee, Partha. Nationalist Thought and the Colonial World: A Derivative Discourse?, Zed Books for the United Nations University, London, U.K., 1986, p. 42.

[2]Anderson Benedict R. Imagined Communities: Reflections on the Origin and Spread of Nationalism. Verso, London, 1983.

[3]बंद्योपाध्याय  शेखर. पलासी से विभाजन तक और उसके बाद ओरियंट ब्लैकस्वान नई दिल्ली , 2015, p. 338.

[4]Dirks, Nicholas B. Castes of Mind: Colonialism and the Making of Modern India. Princeton University Press, 2001.

[5]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 69-77.

[6]Toynbee, Arnold Joseph. A Study of History, vol. 12, Oxford Univ. Press, Oxford, 1979, p. 230.

[7]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 32-33.

[8]वही, p. 99.

[9]वही, p. 59-62.

[10]वही, p.62-66.

[11]वही, p. 78.

[12]वही, p. 100.

[13]वही, p. 101.

[14] Buddha and future of his religion – dr. B. R. Ambedkar     .Dr. B. R. Ambedkar's Caravan. (2015, May 29). Retrieved April 18, 2021, from https://drambedkarbooks.com/2015/05/31/buddha-and-future-of-his-religion-dr-b-r-ambedkar/

[15]बाबा साहेब डॉ. अम्बेडकर संपूर्ण वाङ्मय, vol. 1, डॉ अम्बेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय भारत सरकारनई दिल्ली, 1993, p. 60.

[16]गुहा  रामचन्द्र. भारत गाँधी के बाद पेंगुइन बुक्स गुड़गावं , 2011, p. ix.

रविवार, 27 मार्च 2022

विचारधाराओं के संघर्ष और न्याय की खोज के रूप में इतिहास... पूंजी और विचारधारा पुस्तक से

कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स ने द कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो (1848) में लिखा है, "अब तक के सभी मौजूदा समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों का इतिहास है।" उनका दावा प्रासंगिक रहता है, लेकिन अब जब यह पुस्तक हो गई है, तो मैं इसे इस प्रकार संशोधित करने का प्रयास कर रहा हूं : अब तक के सभी मौजूदा समाजों का इतिहास विचारधाराओं के संघर्ष और न्याय की खोज का इतिहास है। दूसरे शब्दों में, विचारों और विचारधाराओं की गिनती इतिहास में होती है। सामाजिक स्थिति, जितनी महत्वपूर्ण है, न्यायसंगत समाज के सिद्धांत, संपत्ति के सिद्धांत, सीमाओं के सिद्धांत, करों के सिद्धांत, शिक्षा, मजदूरी या लोकतंत्र के सिद्धांत को गढ़ने के लिए पर्याप्त नहीं है । इन जटिल सवालों के सटीक जवाब के बिना, राजनीतिक की स्पष्ट रणनीति के बिना प्रयोग और सामाजिक शिक्षा, संघर्ष यह नहीं जानता कि राजनीतिक रूप से कहां मुड़ना है। एक बार जब सत्ता पर कब्जा कर लिया जाता है, तो इस कमी को राजनीतिक-विचारधाराओं द्वारा उखाड़ फेंके गए लोगों की तुलना में अधिक दमनकारी निर्माणों से भरा जा सकता है।

विचारधारात्मक संघर्ष और न्याय की खोज हमारे मौजूदा समाज के इतिहास के लिए शर्त है. आपकी सामाजिक स्थिति न्याय की गारंटी नहीं है. जटिल प्रश्नों के सटीक उत्तर का अभाव तथा राजनीतिक प्रयोग और सामाजिक शिक्षा की स्पष्ट रणनीति की कमी के कारण आपका संघर्ष यह नहीं जानता कि राजनीतिक रूप से आपको कहाँ मुड़ना है। आपकी इस कमी को राजनीतिक वैचारिक निर्माणों से भरा जाता है जो उन लोगों से ज्यादा दमनकारी होती है जिन्हें आपने उखाड़ फेका है. आपको समझने की जरूरत है कि कौन सी संस्थागत व्यवस्थाएं और किस प्रकार के सामाजिक आर्थिक संगठन आपका सही मायने सहयोग कर सकते हैं. हालाँकि आपके समझ के रास्ते प्रमुख समूहों के परिष्कृत, बौद्धिक और संस्थागत पाखण्ड के निर्माण से भरे हुए हैं.

बीसवीं सदी के इतिहास और साम्यवादी आपदा को ध्यान में रखते हुए, यह जरूरी है कि हम आज की असमानता व्यवस्थाओं की सावधानीपूर्वक जांच करें और जिस तरह से वे न्यायसंगत हैं। सबसे बढ़कर, हमें यह समझने की जरूरत है कि कौन सी संस्थागत व्यवस्थाएं और किस प्रकार के सामाजिक आर्थिक संगठन मानव और सामाजिक मुक्ति में सही मायने में योगदान कर सकते हैं । असमानता के इतिहास को लोगों के उत्पीड़कों और अभिमानी रक्षकों के बीच एक शाश्वत संघर्ष में कम नहीं किया जा सकता है। दोनों तरफ परिष्कृत बौद्धिक और संस्थागत निर्माण मिलते हैं । यह सुनिश्चित करने के लिए, प्रमुख समूहों के पक्ष में, ये निर्माण हमेशा पाखंड से रहित नहीं होते हैं और सत्ता में बने रहने के दृढ़ संकल्प को दर्शाते हैं, लेकिन फिर भी इनका बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है। वर्ग संघर्ष के विपरीत, विचारधाराओं के संघर्ष में साझा ज्ञान और अनुभव, दूसरों के लिए सम्मान , विचार-विमर्श और लोकतंत्र शामिल हैं। किसी के पास सिर्फ स्वामित्व, सिर्फ सीमाएं, सिर्फ लोकतंत्र, सिर्फ कर और शिक्षा के बारे में पूर्ण सत्य नहीं होगा । मानव समाज के इतिहास को न्याय की खोज के रूप में देखा जा सकता है। व्यक्तिगत और ऐतिहासिक अनुभवों की विस्तृत तुलना और व्यापक संभव विचार-विमर्श के माध्यम से ही प्रगति संभव है। 

फिर भी, विचारधाराओं के संघर्ष और न्याय की खोज में स्पष्ट रूप से परिभाषित पदों और स्पष्ट रूप से नामित विरोधियों की अभिव्यक्ति भी शामिल है । इस पुस्तक में विश्लेषण किए गए अनुभवों के आधार पर, मुझे विश्वास है कि पूंजीवाद और निजी संपत्ति को खत्म किया जा सकता है और भागीदारीपूर्ण समाजवाद और सामाजिक संघवाद के आधार पर एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना की जा सकती है। पहला कदम सामाजिक और अस्थायी स्वामित्व का शासन स्थापित करना है। इसके लिए श्रमिकों और शेयरधारकों के बीच सत्ता के बंटवारे और किसी एक शेयरधारक द्वारा डाले जा सकने वाले वोटों की संख्या की एक सीमा की आवश्यकता होगी । इसके लिए संपत्ति पर एक तीव्र प्रगतिशील कर, एक सार्वभौमिक पूंजी बंदोबस्ती और धन के स्थायी संचलन की भी आवश्यकता होगी । इसके अलावा, इसका तात्पर्य एक प्रगतिशील आयकर और कार्बन उत्सर्जन के सामूहिक विनियमन से है, जिससे आय सामाजिक बीमा और एक बुनियादी आय, पारिस्थितिक संक्रमण और सच्ची शैक्षिक समानता के लिए भुगतान करने के लिए जाएगी । अंत में, वैश्विक अर्थव्यवस्था को सामाजिक, वित्तीय और पर्यावरणीय न्याय के मात्रात्मक उद्देश्यों को शामिल करते हुए सहविकास संधियों के माध्यम से पुनर्गठित करने की आवश्यकता होगी ; व्यापार और वित्तीय प्रवाह का उदारीकरण उन प्राथमिक लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में प्रगति पर निर्भर होना चाहिए। वैश्विक कानूनी ढांचे की इस पुनर्परिभाषित के लिए कुछ मौजूदा संधियों का परित्याग करने की आवश्यकता होगी , विशेष रूप से वे जो पूंजी के मुक्त संचलन से संबंधित हैं जो 1980-1990 के दशक में लागू हुईं क्योंकि ये उपर्युक्त लक्ष्यों को पूरा करने के रास्ते में हैं। उन संधियों को वित्तीय पारदर्शिता, वित्तीय सहयोग और अंतरराष्ट्रीय लोकतंत्र के सिद्धांतों के आधार पर नए नियमों द्वारा प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता होगी ।

 इनमें से कुछ निष्कर्ष कट्टरपंथी लग सकते हैं। वास्तव में, वे लोकतांत्रिक समाजवाद की ओर एक ऐतिहासिक आंदोलन से संबंधित हैं, जो उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से कानूनी, सामाजिक और वित्तीय प्रणाली के गहन परिवर्तनों की दिशा में काम कर रहा है। बीसवीं शताब्दी के मध्य में हुई असमानता में उल्लेखनीय कमी सापेक्ष शैक्षिक समानता पर आधारित एक सामाजिक राज्य के निर्माण और जर्मनिक और नॉर्डिक देशों में सह-प्रबंधन और प्रगतिशील कराधान जैसे कई क्रांतिकारी नवाचारों से संभव हुई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम में। 1980 के दशक की रूढ़िवादी क्रांति और साम्यवाद के पतन ने इस आंदोलन को बाधित कर दिया; दुनिया ने स्व-विनियमित बाजारों और संपत्ति के अर्ध-पवित्रीकरण के एक नए युग में प्रवेश किया। सामाजिक-लोकतांत्रिक गठबंधन की राष्ट्र-राज्य की सीमाओं से आगे बढ़ने और वैश्वीकृत व्यापार और विस्तारित उच्च शिक्षा के युग में अपने कार्यक्रम को नवीनीकृत करने में असमर्थता ने वाम-दक्षिण राजनीतिक व्यवस्था के पतन में योगदान दिया जिसने असमानता के युद्ध के बाद में कमी की। संभव। हालांकि, असमानता की ऐतिहासिक बहाली, वैश्वीकरण की अस्वीकृति, और पहचानवादी वापसी के नए रूपों के विकास द्वारा उठाई गई चुनौतियों का सामना करते हुए, 2008 के वित्तीय संकट के बाद से अनियंत्रित पूंजीवाद की सीमाओं के बारे में जागरूकता तेजी से बढ़ी है। लोगों ने एक बार फिर से एक नए, अधिक न्यायसंगत, अधिक टिकाऊ आर्थिक मॉडल के बारे में सोचना शुरू किया । यहाँ सहभागी समाजवाद और सामाजिक संघवाद के बारे में मेरी चर्चा मुख्य रूप से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हो रहे विकास पर आधारित है; यहां मेरा योगदान उन्हें व्यापक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में रखने का है। 

इस पुस्तक में अध्ययन किए गए असमानता शासनों के इतिहास से पता चलता है कि ऐसे राजनीतिक-वैचारिक परिवर्तनों को नियतात्मक के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। एकाधिक प्रक्षेपवक्र हमेशा संभव होते हैं। किसी भी क्षण शक्ति का संतुलन दीर्घकालिक बौद्धिक विकास के साथ घटनाओं के अल्पकालिक तर्क की बातचीत पर निर्भर करता है, जिससे विचारों की एक विस्तृत श्रृंखला आती है जिसे संकट के क्षणों में खींचा जा सकता है । दुर्भाग्य से, एक बहुत ही वास्तविक खतरा है कि देश सभी के खिलाफ प्रतिस्पर्धा को तेज करके और राजकोषीय और सामाजिक डंपिंग के एक नए दौर में शामिल होकर मौलिक परिवर्तन से बचने की कोशिश करेंगे । यह बदले में राष्ट्रवादी और पहचानवादी संघर्ष को तेज कर सकता है, जो यूरोप, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत, ब्राजील और चीन में पहले से ही विशिष्ट है।

                          सामाजिक विज्ञान की नागरिक और राजनीतिक भूमिका

सामाजिक वैज्ञानिक बहुत भाग्यशाली हैं। समाज उन्हें किताबें लिखने, स्रोतों का पता लगाने, अभिलेखागार और सर्वेक्षणों से जो सीखा जा सकता है उसे संश्लेषित करने के लिए भुगतान करता है, और फिर वह उन लोगों को वापस भुगतान करने का प्रयास करता है जो उसके काम को संभव बनाते हैं-अर्थात् शेष समाज। सामाजिक विज्ञान के शोधकर्ता अक्सर अनुत्पादक अनुशासनात्मक झगड़ों और उसकी स्थिति से संबधित विवादों में बहुत अधिक समय बर्बाद करते हैं। फिर भी, सामाजिक विज्ञान सार्वजनिक बहस और लोकतांत्रिक संवाद में एक अनिवार्य भूमिका निभाते हैं। इस पुस्तक में मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि कैसे विभिन्न सामाजिक विज्ञानों के स्रोतों और विधियों का उपयोग करके हम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और बौद्धिक आयामों में असमानता के इतिहास का विश्लेषण कर सकते हैं।

मुझे विश्वास है कि आज की कुछ लोकतांत्रिक अव्यवस्थाएं इस तथ्य से उपजी हैं कि जहां तक ​​नागरिक और राजनीतिक क्षेत्र का संबंध है, अर्थशास्त्र ने खुद को अन्य सामाजिक विज्ञानों से मुक्त कर लिया है। अर्थशास्त्र का यह "स्वायत्तीकरण" आंशिक रूप से तकनीकी प्रकृति और आर्थिक क्षेत्र की बढ़ती जटिलता का परिणाम है। लेकिन यह पेशेवर अर्थशास्त्रियों की ओर से बार-बार होने वाले प्रलोभन का भी परिणाम है, चाहे वे विश्वविद्यालय में हों या बाज़ार में, विशेषज्ञता और विश्लेषणात्मक क्षमता के एकाधिकार का दावा करने के लिए जो उनके पास नहीं है। वास्तव में, आर्थिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक दृष्टिकोणों के संयोजन से ही सामाजिक-आर्थिक घटनाओं की हमारी समझ में प्रगति संभव हो पाती है। यह निश्चित रूप से, पूरे इतिहास में सामाजिक वर्गों और उनके परिवर्तनों के बीच असमानताओं के अध्ययन के लिए सच है, लेकिन यह सबक मुझे कहीं अधिक सामान्य लगता है। यह पुस्तक कई विषयों में कई सामाजिक वैज्ञानिकों के काम पर आधारित है, जिनके बिना यह अस्तित्व में नहीं होगा। मैंने यह भी दिखाने की कोशिश की है कि कैसे साहित्य और फिल्म भी हमारे विषय पर इस तरह से प्रकाश डाल सकते हैं जो सामाजिक लोगों के प्रकाश को पूरक करते हैं।

अर्थशास्त्र के अत्यधिक स्वायत्तता का एक और परिणाम यह है कि इतिहासकार, समाजशास्त्री, राजनीतिक वैज्ञानिक और दार्शनिक भी अक्सर अर्थशास्त्रियों के लिए आर्थिक प्रश्नों के अध्ययन को छोड़ देते हैं। लेकिन राजनीतिक अर्थव्यवस्था और आर्थिक इतिहास में सभी सामाजिक विज्ञान शामिल हैं, जैसा कि मैंने इस पुस्तक में दिखाने की कोशिश की है। सभी सामाजिक वैज्ञानिकों को अपने विश्लेषण में सामाजिक आर्थिक प्रवृत्तियों को शामिल करने का प्रयास करना चाहिए और जब भी उपयोगी हो मात्रात्मक और ऐतिहासिक डेटा एकत्र करना चाहिए और जब आवश्यक हो तो अन्य तरीकों और स्रोतों पर भरोसा करना चाहिए। कई सामाजिक वैज्ञानिकों द्वारा मात्रात्मक और सांख्यिकीय स्रोतों की उपेक्षा दुर्भाग्यपूर्ण है, विशेष रूप से उन स्रोतों की आलोचनात्मक जांच और जिन परिस्थितियों में वे सामाजिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से निर्मित हैं, उनका उचित उपयोग करने के लिए आवश्यक है। इस उपेक्षा ने न केवल अर्थशास्त्र के स्वायत्तीकरण में योगदान दिया है बल्कि इसकी दरिद्रता में भी योगदान दिया है। मुझे आशा है कि यह पुस्तक इसका समाधान करने में सहायक होगी।

अनुसंधान के दायरे से परे, आर्थिक ज्ञान का स्वायत्तीकरण भी नागरिक और राजनीतिक क्षेत्र के लिए खराब रहा है क्योंकि यह भाग्यवाद को प्रोत्साहित करता है और बेचारगी की भावनाओं को बढ़ावा देता है। विशेष रूप से, पत्रकार और नागरिक सभी अक्सर अर्थशास्त्रियों की विशेषज्ञता के आगे झुकते हैं, हालांकि यह सीमित है, और मजदूरी और मुनाफे, करों और ऋणों, व्यापार और पूंजी के बारे में राय व्यक्त करने में संकोच करते हैं। लेकिन अगर लोगों को संप्रभु होना है - जैसा कि लोकतंत्र कहता है कि उन्हें होना चाहिए - ये विषय वैकल्पिक नहीं हैं। उनकी जटिलता ऐसी है कि उन्हें विशेषज्ञों की एक छोटी जाति के लिए छोड़ना अनुचित है। सच इसके विपरीत है। ठीक है क्योंकि वे इतने जटिल हैं, केवल व्यापक सामूहिक विचार-विमर्श, तर्क और पिछले इतिहास और प्रत्येक नागरिक के अनुभव के आधार पर, इन मुद्दों को हल करने की दिशा में प्रगति कर सकता है। अंततः, इस पुस्तक का केवल एक ही लक्ष्य है: नागरिकों को आर्थिक और ऐतिहासिक ज्ञान के अधिकार को पुनः प्राप्त करने में सक्षम बनाना। पाठक मेरे विशिष्ट निष्कर्षों से सहमत हैं या नहीं, मूल रूप से कोई फर्क नहीं पड़ता क्योंकि मेरा उद्देश्य बहस शुरू करना है, इसे समाप्त करना नहीं है। यदि यह पुस्तक पाठकों की नए प्रश्नों के प्रति रुचि जगाने और उन्हें ज्ञान से प्रबुद्ध करने में सक्षम होती है जो उनके पास पहले नहीं थी, तो मेरा लक्ष्य पूरी तरह से प्राप्त हो गया होता।

गुरुवार, 3 फ़रवरी 2022

शोध आलेख - सामाजिक विमर्श की नई परिभाषाएं रचता भूमंडलीकरण

प्लेगरिज्म से बचने  के लिए सन्दर्भ दें - Pandey, Rajiv Kumar, and Siddharth Shankar Rai. “सामाजिक विमर्श की नई परिभाषाएं रचता भूमंडलीकरण.” भारतीय समाज के विविध आयाम, संपादक - नम्रता जैन,  टी. एस. पब्लिकेशन्स, दिल्ली (2022): 179–185. Print.

लेखक - Rajiv Kumar Pandey

PhD Student

बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय, लखनऊ

युगद्योतक भूमंडलीकरण हमारे समय के विमर्श को नए सिरे से परिभाषित कर रहा है। समाजशास्त्री मार्शल मैक्लुहान की ‘वैश्विक गाँव’[1] की एक विशिष्ट प्रक्रिया तथा अनुभव, जिसे भूगोलवेत्ता डेविड हार्वे “देश–काल संपीडन”[2] की संज्ञा देते हैं, में सामाजिक दूरियों का घटना भूमंडलीकरण की सबसे लोकप्रिय अमूर्त धारणा है। इसने हमारी सामाजिक कल्पना के हर रूप का अभूतपूर्व सीमा विस्तारण किया है। सामाजिक सम्बन्धों के इस विश्वव्यापी सघनीकरण के कारण स्थानीयताओं के दायरे में होने वाले विमर्शों की शक्ल-सूरत उनसे बहुत दूर चल रहे विमर्श से बनने लगती है। धारणाओं, प्रवृतियों, सक्रियता के तरीकों, आस्थाओं और आचरणों से मिल कर बने विमर्श के जिस रूप को भूमंडलीकरण रच रहा है उसने न सिर्फ आत्मपरकताओं बल्कि विभिन्न सामाजिक संसारों को आवाज़ दिया है साथ ही इसने जीवन के हर कोने तथा अस्तित्व के हर रूप का वस्तुकरण किया है[3] जिसकी खरीद-बिक्री संभव है। विमर्श का पक्ष-विपक्ष तथा उसका क्षेत्र भी, सचेत बाज़ार के इस अदृश्य और अचेतन दायरे से मुक्त नहीं है

जिग्मंट बॉमन भूमंडलीकरण को "अंतरिक्ष युद्ध"[4] के रूप में देखते हैं। जहाँ विजेता अपनी गतिशीलता के नशे में है, पराजित अपने को कैद तथा अपमानित महसूस कर रहे हैं, वहीँ कुछ पर्यटक भी हैं जो कुछ अप्रतिबंधित जगहों की ओर बढ़ रहें हैं तथा कुछ ऐसे भी हैं जिनके लिए यह दुनिया असहनीय है। इस रूपक को हम सामाजिक विमर्श के भूमंडलीय दौर पर भी लागू कर सकते हैं जहाँ पूँजीवाद और बाजार का विमर्श विजेता के भाव में है, साम्यवादी विमर्श पराजय की अवस्था में, स्त्री तथा दलित विमर्श पर्यटक की अवस्था में अनुकूल जगहों की तलाश में हैं जबकि किसान, मजदूर, वृद्ध तथा हासिये के समूह बेघर जैसे हैं, जिन्हें कोई पूछ नहीं रहा है क्योंकि ये बाज़ार के सौन्दर्यमूलक संसार के विमर्श में दाग जैसे दिखतें हैं, इनमें बिकाऊपन जैसा कम है। लेकिन सभी के लिए यह बेचैनी लेकर आता है क्योंकि विजेताओं के पास भी कम समस्या नहीं है। सबसे पहले है धीमा नहीं होने तथा लगातार गति का बोझ, विकल्पों की एक अंतहीन शृंखला, और प्रत्येक विकल्प में अनिश्चितता तथा जोखिमों की एक  शृंखला का होना

हमारी प्रगति की ध्वजवाहक रचनाएँ, हमारे भविष्य के इतिहास के उस चरण का आधार बन रही हैं जहाँ इंटरनेट की चीजें, डिजिटल तकनीकी, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स में तीव्र भूमण्डलीय विकास, समाज और उद्योग की निर्माणकारी शक्तियों में महत्वपूर्ण संरचनात्मक परिवर्तन ला सकता है तथा नए मूल्यों के निर्माण का एक आधार स्तंभ बन सकता है। अब हमारी दुनिया और लोगों के मूल्य, तीव्रता से वैविध्य भरे और जटिल होते जा रहें हैं। इतिहास की यह अग्रगति अभी भी मानव की प्रगति के अपने नियामकों, उत्पादन के साधनों तथा उसकी प्रणाली से मुक्त नहीं हैं। निकट भविष्य, समाज और साधनों का जो सेतु बना रहा है उसके पार की दुनिया निश्चित ही वह नहीं है जिससे हम परिचित हैं। चूंकि ‘निगम’ और ‘उद्यमी’ जो इस क्रांति का नेतृत्व करते हैं स्वाभाविक रूप से अपनी रचनाओं की प्रशंसा कर रहे हैं तथा इन्हें जरूरतमंद ‘सत्ता’ का संरक्षण भी हासिल है। एक लालची ‘गठजोड़’ उन समाजशास्त्रियों, दार्शनिकों और इतिहासकारों को हाशिये पर पटक रहा है जो सतर्क करतें हैं और उन तरीकों और चीजों को समझते-समझाते हैं जिनसे चीजें बहुत गलत हो सकती है।[5]

भूमंडलीकरण ने सामाजिक बदलाव और प्रगति का जो नया विमर्श रचा है उसमें उत्पादन प्रणाली का अद्यतनीकरण “उद्योग 5.0” के नाम से अपनी पहचान बना रहा है यह शब्द रोबोट और स्मार्ट मशीनों के साथ काम करने वाले लोगों को संदर्भित करता है। यह उन रोबोटों के बारे में है, जो इंटरनेट ऑफ थिंग्स और बिग डेटा जैसी उन्नत तकनीकों का लाभ उठाकर, मनुष्यों को बेहतर और तेज़ी से काम करने में मदद करते हैं। यह स्वचालन और दक्षता के उद्योग 4.0 स्तंभों के लिए एक व्यक्तिगत मानवीय स्पर्श को जोड़ता है। अब जबकि समझा जा रहा है कि रोबोट ऐतिहासिक दृष्टि से खतरनाक तथा प्रदर्शन में नीरस है, जैसा कि टेस्ला के सी.ई.ओ. एलन मस्क ने स्वीकार किया है कि उनकी कंपनी में ‘अत्यधिक स्वचालन’ एक गलती थी, उन्होंने ट्वीट किया कि "मनुष्यों को कम आंका गया है’’।[6] हालाँकि कोविड महामारी से कुछ कार्पोरेट ने चिंताजनक रूप से यह अवश्य सीखा है कि मशीने बीमार नहीं पड़ती हैं। उद्योग 5.0 का उद्देश्य संज्ञानात्मक कंप्यूटिंग क्षमताओं तथा सहयोगात्मक संचालन में संसाधनशीलता के साथ मानवीय बुद्धिमत्ता को मिलाना है। साधारण शब्दों में इस उद्योग का उत्पाद एक ख़ास तरह के शिक्षित और कुशल मनुष्य हैं।[7] इस क्रांति के लिए तथा इस क्रांति से रचित, “समाज 5.0” एक ऐसे समाज को संदर्भित है जो साइबर स्पेस(आभासी) और फिजिकल स्पेस(भौतिक) के बीच उच्च स्तर का अभिसरण प्राप्त करता है अर्थात आभासी और भौतिक दोनों जगहों पर न केवल पाये जाते हैं बल्कि इन स्थानों को परस्पर तीव्रता से एकीकृत भी करतें है। मानव-केंद्रित यह समाज एक ऐसी प्रणाली विकसित करता है जो सामाजिक समस्याओं के समाधान के साथ प्रगति के भिन्न आयामों और भिन्नताओं को भी संतुलित करने का दावा करता है।[8]

सामाजिक विमर्श की भूमण्डलीय जगह ''जटिलताओं की सामान्य स्थिति'' में रहने को अभिशप्त है, जहाँ पर सच भी अपनी “नवीनता का समारोह मनाता” उद्देश्यपूर्ण शब्दों की बाज़ीगरी है। सभी प्रकार के विमर्श की रचना और खोज सत्ता और प्रभुत्व की राजनीति से सीधे तौर पर जुडी हुई है। उपग्रही टेलीविजन, सिनेमा और अब स्मार्ट फोन को विमर्श की नई जगहें बना दी गई हैं। सामाजिक विमर्श के केंद्र में समुदाय रहता है परन्तु इस बाज़ार रचित भूमंडलीय विमर्श के केंद्र में उपभोक्ता है। पूँजी की सेवा में डटा हुआ टेलीविजन हमारे घरों में सामूहिक दिवा स्वप्न का अंतहीन प्रवास लाता है यह विमर्शो के बारे ठीक ढंग से सोचने और समझने की हमारी क्षमता में कमी ला देता है। अब हमारा जीवन परदे और मोबाइल स्क्रीन पर रचे गए यथार्थ से भिन्न नहीं रहा। सभी तरह की चिन्ता, असंतोष और विवाद को टीआरपी की चाह वाला इलेक्ट्रानिक मीडिया तथा पसंद और नफरती चाह वाला सोशल मीडिया अंतहीन प्रवास पर रखे हुए है। सामाजिक कलह को बोने और जनमत को आकार देने के लिए सोशल मीडिया एक राजनीतिक युद्ध का मैदान बन गया है।[9]

दुनिया के स्वरुप की निर्धारक तथा राजनीति का केंद्र होने के कारण “सत्ता” ने “विमर्श का विजयी नायक” स्वयं को रखा है। सत्ता का अपना एक स्थायी चरित्र होता है, वो "रहना" चाहती है। अपने रहने के "औचित्य" को वह "जुड़ावों" में खोजती है। परन्तु अब सत्ता ने अपने होने के औचित्य को मनोरंजक बिखरावों में ढूढ़ लिया है। जहां मनोरंजन की कमान "सत्ता के शीर्ष" ने स्वयं थाम रखी है। कभी कभार उभर आई सामाजिक व्याकुलता को सत्ता अपनी ऊपरी शराफत तथा इंतज़ार कराने की अद्भुत क्षमता से मात देने में सफल हो रही है। अपने एजेंडे की कार्यसूची को विमर्श में सेट करने में सफल सत्ता के चंद अभिजन अपने हितों के पहाड़ की सुरक्षा दुरुस्त करते जा रहें हैं। और हम लगातार दोहरी वास्तविकता में रह रहें हैं। एक ओर रोटी, कपड़ा, मकान, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी ‘वस्तुनिष्ठ वास्तविकता’ है। वहीं दूसरी तरफ राष्ट्र, धर्म, जाति, भगवान, प्रौद्योगिकी जैसी ‘कल्पित वास्तविकता’ है। समय गुजरने के साथ ‘कल्पित वास्तविकता’ शक्तिशाली हो कर अब ‘कल्पित सत्ता’ है। हमारा ‘वस्तुनिष्ठ जीवन’ इसी ‘कल्पित सत्ता’ के रहमों करम पर निर्भर है। जिसकी कहानियों का हर स्वरूप एक ‘उद्देश्य’ रचता है। वह उससे हमें सहमत करना चाहता है तथा हितैषी होने का एहसास कराता है। ‘रचयिता’ पक्ष और उसका अधिवक्ता दोनों है। लोककहानियाँ अब कल्पनायें हैं जबकि हम सत्ता रचित ‘महाआख्यान’ की अच्छी बुरी परछाइयाँ हैं। अब एक बार का झूठ हमेशा के लिए सच है। लोगों को एकजुट करने वाली ‘झूठी कहानियों’ को ‘सच’ पर स्वाभाविक वर्चस्व प्राप्त है। इन सफल कहानियों का अन्त खुला रहता है इसलिये यह जवाब नहीं होती हैं जीवन कहानी नहीं है अलबत्ता सफल कहानियाँ नियंत्रण हैं। हमारी रचनाएं न केवल हमें रच रहीं हैं बल्कि हमारी जगह से हमें विस्थापित भी कर रही हैं।[10]

सही और गलत का निर्णायक तथा उसको पहचानने की क्षमता के लिए सराहे जाने वाले विवेक का स्थान कट्टरता ले रही है, वह केवल आज्ञापालक चाहती है। सत्ता की कामना को निष्ठा और श्रद्धा चाहिए, वह आलोचनामूलक विवेक और उत्तरदायित्व को भी घातक यत्न कह कर हटा रही है। वह जनता को दासत्वपूर्ण आज्ञापालन का सुख प्रदान करना चाहती है तथा उनसे स्वतंत्रता तथा विवेक यह कह कर छीन लेना चाहती है कि यह एक बोझ है। वह उसके त्याग और कष्ट को प्रभावशाली कहानियों में बदल रही है। दरअसल हम एक ‘सच से परे’ की दुनिया में रह रहें हैं जहां हम अभी विकास और अन्याय को स्पष्टतः अलग नहीं कर सकते हैं। हम उस स्पष्ट सीमा को भी नहीं पहचान सकतें हैं जो वास्तविकता को कहानी से अलग करती है। किसी बदलाव के पहल की अपेक्षा, वर्तमान राजनीतिक परिवेश उदारवाद और लोकतंत्र के बारे में किसी भी चिंता को तानाशाही और अनुदारवादी आंदोलनों द्वारा अपहरण कर रहा है, जिसका भुगतान सिर्फ यह नहीं है कि उदारवादी लोकतंत्र मरीचिका बन रहा है बल्कि यह नागरिक को उसके भविष्य के बारे में एक खुली चर्चा में संलग्न होने के अवसर को खत्म कर उत्तेजनायुक्त गैरजरूरी बहसों की तरफ मोड़ कर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और प्रतिरोध का भान पैदा कर रहा है।[11]

हालाँकि "अंतिम तक" के लक्ष्य से नियोजित समतावादी लोकतांत्रिक समाज की तरफ सकारात्मक विचलन के दौर में, "विजेता" होना अब पहले जैसा गर्व की पूँजी सृजित नहीं करता बल्कि पराजितों और शिकारों की आवाजें जहाँ सहानुभूति पा रहीं हैं वहीँ उनके आख्यान सोशल और नई मीडिया के प्रसार प्रचार तंत्र के द्वारा तेज़ बयार का रूप धर हर जगह अपनी उपस्थिति से अनुभूति की उत्तेजना ही नहीं बल्कि इसकी मांग भी पैदा कर रहा है। जिसकी उपेक्षा करना या ख़ारिज करना किसी भी पेशेवर के लिए एक गुमनामी का भय रच सकता है। अतः बदलती परिस्थिति में ज्ञान की ख़ोज का उद्देश्य अपने लोकतान्त्रिक स्वरुप को प्राप्त कर चुका है। लाइक, शेयर और वायरल के एल्गोरिदम के दौर में दमन के तमाम आरोपण के बावजूद पराजितों के आख्यानों को बरबस विजेताओं के आख्यानों पर बढ़त हासिल होने वाली है।

फिर भी वस्तुस्थिति यह है कि स्त्री विमर्श जहाँ स्त्री चेतना के प्रसार का आख्यान बनना चाहिए था[12] वहां भूमंडलीकरण के दौर में यह बाज़ार का प्रवक्ता बन कर औरत की देह, उसके श्रम, उसकी छवि, उसके सौन्दर्य और उसकी कमनीयता का आखेट कर रहा है। दलित विमर्श ने पूँजीवादी वैभव की दुनिया में अपनी छलांग के लिए जहाँ फुले-अम्बेडकर विचारधारा से नाता तोडा है वहीँ इसने चुनावी राजनीति की वेदी पर अतीत के दलित संघर्षों की पूरी विरासत की बलि चढ़ा दी है। साथ ही भूमंडलीकरण ने जातीयता के नए साफ्टवेयर समाज में इंस्टाल किये है, जाति आधारित फेसबुक पेज तथा वाट्सएप समूहों की बाढ़ आ गई है। नियोक्ताओं के रहमोंकरम पर रहने वाले असहाय मजदूरों के उलट पूँजी ने अपनी वृद्धि के लिए हमेशा से नए विकल्पों को खोजा है। यह खोज महामारी के प्रसार से भी तेज है। मशीनों द्वारा नौकरियों के प्रतिस्थापन को क्रांति कहा जा रहा है। पूँजी का यह सकेंद्रण असमानता की खाई रच रहा है। यह असमानता स्थिति नहीं बल्कि चयन है। यह अन्यायपूर्ण नीतियों तथा गुमराह प्राथमिकताओं का संचयी परिणाम है।[13] किसानों तथा हासिये के समूहों की जिम्मेदारी धारण करने वाला कल्याणकारी राज्य अब पीछे हट कर अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के अगले आदेश का मुहं ताक रहा है[14]

राष्ट्र राज्य तथा बाज़ार की सत्ता ने अपने को असहज करने वाले मुद्दों और विमर्शों का ध्यान बटाने के लिए सदा से अपना पसंदीदा विमर्श ला दिया है। यह धार्मिक विश्वास जो अब उन्मादी हो रहा है उसे साम्प्रदायिकता की मिथ्या चेतना[15] के आधार पर ख़ारिज नहीं किया जा सकता है बल्कि इसके ठोस सामाजिक राजनीतिक पहलू हैं। जहाँ भारत के सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में लंबे समय से इकठ्ठा हुए असंतोष को अब हवा मिल रही है वहीँ दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय में चिंता की लहरे उठाई जा रहीं हैं। परिणाम स्वरुप सामुदायिक शिकायतें समाधान के लिए स्वतंत्र कार्यवाही को अंज़ाम दे रही हैं। इस तरह की कार्यवाही अभिव्यक्ति के सभी रूपों तथा लोकप्रिय माध्यमों में और समाज के हर स्तर पर बढ़ रही है। अपने तर्कों और समर्थकों के साथ अपने को अल्पसंख्यक कहने वाला देश का दूसरा सबसे बड़े धार्मिक समुदाय को भारतीय राष्ट्र राज्य की संस्थाओं से बदस्तूर शिकायतें है। बहुसंख्यक समुदाय इन चिंताओ को राष्ट्रीय हितों के प्रतिकूल मान रहा है। साथ ही इन्हें भारत की पंथनिरपेक्षता अल्पसंख्यकवाद का ही दूसरा रूप लगता है। यह सेकुलरवाद के लिए पहले हिन्दी में धर्मनिरपेक्षता शब्द लाता है और फिर इसके वर्तमान प्रतिरूप को वह विरोधाभासी घोषित करके इसे असंभव परियोजना सिद्ध कर देता है। यह अपनी चयनित परंपरा को पंथनिरपेक्षता की स्वाभाविक अभिव्यक्ति घोषित करता है जिसे वह सर्वधर्मसमभाव कहता है। स्वयम्भू सेकुलर जो अपने लिए अक्सर धर्मनिरपेक्ष शब्द का ही प्रयोग करतें हैं ये समाज उत्तेजक लोग मिथ्या चेतना को हक़ीक़त में बदलने की क्षमता रखतें है। यह एक तरह से धर्म का सेकुलर इस्तेमाल है जिसे हम नव साम्प्रदायिकता कह सकतें हैं। यह विमर्श आयातित है। सैमुअल पी हटिंगटन ने अपनी किताब क्लैस ऑफ़ सिविलाइजेशन एंड रिमार्किंग वर्ल्ड ऑर्डर में जहाँ इतिहास की अग्र गति के लिए सभ्यतामूलक रास्ते पर जोर दिया और इस्लाम कनफ्यूसियस बौद्ध और हिन्दू भारत की चुनौतियों को इतिहास का नया मोर्चा करार दिया। वहीँ अपनी एक अन्य पुस्तक हू आर वी में आंग्ल सैक्सन प्रोटेस्टेंट शुद्धता एकता तथा इनकी अन्यों से भिन्नता पर जोर दिया। भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक राजीव मल्होत्रा हिन्दू कार्यकर्त्ता हैं जिनकी प्रसिद्धि बढ़ रही है। इनकी दो चर्चित किताबें ब्रेकिंग इंडिया और बीइंग डिफरेंट अपने नाम से ही बहुत कुछ कहती है। पहली किताब जहाँ भय पैदा कराती है वहीँ दूसरी किताब इसका समाधान अन्यों से अलगाव की समझ को देती है।

इस प्रकार हमारा विमर्श उस दौर में है जहाँ उत्पादन स्थलमुक्त है, पूंजी आवारा, ताकतवर खिंचान बाजार की तरफ है, लेकिन दावा सर्वसहमति का है। छवि विश्वरूपि है, दिक् और काल संपीडित है, चीज़े अपनी सान्दर्भिक जकड़ से मुक्त हैं, विचार, वाद और विमर्श सम्बंधित सभी बहसें नए सिरे से उठ कर विवादग्रस्त है। बाज़ार ने नए क्षेत्र को जन्म दिया है जिसमें संस्कृति भी उत्पाद है, और माध्यम है साइबर क्रांति, जिसकी केंद्राभिमुखता ने सांस्कृतिक फसान को जन्म दिया है। वैश्विक बाज़ार को प्रभावित करता विज्ञापन, विशिष्ट उपभोक्ता संस्कृति को जन्म दे रहा है जिसके लिए नागरिक वैश्विक उपभोक्ता है। मनोरंजन एक उद्द्योग है, और हमारा जीवन परदे के यथार्थ से अभिन्न एक तरफ तो पहचाने अपनी अस्मिता के लिए जूझ रहीं हैं तो दूसरी तरफ इनकी सांस्कृतिक सीमाएं टूट रही हैं। नस्ल, समुदाय, वर्ग, जाति, परिवार और जेंडर नए परिभाषाओं के अंतर्गत खुद को पुनर्स्थापित कर रहें हैं प्रतिरोध की कमान किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलित और नारी के हाथ में है जो समाज में समानता की खोज में लगे हैं। जहाँ पर्यावरण ह्रास संपोष्यता को आकर्षित कर रहा है वहीँ हिंसा और आतंक, सामूहिक मध्यस्थता की अनिवार्यता पर बल देने को बाध्य कर रहें हैं।

सन्दर्भ



[1]McLuhan, Marshall. The Gutenberg Galaxy: The Making of Typographic Man, UNIVERSITY OF TORONTO PRESS, Canada, 1962, p. 31.

[2]Harvey, David. The Condition of Postmodernity: An Enquiry into the Origins of Cultural Change, Blackwell, Cambridge (Mass.), 1992, p. 260.

[3] खेतान,प्रभा. बाज़ार के बीच: बाज़ार के ख़िलाफ़, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2004, पृष्ट. 32.

[4] Bauman, Zygmunt. Globalization the Human Consequences. Polity Press, Cambridge, 1998

[6] Elon Musk says excessive automation at Tesla was a mistake, that a human workforce is underrated- technology news, Firstpost. Tech2. (2018, April 15). Retrieved October 18, 2021, from https://www.firstpost.com/tech/news-analysis/elon-musk-says-excessive-automation-at-tesla-was-a-mistake-that-a-human-workforce-is-underrated-4432195.html.

[7] Jardine, J. (2020, July 30). Top 3 things you need to know about industry 5.0. MasterControl. Retrieved October 18, 2021, from https://www.mastercontrol.com/gxp-lifeline/3-things-you-need-to-know-about-industry-5.0/

[8] Ferreira, Carlos Miguel. Serpa, Sandro. (2018), Society 5.0 and Social Development: Contributions to a Discussion, Management and Organizational Studies, Vol. 5, No. 4; Pp 26-31

[9] Ritzer, George; Dean, Paul. Globalization. Wiley. Kindle Edition. p. 326

[10] Wikimedia Foundation. (2021, August 25). द मेट्रिक्स. Wikipedia. Retrieved October 18, 2021, from https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A6_%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%9F%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B8.

[11] Harari, Yuval Noah, 21 Lessons for the 21st Century, Jonathan Cape, London, 2018

[12] रोहिणी अग्रवाल, साहित्य की जमीन और स्त्री मन के उच्छ्वास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 2014, पृष्ठ. 11. 

[13] Stiglitz, Joseph E. The great divide: unequal societies and what we can do about them, PENGUIN BOOKS, New York, 2015

[14] चोसडुवस्की  मिशेल. ग़रीबी का वैश्वीकरण, संवाद प्रकाशन, मेरठ, 2009

[15] विपिन चंद्रा ने साम्प्रदायिकता को मिथ्या चेतना कहा है

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