सोमवार, 22 अप्रैल 2024

वहाबी आन्दोलन

 

तात्पर्य

जब इस्लामी जनता मूल-धर्म से अलग हटकर रूढ़ियों और अन्धविश्वासों में जकड़ी जा रही थी, ठीक उसी समय, इस्लाम का प्राचीन तेज बाहर निकला और इस्लाम के जन्म-स्थान, अरब के रेगिस्तान में, एक धार्मिक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ जिससे रूढ़ियों और कुरीतियों को झाड़ गिराने में इस्लाम को बहुत बड़ी सहायता मिली। इतिहास में यह आन्दोलन वहाबी आन्दोलन के नाम से विख्यात है।

कब और किसने

वहाबी आन्दोलन के प्रवर्तक मुहम्मद इब्न-अब्दुल वहाब थे जिनका जन्म सन् 1700 ई. के करीब अरब-देश के नज्द प्रान्त में हुआ था।

कहाँ

स्टोडार्ड ने लिखा है कि इस्लाम के इस विश्वव्यापी पतन के काल में भी, नज्द ही ऐसा प्रान्त था जहाँ लोग पूर्ण रूप से पतित नहीं हुए थे तथा जहाँ अब भी धर्म का दीपक झिलमिला रहा था।

कैसे

1.       मौलिक इस्लाम पर जोर

अब्दुल वहाब बचपन से ही विचारशील थे। उन्होंने बचपन में ही हज की यात्रा की थी तथा मदीने में काफी साल रहकर उन्होंने इस्लाम के मौलिक साहित्य का अध्ययन भी किया था। इस्लाम का गम्भीर अध्ययन करते-करते उनका ध्यान तत्कालीन इस्लाम के पतन पर गया और रूढ़ियों, अन्धविश्वासों एवं कुरीतियों के विरुद्ध उनके भीतर सात्विक क्रोध के भाव भर गए।

2.       भोग विलास की निंदा

जीवन के भीतरी और बाहरी विलासों की उन्होंने कड़े शब्दों में निन्दा प्रारम्भ की। उन्होंने संगीत, रेशम, सोना, चाँदी और हीरे को भी विलासिता की वस्तु कह कर निंदा की थीं।

3.       बुतपरस्ती के खिलाफ निंदा

पीरों, औलियाओं तथा अन्य मानवों की पूजा एवं उनकी कब्रों की आराधना के खिलाफ उन्होंने युद्ध-घोषणा कर दी। फकीरों एवं साधुओं की पूजा को वे घृणित पाप बताने लगे। बुजुर्गों की क़ब्रों की कौन कहे, हज़रत मुहम्मद की क़ब्र पर जाकर पूजा करने को भी उन्होंने शिर्क करार दिया।

4.       कयास की निंदा

तसव्वुफ और सूफी-मत की आलोचना वे इसलिए करने लगे कि सूफी इस्लाम के नियमों का उल्लंघन करते थे। उलमाओं के द्वारा कुरान की की जानेवाली व्याख्याओं को उन्होंने अमान्य बताया और लोगों से यह कहा कि कुरान का अर्थ तुम्हें सुन्नत के प्रसंग में समझना चाहिए और पंडितों के मतवाद के फेरे में नहीं पड़ना चाहिए। कुरान का, कल्पना से जो अर्थ लगाया जाता था, उसे उन्होंने बिलकुल रोक दिया एवं परम्परा से जो अर्थ मान्य समझा जाता था, उसे ही उन्होंने प्रामाणिक ठहराया।

5.       नशा खोरी की निंदा

टर्की के सुलतान मुराद ने तम्बाकू पीने पर रोक लगा रखी थी। एक दूसरे सुलतान ने कॉफी पीने की मनाही कर रखी थी। ये धार्मिक नहीं, राजकीय फरमान थे। अब्दुल वहाब ने रोकों की जो धार्मिक सूची तैयार की, उसमें तम्बाकू और कॉफी ही नहीं, बल्कि संगीत, रेशम, सोना, चाँदी और हीरे भी आ गए क्योंकि ये सामग्रियाँ भी विलासिता की थीं।

6.       सूदखोरी की आलोचना

सूदखोरी इस्लाम में पाप समझी जाती थी, किन्तु, इस पाप से फायदा उठानेवाले लोगों की कमी नहीं थी। अब्दुल वहाब इस पाप पर अग्नि के वेग से टूटे और, इस प्रकार, धार्मिक जनता के साथ-साथ वे निर्धन मुसलमानों के भी श्रद्धा-भाजन हो उठे। सारी गरीब जनता अब्दुल वहाब की पूजा करने लगी।

इस प्रकार अब्दुल वहाब के आन्दोलन का उद्‌देश्य इस्लाम के उस रूप को वापस लाना था, जिसकी रचना हज़रत मुहम्मद ने की थी और जिसका विकास आरम्भ के चार खलीफों ने किया था। आरम्भिक इस्लाम ईश्वर के सिवा और किसी की पूजा नहीं करता था। उसमें वैराग्य-वृत्ति का अभाव था। उसमें सामाजिक कुरीतियाँ नहीं थीं, न उसमें मुसलमान-मुसलमान में कोई भेद था। । यह अतीत की ओर चलने का संकेत था। यह इस्लाम को घसीटकर फिर से सातवीं सदी में ले जाने का आग्रह था।

राजनीतिक रुझान

शेख अहमद सरहिन्द, इब्ने तीमिया, औरंगजेब, वहाब, हाली और इक़बाल ने इस्लाम के लिए जो कुछ किया, वह लगभग एक ही प्रकार का कार्य था। जब से नज्द के सऊद-खानदान के सरदार मुहम्मद अब्दुल वहाब के शिष्य हुए, वहाबियों का जोर बहुत अधिक बढ़ गया और वे धर्म के साथ राजनैतिक प्रभुता का गठबन्धन करके सारे संसार के मुसलमानों को एक छत्र के नीचे लाने का स्वप्न देखने लगे।

अब्दुल वहाब की मृत्यु (सन् 1787 ई.) के बाद, सऊद वहाबी-सम्प्रदाय के नेता हुए। प्रतिष्ठा में उनका राज्य अबूबक्र और हजरत उमर की खिलाफत की याद दिलाने लगा, क्योंकि मुसलमान उन्हें अपना धार्मिक गुरु भी मानते थे तथा राजनैतिक नेता भी। सऊद का देहान्त सन् 1814 ई. में हुआ। किन्तु, तब तक वहाब-सम्प्रदाय शक्ति और धार्मिक प्रतिष्ठा में इतना उन्नत हो चुका था कि लोग उसे प्राचीन खिलाफत का सहज उत्तराधिकारी मानने लगे थे।

टर्की के सुलतान से बैर तथा पराजय

चूँकि वहाबी लोग सऊद-राज्य को खिलाफत का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे, इसलिए, टर्की के सुलतान से उनका विरोध हो गया, क्योंकि खिलाफत का ओहदा अभी टर्की के ही सुलतान के पास था। टर्की का सुलतान जानता था कि वहाबियों में जो धार्मिक उन्माद है, उसके सामने कोई भी मुस्लिम देश घुटने टेक सकता है। अतएव, सुलतान ने अल्बानिया के मुहम्मद अली से सन्धि की और यूरोपीय बन्दूकों के सहारे उसने वहाबियों को मिट्‌टी चूमने को लाचार कर दिया।

आध्यात्मिक उत्तरजीविता

किन्तु, यह वहाबियों की सामरिक पराजय मात्र थी। आध्यात्मिक दृष्टि से वे तब भी मुसलमानों के धार्मिक नेता बने रहे। इस्लाम को प्राचीन गरिमा पर फिर से प्रतिष्ठित करने का स्वप्न वहाबी लोग, हमेशा, मुसलमानों में फैलाते रहे और मक्का में हज करने को जो भी मुसलमान जाते, उनके जरिए वहाबियों का यह सन्देश आसानी से विश्व के कोने-कोने में पहुँचता रहा।

                                         भारत में वहाबी आन्दोलन

भारतीय इस्लाम में कुरीतियाँ

मक्का जानेवाले हाजियों के द्वारा ही इस आन्दोलन का सन्देश अरब से भारत पहुँचा। अरब, सीरिया, मिस्र और ईरान में इस्लाम जिस दुरवस्था में जा फँसा था, भारत में उसकी उससे अच्छी अवस्था नहीं थी। हिन्दु-समाज से जो लोग निकलकर इस्लाम में दीक्षित हुए थे, वे अपने साथ हिन्दुओं की बहुत-सी तथाकथित कुरीतियाँ भी ले गए थे। हिन्दुओं का सगुन-विचार, सधवा स्त्रियों का सिन्दूर तथा नथ और शंख की चूड़ी पहनना एवं दहेज और श्राद्ध, ये सारे आचार, हिन्दुओं के समान, मुसलमानों में भी प्रचलित हो गए थे ।

अरब से प्रेरणा

अब अरब के वहाबी आन्दोलन से प्रेरणा लेकर भारत के उलमा भी इस्लाम को उन कुरीतियों से मुक्त कराने के काम में लग गए। यद्यपि, इस बात का उन्हें तनिक भी ज्ञान नहीं था कि सुधारों के जरिए वे मुसलमानों को हिन्दू-समाज से अलग कर रहे हैं।

फ़रायज़ी

सन् 1804 ई. के लगभग हाजी शरीयतुल्लाह ने बहादुरपुर (जिला फरीदपुर, बंगाल) में किसान-आन्दोलन का आरम्भ किया। उनके अनुयायी फ़रायज़ी कहलाते थे। इन लोगों ने इस्लाम पर पड़े हुए हिन्दू-प्रभावों को गर्हित बतलाया और जनता से कहा कि इन प्रभावों से निकलकर उस मार्ग पर आओ, जो शुद्ध कुरान का मार्ग है।

उन्होंने यह भी कहा कि भारत भर अब मुसलमानों का राज्य नहीं है, अतएव, यह देश दारुल-हरब (शत्रु-देश) हो गया है। इसलिए, मुसलमानों को चाहिए कि वे इस देश में जुमे की नमाज़ पढ़ना छोड़ दें। जो लोग इस उपदेश को मानने पर आमादा हुए, वे बेजुमा कहलाने लगे। शरीयतुल्लाह की मृत्यु के बाद उनके बेटे दुधू मियाँ ने उनके उपदेश को जोर-शोर से फैलाया तथा दुधू मियाँ के समय में पूर्वी बंगाल में बेजुमा सम्प्रदाय की संख्या काफी बड़ी हो गई।

रायबरेली के सैयद अहमद

भारत में वहाबी-आन्दोलन के सबसे प्रभावशाली नेता रायबरेली के सैयद अहमद हुए। सन् 1822 ई. में उन्होंने मक्का की तीर्थ-यात्रा की और वहीं वे वहाबी आन्दोलन के मूल-प्रवर्तकों के सम्पर्क में आए। वहीं उन्होंने यह प्रभाव भी ग्रहण किया कि विलासिता और आराम-तलबी इस्लाम की शिक्षा के विरुद्ध है एवं यूरोपीय जातियाँ इस्लाम से शत्रुता रखती हैं। सैयद अहमद शीघ्र भड़क उठने वाले स्वभाव के थे और उन्हें 'हाल' या आवेश आया करता था जिसमें उन्हें यह दैवी संदेश सुनाई पड़ता था कि तुम धर्म की सेवा के लिए अपनी जान कुरबान कर दो।

1.       इस्लाम के वास्तविक रूप पर जोर

सैयद अहमद ने भारत में भी सारे देश की यात्रा की और अपने धर्म-बन्धुओं को बताया कि उनका धर्म कितना रूढ़िपूर्ण हो गया है तथा कैसे वे रूढ़ियों को छोड़कर धर्म के वास्तविक मार्ग पर आ सकते हैं। कुरान और हदीस में जिनका उल्लेख नहीं है, उन रीति-रस्मों, आचारों और विश्वासों को उन्होंने इस्लाम-विरोधी माना एवं कुरान और हदीस की नई व्याख्याओं को भी उन्होंने गलत कहा।

2.       भारत दारुल हर्ब

सैयद अहमद ने भी ऐलान किया था कि भारत पर मुसलमानों का राज्य नहीं रहने के कारण यह देश दारुल-हरब हो गया है और यहाँ के मुसलमानों को भी जिहाद का धर्म-सिद्ध अधिकार है। किन्तु, धर्म के भीतर से यह राजनीति झाँक रही थी, इसलिए, वहाबियों की पहले रणजीत सिंह फिर अंग्रेजों से ठन गई और अंग्रेज उनका दमन करने लगे, यहाँ तक कि थोड़े ही दिनों में भारत का वहाबी-आन्दोलन बिलकुल ठंडा पड़ गया।

3.       तरीका- इ-मुहम्मदिया पर जोर

तरीका- इ-मुहम्मदिया को फिर से स्थापित कर वह पैगम्बर मोहम्मद के चरणचिह्नों पर चलना चाहते थे। मुसलिम समाज को ऊपर उठाने के लिए उनके तीन सूत्र थे-इलहामी किताब कुरान शरीफ को धर्मराज्य के लिए सबसे ऊपर रखना, मजहब में कौल और अमल से अकीदा रखना और पवित्र जेहाद। उन्होंने सबसे अधिक महत्व कर्म या अमल को दिया। मजहब के 5 स्तंभों - नमाज, अपने गुनाहों का एतराफ, खैरात, रोजा और हज, में वह अंतिम तरीके को सबसे अच्छा मानते थे।

4.       शिर्क से बचाव

यानी एक अल्लाह के अलावा किसी को न मानो, न किसी को अल्लाह के समकक्ष या उनकी शक्तिवाला समझो। वह कहते थे कि सच्चे मुसलमान को यह न मानना चाहिए कि फरिश्ते, जिन, पीर, मुर्शिद, पैगम्बर और संत, अल्ला से इंसान को मिला सकते हैं या उनकी इच्छा पूरी कर सकते हैं। किसी भी मुसलमान को उनसे दुआ नहीं मांगनी चाहिए या उनसे डरना नहीं चाहिए, क्योंकि वे भी उतने ही असहाय हैं जितने कि दूसरे।

5.       बिदत की आलोचना

सब लोग 'बिदत' यानी नई बातें छोड़ दें और 'सुन्नत' यानी हजरत द्वारा बताए हुए नियमों का हर बात में पालन करें, चाहे वह बात बड़ी हो या छोटी। सैयद अहमद के सरल जीवन, उनके जोश और ईमानदारी ने लोगों पर बड़ा असर डाला। उनके बहुत से अनुयायी हो गए और उन्होंने उनका हुक्म मानने की प्रतिज्ञा की।

6.       जेहाद

जेहाद शुरू करने से पहले उन्होंने मक्का की यात्रा करने की सोची। भारत में लौटने के बाद ही उन्होंने अपने जेहादी आंदोलन का संगठन शुरू किया। उन्होंने भारतीय इतिहास के एक सबसे बड़े पुनरुत्थान आंदोलन का प्रवर्तन किया जिससे 50 सालों तक ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह का झंडा बुलंद रहा।'

जेहाद की तैयारी में तीन बातें खास थीं- (1) योद्धाओं की ऐसी टोली तैयार करना जो संख्या और हथियार दोनों दृष्टि से विरोधियों का मुकाबला कर सके, (2) उपयुक्त नेता या सिपहसालार का चुनाव तथा (3) ऐसा इलाका चुनना जिसमें मुसलिम शासन हो, जहां से जेहाद का संचालन सुरक्षित ढंग से किया जाए।

पहली दो शर्तें तो इस प्रकार पूरी हो गईं कि सैकड़ों भारतीय मुसलमान जेहादियों की टुकड़ी में भर्ती किए गए और सैयद अहमद इनके इमाम चुने गए। पर तीसरी बात, सुरक्षित अड्डा भारत की सीमा के अंदर नहीं मिल सका। इसके लिए उत्तर- पश्चिमी सरहद का इलाका चुना गया। सरहदी कबीलों में धर्मांधता का जोर था, जिसका मुल्ला लोग अच्छा उपयोग कर सकते थे। यह भी मालूम था कि इस इलाके में अरब के अब्दुल वहाब का वहरवी आंदोलन कुछ हद तक फैल चुका था।

7.       हिजरत

पहला कदम यह था कि दारुल अर्ब 'भारत' से इन दीनदार लोगों की हिजरत दारुल इस्लाम, सरहदी इलाके में कराई जाए। पांच-छः सौ पुरुष, कुछ स्त्रियों और बच्चों तथा 5,000 रुपये की एक थैली के साथ वह अपनी ऐतिहासिक हिजरत पर चले। यह दल बोलान दरें के जरिए क्वेटा पहुंचा, क्वेटा से कंदहार, गजनी और काबुल गया और अंततोगत्वा 20 नवंबर, 1826 को पेशावर पहुंचा। लगभग 3,000 मील की इस यात्रा में 10 महीने लगे।

यह बहुत ही आश्चर्यजनक तथा साहसिक कार्य था पर इससे भी आश्चर्यजनक बात यह थी कि ब्रिटिश सरकार, जो अवश्य ही सैयद अहमद की यात्राओं और उद्देश्यों से परिचित होगी, इन लोगों की तरफ से आंखें मूंदे रही और यह छोटी-सी सेना उन्हीं के राज में निर्बाध प्रचार और यात्रा करती रही। क्या अंग्रेजी सरकार ने इनको इसलिए नहीं रोका कि इस जेहाद का लक्ष्य महाराजा रणजीत सिंह का राज्य था, न कि ब्रिटिश भारत । सैयद अहमद का आंदोलन विफल हुआ, पर यह अपने पीछे एक सुदूरगामी परिणामों की लीक छोड़ गया। इसने भारतीय समाज की पृथकतावादी प्रवृत्तियों को उत्तेजना दी।

सैयद अहमद ने इस बात पर जोर दिया कि अच्छी हों या बुरी, महत्वपूर्ण हों या तुच्छ भारत में हिंदुओं के साथ रहने के कारण मुसलमानों ने जो रिवाज और आदतें प्राप्त की (बिदत-इ-हसना और विदत-इ-सू) उनको छोड़ देना है और हजरत मुहम्मद के समय की खालिस अरबी रूढ़ियों को लौट जाना है।

इससे दोनों संप्रदायों में खाई बढ़ने की ही संभावना थी। इस आंदोलन से एक ऐसी विचारधारा चल निकली जिससे पृथकता और कूपमंडूकता की प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन मिला।

इस आंदोलन से मुसलमानों में पुनरुज्जीवनवादी या पुराने जमाने को फिर से लाने के प्रचार को उत्तेजना मिली। इस परिवर्तन का नतीजा यह हुआ कि राजनीति में धार्मिक कठमुल्लापन का प्रभाव प्रकट होने लगा। फिर भी सैयद अहमद के आंदोलन की स्मृति ने मुसलमानों में स्वतंत्रता की इच्छा को जीवित रखा। बाद में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जितने भी संग्राम हुए, उनमें, उदाहरणस्वरूप 1857 के विद्रोह में मौलवियों ने शक्तिशाली सहायता दी।

Ramakrishna Paramhamsa (1836-1886 AD)

 

Ramakrishna's childhood name was Gadadhar Chattopadhyay. He was born in 1836 AD in a poor Brahmin family in Hooghly district of Bengal.

He had no interest in education since childhood. He was engrossed in religious thoughts all the time. When he was 17 years old, his father died.

At the age of 21, he became a priest in the temple of Kalidevi in Dakshineswar near Calcutta.

He learned Tantric practice for two years from a Brahmin monk named Bhairavi.

A great Vedantic monk named Totapuri taught him Vedanta practice.

Through his spiritual practice, he proved that religion and knowledge are not a matter of knowledge, but a matter of experience.

Ramakrishna died of tuberculosis on 16 August 1886.

His biography was written by Max Muller. Then Romain Rolland also published a biography.

                            Personality of Param Hans

1.     Not a Pandit but a Saint

There is the same difference between a Pandit and a Saint as there is between the heart and the intellect. What the intellect cannot understand even after trying hard, the heart suddenly sees.

Through the propaganda of Dayanand, Rammohan Roy and Annie Besant, it was proved that Hindu religion is not condemnable but noble, but the public wanted to see what the living form of the religion is like. He saw this living form of religion when Paramahamsa Ramakrishna (1836-1886 AD) appeared.

2.     Not logic but feeling

With the arrival of Ramakrishna the experience of religion became evident. He showed through his life that religious truths are not merely an object of intellectual speculation, they are a matter of direct experience and in front of them all the desires and pleasures of the world are completely insignificant.

He practiced all the paths of Hinduism. For some days, he became a true Muslim and practiced Islam and for some time he also practiced Christianity. There can be no bigger and more useful solution to the religious problem of India than the one given by Ramakrishna. By becoming Vaishnav, Shaiva, Shakta, Tantric, Advaist, Muslim and Christian, Paramhansa Ramakrishna proved that the external forms of religions are only external forms. They do not make any difference to the basic principle. There are many means and ways. Man can choose anyone among them.

3.     The embodiment of religion

He took initiation into Advaita practice from Mahatma Totapuri who himself came to his hut. He got the practice of Tantra from a Bhairavi who herself had reached Dakshineshwar while travelling. Similarly, his guru of Islamic practice was one Govind Rai who had converted from Hindu to Muslim and he practiced Christianity with Shambhu Charan Mallik who was well-versed in Christian scriptures. But, even while delving into all the spiritual practices and investigating the deep secrets of religion, his faith in the feet of Kali remained unshakable.

Paramhansa Ramakrishna was the embodiment of the depth and sweetness of Hinduism. His senses were completely under his control. From head to toe he was full of the light of the soul. The glow of joy, purity and virtue surrounded him. He remained engrossed in spiritual thoughts day and night. Worldly happiness and prosperity, even Suyash, had no value in front of him.

4.     Disenchantment with Kanchan

To test the fact that Ramakrishna does not touch money and the mere touch of it causes pain, Narendra Dutt one day surreptitiously hid a rupee under Paramahamsa ji's bed. When Ramakrishna returned and sat on the bed, he felt as if he had been stung by a scorpion and he jumped up and stood up. People looked around, but there was nothing anywhere. Finally, when he removed the bed and looked down, he saw that there was a rupee lying under it. Everyone was stunned. Only Narendra was surprisingly serious. Ramakrishna was aware of his mischievousness and said, “Okay Ray; The Guru should be examined to his heart's content." This aversion towards money kept increasing in him. At last it became such that he could not even touch a bronze vessel without wrapping his hand with a cloth.

5.     Indifference towards wife

Ramakrishna was a monk who remained with his wife till his last days. He had left his home after marriage and the truth is that he had not even formally left his home because, even after attaining maturity, he went to his village and lived there with his family in the same manner as The householder should stay. After this journey, his wife joined him in Dakshineshwar and Paramhansaji did not hesitate at all in keeping her with him. But, he did not have physical relations with his wife, this is known from all the details.

He said that although women are a part of Jagadamba, yet they are sacrificial for the seeker and sage.

6.     Preaching in the saint's way

His style of presenting the subject was exactly the same which was adopted by the ancient sages of India like Parshvanath, Buddha and Mahavira and which has traditionally been the method of preaching of Indian saints. He used to take less help of arguments; whatever had to be explained, he used to explain it through analogies and examples.

He said, “If the attachment of Kamini-Kanchan is completely destroyed, then the body is separate and the soul is separate, this becomes clearly visible. When the coconut water dries up, the copra (Gari) inside it gets separated from the drain, the copra and the drain both start appearing separately (like that), or as can be said about a sword kept inside the scabbard. That the scabbard and the sword are two different things, likewise, know about the body and the soul.”

To understand the idea that idol worship also has real importance in the worship of God, he would say, “Just as the court is remembered when we see a lawyer, in the same way, God is remembered when we see an idol.”

Maya is the power of God, it resides in God only, then is God also as bound by Maya as we are?” To solve this problem he would say, “Oh, no brother! It is not like that...look at this. There is always poison in the snake's mouth. He always eats and drinks with the same mouth, but he himself does not die from that matter.”

The famous Brahmo-Samaji seeker and scholar Acharya Pratapchandra Majumdar has written that “Before having the darshan of Shri Ramakrishna, no one even understood what is called religion. It was all ostentation. What a religious life is like, I came to know after benefiting from the company of Ramakrishna.”

रामकृष्ण परमहंस (1836-1886 ई.)

रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। उनका जन्म 1836 ई. में बंगाल के हुगली जिले में निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ था।

उन्हें बचपन से ही शिक्षा के प्रति कोई रुचि नहीं थी। वे हर समय धार्मिक चिंतन में मग्न रहते थे। जब वे 17 वर्ष के थे, उनके पिता का देहान्त हो गया।

21 वर्ष की आयु में वे कलकत्ता के पास दक्षिणेश्वर में कालीदेवी के मन्दिर में पुजारी बन गये।

उन्होंने भैरवी नामक एक ब्राह्मण सन्यासिन से दो वर्ष तक तान्त्रिक साधना सीखी।

तोतापुरी नामक एक महान् वेदान्तिक साधु ने उन्हें वेदान्त-साधना सिखाई।

उन्होंने अपनी साधना द्वारा यह सिद्ध कर दिया कि धर्म तथा ज्ञान, विद्या का विषय नहीं है, अपितु अनुभूति का विषय है।

16 अगस्त 1886 को क्षय रोग से रामकृष्ण का निधन हुआ।

उनकी जीवनी मैक्समूलर ने लिखी थी। फिर एक जीवन-चरित रोम्याँ रोलाँ ने भी प्रकाशित किया।

परम हंस का व्यक्तित्व

1.     पण्डित नहीं बल्कि संत

पंडित और सन्त में वही भेद होता है, जो हृदय और बुद्धि में है। बुद्धि जिसे लाख कोशिश करने पर भी नहीं समझ पाती, हृदय उसे अचानक देख लेता है।

दयानन्द और राममोहन राय तथा एनी बीसेंट के प्रचारों से यह तो सिद्ध हो गया कि हिन्दू-धर्म निन्दनीय नहीं, वरेण्य है, किन्तु, जनता तो यह देखना चाहती थी कि धर्म का जीता-जागता रूप कैसा होता है। धर्म का यह जीता-जागता रूप उसे तब दिखाई पड़ा, जब परमहंस रामकृष्ण (1836-1886 ई.) का आविर्भाव हुआ।

2.     तर्क नहीं बल्कि अनुभूति

रामकृष्ण के आगमन से धर्म की  अनुभूति प्रत्यक्ष हुई। उन्होंने अपने जीवन से यह बता दिया कि धार्मिक सत्य केवल बौद्धिक अनुमान की वस्तु नहीं हैं, वे प्रत्यक्ष अनुभव के विषय हैं और उनके सामने संसार की सारी तृष्णाएँ, सारे सुख-भोग तृणवत् नगण्य हैं।

उन्होंने हिन्दुत्व के सभी मार्गों की साधना की। वे कुछ दिन सच्चे मुसलमान बनकर इस्लाम की भी साधना करते रहे और कुछ काल तक उन्होंने ईसाइयत का भी अभ्यास किया था। भारतवर्ष की धार्मिक समस्या का जो समाधान रामकृष्ण ने दिया है, उससे बड़ा और अधिक उपयोगी समाधान और कोई हो नहीं सकता। वैष्णव, शैव, शाक्त, तान्त्रिक, अद्वैतवादी, मुसलमान और ईसाई बनकर परमहंस रामकृष्ण ने यह सिद्ध कर दिखाया कि धर्मों के बाहरी रूप तो केवल बाहरी रूप हैं। उनसे मूल तत्त्व में कोई फर्क नहीं पड़ता है। साधन और मार्ग अनेक हैं। उनमें से मनुष्य किसी को भी चुन सकता है।

3.     धर्म की साकार प्रतिमा

अद्वैत साधना की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली जो स्वयं उनकी कुटी में आ गए थे। तन्त्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से पाई जो स्वयं घूमते-फिरते दक्षिणेश्वर तक आ पहुँची थीं। इसी प्रकार, इस्लामी साधना के उनके गुरु कोई गोविन्द राय थे जो हिन्दू से मुसलमान हो गए थे और ईसाइयत की साधना उन्होंने शम्भुचरण मल्लिक के साथ की थी जो ईसाई धर्म-ग्रन्थों के अच्छे जानकार थे। किन्तु, सभी साधनाओं में रमकर धर्म के गूढ़ रहस्यों की छानबीन करते हुए भी काली के चरणों में उनका विश्वास अचल रहा।

हिन्दू-धर्म में जो गहराई और माधुर्य है, परमहंस रामकृष्ण उसकी प्रतिमा थे। उनकी इन्द्रियाँ पूर्णरूप से उनके वश में थीं। सिर से पाँव तक वे आत्मा की ज्योति से परिपूर्ण थे। आनन्द, पवित्रता और पुण्य की प्रभा उन्हें घेरे रहती थी। वे दिन-रात परमार्थ-चिन्तन में निरत रहते थे। सांसारिक सुख-स्मृद्धि, यहाँ तक कि सुयश का भी उनके सामने कोई मूल्य नहीं था।

4.     कंचन से विरक्ति

रामकृष्ण रुपये-पैसे को नहीं छूते और द्रव्य के स्पर्शमात्र से उन्हें पीड़ा होने लगती है, इस बात की जाँच करने के लिए नरेन्द्र दत्त ने  एक दिन, चोरी-चोरी, परमहंस जी के बिस्तर के नीचे एक रुपया छिपा दिया। रामकृष्ण लौटकर जो बिस्तर पर बैठे तो उन्हें ऐसा लगा, मानो बिच्छू ने डंक मार दिया हो और वे उचककर खड़े हो गए। लोगों ने चारों ओर देखा, मगर कहीं भी कोई चीज नहीं थी। निदान, उन्होंने बिस्तर हटाकर नीचे देखा तो क्या देखते हैं कि उसके नीचे एक रुपया पड़ा है। सब लोग अचकचाए हुए थे। केवल नरेन्द्र अचरज के मारे गम्भीर थे। रामकृष्ण उनकी शैतानी को लख गए और बोले, “ठीक है रे; गुरु की जाँच जी भर कर लेनी चाहिए।” द्रव्य के प्रति यह वितृष्णा उनमें बढ़ती ही गई। अन्त समय तो ऐसा हो गया कि हाथ में कपड़ा लपेटे बिना वे काँसे के बर्तन को भी नहीं छू सकते थे।

5.     कामिनी के प्रति आसक्ति

रामकृष्ण एक ऐसे संन्यासी हुए हैं जो अन्त समय तक अपनी धर्मपत्नी के साथ रहे। गृह-त्याग उन्होंने विवाह के बाद किया था और सच तो यह है कि, विधिवत् उन्होंने गृह-त्याग किया भी नहीं था क्योंकि, सिद्धावस्था आने पर भी, वे अपने गाँव गए और वहाँ अपने परिवार के साथ वैसे ही घुल-मिलकर रहे, जैसे गृहस्थ को रहना चाहिए। इसी यात्रा के बाद उनकी पत्नी दक्षिणेश्वर में उनसे आन मिलीं एवं परमहंसजी ने उन्हें अपने साथ रखने में तनिक भी आनाकानी नहीं की। किन्तु, पत्नी के साथ उनका शारीरिक सम्बन्ध नहीं हुआ, यह सभी विवरणों से विदित होता है।

उनका कहना था कि यद्यपि, स्त्रियाँ जगदम्बा के ही अंश हैं, तथापि साधक-साधु के लिए वे त्याज्य ही हैं।

6.     सन्त पद्धति से उपदेश

उनकी विषय-प्रतिपादन की शैली ठीक वही थी जिसका आश्रय भारत के प्राचीन ऋषियों तथा पार्श्वनाथ, बुद्ध और महावीर ने लिया था तथा जो परम्परा से भारतीय सन्तों के उपदेश की पद्धति रही है। वे तर्कों का सहारा कम लेते थे, जो कुछ समझाना होता उसे उपमाओं और दृष्टान्तों से समझाते थे।

उन्होंने कहा, “कामिनी-कंचन की आसक्ति यदि पूर्ण रूप से नष्ट हो जाए, तो देह अलग है और आत्मा अलग है, यह स्पष्ट रूप से दीखने लगता है। नारियल का पानी सूख जाने पर जैसे उसके भीतर का खोपरा (गरी) नरेटी से खुलकर अलग हो जाता है, खोपरा और नरेटी दोनों अलग-अलग दीखने लगते हैं (वैसे), या जैसे म्यान के भीतर रखी हुई तलवार के विषय में कह सकते हैं कि म्यान और तलवार दोनों भिन्न चीजें हैं, वैसे ही, देह और आत्मा के बारे में जानो।”

प्रतिमा-पूजन का भी ईश्वराराधन में वास्तविक महत्त्व है, इस विचार को समझने के लिए वे कहते, “जैसे वकील को देखते ही अदालत की याद आती है, उसी तरह, प्रतिमा पर से ईश्वर की याद आती है।”

“माया ईश्वर की शक्ति है, वह ईश्वर में ही वास करती है, तब क्या ईश्वर भी हमारे समान ही मायाबद्ध है?” इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वे कहते, “अरे, नहीं रे भाई! वैसा नहीं है।...यही देखो न। सर्प के मुँह में सदा विष रहता है। उसी मुँह से वह हरदम खाता-पीता है, पर, वह स्वयं उस विषय से नहीं मरता।”

 

प्रसिद्ध ब्राह्म-समाजी साधक और विद्वान् आचार्य प्रतापचन्द्र मजूमदार ने लिखा है कि “श्री रामकृष्ण के दर्शन होने के पूर्व धर्म किसे कहते हैं, यह कोई समझता भी नहीं था। सब आडम्बर ही था। धार्मिक जीवन कैसा होता है, यह बात रामकृष्ण की संगति का लाभ होने पर जान पड़ी।”

प्रार्थना-समाज

सन् 1864 ई. में केशवचन्द्र सेन बम्बई गए और वहाँ उन्होंने ब्राह्म-समाज की शाखा खोलनी चाही। उनके प्रभाव से बम्बई में 1867 में प्रार्थना-समाज की स्थापना की गई ।

इसके संस्थापक अध्यक्ष आत्माराम पांडुरंग थे, पर उसके पीछे वास्तविक प्रेरणा महादेव गोविन्द रानाडे की थी ।

सभी धर्मों के बीच एकता बिठाने का जो प्रयास बंगाल के ब्राह्म-समाजी करते थे, कुछ वैसा ही ध्येय प्रार्थना-समाजियों का भी था।

प्रार्थना-समाज की भी प्रार्थनाओं में मन्त्र, वेद, उपनिषद्, कुरान, जेन्दावेस्ता और बाइबिल, सभी धर्म-ग्रन्थों से लिये जाते थे और समाज के सदस्य सभी धर्मों पर एक समान श्रद्धा रखते थे

इनके प्रमुख नेता एम. जी. रानाडे, आर जी भंडारकर तथा एन जी चंदावरकर थे।

रानाडे ने 1884 में दक्कन एजुकेशनल सोसाइटी तथा 1891 में विडो रिमैरिज एसोसिएशन की स्थापना की।

प्रार्थना समाज ने सुबोध पत्रिका नामक एक समाचार पत्र प्रकाशित किया  तथा दलित उद्धार मिशन की भी स्थापना की।

मजदूर वर्ग को शिक्षित करने के लिए एक रात्रि विद्यालय खोला गया।

एक प्रतिभाशाली मराठी महिला पंडिता रमा बाई ने आर्य महिला समाज की स्थापना में योगदान दिया ।

प्रार्थना समाज का उद्देश्य-

1.       जाति-प्रथा का विरोध

2.       विधवा-विवाह का समर्थन

3.       स्त्री-शिक्षा का प्रचार

4.       बाल-विवाह का अवरोध

सावधानी – अतीत से नाता न तोडा जाए और हमारे समाज से सारे सम्बन्ध भंग न हों

महादेव गोविन्द रानाडे

उपलब्धियां - जिस प्रकार बंगाल में हिन्दू-नवोत्थान के पहले नेता राजा राममोहन राय हुए, उसी प्रकार, महाराष्ट्र में इस आन्दोलन का श्रीगणेश महादेव गोविन्द रानाडे ने किया। बौद्धिक ऊँचाई में रानाडे, प्राय: राममोहन राय के समकक्ष थे।

रानाडे चितपावन ब्राह्मण थे। उनका जन्म सन् 1842 ई. में नासिक जिले में हुआ था। वे साहित्य, राजनीति और अर्थशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। वे सरकारी नौकरी में थे एवं, अन्त में, वे हाईकोर्ट के जज भी हुए थे।

उनके हाथों अनेक संस्थाओं का जन्म हुआ। पूने में तो उन्होंने इतनी संस्थाएँ खोलीं कि पूना सार्वजनिक कार्यकर्ताओं का तीर्थ ही हो गया।

ईसाइयत और यूरोपीय विचारों के आक्रमणों से बचने के लिए हिन्दुत्व ने जैसे बंगाल में राममोहन राय को उत्पन्न किया था, वैसे ही, महाराष्ट्र में उसने रानाडे को जन्म दिया और राममोहन राय के समान ही, रानाडे भी यूरोप का जवाब यूरोप के साधनों से देना चाहते थे।

कमियां - वे उत्कट सुधारवादी थे एवं रूढ़ियों को मिटाकर वे हिन्दुत्व का निर्मल रूप प्रस्तुत करना चाहते थे। किन्तु, उनका समय सुधारों के केवल जन्म का समय था एवं हिन्दू-कट्‌टरता सुधारकों से उस समय दबने को तैयार नहीं थी।

कुछ वह दुर्भाग्य भी उनके साथ रहा, जिसने बंगाल में केशवचन्द्र का पीछा किया था। बात यह हुई कि रानाडे की पहली पत्नी का स्वर्गवास हो गया और दूसरा विवाह उन्होंने विधवा से नहीं करके एक ग्यारह साल की कुमारी बालिका से किया।

कहते हैं, यह विवाह उन्हें अपनी इच्छा और भावना के विरुद्ध, अपने पिता के दुराग्रह के कारण करना पड़ा था। किन्तु, दंड इसका उन्हें भोगना पड़ा और आजीवन वे आलोचकों के ताने नीरव होकर सुनते रहे।

तिलक का विरोध

यह भी इतिहास का व्यंग्य ही था कि रानाडे जिन सुधारों को समाज में लाना चाहते थे, उनका विरोध लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक को करना पड़ा। जीवन-भर रानाडे और तिलक दो विरोधी शिविरों में विभक्त रहे और जीवन-भर रानाडे पर तिलक के बाण बरसते रहे।

1.       ‘एज ऑफ कान्सेंट बिल’

सन् 1891 ई. में जब ‘एज ऑफ कान्सेंट बिल’ इम्पीरियल काउंसिल में पेश हुआ, तब उनका तीव्र विरोध तिलक ने किया था। ऐसा लगता है कि तिलकजी अपने समकालीन अन्य सुधारकों से कुछ अधिक व्यावहारिक और कालज्ञ थे। उन्नीसवीं सदी की हिन्दू-जनता भयानक रूप से कट्‌टर थी। वह जात-पाँत और छुआछूत के मामलों में अत्यन्त सतर्क रहती थी और किसी को भी थोड़ी-सी भी छूट देने को तैयार नहीं थी।

2.       शारदा-सदन

दूसरी घटना शारदा-सदन नामक संस्था को लेकर घटी। यह संस्था पंडिता रामा बाई की कायम की हुई थी। पंडिता रामा बाई ब्राह्मणी थीं एवं संस्कृत विद्या पर उनका असाधारण अधिकार था। उन्होंने एक अब्राह्मण से विवाह कर लिया था, और अमेरिका से वे ईसाई बनकर वापस आईं। शारदा-सदन उन्होंने बालिकाओं की शिक्षा के लिए खोला था। किन्तु, उनके उग्र विचारों और आचरणों के कारण बहुत-से लोग उनके खिलाफ हो गए। रानाडे और आगरकर मानते थे कि हिन्दू बालिकाएँ शारदा-सदन में पढ़ें, इसमें कोई दोष नहीं है। किन्तु, तिलकजी का कहना था कि यह संस्था हिन्दू बालिकाओं को ईसाइयत की राह पर ले जानेवाली है। अतएव, इसका बहिष्कार होना चाहिए।

तिलक का प्रभाव

उस पर, सन् 1893-94 ई. में बम्बई और पूने में जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए, उन्होंने परिस्थिति को और भी बिगाड़ दिया। इन्हीं दंगों के बाद तिलकजी ने महाराष्ट्र में गणेश-पूजा और शिवाजी-महोत्सव का प्रवर्तन किया, जिससे हिन्दू-राष्ट्रीयता के भाव जोर से लहरा उठे। अतीतोन्मुखी भावनाओं की इस बाढ़ के सामने सुधारकों के पाँव उखड़ गए और महाराष्ट्र का नेतृत्व तिलकजी के हाथ में चला गया।

श्री डी.एस. शर्मा ने कहा है कि जब तिलक जी का दाय गांधीजी को मिला, तब एक प्रकार से, राष्ट्रीयता के धनुष का भार परशुराम से छूटकर राम के हाथों में आया था।

प्रार्थना-समाज का महत्त्व

1.       रानाडे, यद्यपि, राजनीति में नहीं उतरे, किन्तु, सांस्कृतिक धरातल पर उन्होंने जो कुछ किया, उससे भारत की राष्ट्रीयता को यथेष्ट उत्तेजना मिली।

2.       प्रार्थना-समाज जाति-प्रथा का विरोधी था, जन्मना एक मनुष्य को उत्तम और दूसरे को अधम मानने की प्रथा को वह तोड़ना चाहता था एवं स्त्री-शिक्षा तथा नर-नारी की समानता का वह पोषण करना चाहता था।

3.       इस समाज के लोग निराकारवादी थे, यह ठीक है; किन्तु, मूर्ति-पूजा एवं परम्परागत अनुष्ठानों के त्याग की शर्त इस समाज में नहीं थी, जैसी अनेक शर्तें बंगाल में ब्राह्म-समाजियों ने लगा रखी थीं।

4.       ब्राह्म-समाजी बंगाल में केवल धनी-विद्वान् वर्गों के ही लोग हुए थे, किन्तु, रानाडे चाहते थे कि प्रार्थना-समाज में अशिक्षित जनता का भी प्रवेश हो, यद्यपि उनका यह अरमान कभी पूरा नहीं हुआ।

5.       मध्यकालीन महाराष्ट्र में भक्ति का जो आन्दोलन उठा था, उसी के समान रानाडे प्रार्थना-समाज को भी सर्वत्र ले जाना चाहते थे और इसमें कोई दोष भी नहीं था। ज्ञानदेव, एकनाथ, तुकाराम, रामदास और जनार्दन पन्त, ये सन्त बहुत उदार रहे थे। उन्होंने मनुष्य की समानता को प्रश्रय दिया था।

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