बुधवार, 24 अप्रैल 2024

उर्दू साहित्य का इतिहास


उत्पत्ति के संदर्भ में विवाद

उर्दू भाषा की उत्पत्ति के विषय में विद्वानों के विरोधी मत हैं। डॉ० महमूद शेरानी इस विचार से सहमत नहीं हैं कि उर्दू की उत्पत्ति एक से अधिक भाषाओं से हुई।

परन्तु डॉ० मसूद हुसेन के अनुसार उर्दू की उत्पत्ति फारसी और हरियाणवी के मेल से हुई । सिध और मुल्तान पर अरबों के अधिकार हो जाने से देशी और विदेशी भाषाएँ एक-दूसरे के सम्पर्क में आईं, जिसके फलस्वरूप एक नई भाषा विकसित हुई।

डॉ० युसुफ हुसेन ने डॉ० मसूद हुसेन के इस मत से कि फारसी और हरियाणी के संयोग से उर्दू की उत्पत्ति हुई, सहमति प्रकट की है।

इस प्रकार उर्दू कई भाषाओं के सहयोग से विकसित हुई, वे जो आगे चल कर एक स्वतंत्र भाषा बन गई। अमीर खुसरो ने इसे 'हिन्दवी' या 'देहलवी'' कहा, इसे रेख्ता भी कहा जाता है ।

सूफी संतो का योगदान

प्रमुख सूफी सन्त जैसे ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती, ख्वाजा बख्तयार काकी, हजरत फरीदउद्दीन गंजशकर, हजरत निजामुद्दीन औलिया ने इस नई भाषा के विकास में काफी योगदान दिया । उन्होंने अपने उपदेशों में उर्दू के शब्दों का प्रयोग किया । अमीर खुसरो ने (1252-1324) में फारसी की कविता में उर्दू के शब्दों का अत्यधिक प्रयोग किया ।

गोरी सोवै सेज पर, मुख पर डारे केस।

चल ख़ुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस॥

शेख निजामुद्दीन औलिया ने भी 'हिन्दवी' के शब्दों का प्रयोग किया, जिसका 'फवायेदुल फुवाद' के लेखक ने विस्तार से वर्णन किया है।

भक्ति संतों का योगदान

भक्ति आन्दोलन के सन्तों ने भी 'हिन्दवी' (उर्दू) के माध्यम से लोगों को अपना सन्देश दिया, क्योंकि यह भाषा अधिक प्रचलित थी । कबीर ने अपने पदों में अरबी, फारसी तथा 'हिन्दवी' के शब्दों का प्रयोग किया है। कबीर ने कुछ गजलें भी लिखी हैं ।

हमन है इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या ?

रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या ?

जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-ब-दर फिरते,

हमारा यार है हम में हमन को इंतजारी क्या ?

नानक ने भी अपने उपदेशों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचाने के लिए हिन्दवी के शब्दों का प्रयोग किया । सूरदास और तुलसीदास ने भी उर्दू के शब्दों का प्रयोग  किया है।

दक्षिण में उर्दू

दक्षिण में उर्दू के विकास में शेख निजामुद्दीन औलिया के शिष्य शेख बुरहानुद्दीन गरीब और हजरत बंदा  नवाज गेसूदराज ने अधिक योगदान दिया है। बहमनी राज्य के पतन के बाद दक्षिण में उर्दू के विकास के  दो केन्द्र-गोलकुण्डा व बीजापुर बन गये ।

गोलकुण्डा के शासकों ने न केवल विद्वानों को प्रश्रय दिया, परन्तु वे स्वयं उर्दू में पद लिखते थे । मोहम्मद कुतुबशाह और अब्दुल्ला कुतुबशाह दक्षिणी शैली में कवितायें लिखते थे । गोलकुण्डा राजदरबार में अनेक कवियों और विद्वानों को सम्मान प्राप्त था, उनमें प्रमुख थे 'कुतुब व मुश्तरी' और 'सब रस' के रचयिता वजीही, सैफुल मुलुक का बदय्युल धमाल और 'तूतीनामा' के लेखक इब्ने निशाती।

बीजापुर के आदिलशाही सुल्तान कला और शिक्षा के प्रेमी थे। उनके राज दरबार में 'फाथनामा' के लेखक हशन शौकी, चन्दरभान व 'मह्यार' कविता के रचयिता मुकीम और मसनवी 'खबरनामा' के लेखक रुस्तामी को संरक्षण प्राप्त था । इब्राहीम आदिलशाह द्वितीय को भारतीय संगीत में दक्ष होने के कारण 'जगतगुरु' की उपाधि दी गई थी । उसने संगीत पर एक पुस्तक 'नौरस' लिखी और दक्षिणी उर्दू को फारसी के स्थान पर राजभाषा बनाया। अली आदिलशाह के समय में बीजापुर दरबार में मुल्ला नुसरत को सम्मान प्राप्त था । उसने 'अलीनामा' और 'गुलशने इशाक' नामक ग्रन्थों की रचना की।

गुजरात में उर्दू

गुजरात में भी सूफी सन्तों ने उर्दू के विकास में अपना योगदान दिया । इनमें प्रमुख सन्त थे शेख कुतुब आलम और शेख अहमद खत्तू, जो तैमूर के आक्रमण (1398) के बाद गुजरात चले गये थे और जहाँ उन्होंने उर्दू में अपने शिष्यों और जनता को उपदेश दिया। 'मीराते सिकन्दरी' में उनके सिद्धान्तों और उपदेशों का विस्तृत वर्णन मिलता है। कुछ समय के बाद गुजरात में उर्दू लेखन की एक नयी शैली का आरम्भ हुआ, जिसे गुजराती शैली कहते हैं। 'जवाहरूल असरार' के लेखक शाह अली मुहम्मद जीव 'खूब तरंग' के लेखक खूब मुहम्मद चिश्ती, युसुफ जुलेखा के लेखक अमीन ने गुजराती शैली में ग्रन्थ लिखे ।

मुगल काल में उर्दू

अकबर और राजपूतों के घनिष्ठ सम्बन्ध के कारण उर्दू के विकास में सहायता मिलो । शाहजहाँ और औरंगजेब के समय में उर्दू का एक स्तर निर्धारित हुआ; और उस काल में रेखता (उर्दू) का पूर्ण रूप से विकास हुआ । इसी समय से उर्दू शायरी को परम्परा आरम्भ हुई । चन्दर भान ब्राह्मण, मुइजुद्दीन मुसावी खाँ जफर जताली, मिर्जा अब्दुल गनी कश्मीरी और मिर्जा बॅदिल इस काल के प्रमुख कवियों में थे, जिन्होंने उर्दू में शायरी लिखी । इन कवियों की रचनाओं ने उर्दू के विकास में एक नया मोड़ दिया ।

इस प्रकार उर्दू भाषा की उत्पत्ति एवं विकास दो संस्कृतियों के समीप आने का परिणाम है। किसी एक संस्कृति को इसकी उत्पत्ति का श्रेय नहीं है और न इसके विकास में किसी वर्ग विशेष का हाथ है ।

उर्दू के प्रमुख साहित्यकार

शम्सुददीन वली (1668-1744 ई0) को बहुत ही उचित रुप से उर्दू का 'बाबा आदमं कहा जाता है। वली का जन्म औरंगाबाद में हुआ था। सन् 1700 ई0 में वली दिल्ली आये और उन्होंने दिल्ली के प्रसिद्ध कवि तथा सूफी सन्त शाह सादुल्ला गुलशन शाह से दीक्षा ग्रहण की। वली ने फारसी विचारो और कल्पनाओं का उर्दू में व्यवहार किया। उदाहरणार्थ निम्न पंक्तियां प्रस्तुत हैं-

मुफ़्लिसी सब बहार खोती है

मर्द का ए'तिबार खोती है

शाह मुबारक 'आबरू' - आबरू ने मसनवी तथा गजलें लिखी थीं। इनकी रचनाओं में श्रृंगार-रस के नख-शिख वर्णन की रीति पर प्रेमिका की सुन्दरता, छबि और पहनावे का वर्णन प्रमुख है। इन्होंने अलंकारों का भी सुन्दर प्रयोग किया है। उदाहरणार्थ

फिरते थे दश्त दश्त दिवाने किधर गए

वे आशिक़ी के हाए ज़माने किधर गए.

जाते रहे पे नाम बताया न कुछ मुझे

पूछूँ मैं किस तरह कि फ़ुलाने किधर गए.

मीर तकी मीर- इस युग के सबसे प्रसिद्ध तथा सर्वश्रेष्ठ कवि मीर तकी मीर थे, जिन्होंने अपनी आत्मकथा 'जिक्र-ए-मीर' के नाम से लिखी है। मीर सन् 1725 में आगरा में पैदा हुए थे।

मीर की कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं-

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में

सारी मस्ती शराब की सी है

मीर की ग़ज़ल-

https://www.youtube.com/watch?v=Ch4lGXeW8C8

एक दूसरी ग़ज़ल

https://www.youtube.com/watch?v=e5V3e49XxFk

गालिब- गालिब का पूरा नाम मिर्जा असदउल्ला खाँ था और उपनाम 'गालिब' था। यह उर्दू साहित्य के सर्वोच्च शायर माने जाते हैं। गालिब की निम्न पंक्तियां उदाहरणार्थ प्रस्तुत हैं-

"हमको मालूम है. जन्नत की हकीकत लेकिन।

दिल के खुश रखने को 'गालिब' से ख्याल अच्छा है।।"

ग़ालिब की एक ग़ज़ल

https://www.youtube.com/watch?v=9Mso1drHQdE&list=PLHFIbZ0Hl7eZEYPCbOoefcxoT1cnh0Gk7&index=7

बहादुरशाह 'जफर' - यद्यपि अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर नाममात्र का बादशाह था और उसका बादशाह के रुप में इतिहास में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं था लेकिन उन्होंने उर्दू काव्य जगत में अपना एक उच्च स्थान बना लिया था।

"न किसी की आँख का नूर हूँ, न किसी के दिल का करार हूँ।

जो किसी के काम न आ सके, मैं वो एक मुश्ते गुबार हूँ।।

जो बिगड़ गया वो नसीब हूँ, जो उजड़ गया वो दयार हूँ।।"

जफ़र की एक गज़ल

https://www.youtube.com/watch?v=ha3V_87LvR0

एक दूसरी ग़ज़ल

https://www.youtube.com/watch?v=fg_yG47DBRs

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