शनिवार, 17 सितंबर 2022

डॉ. राममनोहर लोहिया : राष्ट्र की इतिहास मीमांसा तथा भविष्य निर्माण की दृष्टि


लेखक - राजीव कुमार पाण्डेय

डॉ. राममनोहर लोहिया के समर्थक उनमें भारतीय समाज और राजनीति के सभी प्रश्नों का उत्तर पाते हैं जबकि विरोधी उनके बारे में एक उपेक्षापूर्ण चुप्पी साधे रहते हैं। अपने राजनीतिक सक्रियता के काल में लोहिया सत्ता पक्ष और प्रतिष्ठान के बाहर रहे, यह बात उनके वैचारिक रुझान पर भी लागू होती है। जीवनपर्यंत समाजवादी रहे लोहिया का समाजवाद, इस विचार की स्थापित श्रेणियों में कहीं नहीं ठहरता है। डॉ लोहिया के राजनीतिक तथा बौद्धिक व्यक्तित्व के किसी अतिवादी प्रस्तुतीकरण के परे, एक सुसंगत आकलन का मोह उनकी बहुआयामी लेखनी तथा कार्यवाहियों के उन पक्षों की तरफ देखने की मांग करता है जिसमें लोहिया ने राष्ट्र के इतिहास को जाना, वर्तमान को समझा तथा उसके भविष्य के प्रारूप की कल्पना की

राष्ट्र की इतिहास मीमांसा

डॉ. लोहिया ने इतिहास के बारे में अपनी एक स्वतंत्र और मौलिक दृष्टि प्रस्तुत की जो ‘इतिहास-चक्र’ नामक पुस्तक के रूप में है। डॉ. लोहिया के इतिहास दर्शन में हिगेल की मानव-चेतना, मार्क्स का भौतिकवादी चिंतन, टायनबी का मानव संस्कृतियों में चुनौतियों से संघर्ष की क्षमता, साथ ही जर्मन इतिहासकार स्पेंगलर के सामर्थ्ययुक्त समाजों/नगरों द्वारा दुर्बल ग्रामीण समाजों के दोहन की बात भी सन्निहित रही। इस प्रकार डॉ. लोहिया ने मानव-चेतना और पदार्थ के गुणों और किसी देश-काल में उनके परस्पर संबंधों के स्वरूप को समझाते हुए इतिहास की संकल्पना का सुझाव दिया। उनके अनुसार उन संबंधों के सकारात्मक एवं नकारात्मक स्वरूप पर ही किसी सभ्यता का उत्थान और पतन निर्भर होता है

डॉ लोहिया ने इतिहास के अध्ययन की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए कहा कि मनुष्य को अपने भाग्य की बुराइयों के उत्पत्ति स्थल को खोज कर साफ करने में इतिहास पढ़ने से सहायता मिलती है, तभी वह समझ पाता है कि जीवित प्राणियों में व्याप्त बुराइयों को तत्काल समाप्त नहीं किया जा सकता अधिक से अधिक उनकी उत्पत्ति रोकी जा सकती है।[1] इतिहास के काल विभाजन को लेकर उनका यह सुझाव है कि विश्व के इतिहास को प्राचीन, मध्य और आधुनिक युग में बांटना, उनमें अबाध या रुक रुक कर हुआ उत्थान बताना एक सांस्कृतिक बर्बरता है।[2] हालाँकि विषय की सरलता तथा सम्यक विधि से अध्ययन के लिए उसका वर्गीकरण आवश्यक है लेकिन उसके मानक भिन्न होने चाहिए उनके अनुसार इतिहास चक्र बिना किसी भावना के चलता है। परिवर्तन इसकी विशेषता है उत्थान-पतन इसकी अवश्यंभावी प्रक्रिया है।[3]

डॉ. लोहिया मार्क्स के इतिहास-बोध और दर्शन को यूरोप के ऐतिहासिक अनुभवों का प्रतिबिम्ब मानते हैं। लोहिया का कहना है कि पश्चिम में पूंजीवाद के ऐतिहासिक विकास को एशिया, अफ्रीका तथा लातिनी अमेरिका जैसे देशों में हुए उपनिवेशीकरण और उनके दरिद्रीकरण  के संदर्भों से काटकर नहीं समझा जा सकता है। वे इस बात पर जोर देतें हैं कि पश्चिम के पूंजीवादी देशों में संपदा के संग्रहण और उपनिवेशीकरण के बीच एक नजदीकी संबंध है। उनका कहना है कि मार्क्स पूंजीवाद की पड़ताल यूरोप के खास ऐतिहासिक संदर्भ में करते हैं और साम्राज्यवाद को उसका आंतरिक तत्व न मानकर बाद की घटना मानते हैं। यहाँ लोहिया यह पूछते हैं कि क्या पूंजीवाद का विकास साम्राज्यवाद के बिना हो सकता था और फिर इतिहास से ढूंढ कर लाते हैं कि साम्राज्यवाद के पूर्व-पक्ष के बिना पूंजीवाद की कल्पना नहीं की जा सकती।

फिर उनकी मार्क्सवाद की आलोचना इस निष्कर्ष पर पहुँच जाती है कि इतिहास की मार्क्सवादी संकल्पना अंततः एक यूरो केंद्रित आख्यान है। जिसमें गैर यूरोपीय देशों का स्थान अधीनस्थ से ज्यादा नहीं होता। लोहिया को इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या में यह खोट भी दिखता है कि वह इतिहास को एक सीधी रेखा में चलने वाली प्रक्रिया की तरह प्रक्षेपित करती है जिसके  प्रस्थान बिंदु पर अनिवार्यता यूरोप स्थित होता है। मार्क्स की इतिहास दृष्टि में से लोहिया निष्कर्ष निकालते हैं कि वह गैर यूरोपीय देशों में किसी भी क्रांतिकारी पहल या बदलाव की संभावना को खारिज कर देती है। इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए लोहिया लगातार इस बात से आश्वस्त होते जाते हैं कि इतिहास की मार्क्सवादी दृष्टि यूरोपीय वर्चस्व कायम करने का औजार है।[4]

इस प्रकार लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों को बुराई की तरह देखते हैं। उन्होंने कहा था की साम्यवादी भी पूंजीवाद की तकनीकी में यकीन करता है। और भारी मशीनरी के उपयोग का पक्षधर है और वह केवल पूंजीवाद के उत्पादन संबंधों को ध्वस्त करता है ना कि उसके आधार को, उनका चिंतन कम्युनिज्म को यूरोप के ऐसे हथियार की तरह पेश करता है जिसके दम पर वह सिर्फ दुनिया पर कब्जा जमाना चाहता है

डॉक्टर लोहिया का कहना है की अबतक का समस्त मानव इतिहास वर्गों और वर्णों के बीच आंतरिक परिवर्तन है जो वर्गों के जकड़ से वर्ण बनाने और वर्णों की ढीले पड़ने से वर्ग बनाता है। वे लोग जो समाज से सभी वर्गों और वर्णों का अंत करना चाहते हैं उन्हें मानव इतिहास को चलाने वाली इस शक्ति को समझना होगा और समझकर ऐसे उपाय खोज निकालने होंगे कि दोनों का वस्तुतः अंत किया जा सके, क्योंकि इतिहास अपने आप यह नहीं करेगा।[5]

डॉक्टर लोहिया के अनुसार जातिवाद इतिहास की विकृत धरोहर है। इसने समाज के पतन में अहम भूमिका निभाई है मानव समाज का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि उसके संकट की शुरुआत जाति प्रथा के संरचना के अभ्युदय के साथ साथ हुई। जाति व्यवस्था की व्यापकता के बारे में डॉक्टर लोहिया ने स्पष्ट कहा है भारतीय जीवन में जाति सर्वाधिक प्रभावशाली तत्व है वे लोग जो इसे सिद्धांत में नहीं मानते उसे व्यवहार में स्वीकार करते हैं। जीवन जाति की सीमाओं में बधा हुआ रहता है और सुसंस्कृत लोग मुलायम आवाजों में जाति व्यवस्था के विरुद्ध बोलते हैं। पर अपने क्रिया में उसे अस्वीकार नहीं कर पाते हैं।[6] डॉक्टर लोहिया के अनुसार इस जाति प्रथा के कारण ही भारत दासता का शिकार हुआ था

डॉ राम मनोहर लोहिया ने नारी को भी एक जाति माना है। इतिहास इस बात का प्रमाण है कि पूरे विश्व में सदियों से नारियों के प्रति जो एक उदासीन दृष्टिकोण रखा गया है उसके कारण आज मानव जाति की निस्सहाय एवं दयनीय स्थिति है। नारी के प्रति दुर्व्यवहार, शिक्षा तथा अधिकारों से वंचित रखने की सदियों पूर्व से चली आ रही लंबी कहानी ने ना केवल नारियों की दयनीय स्थिति को सृजित किया है वरन मानव सभ्यता को कलंक के धब्बे से आच्छादित कर दिया है। लोहिया ने लिखा है कि हिंदुस्तान औरत दुनिया के दुखी लोगों में सबसे ज्यादा दुखी, भूखी, मुरझाई और बीमार है[7]

डॉक्टर लोहिया के अनुसार हिंदू और मुसलमानों के बीच मनमुटाव और मिथ्या धारणा का कारण इतिहास की गलत व्याख्या है। जिसमें आमतौर से जो भ्रम हिंदू और मुसलमान दोनों के मन में है वह यह है कि हिंदू सोचता है कि पिछले 700 से 800 वर्ष मुसलमानों का राज रहा है, मुसलमानों ने जुल्म और अत्याचार किया। और मुसलमान सोचता है चाहे वह गरीब से गरीब ही क्यों ना हो कि 700 से 800 बरस हमारा राज था और अब हमको इतने बुरे दिन देखने पड़ रहे हैं[8]

इस प्रकार डॉक्टर लोहिया ने राष्ट्र के ऐतिहासिक दृश्य को अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक दृष्टि से समझा तथा परखा। सांस्कृतिक इतिहास के नाम पर भारत में जिस वातावरण को देखा और भोगा उसे उन्होंने एक शब्द में नाम दिया “कीचड़”। यह कीचड़ हजारों वर्षों की सड़ी हुई उस परंपरा से पैदा हुआ है जिसके सभी जीवनतत्व या तो नष्ट हो गए हैं या भुला दिए गए हैं। धर्म, राजनीति, व्यापार इत्यादि सभी मिलकर उस कीचड़ को संजोकर रखने की साजिश कर रहे हैं जिसे संस्कृति के नाम से पुकारा जाता है।[9]

भविष्य निर्माण की दृष्टि

राष्ट्र निर्माण की उनकी भविष्य दृष्टि ने समाजवाद के यूरोपीय मॉडलों को खारिज कर विकल्प के लिए गांधी की ओर रुख किया। उन्हें लगा कि भारत में समाजवाद के प्रयोग की सफलता इस बात से तय होगी कि गांधी के विचारों की पुनर्रचना किस तरह से की जाती है। लोहिया ने गांधी के विचारों को भक्ति भाव से ग्रहण नहीं किया और सचेत रहे कि गांधी का राजनीतिक दलों और व्यक्तियों ने अलग-अलग प्रयोजनों के लिए विनियोग किया है। यही वजह है कि लोहिया ने गांधीवाद के जिन विचारों को ग्रहण किया वह गांधीवाद की अन्य धाराओं से सैद्धांतिक और राजनीति का अर्थ में खासा अलग था। लोहिया ने अपने को ‘कुजात गाँधीवादी’ तथा ‘नास्तिक गांधीवादी’ घोषित करते हुए सर्वोदय आंदोलन के गांधीवाद को ‘आश्रम गांधीवाद’ करार दिया और भारतीय राज्य गांधी का जिस रूप में आवाहन कर रहा था उसके लिए ‘सरकारी गांधीवाद’ का मुहावरा दिया। गौरतलब है कि गांधीवाद की विभिन्न किस्मों पर सवाल उठाते हुए लोहिया गांधीवाद के किसी शुद्ध संस्करण की खोज करते नहीं दिखते हैं। इनका इरादा असल में गांधी से केवल ऐसे तत्व को ग्रहण करना था जो भारतीय समाजवाद के निर्माण में उपयोगी हो। अपने राजनीतिक जीवन में लोहिया नेहरू के उस मॉडल से लगातार संघर्ष करते रहे जिसे वे ‘सरकारी समाजवाद’ करते हैं लोहिया समाजवाद के जिस प्रारूप पर जोर दे रहे थे वह छोटी मशीनों के उपयोग पर आधारित था। और उसके मूल में आर्थिक विकेंद्रीकरण का विचार था उनका स्पष्ट मानना था कि आर्थिक विकेंद्रीकरण के बिना राजनीतिक विकेंद्रीकरण भी संभव नहीं है। लोहिया के समाजवाद और नेहरू के समाजवाद में बुनियादी अंतर यह था कि लोहिया के समाजवाद की मूल चालक शक्ति साधारण जनता में थी जबकि नेहरू की समाजवादी संकल्पना राज्य की पहलकदमी से शुरू होती थी।[10]

डॉ. लोहिया ने पूर्व और पश्चिम के ऐतिहासिक संघर्षों से प्रेरणा ग्रहण कर ‘सप्तक्रांति’ के सूत्र विकसित किए: (1) नर-नारी की समानता के लिए क्रान्ति, (2) चमड़ी के रंग पर रची राजकीय, आर्थिक और दिमागी असमानता के खिलाफ क्रान्ति, (3) संस्कारगत, जन्मजात जातिप्रथा के खिलाफ और पिछड़ों को विशेष अवसर के लिए क्रान्ति, (4) परदेसी गुलामी के खिलाफ और स्वतन्त्रता तथा विश्व लोक-राज के लिए क्रान्ति, (5) निजी पूँजी की विषमताओं के खिलाफ और आर्थिक समानता के लिए तथा योजना द्वारा पैदावार बढ़ाने के लिए क्रान्ति, (6) निजी जीवन में अन्यायी हस्तक्षेप के खिलाफ और लोकतंत्री पद्धति के लिए क्रान्ति, (7) अस्त्र-शस्त्र के खिलाफ और सत्याग्रह के लिये क्रान्ति।[11] इनके सम्बन्ध में लोहिया ने कहा कि मोटे तौर से ये सातों क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही हैं। अपने देश में भी उनको एक साथ चलाने की कोशिश करना चाहिए। जितने लोगों को भी क्रांति पकड़ में आयी हो उसके पीछे पड़ जाना चाहिए और बढ़ाना चाहिए। बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाये कि आज का इन्सान सब नाइन्साफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाये कि जिसमें आन्तरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाये। वे विश्व शांति के पैरोकार थे पर चीनी हमले के बाद उन्होंने यह मांग उठाई कि भारत को एटम बम बनाना चाहिए।

डॉक्टर लोहिया के राजनीतिक चिंतन में चौखंभा योजना का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने यह योजना प्रस्तुत करके राजनीतिक शक्तियों के विकेंद्रीकरण का सुझाव दिया जो व्यक्ति की राजनीतिक स्वतंत्रता का परिचायक है। डॉक्टर लोहिया समाजवाद को प्रजातंत्र के बिना अधूरा मानते थे दो खंभों केंद्र एवं प्रांत वाली संघात्मक व्यवस्था को उन्होंने अपर्याप्त माना और इसलिए उन्होंने अपनी चौखंभा योजना के अंतर्गत ग्राम, मंडल, प्रांत और केंद्र इन चार समान प्रतिभा और सम्मान वाले खम्भों में शक्ति के विकेंद्रीकरण का सुझाव दिया। जो आगे चलकर पंचायती राजव्यवस्था के रूप में फलीभूत हुआ।

लोहिया भारतीय भाषाओं के हिमायती थे। और देश की शिक्षा व्यवस्था, प्रशासन और सार्वजनिक जीवन में अंग्रेजी के प्रभुत्व को सत्ता संरचना के साथ जोड़कर देखते थे। इस संदर्भ में लोहिया की युक्ति एक समाजशास्त्रीय अंतर्दृष्टि की हैसियत रखती है कि भारत में ऊंची जात, संपत्ति तथा अंग्रेजी का ज्ञान तीन ऐसे कारक हैं जिससे तय होता है कि सत्ता की संरचना में व्यक्त की स्थिति क्या होगी।[12] उनके मुताबिक अगर इन तीन कारकों में से किसी के पास दो चीजें हो तो वह शासक वर्ग का हिस्सा बन जाता है। इस तरह लोहिया अंग्रेजी का विरोध सिर्फ इसलिए नहीं कर रहे थे क्योंकि वह एक विदेशी भाषा थी। उनका विरोध इस समझ पर टिका था कि भारत जैसे देश में अंग्रेजी असमानता और सांस्कृतिक आधिपत्य की वाहक बन गई थी। अंग्रेजी को शोषण का औजार मानते थे उनका कहना था कि अंग्रेजी का समर्थक वर्ग असल में शोषक वर्ग है। उनका कहना था कि अंग्रेजों ने भारत में बंदूक की गोली और अंग्रेजी की बोली के दम पर शासन किया।[13]

हिंदुस्तान की सांस्कृतिक जकड़बंदी से मुक्ति दिलाने के उनके अभियान के दो मोर्चे हैं शूद्र और नारी। इसी को प्रतीक के रूप में वे सीता-शम्बूक धुरी भी कहते हैं। उन्हें यकीन था कि एक  दिन पूरा समाज इसका भयंकर बदला चुकाएगा[14] इस संदर्भ में उनके दो लेख वशिष्ठ और वाल्मीकि तथा द्रोपदी और सावित्री देखने योग्य है। डॉक्टर लोहिया ने जाति व्यवस्था के  उन्मूलन के लिए आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक उपायों को प्रस्तावित किया आध्यात्मिक स्तर पर ब्रह्म ज्ञान तथा अद्वैतवाद को अपनाया जाए,[15] सामाजिक स्तर पर अंतरजातीय खानपान तथा अंतरजातीय विवाह को अपनाया जाए,[16] आर्थिक स्तर पर उन्होंने जमीन का पुनर्वितरण, मजदूरी में वृद्धि तथा ऊंची तथा नीची आमदनी में एक मर्यादा बांधने की वकालत की,[17] तथा राजनीतिक स्तर पर भागीदारी बढ़ाने का प्रस्ताव दिया। डॉक्टर लोहिया ने स्त्री शिक्षा के द्वारा उन्हें बुद्धिमान, विवेकी, क्रांतिपूर्ण और ज्ञानी बनाना चाहते थे। इस संदर्भ में वे ‘पहले योग्यता फिर अवसर’ के सिद्धांत के विरोधी थे वह ‘पहले अवसर फिर योग्यता’ को देखना चाहते थे। वे समान कार्य के लिए समान वेतन तथा उनकी राजनीतिक भागीदारी के पैरोकार थे।

हिंदू-मुस्लिम संबंधों को ठीक करने के लिए डॉक्टर लोहिया के मत में मुख्यता पांच प्रकार के सुधार इस दिशा में किए जा सकते हैं पहला हृदय परिवर्तन, दूसरा इतिहास की सही व्याख्या, तीसरा धार्मिक एवं सामाजिक प्रयास, चौथा राजनीति में सुधार तथा पांचवा भाषा संबंधी उदार नीति।

राममनोहर लोहिया अक्सर कहा करते थे कि मैं चाहता हूं कि इंसान की जिंदगी में राम की मर्यादा, कृष्ण की उन्मुक्तता, शिव का संकल्प, मुहम्मद की समता, महावीर-बुद्ध की ऋजुता और यीशु की ममता सब एक साथ ही समाहित हो जाए।[18] भारत-पाकिस्तान युद्ध में बलि देने वाले अब्दुल हमीद के घर जाते समय एक बार उन्होंने कहा था-‘‘बलिदान में हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। भारत सर्वधर्मियों की मातृभूमि है, इसका साक्षात्कार होता है।’’ भारतमाता से लोहिया की एक ही माँग थी-हे भारतमाता! हमें शिव का मस्तिष्क और कृष्ण के उन्मुक्त हृदय के साथ-साथ राम के जीवन की मर्यादा से रचो।[19] इस प्रकार उनकी कल्पना में एक अध्यात्मिक राष्ट्र भी था

निष्कर्ष

इस प्रकार लोहिया जिनका मत था कि सिद्धांत दीर्घकालीन कार्यक्रम है और कार्यक्रम अल्पकालिक सिद्धांत, धर्म दीर्घकालीन राजनीति है और राजनीति अल्पकालिक धर्म, रूशो के समान उनकी ऐसी कई उक्तियाँ हैं जो विरोधाभासपूर्ण प्रतीत होती हैं। उन्हें समझने के लिए गहने दृष्टि की आवश्यकता है डॉक्टर लोहिया के राजनीतिक चिंतन की यह विशेषता थी कि वह वर्तमान की राजनीति को सुदूर अतीत से और सुदूर भविष्य की राजनीति को वर्तमान से जोड़ते थे। लोहिया की आंदोलनात्मक कार्यनीति वोट, फावड़ा और जेल की थी जो कुछ आकर्षक  नारों जैसे ‘पिछड़े पावें सौ में साठ’ ‘जिन्दा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती’ में दिखती है। इस तरह उनके ऐतिहासिक विमर्श तथा राजनीतिक दृष्टि में ऐसे कई पहलू हैं जो एक जनोन्मुखी लोकतान्त्रिक राष्ट्र राज्य के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं।

सन्दर्भ



[1] लोहिया  डॉ राम मनोहर. इतिहास चक्र, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1977, पृष्ठ. 8.

[2] वही, पृष्ठ. 18

[3] वही, पृष्ठ. 7

[5] लोहिया  डॉ राम मनोहर. इतिहास चक्र,  लोकभारती प्रकाशन,  इलाहाबाद, 1977, पृष्ठ. 49.

[6] डॉ लोहिया, जाति प्रथा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 78.

[7] उद्धरित, रजनीकांत वर्मा, लोहिया और औरत, श्री विष्णु आर्ट प्रेस, इलाहाबाद, 1969, पृष्ठ. 27. 

[8] डॉ लोहिया, देश गरमाओ, राम मनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1970, पृष्ठ. 79.

[10] दुबे अभय कुमार. समाज-विज्ञान विश्वकोश, खण्ड 6, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, 2016 , पृष्ठ. 2269.

[11] डॉ लोहिया, सात क्रांतियाँ, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1966,

[12] डॉ लोहिया, भाषा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964

[13] वही

[14] डॉ लोहिया, जाति प्रथा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 8.

[15] डॉ लोहिया, धर्म पर एक दृष्टि, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, पृष्ठ. 16.

[16] डॉ लोहिया, जाति प्रथा, नव हिन्द प्रकाशन, हैदराबाद, 1964, पृष्ठ. 4.

[17] डॉ लोहिया, निराशा के कर्तव्य, समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1970, पृष्ठ. 28.

[18] डॉ लोहिया, मर्यादित, उन्मुक्त और असीमित व्यक्तित्व और रामायण मेला, राम मनोहर लोहिया समता विद्यालय न्यास, हैदराबाद, 1962

[19] डॉ लोहिया, इंटरवल ड्यूरिंग पोलिटिक्स, पृष्ठ 48-49


अकबर - शाजी ज़मा : पुस्तक समीक्षा

 


अलाउद्दीन ख़लजी का राजत्व सिद्धांत

अपने चाचा, श्वसुर, प्रश्रयदाता सुल्तान की हत्या के पश्चात् अलाउद्दीन ख़लजी सिंहासनारूढ़ हुआ, तब अलाउद्दीन ने सैनिक शक्ति के द्वारा सिंहासन प्राप्त किया था। राजपद के लिए अमीरों ने उसका निर्वाचन नहीं किया था और वह राजपद का उत्तराधिकारी भी नहीं था। उसके राज्यारोहण में उलेमा वर्ग की भी कोई भूमिका नहीं थी। उसने सुल्तान की हत्या करके सफल विद्रोह तथा धन के द्वारा सिंहासन पर अधिकार किया था। अतः उसकी शक्ति का आधार सेना थी। इसी सैनिक शक्ति के द्वारा उसने प्रतिद्वन्दियों को नष्ट किया और अपना राजपद सुरक्षित किया। अतः प्रारम्भ से ही उसकी सत्ता निरंकुश थी, चूँकि इसका आधार सेना थी। अतः इसे निरंकुश सैनिकवाद कहा गया है।

1.    सुल्तान पद की प्रतिष्ठा : बलबन की परम्पराओं का पुनर्स्थापन

बलबन की मृत्यु के पश्चात् उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के काल में सुल्तान पद की प्रतिष्ठा नष्ट हो गई थी और विभिन्न अमीर पुनः शक्तिशाली हो गए थे। नाजिमुद्दीन, सुरखा और कच्छन ऐसे ही अमीर थे जो राजसत्ता पर अधिकार करना चाहते थे। अलाउद्दीन ने सुल्तान पद की प्रतिष्ठा को फिर स्थापित किया। उसने बलबन की परम्पराओं को पुनः इस प्रकार स्थापित किया कि सरदारों को आतंक और नियन्त्रण में रखा जा सके।

2.   दैवी-सिद्धान्त : 'नियाबत-ए-खुदाई' एवं 'जिल्ल-ए-अल्लाह'

अलाउद्दीन ने राजत्व की धारणा के बारे में बलबन के विचारों का अनुसरण किया। बलबन के समान वह राजत्व के दैवी सिद्धान्त में विश्वास रखता था। उसका विश्वास था कि राजा सामान्य मनुष्यों से पृथक्, उच्च और दैवी शक्ति सम्पन्न होता है। अतः राजा की इच्छा ही कानून थी और सारी प्रजा उसको मानने के लिए बाध्य थी। वह भी राजत्व को 'नियाबत-ए-खुदाई' एवं सुल्तान को 'जिल्ल-ए-अल्लाह' मानता था।

3.   अमीरों पर नियन्त्रण : जलाली अमीरों का नाश

सुल्तान की सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए आवश्यक था कि उन दो बाधाओं को हटाया जाए जो सुल्तान की सत्ता पर अंकुश का काम करते थे। ये दो बाधाएँ थीं—अमीर और उलेमा वर्ग। अलाउद्दीन ने जलाली सरदारों को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। जिन सरदारों को उसने नियुक्त किया, उनको नियन्त्रण में रखने के लिए उसने कठोर नियम बनाए और उन्हें कठोर दण्ड दिये। बरनी लिखता है कि अमीर वर्ग इतना भयभीत रहता था कि वे केवल इशारों से बात करते थे।

4.   उलेमा वर्ग की उपेक्षा : मुझे नहीं पता

सुल्तान की निरंकुशता पर दूसरी बाधा उलेमा वर्ग था जिसका दिल्ली सुल्तानों पर प्रभाव रहा था। अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग को भी इतना दुर्बल कर दिया कि वे उसकी नीतियों पर प्रभाव नहीं डाल सकते थे। उसने माफी की जमीनों पर लगान लगा दिया तथा इस वर्ग पर वे सब कर लगा दिये गए जो सामान्य लोगों पर लगते थे। इससे यह वर्ग आर्थिक रूप से दुर्बल हो गया। सुल्तान ने काजी मुगीसुद्दीन से अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा था कि, “मैं नहीं जानता हूँ कि शरीयत की नजरों में क्या उचित है और क्या अनुचित, मैं राज्य की भलाई अथवा अवसर विशेष के लिए जो उपयुक्त समझता हूँ, उसी को करने का आदेश देता हूँ। अन्तिम न्याय के दिन मेरा क्या होगा, यह मैं नहीं जानता हूँ।” इस प्रकार अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने राज्य पर धर्म का नियन्त्रण समाप्त कर दिया।

5.   वंशवाद की उपेक्षा : योग्यता का सम्मान

अलाउद्दीन खिलजी के राजत्व सिद्धान्त में वंशवाद का स्थान नहीं था। उसने बलबन की उच्च वंश की धारणा को अस्वीकार कर दिया। बलबन एक गुलाम था, उसके लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह अन्य गुलामों से स्वयं को पृथक् करे। इसलिए काल्पनिक वंशों से अपना सम्बन्ध जोड़ा लेकिन अलाउद्दीन ने ऐसा नहीं किया। उसका राजत्व शक्ति के सिद्धान्त पर आधारित था।

6.   खलीफा को महत्व न देना : मुझे जरुरत नहीं

अलाउद्दीन ने अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए खलीफा के नाम का सहारा नहीं लिया। जिस प्रकार उसने उलेमा वर्ग की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था, उसी प्रकार उसने खलीफा की सत्ता को भी अस्वीकार कर दिया। उसने कभी खलीफा से अधिकार पत्र प्रदान करने की प्रार्थना नहीं की। लेकिन उसने स्वयं को खलीफा का नायब घोषित किया।

7.   सैनिकवाद : संसाधनों की लामबंदी

अलाउद्दीन की शक्ति का आधार सेना थी। सेना के द्वारा ही उसने राजसत्ता पर अधिकार किया था। सेना की शक्ति के कारण वह खलीफा, शरियत, उलेमा और अमीर सबकी उपेक्षा कर सका था। उसने सेना की शक्ति के कारण ही राज्य की सर्वोच्चता स्थापित की थी। उसने स्थायी सेना का निर्माण किया और अमीरों को सेना रखने की आज्ञा नहीं दी। अतः उसके राज्य को सैनिक तन्त्र कहा गया है। उसने एक मजबूत सैन्यतंत्र के लिए अपने संसाधनों की लामबंदी की थी, कुछ प्रशासनिक सुधार, भूराजस्व तथा बाजार नियंत्रण व्यवस्था को हम इस रूप में भी देख सकते हैं।

8.   प्रबुद्ध निरंकुशता : मजलिस-ए-खास की राय

रणथम्भौर की घेरेबन्दी के दौरान उसने निरन्तर 'मजलिस-ए-खास' (गोपनीय परिषद अथवा परामर्शदात्री समिति) की निरन्तर बैठकें कीं, ताकि लगातार हो रहे विद्रोहों के उन कारणों का निश्चित निर्धारण हो सके । तत्पश्चात् उसी के अनुकूल उपर्युक्त आवश्यक कार्यवाही भी हो सके। उपरोक्त प्रकरण इस बात की द्योतक है कि निरंकुश शासक होकर भी वह अपनी परामर्शदात्री समिति की आवश्यकता को समझता है एवं विधिक कार्यवाही करता है। वह वस्तुतः गुप्तचर प्रणाली की स्थापना, अमीरों की अन्तर्क्रिया एवं वैवाहिक गठबन्धनों पर प्रतिबन्ध लगाना ; मद्यपान की गोष्ठियों पर प्रतिबन्ध लगाना एवं उत्पीड़क कर प्रणाली एवं ज़ब्ती आदि कदम उठाता। वह विद्रोहों को समूल रूप से नष्ट करने हेतु उक्त समिति के द्वारा सुझाए गए उपाय हैं।

9.   राजत्व के अमरत्व की प्यास : पैगंबर और सिकंदर

बरनी के अनुसार अलाउद्दीन ने यह घोषणा की कि अरब के पैगंवर के चार मित्र थे जिनकी सहायता से उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया जिसके फलस्वरूप प्रलयकाल तक उनके नाम का स्मरण किया जाएगा। अलाउद्दीन के भी 'चार ख़ान' थे अर्थात, उलुग, नुसरत, जफ़र और अलप जो शासकों के वैभव के समान थे। उनकी सहायता से वह एक नया धर्म प्रचलित करेगा और चिरकालीन ख्याति प्राप्त करेगा।  इसी समय अलाउद्दीन ने 'द्वितीय सिकंदर'  का ख़िताब धारण किया और 'खुत्बे' में उसे सम्मिलित कर अपने सिक्कों पर भी अंकित किया। लेकिन अलाउद्दीन के भ्रांतिपूर्ण विचार दूर करने के लिए बरनी अपने चाचा अलाउलमुल्क को श्रेय देता है। सुल्तान मे उसे यह वचन दिया कि वह कभी नया धर्म स्थापित करने की बात अपने मुख पर न लाएगा। जहां तक विजयों का संबंध है कोतवाल ने अलाउद्दीन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि उसका कार्य क्षेत्र 'भारत देश' है।

इस प्रकार अलाउद्दीन ने एक तरफ बलबन के लोहे की नीति को अपनाया वहीं दूसरी तरफ नस्लवाद अर्थात रक्त की नीति को अस्वीकार कर दिया, उसी प्रकार उसने जलालुद्दीन खलजी से नस्लवाद के विरोध की नीति ली परंतु परोपकार की नीति को अस्वीकार कर दिया। अलाउद्दीन ने यह घोषित किया कि राजत्व रक्त संबंध नहीं जानता। यह प्रकारान्तर  से नस्लवाद की नीति की अवहेलना थी । इस प्रकार उसने अमीर वर्ग का दरवाजा और गैरतुर्की लोगों के लिए खोल दिया। दूसरी तरफ उसने राजनीति के धर्म निरपेक्षीकरण  को भी प्रोत्साहन दिया। उसने धर्म को राजनीति से पृथक करने का भी प्रयास किया।

बलबन का राजत्व

बल्बन दिल्ली का एकमात्र सुल्तान है जिसने राजत्व संबंधी अपने विचारों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया। सुल्तान के उच्च पद और शासक के दायित्व के विषय में कुछ न कुछ कहने के लिए वह कोई अवसर नहीं खोता था इसकी शुरुआत तभी हो गई थी जब वह नासिरुद्दीन महमूद का प्रधानमंत्री बना। हबीबुल्लाह का कहना है कि महमूद ने लगभग 20 वर्षों तक राज्य किया परन्तु शासन नहीं किया, शासन तो बलबन ने किया था  

राजत्व की जोरदार अभिव्यक्ति का कारण

इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि राजमुकुट को एक उच्च और सम्मानित स्तर पर स्थापित करने के लिए तथा सामंतशाही से संघर्ष और विरोध की समस्त संभावनाएं समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था किंतु इन निरंतर उपदेशों के पीछे उसकी हीन भावना और अपराध भाव की जटिल प्रक्रिया का भी आभास मिलता है।

1.    राजहंता का कलंक

अपने मलिकों और अमीरों जिनमें अधिकांश उसके सहचर थे, के कानों में निरंतर चिल्ला चिल्ला कर यह कहने से कि राजत्व एक दैवी संस्था है, उसका यह उद्देश्य था कि राज्यहंता का जो कलंक उसके माथे पर लगा था, उसे धो डाले और उनके मन में यह विचार भलीभांति बिठा दे कि वह देवेच्छा से ही सिंहासनारूढ़ हुआ है न कि किसी हत्यारे के विष भरे प्याले या कटार से।

2.   दासता के कारण कानूनी अयोग्यता

इसके अतिरिक्त मिनहाज या बरनी के इतिहास में उसकी दासता से मुक्ति के विषय में कोई संदर्भ न होना भी महत्वपूर्ण है। संभवतः वह दासता से कभी मुक्त नहीं किया गया। अपनी इस मौलिक क़ानूनी अयोग्यता के कारण वह जनता पर शासन करने का अधिकारी नहीं था और इसी को छिपाने के लिए उसने "दैवी दायित्व" की आड़ लेकर अपनी सत्ता को वैधानिक रूप देने का चालाकी से प्रयत्न किया।                

                    बलबन के राजत्व के सैद्धांतिक और फारसी तत्व

बल्बन के राजत्व सिद्धांत का स्वरूप और सार सस्सानी परसिया से लिया गया था जहां राजत्व उच्चतम स्तर तक ले जाया जा चुका था और उसके अलौकिक और दैवी गुण सार्वजनिक रूप से मान लिए गए थे ताकि सस्सानी साम्राज्यवादी वंश का व्यक्ति ही सिंहासनारूढ़ हो सके। अपने राजनीतिक आदर्श के लिए वह फारस के पौराणिक वीरों से प्रेरणा लेता था और जहां तक संभव हो सकता था उनका अनुसरण करने का प्रयत्न करता था। उसके राजत्व सिद्धांत के मूल तत्व इस प्रकार हैं :

1.    राजपद की गरिमा : राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि

राजा पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधि 'नियाबते खुदाई' है और मान-मर्यादा को दृष्टि से वह केवल पैगंबरी के बाद ही है। राजा ईश्वर का प्रतिबिम्ब (जिल्ले अल्लाह) है और उसका हृदय दैवी प्रेरणा और क्रांति का भंडार है। अपना राजसी दायित्व पूर्ण करने के लिए वह निरंतर ईश्वर द्वारा प्रेरित और निर्देशित होता रहता है। इस विचारधारा का वास्तविक अर्थ यह था कि राजा की शक्ति का स्रोत सामंतवर्ग या जनता नहीं बल्कि केवल ईश्वर है और फलस्वरूप उसके कार्य सार्वजनिक जांच के अधीन नहीं हैं। यह एक जटिल धार्मिक युक्ति थी जिस से वह अपनी निरंकुश सत्ता को पवित्र बनाना चाहता था। दिखावटी मान मर्यादा और प्रतिष्ठा राजत्व के लिए महत्वपूर्ण बनाई गई। अपने संपूर्ण शासन काल में बल्बन सदैव जन साधारण से दूर रहा और इस धारणा को वह इतनी दूर ले गया कि वह साधारण व्यक्तियों से बात करना भी पसंद नहीं करता था। फख्र बावनी नामक दिल्ली के एक धनी व्यक्ति ने राजमहल के अधिकारियों को रिश्वत देकर सुल्तान से भेंट करनी चाही किंतु सुल्तान ने अपने अधिकारियों का निवेदन अस्वीकार कर दिया। राजत्व की मान मर्यादा से संबंधित तत्वों के महत्व ने उसे शिष्टाचार का आग्रही बना दिया था। वह दरबार में अपने संपूर्ण राजसी वैभव और उपकरणों के बिना कभी उपस्थित न होता था उसके निजी सेवकों ने भी कभी उसे शाही पोशाक, मोजे और मुकुट के बिना न देखा।

2.   कुलीनता पर जोर : सम्मान के लिए दूरी

बलबन सदैव कुलीन और अकुलीन परिवार के व्यक्तियों के अंतर के महत्व पर बल दिया करता था। वह अकुलीन परिवार के व्यक्तियों से संपर्क रखना या शासन में किसी पद पर उनकी नियुक्ति को शासक की मान मर्यादा गिराने वाला समझता था। उसने तुच्छ कुल में जन्में सभी व्यक्तियों को  महत्वपूर्ण पदों से निकाल दिए। अपने दरबारियों को कमाल महियार नामक एक नए मुसलमान का अमरोहा के मुतसरिफ़' के पद पर चयन किए जाने पर बहुत डांटा। कहते हैं कि उसने कहा कि, 'जब मैं किसी तुच्छ परिवार वाला व्यक्ति देखता हूं तो मेरे शरीर की प्रत्येक नाड़ी क्रोध से उत्तेजित हो उठती है। वंशावली बलबन की सनक बन गई। वह स्वयं अपनी वंशावली फिरदौसी के 'शाह नामा' में उल्लिखित पौराणिक अफ़रासियाब से जोड़ता था और यह बात बड़े गर्व और अहंकार से अपने दरबार में कहता था। अपने एक पत्र में सैय्यद अशरफ़ जहांगीर सम्नानी लिखते हैं कि बलबन ने अपने समस्त अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों के परिवारों के विषय में जांच कराई। देश के सभी प्रदेशों से वंशावली के विशेषज्ञ दिल्ली में एकत्रित हुए थे ताकि वे इन लोगों के पारिवारिक स्तर निश्चित करने के लिए उसकी सहायता करें। 

3.   फ़ारस के रीतिरिवाजों तथा परंपरा पर जोर : संस्कृतिकरण

बलबन की यह धारणा थी कि फ़ारस के रहन-सहन की परंपराएं अपनाए बिना राजत्व संभव नहीं है। अपने निजी तथा सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक विषय में वह फ़ारस के रीतिरिवाजों का अत्यंत सावधानी से अनुसरण करता था। राज्यारोहण के 'पूर्व' उसके जिन पुत्रों का जन्म हुआ उनका नाम उसने महमूद और मुहम्मद रखा किंतु उसके पौत्र जो सिंहासनारोहण के बाद उत्पन्न हुए उनके नाम फ़ारस के सम्राटों की भांति कैकूबाद, कैखुसरो रखे गए।

4.   खलीफा को मान्यता : धार्मिक युक्ति

प्रायः बल्बन राजनीतिक शक्ति का प्रयोग करने के लिए ख़लीफ़ा की अनुमति लेने की चर्चा किया करता था। वह बग़दाद के पतन और ख़लीफ़ा के अंत के विषय में जानता था फिर भी वह ख़लीफ़ा को जो समस्त मुसलमानों के राजनीतिक संप्रदाय का नेता था, राजनीतिक सत्ता की मान्यता पर बल देता था। उसके सिक्कों पर दिवंगत ख़लीफ़ा का नाम अंकित होता था और मस्जिदों के 'खुत्बे' में उसे पढ़ा जाता था।

5.   बलबन का दरबार : भौकाल

बल्बन ने अपना दरबार ईरानी परंपरानुसार संगठित किया और सस्सानी के शिष्टाचार और औपचारिकता को बड़ी सावधानी और विस्तारपूर्वक ग्रहण किया। सूर्य के समान चमकते अपने चेहरे पर जिस पर कपूर जैसी सफ़ेद दाढ़ी थी। वह अपने सिंहासन पर महान सस्सानी शासकों की भांति बैठता था। सोलहवीं शताब्दी का एक लेखक फ़िजूनी अस्तराबादी कहता है कि उसके लंबे चेहरे पर लंबी दाढ़ी थी और वह बहुत ऊंचा मुकुट इस तरह पहनता था कि उसकी दाढ़ी के अंतिम छोर से उसके मुकुट के शिखर तक लगभग एक गज की लंबाई होती थी। इस भय उत्पन्न करने वाले व्यक्तित्व के साथ दरबार की प्रतिभा और शिष्टाचार तथा औपचारिकता के छोटे-छोटे तत्व जुड़े रहते थे' 'हाजिब' 'सलाहदार' 'जानदार' 'चाऊश' तथा 'नक़ीब' आदि बड़ी गंभीर मुद्रा में मौन होकर उसके चारों ओर खड़े रहते थे। सुल्तान 'सिजदा' (घुटनों पर बैठ कर शीश नवाना) और 'पायबोस' ( चरणस्पर्श ) की परंपरा को उन सभी व्यक्तियों से पूरे करने का आग्रह करता था, जिन्हें उसके समक्ष उपस्थित होने का विशेषाधिकार प्राप्त होता था। उसकी उपस्थिति में कोई मजाक़ या फालतू बातचीत संभव नहीं थी सिंहासन के पीछे केवल कुछ विश्वसनीय मलिक और विश्वासपात्र बैठते थे। अन्य लोग उसके सामने अपने पद और स्थिति के अनुसार खड़े रहते थे। सुल्तान अपने पद की प्रतिष्ठा बनाए रखने के लिए बड़ी गंभीर मुद्रा में बैठता था। कभी किसी व्यक्ति ने उसे हंसते हुए या साधारण अवस्था में नहीं देखा। उसके जीवन में बड़े भयंकर व्यक्तिगत तूफ़ान तीव्र और अनपेक्षित रूप से आए। अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक दरबार की औपचारिकताओं का यह सनकी अपने लिए निर्धारित कठिन कार्यक्रम का सावधानी से अनुसरण करता रहा। समारोहों के समय दरबार एक अद्भुत शानशौकत का स्थल दिखाई देता था। कढ़े हुए क़ालीन, सजावटी परदे, रंगबिरंगे वस्त्र, तथा सोने-चांदी के बर्तन देखने वालों की दृष्टि चकाचौंध कर देते थे। दरबानों के स्वर दो कोस तक सुनाई देने थे। बरनी लिखता है कि, 'इन समारोहों के कई दिन बाद तक लोग दरबार की सजावट के विषय में बातें किया करते थे।' विदेशों से जब राजदूत उसके दरबार में आते थे तो वे अवाक और आश्चर्यचकित रह जाते थे। जब सुल्तान जुलूस में निकलता था तो सीस्तानी सैनिक नंगी तलवारें लेकर उसके साथ चलते थे। सूर्य की चमक, तलवारों की जगमगाहट और उसके चेहरे की कांति सभी सामूहिक रूप से एक प्रभावशाली दृश्य प्रस्तुत करते थे। जब शाही जुलूस बाहर निकलता था तो ' बिस्मिल्ला ! बिस्मिल्ला !' के नारे वातावरण चीरते थे। शक्ति, सत्ता और प्रतिष्ठा का यह प्रदर्शन जो अभिन्न रूप से उसके मस्तिक में जमा रहता था, उसके राजत्व सिद्धांत सहित देश के अत्यंत उद्दंड को भी आज्ञाकारी बना देता था और जनसाधारण के मन में भय एवं आतंक उत्पन्न करता था।

 

                  राजत्व को संबल देने वाले व्यवहारिक तत्व

1.   सेना का पुनर्गठन : हिंसा के साधनों पर एकाधिकार

सेना का पुनर्गठन राजनीतिक अनुभव से बल्बन ने यह सीखा था कि सेना शासन का मूल स्तंभ है। इसलिए अन्य किसी विभाग के पूर्व उसका संगठन आवश्यक था। इल्तुतमिश द्वारा प्रचलित परंपराओं की गति मंद पड़ गई थी और इसलिए सेना का संपूर्ण पुनर्गठन आवश्यक था।

1.    बल्बन ने सेना की संख्या में वृद्धि की और सेना के केंद्रीय दल 'क़ल्बे आला’ में सहस्रों निष्ठावान और अनुभवी अधिकारी नियुक्त किए। उनका वेतन बढ़ा दिया गया और वेतन के बदले उनके लिए गांव निश्चित किए गए।

2.    सैनिकों के वेतनों में वृद्धि और उन्हें सुखी और संतुष्ट रखना बल्बन की सामरिक नीति का एक आवश्यक अंग था। उसने अपने पुत्र बुगरा ख़ां को यह परामर्श दिया : सेना के लिए कितना भी धन व्यय करना हो उसे अधिक न समझो और अपने 'आरिज' ( सैनिक भर्ती करने वाला अधिकारी ) को पुराने सैनिकों की व्यवस्था करने और नवीन की भर्ती करने में व्यस्त रहने दो। उसे अपने विभाग में प्रत्येक व्यय के विषय में सूचना होनी चाहिए।

3.   सेना सदैव सतर्क और फुर्तीली बनाए रखने के लिए वह बार बार सैनिक अभ्यास पर बल देता था। प्रत्येक शरद् ऋतु में प्रातःकाल वह रेवाड़ी की ओर शिकार खेलने के बहाने जाया करता था और अपने साथ एक हजार अश्वारोही तथा एक हजार पैदल बाण चलाने वाले ले जाता था और बहुत रात गए वापस आता था।

2.  प्रशासनिक उपाय : प्रबुद्ध निरंकुशता का कल्याणकारी उपाय

सुल्तान की प्रशासनिक उपलब्धियों का वर्णन करते हुए बरनी लिखता है : 'प्रकृति ने सुल्तान बलबन के शरीर पर राजसी वस्त्र सिल दिए थे। जिस समय वह दिल्ली के सिंहासन पर बैठा तो प्रत्येक राजकीय कर्मचारी स्वेच्छाचारी था और समस्त प्रशासनिक प्रणाली अस्तव्यस्त थी। उसने उसके समस्त ढीले पुर्जे कसे और नौकरशाही को शाही सत्ता के प्रति निष्ठवान और आज्ञाकारी बना दिया। पूर्व और पश्चिम के अधिकांश मध्यकालीन शासनों की भांति बल्बन का शासन भी अर्ध नागरिक तथा अर्धसैनिक था। यह मध्यकालीन युद्ध प्रणाली के कारण था क्योंकि सरकारी अधिकारी तब तक कार्य नहीं कर सकते थे जब तक उनमें नागरिक और सैनिक शासन की क्षमता न हो।

1.    वह प्रशिक्षण और नियुक्तियों पर दृष्टि रखता था। वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति के कारण अब सैनिक प्रशिक्षण अत्यंत विशिष्ट विषय बन गया है। मध्य युग में प्राय: तलवार चलाना और लेखनी पर दक्षता साथ साथ सिखाए जाते थे। राजनीतिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में बल्बन ने फूट उत्पन्न करने वाली प्रवृतियां दृढ़ता से रोकीं। वह केंद्रीय राजनीतिक सत्ता में विश्वास करता था। अधिकांश सरकारी नियुक्तियां या तो वह स्वयं करता था या उसकी अनुमति से होती थीं। यह तथ्य कि अमरोहा में की गई एक साधारण नियुक्ति उसका ध्यान आकर्षित कर सकती थी, यह सिद्ध करता है कि वह समस्त नौकरशाही व्यवस्था पर कड़ी दृष्टि रखता था ।

2.   प्रांतीय राज्यपालों को उसे अपनी सामयिक रिपोर्ट भेजनी पड़ती थी। राज्यपालों की आर्थिक क्रियाओं पर अत्यंत दक्ष लेखा परीक्षा प्रणाली नियंत्रण रखती थी। मुल्तान तथा लखनौती जैसे सीमांत प्रांतों की गंभीर परिस्थिति देखते हुए उसने अंत में अपने पुत्रों को इन क्षेत्रों में राज्यपाल नियुक्त किया। बल्बन किसी सामंत या अधिकारी को यह अवसर नहीं देना चाहता था कि वे साम्राज्य के किसी सूक्ष्म क्षेत्र में अपनी स्थिति संगठित कर लें और फिर उसके सामने वह कठिनाई प्रस्तुत करें जो तुग़रिल ने की थी। यदि पश्चिमी सीमा के प्रहरी का पद ही राज्याधिकार के लिए साधन था तो उसके ज्येष्ठ पुत्र के अतिरिक्त अन्य कोई व्यक्ति उस क्षेत्र का अधिकारी नहीं हो सकता था।

3.   चूंकि सुल्तान की शक्ति कम करने के लिए पहले स्वयं बल्बन ने ही 'नायबे मुमलकत' की भांति नए पदों का सृजन किया था इसलिए उसने इसका ध्यान रखा कि किसी अधिकारी के हाथ में बहुत अधिक शक्ति एकत्र न हो पाए। उसने वजीर से उसके सैनिक और आर्थिक अधिकार छीन कर उसके पद का महत्व कम कर दिया। वजीर पद पर बाजा हसन की नियुक्ति से इस बात का संकेत मिलता है कि प्रधान मंत्री पद के प्रति उसका क्या दृष्टिकोण था और उस से कैसे कार्य की वह आशा करता था। आर्थिक और सैनिक अधिकार पृथक करने के पश्चात किसी राज्याधिकारी द्वारा सत्ता हड़पने की आशंका बिल्कुल समाप्त हो गई।

4.   बल्बन ने यह अनुभव किया कि एक निरंकुश शासन के लिए निष्ठावान गुप्तचर प्रणाली की आवश्यकता थी। उसके गुप्तचर उसे सदैव राज्य के प्रत्येक प्रदेश में होने वाली घटनाओं से भलीभांति अवगत रखते थे। उसके पुत्रों, संबंधियों, प्रांतीय राज्यपालों, सैनिक अधिकारियों, सरकारी कर्मचारियों और जनता की गतिविधियों पर गुप्तचर दृष्टि रखते थे और उनकी सूचना भेजते रहते थे। बलबन 'बरीद' (गुप्तचर अधिकारी) की नियुक्ति बड़ी सावधानी से करता था। चरित्र, ईमानदारी यहां तक कि वंशावली की पूरी जांच के पश्चात ही कोई व्यक्ति 'बरीद' के पद पर नियुक्त किया जाता था। 'बरीदों' को जन साधारण तथा गुप्तचर पहचानते थे और उन की सफल व्यवस्था जिस से जनता में चारित्रिक दुर्बलता और अविश्वास उत्पन्न न हो, सुल्तान की चतुरता पर निर्भर थी। इस विषय में बल्बन ने अपने पुत्र को यह परामर्श दिया सूचना देने वालों को और गुप्तचरों को दरबार के निकट न आने दिया जाए, क्योंकि शासकों के पास उनकी निकटता से आज्ञाकारी तथा विश्वसनीय मित्र हो जाते हैं और उनका शासक पर विश्वास जो उत्तम शासन का आधार है नष्ट हो जाता है।

 

बल्बन के राजनीतिक दृष्टिकोण और प्रशासनिक सिद्धांतों की झलक उन दो व्याख्यानों से मिल सकती है जिन्हें उसने अपने पुत्रों को दिया था और जिन से बरनी ने विस्तृत उद्धरण लिए हैं। इन शिक्षाओं से निम्नलिखित सिद्धांतों की जानकारी होती है :

1.    शासन को संरक्षात्मक कानून बनाने चाहिए और समर्थ लोगों के अत्याचार से दुर्बल व्यक्तियों के हितों की रक्षा करनी चाहिए।

2.   संतुलित आचार शासन का आदर्श वाक्य होना चाहिए। जनता से व्यवहार में न तो कठोरता होनी चाहिए और न ढिलाई कर न तो इतना अधिक होना चाहिए जिससे जनता दरिद्र हो जाए और न इतने कम कि वे अवज्ञाकारी और धृष्ट हो जाएं।

3.   शासन इस बात का ध्यान रखे कि जनता की आवश्यकतानुसार उपयुक्त अनाज की उपज होती है।

4.   शासक के आदेश दृढ़ता से लागू किए जाएं और शासन के निर्णयों में बार-बार परिवर्तन नहीं  होना चाहिए

5.   राज्य की आर्थिक स्थिति का समुचित नियोजन और व्यवस्था होनी चाहिए। वार्षिक आय का केवल आधा भाग ही व्यय करना चाहिए। शेष आधा भाग संकटकालीन समय के लिए सुरक्षित रखना चाहिए।

6.   शासन को चाहिए कि वह व्यापारियों को समृद्ध और संतुष्ट रखने का प्रयत्न करे।

7.   सैनिकों का वेतन उचित समय पर दे देना चाहिए और सेना को प्रसन्न तथा संतुष्ट रखना चाहिए।

 

3.  न्याय : साधारण मनुष्यों की सहानुभूति और प्रशंसा

बलबन न्याय को शासक का सर्वोच्च दायित्व समझता था। उसके निरंकुश शासन की यह संतोषजनक विशेषता थी और उसके फलस्वरूप उसे साधारण मनुष्यों की सहानुभूति और प्रशंसा अवश्य प्राप्त हुई होगी। जब कभी किसी साधारण व्यक्ति के प्रति अन्याय या अत्याचार की सूचना उसे मिलती थी तो वह क्रोध से आग बबूला हो जाता था और अपने अधिकारी या संबंधी तक को दंड देने में संकोच नहीं करता था। क़राबेग के पिता मलिक बक़बक़ को जो बदायूं का इक्तादार था और मलिक किरान के पिता हैबत ख़ां को, जो अवध का इक्तादार था, कठिन दंड दिए गए। मलिक बकबक का वध किया गया और हैबत खां को 20,000 टंके का जुर्माना देना पड़ा क्योंकि उन्होंने अपने निजी घरेलू नौकरों की हत्या कर दी थी।

यद्यपि बल्बन, लोगों के व्यक्तिगत झगड़ों में न्याय करता था किंतु जब किसी व्यक्ति का राज्य से झगड़े का विषय प्रस्तुत होता था जहां उसके निजी या उसके पारिवारिक हितों का प्रश्न होता था तो वह न्याय और ईमानदारी के सिद्धांतों की लेशमात्र परवाह न करता था। ऐसी स्थिति में न तो वह न्याय और ईमानदारी की परवाह करता और न 'शरीयत' की ओर अत्यंत अविवेकपूर्ण व्यवहार करता था।

4.  गुप्तचर व्यवस्था : निरोधक शक्ति

उसके 'बरीद' ( गुप्तचर विभाग के अधिकारी ) साम्राज्य के विभिन्न प्रदेशों के अधिकारियों के कार्यों की पूर्ण सूचना उसे देते रहते थे। यदि कोई 'बरीद' किसी स्थानीय अधिकारियों की निरंकुशता का समाचार नहीं पहुंचाता था तो उसे घोर दंड दिया जाता था। बदायूं के 'बरीद' का वध कर उसकी लाश को सूली पर इसलिए प्रदर्शित किया गया क्योंकि उसने इस कर्तव्य का पालन नहीं किया था।

5.  नीति के क्रियान्वयन पर जोर : कमिटमेंट

बलबन के राजत्व-सिद्धान्त का व्यवहृत रूप अथवा क्रियान्वयन हमें लखनौती के विद्रोह एवं उसके उन्मूलन में स्पष्ट रूप से दिखायी देता है। लखनौती में उसके दास व गवर्नर तुगरिल खाँ ने शासन के आठवें वर्ष (1275 ई.) में विद्रोह कर दिया था। इस विदोह के दमन के लिए अवध के राज्यपाल मलिक ऐतिगिन मुएदराज़ या अमीन खाँ को भेजा। उसके असफल होने पर उसे मृत्युदण्ड दिया गया। सुल्तान की आज्ञा का अक्षरशः पालन न कर पाना अवज्ञाकारिता मानी गयी। उसका शव अवध के मुख्य द्वार पर लटका दिया गया, ताकि भविष्य में सुल्तान के आदेशों के परिपालन में गम्भीरता एवं पूर्ण निष्ठा दिखायी जाए। उसके पश्चात् जब बहादुर भी नियुक्त होकर असफल हुआ, तब बलबन ने उसे भी मृत्यु-दण्ड के लिए उपयुक्त माना, किन्तु बीच-बचाव करने पर अन्ततः उसे दरबार से निर्वासित कर दिया। तत्पश्चात् जब स्वयं एक विशाल सेना व पुत्र बुगरा के साथ बंगाल में तुगरिल का उन्मूलन कर दिया, तब तुगरिल के वध से ही वह सन्तुष्ट नहीं हुआ। उसने उसका कटा सिर तो बरछी की नोंक पर पूरे राज्य में घुमवाया ही नहीं बल्कि धड़ लखनौती के मुख्य द्वार पर लटका दिया। इतना ही नहीं, लखनौती के मुख्य बाजार में दोनों तरफ फाँसी के तख्ते लगवाए गए और तुगरिल के अनुयायियों, सैनिकों एवं समर्थकों को सार्वजनिक रूप से मृत्यु-दण्ड दिया गया। इतिहासकार ज़ियाउद्दीन बरनी के वर्णनानुसार, बलबन ने इल्तुतमिश की ही बंगाल नीति का अनुसरण करते हुए, उसके राजनीतिक व सामरिक (दिल्ली से बंगाल की दूरी के कारण) महत्त्व को समझते हुए, अपने पुत्र बुगरा खाँ को वहाँ का गर्वनर नियुक्त किया। इतना ही नहीं, उसने बुगरा खाँ को सम्बोधित करते हुए तीन बार पूछा कि क्या उसने लखनौती का यह वीभत्स दृश्य देखा ? फिर उसे समझाया कि यदि उसे भी 'धूर्त, षडयन्त्रकारियों ने दिल्ली के विरुद्ध विद्रोह के लिए भड़काया, तो उसका एवं उसके सहयोगियों का भी यही हश्र होगा। बलबन ने इस प्रकार अपना राजत्व का सिद्धान्त सुस्पष्ट कर दिया कि, “राजत्व, बन्धुत्व नहीं जानता।"

इन मौलिक सिद्धांतों के अंतर्गत बल्बन ने एक दृढ़ और कार्यकुशल शासन प्रणाली का निर्माण किया। जनता को वह 'शांति और न्याय' दिया जिसकी वह कई दशकों से प्रतीक्षा कर रही थी। बरनी द्वारा लिखित सुल्तान के इतिहास से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि जहां बल्बन अपने मलिकों और अमीरों के प्रति कठोर और काम लेने वाला था जिनकी स्थिति से वह स्वयं उठा था, वहां वह साधारण नागरिक के लिए बड़ा दयालु और उनका ध्यान रखने वाला था। जनता के प्रति वह पिता तुल्य व्यवहार प्रदर्शित करता था यद्यपि उसे अकुलीन व्यक्तियों से घृणा थी।

 

                          राजत्व का नकारात्मक पक्ष

तुर्क सामंत बलबन जो उसी चट्टे बट्टे वाला एक व्यक्ति था, तुर्क शासक वर्ग की शक्ति और दुर्बलताएं भलीभांति जानता था। उसकी शक्ति इस वर्ग के समर्थन पर निर्भर थी किंतु उसे तीन बातों से सतर्क रहना था।

(1) राजमुकुट और सामंतों के बीच हुए पहले जैसे संघर्ष

(2) अपनी मृत्यु के पश्चात उसके पुत्रों और तुर्क सामंतों से बीच होने वाली प्रतिस्पर्धा और

(3) सीमांत प्रदेशों में तुर्क सामंतों द्वारा शक्ति का एकाधिकार

इस उद्देश्य के लिए उसने जो नीति अपनाई वह भारतवर्ष में तुर्क शासक वर्ग के व्यापक हितों के लिए बड़ी घातक सिद्ध हुई।

(1) उसने इल्तुतमिश के परिवार के सभी सदस्यों को बड़ी निर्दयता से मार डाला।

(2) उसने योग्य तुर्क सामंतों को जो उसके उत्तराधिकारियों को चुनौती दे सकते थे, मार्ग से हटाने के लिए विष और कटार का मुक्त प्रयोग किया।

(3) उसने तुर्काने चिहलगानी के दल पर जिसका वह स्वयं सदस्य था, घातक प्रहार किया और उसके प्रमुख सदस्यों की हत्या कर उसके सामूहिक जीवन का अंत कर दिया जो पारस्परिक विरोध और वैमनस्य होते हुए भी गैर तुर्क तत्वों से संघर्ष के समय सफलतापूर्वक उपयोग में लाया जा सकता था।

(4) उसने अपने संबंधियों जैसे शेर-खां तक की केवल ईर्ष्या वश हत्या कर दी।

चूंकि बल्बन अपने तथा अपने वंश के निजी हितों की रक्षा करने के लिए उत्सुक था इसलिए उसने तुर्क शासक वर्ग के हितों की लेशमात्र भी परवाह नहीं की। उसने तुर्की में योग्य व्यक्ति इतनी निर्दयता से नष्ट कर दिए कि जब ख़ल्जी उनके विरुद्ध सिंहासन के लिए प्रतिस्पर्धी के रूप में राजनीतिक क्षेत्र में उतरे तो वे बिल्कुल विस्मित हो कर पराजित हुए। इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतवर्ष में तुर्क सत्ता के पतन के लिए बलबन उत्तरदायी था। उसके संगठन कार्यक्रम ने निस्संदेह दिल्ली सुल्तान की स्थिरता आश्वस्त कर दी और ख़ल्जियों के अंतर्गत उसके और अधिक प्रसार के लिए मार्ग बना दिए किंतु तुर्क सामंतों के लिए उसकी नीति ने उसे दुर्बल बना दिया और उसकी आयु कम कर दी।

इल्तुतमिश का राजत्व सिद्धांत

इल्तुतमिश के विषय में तो डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी का सुस्पष्ट अभिमत हैं कि, 'भारतवर्ष में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक श्रीगणेश उसी से होता है'। वस्तुतः जब उसने राजसत्ता संभाली तब न तो कोई स्पष्ट पूर्व परम्पराएँ थीं। और न ही स्थापित व्यवस्था किन्तु जब उसने अपनी आँखें मूंदी, तब  एक राजवंश की दृढ़ स्थापना हो चुकी थी। अब हमें इल्तुतमिश के काल में 'मुस्लिम राजत्व सिद्धान्त' की एक स्पष्ट अवधारणा दिखायी देती है। उक्त अवधारणा के अनुसार मुस्लिम संप्रभुता या राजत्व सिद्धान्त के दो पहलू थे एक, व्यवहारिक (De Facto) एवं दूसरा संवैधानिक (De Jure)

      इल्तुतमिश के राजत्व का व्यवहारिक पहलू   

व्यवहारिक दृष्टिकोण से तो जो शासक, राज्य में कानून - व्यवस्था बनाए रखें; बाह्य आक्रमणों से देश को सुरक्षित व संरक्षित रखे, एवं निश्चित अवधि में निर्धारित मात्रा में राजकीय करों की वसूली सफलतापूर्वक करें, तो वह एक व्यवहारिक शासक है।

1.   उत्तराधिकार की समस्या का सहज समाधान

अपनी योग्यतम सन्तान नासिरूद्दीन महमूद को उसने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, किन्तु उसकी मृत्योपरान्त जब रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने को वह परिस्थितिवश बाध्य हुआ था, तब भी ग्वालियर के अभियान के दौरान उसने राज्य का प्रशासनिक दायित्व रज़िया को सौंपकर, वास्तव में, उसका परीक्षण किया था। उसकी प्रशासनिक निपुणता के मूल्यांकन के बाद ही उसने रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

2.  मंगोल आक्रमण के समय अभूतपूर्व तटस्थता

दूसरी घटना चंगेज़ खाँ के नेतृत्व में हुए मंगोल आक्रमण की है। उसने 'अभूतपूर्व तटस्था' (Splendid Isolation ) की जो नीति अपनायी तथा अपने राज्य को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने के जो कूटनीतिक कदम उठाए, उससे एक बड़ी विभीषिका सफलतापूर्वक टल गयी।

3.  राजवंशीय राजतन्त्र के दैवी सिद्धांत में आस्था

प्रोफेसर के. ए. निज़ामी के विचारानुसार, इल्तुतमिश की आस्था एक राजवंशीय राजतंत्र में थी एवं उसने 'आदाबुस्सलातीन' तथा 'मआसिरूस्सलातीन' नामक पुस्तकें इसी उद्देश्य से बगदाद से मँगवाई थीं, कि, उसके पुत्रों को ईरानी राजतंत्रीय परम्पराओं एवं राजनय के सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया जा सके। उसने स्वयं इनका अध्ययन किया तथा भारतीय वातावरण में इन्हें समन्वित भी किया। वह शासक के दैवी सिद्धान्त में पूर्ण विश्वास रखता था एवं ऐसा आचरण करता था, जिससे स्पष्ट ही वह अपने अधीनों को सफलतापूर्वक नियन्त्रित रख सका।

4.  राजतंत्र के आधार - सैन्य एवं उमरा

उसके राजतंत्र के आधार - सैन्य एवं उमरा थे। उमरा में भी तुर्क, अफ़गानों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में ताज़िकों को भी उसने सहर्ष सम्मिलित किया था तथा उनके पूर्व प्रशासनिक अनुभव का लाभ, उसके उदार संरक्षण में दिल्ली के शैशव राज्य को प्राप्त हो सका था। समर्थन के लिए चालीसा का गठन किया।

5.  प्रशासन का भारतीय स्वरुप

यही नहीं, 'मुस्लिम प्रभुसत्ता' की नींव रखने वाले इस सुल्तान ने हिन्दू शासकों को भी संरक्षण प्रदान करके एक 'भारतीय' प्रशासनिक स्वरूप का आधार भी रखा था, जिसकी तार्किक परिणति हमें अकबर तथा महान मुगलों के काल तक देखने में मिलती है।

6.  न्याय व्यवस्था

न्याय के लिए नगरों में काज़ी व अमीरे दाद नियुक्त किया गया। इब्नेबतूता के अनुसार सुलतान के महल के समक्ष गले में घंटी युक्त दो सिंह बने हुए थे, जिसे बजा कर न्याय प्राप्त किया जा सकता था। फरियादी लाल वस्त्र पहनते थे।

     इल्तुतमिश के राजत्व का संवैधानिक पहलू 

दरअसल संवैधानिक रूप से उसे ही शासक उसे ही स्वीकार किया जा सकता था, जो न्यूनतम संवैधानिक अर्हताओं की पूर्ति करता हो। इस दृष्टिकोण से तो इल्तुतमिश ही इन अर्हताओं की पूर्ति करने वाला प्रथम सुल्तान था। अतः वह प्रथम संवैधानिक सुल्तान माना जाता है।

1.   सिक्के का प्रचलन

मुद्रा का प्रचलन तथा उसकी सर्वमान्यता किसी भी राज्य के शासन को वैधता प्रदान करती है। साथ ही यह नागरिकों की “हम बनाम वे” की भिन्नता को पाट कर एक तरह की एकता को सृजित करता है। इस प्रकार प्रत्येक सुल्तान को अपने नाम की मुद्रा प्रचलित करनी पड़ती थी। इसने शुद्ध अरबी सिक्के चाँदी का टंका तथा ताम्बे के जीतल का प्रचलन कराया जिस पर टकसाल तथा खलीफा का नाम अंकित था।

2.  खुत्बे में नाम

'खुत्बा' अर्थात् सिंहासनारोहण के पश्चात् की विशेष शुक्रवार की दोपहर (प्रायः एक बजे के लगभग) सुल्तान के नाम से अदा की जाती थी; इस ख़ुत्बे में इल्तुतमिश का नाम भी शामिल कर लिया गया।

3.  अमीरों की निष्ठा की शपथ “बैय्यद” 

बैय्यद या बैय्यत, यह अमीरों द्वारा सुल्तान के प्रति ली जाने वाली निष्ठा की शपथ थी, जिसके माध्यम से अप्रत्यक्ष चुनाव का बोध होता था; निष्ठा की यह शपथ शासक को, शासक को शासन के लिए वैधता प्रदान करती थी।

4.  दासता से मुक्ति

इल्तुतमिश को तो यह दासता मुक्ति-पत्र 1206 ई. में प्राप्त हो गया था। राज्याभिषेक के समय काजी वजीहुद्दीन काशानी के नेतृत्व में विधिवेत्ताओं ने इस पर जब सवाल उठाये तो उन्हें दासता मुक्ति प्रमाण पत्र दिखा दिया गया।

5.  खलीफा से मान्यता

इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम सुल्तान था, जिसे फरवरी 18, 1229 ई. को बगदाद के खलीफ़ा अत्त् मुस्तनिसर बिल्लाह से मान्याभिषेक प्राप्त हुआ था। इस अवसर पर राजधानी को सजाया गया तथा उत्सव मनाया गया।

निष्कर्ष

इस प्रकार इल्तुतमिश राजत्त्व के प्रचलित सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित एवं उसका पालन/क्रियान्वयन करने वाला सुल्तान था।


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