अपने चाचा, श्वसुर, प्रश्रयदाता सुल्तान की हत्या के पश्चात् अलाउद्दीन ख़लजी सिंहासनारूढ़ हुआ, तब अलाउद्दीन ने सैनिक शक्ति के द्वारा सिंहासन प्राप्त किया था। राजपद के लिए अमीरों ने उसका निर्वाचन नहीं किया था और वह राजपद का उत्तराधिकारी भी नहीं था। उसके राज्यारोहण में उलेमा वर्ग की भी कोई भूमिका नहीं थी। उसने सुल्तान की हत्या करके सफल विद्रोह तथा धन के द्वारा सिंहासन पर अधिकार किया था। अतः उसकी शक्ति का आधार सेना थी। इसी सैनिक शक्ति के द्वारा उसने प्रतिद्वन्दियों को नष्ट किया और अपना राजपद सुरक्षित किया। अतः प्रारम्भ से ही उसकी सत्ता निरंकुश थी, चूँकि इसका आधार सेना थी। अतः इसे निरंकुश सैनिकवाद कहा गया है।
1. सुल्तान
पद की प्रतिष्ठा : बलबन की परम्पराओं का पुनर्स्थापन
बलबन
की मृत्यु के पश्चात् उसके अयोग्य उत्तराधिकारियों के काल में सुल्तान पद की
प्रतिष्ठा नष्ट हो गई थी और विभिन्न अमीर पुनः शक्तिशाली हो गए थे। नाजिमुद्दीन,
सुरखा और कच्छन ऐसे ही अमीर थे जो राजसत्ता पर
अधिकार करना चाहते थे। अलाउद्दीन ने सुल्तान पद की प्रतिष्ठा को फिर स्थापित किया।
उसने बलबन की परम्पराओं को पुनः इस प्रकार स्थापित
किया कि सरदारों को आतंक और नियन्त्रण में रखा जा सके।
2. दैवी-सिद्धान्त
: 'नियाबत-ए-खुदाई'
एवं 'जिल्ल-ए-अल्लाह'
अलाउद्दीन
ने राजत्व की धारणा के बारे में बलबन के विचारों का अनुसरण किया। बलबन के समान वह
राजत्व के दैवी सिद्धान्त में विश्वास रखता था। उसका विश्वास था कि राजा सामान्य
मनुष्यों से पृथक्, उच्च और
दैवी शक्ति सम्पन्न होता है। अतः राजा की इच्छा ही कानून थी और सारी प्रजा उसको
मानने के लिए बाध्य थी। वह भी राजत्व को 'नियाबत-ए-खुदाई' एवं सुल्तान को 'जिल्ल-ए-अल्लाह' मानता था।
3. अमीरों
पर नियन्त्रण : जलाली अमीरों का नाश
सुल्तान
की सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए आवश्यक था कि उन दो बाधाओं को हटाया जाए जो
सुल्तान की सत्ता पर अंकुश का काम करते थे। ये दो बाधाएँ थीं—अमीर और उलेमा वर्ग।
अलाउद्दीन ने जलाली सरदारों को पूर्ण रूप से नष्ट कर दिया। जिन सरदारों को उसने
नियुक्त किया, उनको
नियन्त्रण में रखने के लिए उसने कठोर नियम बनाए और उन्हें कठोर दण्ड दिये। बरनी
लिखता है कि अमीर वर्ग इतना भयभीत रहता था कि वे केवल इशारों से बात करते थे।
4. उलेमा
वर्ग की उपेक्षा : मुझे नहीं पता
सुल्तान
की निरंकुशता पर दूसरी बाधा उलेमा वर्ग था जिसका दिल्ली सुल्तानों पर प्रभाव रहा
था। अलाउद्दीन ने उलेमा वर्ग को भी इतना दुर्बल कर दिया कि वे उसकी नीतियों पर
प्रभाव नहीं डाल सकते थे। उसने माफी की जमीनों पर लगान लगा दिया तथा इस वर्ग पर वे
सब कर लगा दिये गए जो सामान्य लोगों पर लगते थे। इससे यह वर्ग आर्थिक रूप से
दुर्बल हो गया। सुल्तान ने काजी मुगीसुद्दीन से अपनी नीति को स्पष्ट करते हुए कहा
था कि, “मैं नहीं जानता हूँ
कि शरीयत की नजरों में क्या उचित है और क्या अनुचित, मैं
राज्य की भलाई अथवा अवसर विशेष के लिए जो उपयुक्त समझता हूँ,
उसी को करने का आदेश देता हूँ। अन्तिम न्याय
के दिन मेरा क्या होगा, यह
मैं नहीं जानता हूँ।” इस प्रकार अलाउद्दीन पहला सुल्तान था जिसने राज्य पर धर्म का
नियन्त्रण समाप्त कर दिया।
5. वंशवाद
की उपेक्षा :
योग्यता का सम्मान
अलाउद्दीन
खिलजी के राजत्व सिद्धान्त में वंशवाद का स्थान नहीं था। उसने बलबन की उच्च वंश की
धारणा को अस्वीकार कर दिया। बलबन एक गुलाम था, उसके
लिए यह आवश्यक हो गया था कि वह अन्य गुलामों से स्वयं को पृथक् करे। इसलिए
काल्पनिक वंशों से अपना सम्बन्ध जोड़ा लेकिन अलाउद्दीन ने ऐसा नहीं किया। उसका
राजत्व शक्ति के सिद्धान्त पर आधारित था।
6. खलीफा
को महत्व न देना : मुझे जरुरत नहीं
अलाउद्दीन
ने अपनी सत्ता को मजबूत करने के लिए खलीफा के नाम का सहारा नहीं लिया। जिस प्रकार
उसने उलेमा वर्ग की सत्ता को अस्वीकार कर दिया था, उसी
प्रकार उसने खलीफा की सत्ता को भी अस्वीकार कर दिया। उसने कभी खलीफा से अधिकार
पत्र प्रदान करने की प्रार्थना नहीं की। लेकिन उसने स्वयं को खलीफा का नायब घोषित
किया।
7. सैनिकवाद
: संसाधनों की लामबंदी
अलाउद्दीन
की शक्ति का आधार सेना थी। सेना के द्वारा ही उसने राजसत्ता पर अधिकार किया था।
सेना की शक्ति के कारण वह खलीफा, शरियत,
उलेमा और अमीर सबकी उपेक्षा कर सका था। उसने
सेना की शक्ति के कारण ही राज्य की सर्वोच्चता स्थापित की थी। उसने स्थायी सेना का
निर्माण किया और अमीरों को सेना रखने की आज्ञा नहीं दी। अतः उसके राज्य को सैनिक
तन्त्र कहा गया है। उसने एक मजबूत सैन्यतंत्र के लिए अपने संसाधनों की लामबंदी की
थी, कुछ प्रशासनिक सुधार, भूराजस्व तथा बाजार नियंत्रण व्यवस्था को हम इस रूप में
भी देख सकते हैं।
8. प्रबुद्ध
निरंकुशता : मजलिस-ए-खास की राय
रणथम्भौर
की घेरेबन्दी के दौरान उसने निरन्तर 'मजलिस-ए-खास'
(गोपनीय परिषद अथवा परामर्शदात्री समिति) की
निरन्तर बैठकें कीं, ताकि लगातार
हो रहे विद्रोहों के उन कारणों का निश्चित निर्धारण हो सके । तत्पश्चात् उसी के
अनुकूल उपर्युक्त आवश्यक कार्यवाही भी हो सके। उपरोक्त प्रकरण इस बात की द्योतक है
कि निरंकुश शासक होकर भी वह अपनी परामर्शदात्री समिति की आवश्यकता को समझता है एवं
विधिक कार्यवाही करता है। वह वस्तुतः गुप्तचर प्रणाली की स्थापना,
अमीरों की अन्तर्क्रिया एवं वैवाहिक गठबन्धनों
पर प्रतिबन्ध लगाना ; मद्यपान
की गोष्ठियों पर प्रतिबन्ध लगाना एवं उत्पीड़क कर प्रणाली एवं ज़ब्ती आदि कदम
उठाता। वह विद्रोहों को समूल रूप से नष्ट करने हेतु उक्त समिति के द्वारा सुझाए गए
उपाय हैं।
9. राजत्व
के अमरत्व की प्यास : पैगंबर और सिकंदर
बरनी
के अनुसार अलाउद्दीन ने यह घोषणा की कि अरब के पैगंवर के चार मित्र थे जिनकी
सहायता से उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया जिसके फलस्वरूप प्रलयकाल तक उनके नाम
का स्मरण किया जाएगा। अलाउद्दीन के भी 'चार
ख़ान' थे अर्थात,
उलुग, नुसरत,
जफ़र और अलप जो शासकों के वैभव के समान थे।
उनकी सहायता से वह एक नया धर्म प्रचलित करेगा और चिरकालीन ख्याति प्राप्त
करेगा। इसी समय अलाउद्दीन ने 'द्वितीय
सिकंदर' का
ख़िताब धारण किया और 'खुत्बे'
में उसे सम्मिलित कर अपने सिक्कों पर भी अंकित
किया। लेकिन अलाउद्दीन के भ्रांतिपूर्ण विचार दूर करने के लिए बरनी अपने चाचा
अलाउलमुल्क को श्रेय देता है। सुल्तान मे उसे यह वचन दिया कि वह कभी नया धर्म
स्थापित करने की बात अपने मुख पर न लाएगा। जहां तक विजयों का संबंध है कोतवाल ने
अलाउद्दीन का ध्यान इस तथ्य की ओर आकर्षित किया कि उसका कार्य क्षेत्र 'भारत
देश' है।
इस
प्रकार अलाउद्दीन ने एक तरफ बलबन के लोहे की नीति को अपनाया वहीं दूसरी
तरफ नस्लवाद अर्थात रक्त की नीति को अस्वीकार कर दिया, उसी
प्रकार उसने जलालुद्दीन खलजी से नस्लवाद के विरोध की नीति ली परंतु परोपकार की
नीति को अस्वीकार कर दिया। अलाउद्दीन ने यह घोषित किया कि राजत्व रक्त संबंध नहीं
जानता। यह प्रकारान्तर से नस्लवाद की नीति
की अवहेलना थी । इस प्रकार उसने अमीर वर्ग का दरवाजा और गैरतुर्की लोगों के लिए
खोल दिया। दूसरी तरफ उसने राजनीति के धर्म निरपेक्षीकरण को भी प्रोत्साहन दिया। उसने धर्म को राजनीति
से पृथक करने का भी प्रयास किया।
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