शनिवार, 17 सितंबर 2022

इल्तुतमिश का राजत्व सिद्धांत

इल्तुतमिश के विषय में तो डॉ. राम प्रसाद त्रिपाठी का सुस्पष्ट अभिमत हैं कि, 'भारतवर्ष में मुस्लिम प्रभुसत्ता का वास्तविक श्रीगणेश उसी से होता है'। वस्तुतः जब उसने राजसत्ता संभाली तब न तो कोई स्पष्ट पूर्व परम्पराएँ थीं। और न ही स्थापित व्यवस्था किन्तु जब उसने अपनी आँखें मूंदी, तब  एक राजवंश की दृढ़ स्थापना हो चुकी थी। अब हमें इल्तुतमिश के काल में 'मुस्लिम राजत्व सिद्धान्त' की एक स्पष्ट अवधारणा दिखायी देती है। उक्त अवधारणा के अनुसार मुस्लिम संप्रभुता या राजत्व सिद्धान्त के दो पहलू थे एक, व्यवहारिक (De Facto) एवं दूसरा संवैधानिक (De Jure)

      इल्तुतमिश के राजत्व का व्यवहारिक पहलू   

व्यवहारिक दृष्टिकोण से तो जो शासक, राज्य में कानून - व्यवस्था बनाए रखें; बाह्य आक्रमणों से देश को सुरक्षित व संरक्षित रखे, एवं निश्चित अवधि में निर्धारित मात्रा में राजकीय करों की वसूली सफलतापूर्वक करें, तो वह एक व्यवहारिक शासक है।

1.   उत्तराधिकार की समस्या का सहज समाधान

अपनी योग्यतम सन्तान नासिरूद्दीन महमूद को उसने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था, किन्तु उसकी मृत्योपरान्त जब रज़िया को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करने को वह परिस्थितिवश बाध्य हुआ था, तब भी ग्वालियर के अभियान के दौरान उसने राज्य का प्रशासनिक दायित्व रज़िया को सौंपकर, वास्तव में, उसका परीक्षण किया था। उसकी प्रशासनिक निपुणता के मूल्यांकन के बाद ही उसने रज़िया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।

2.  मंगोल आक्रमण के समय अभूतपूर्व तटस्थता

दूसरी घटना चंगेज़ खाँ के नेतृत्व में हुए मंगोल आक्रमण की है। उसने 'अभूतपूर्व तटस्था' (Splendid Isolation ) की जो नीति अपनायी तथा अपने राज्य को सुरक्षित एवं संरक्षित रखने के जो कूटनीतिक कदम उठाए, उससे एक बड़ी विभीषिका सफलतापूर्वक टल गयी।

3.  राजवंशीय राजतन्त्र के दैवी सिद्धांत में आस्था

प्रोफेसर के. ए. निज़ामी के विचारानुसार, इल्तुतमिश की आस्था एक राजवंशीय राजतंत्र में थी एवं उसने 'आदाबुस्सलातीन' तथा 'मआसिरूस्सलातीन' नामक पुस्तकें इसी उद्देश्य से बगदाद से मँगवाई थीं, कि, उसके पुत्रों को ईरानी राजतंत्रीय परम्पराओं एवं राजनय के सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया जा सके। उसने स्वयं इनका अध्ययन किया तथा भारतीय वातावरण में इन्हें समन्वित भी किया। वह शासक के दैवी सिद्धान्त में पूर्ण विश्वास रखता था एवं ऐसा आचरण करता था, जिससे स्पष्ट ही वह अपने अधीनों को सफलतापूर्वक नियन्त्रित रख सका।

4.  राजतंत्र के आधार - सैन्य एवं उमरा

उसके राजतंत्र के आधार - सैन्य एवं उमरा थे। उमरा में भी तुर्क, अफ़गानों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में ताज़िकों को भी उसने सहर्ष सम्मिलित किया था तथा उनके पूर्व प्रशासनिक अनुभव का लाभ, उसके उदार संरक्षण में दिल्ली के शैशव राज्य को प्राप्त हो सका था। समर्थन के लिए चालीसा का गठन किया।

5.  प्रशासन का भारतीय स्वरुप

यही नहीं, 'मुस्लिम प्रभुसत्ता' की नींव रखने वाले इस सुल्तान ने हिन्दू शासकों को भी संरक्षण प्रदान करके एक 'भारतीय' प्रशासनिक स्वरूप का आधार भी रखा था, जिसकी तार्किक परिणति हमें अकबर तथा महान मुगलों के काल तक देखने में मिलती है।

6.  न्याय व्यवस्था

न्याय के लिए नगरों में काज़ी व अमीरे दाद नियुक्त किया गया। इब्नेबतूता के अनुसार सुलतान के महल के समक्ष गले में घंटी युक्त दो सिंह बने हुए थे, जिसे बजा कर न्याय प्राप्त किया जा सकता था। फरियादी लाल वस्त्र पहनते थे।

     इल्तुतमिश के राजत्व का संवैधानिक पहलू 

दरअसल संवैधानिक रूप से उसे ही शासक उसे ही स्वीकार किया जा सकता था, जो न्यूनतम संवैधानिक अर्हताओं की पूर्ति करता हो। इस दृष्टिकोण से तो इल्तुतमिश ही इन अर्हताओं की पूर्ति करने वाला प्रथम सुल्तान था। अतः वह प्रथम संवैधानिक सुल्तान माना जाता है।

1.   सिक्के का प्रचलन

मुद्रा का प्रचलन तथा उसकी सर्वमान्यता किसी भी राज्य के शासन को वैधता प्रदान करती है। साथ ही यह नागरिकों की “हम बनाम वे” की भिन्नता को पाट कर एक तरह की एकता को सृजित करता है। इस प्रकार प्रत्येक सुल्तान को अपने नाम की मुद्रा प्रचलित करनी पड़ती थी। इसने शुद्ध अरबी सिक्के चाँदी का टंका तथा ताम्बे के जीतल का प्रचलन कराया जिस पर टकसाल तथा खलीफा का नाम अंकित था।

2.  खुत्बे में नाम

'खुत्बा' अर्थात् सिंहासनारोहण के पश्चात् की विशेष शुक्रवार की दोपहर (प्रायः एक बजे के लगभग) सुल्तान के नाम से अदा की जाती थी; इस ख़ुत्बे में इल्तुतमिश का नाम भी शामिल कर लिया गया।

3.  अमीरों की निष्ठा की शपथ “बैय्यद” 

बैय्यद या बैय्यत, यह अमीरों द्वारा सुल्तान के प्रति ली जाने वाली निष्ठा की शपथ थी, जिसके माध्यम से अप्रत्यक्ष चुनाव का बोध होता था; निष्ठा की यह शपथ शासक को, शासक को शासन के लिए वैधता प्रदान करती थी।

4.  दासता से मुक्ति

इल्तुतमिश को तो यह दासता मुक्ति-पत्र 1206 ई. में प्राप्त हो गया था। राज्याभिषेक के समय काजी वजीहुद्दीन काशानी के नेतृत्व में विधिवेत्ताओं ने इस पर जब सवाल उठाये तो उन्हें दासता मुक्ति प्रमाण पत्र दिखा दिया गया।

5.  खलीफा से मान्यता

इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम सुल्तान था, जिसे फरवरी 18, 1229 ई. को बगदाद के खलीफ़ा अत्त् मुस्तनिसर बिल्लाह से मान्याभिषेक प्राप्त हुआ था। इस अवसर पर राजधानी को सजाया गया तथा उत्सव मनाया गया।

निष्कर्ष

इस प्रकार इल्तुतमिश राजत्त्व के प्रचलित सिद्धान्तों से पूर्णतया परिचित एवं उसका पालन/क्रियान्वयन करने वाला सुल्तान था।


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