अंग्रेजी
प्रशासन के अनैतिक कार्यों से आन्दोलित कांग्रेस ने आवाज उठानी प्रारम्भ कर दी। हालाँकि
लार्ड कर्जन की सरकार ने बाँटो और राज्य करो की नीति के अनुसार साम्प्रदायिक आधार
पर बंगाल का विभाजन कर दिया,
जो उसके कार्यनीति की चरम
परिणिति थी। इससे आन्दोलन रुका नहीं,
बल्कि तीव्र हो गया और इस
विस्फोटक स्थिति ने कर्जन के उत्तराधिकारी मार्ले मिन्टो को विवश कर दिया कि वह
मुसलमानों तथा कांग्रेस के किसी एक दल (नरम अथवा गरम दल) को अपने साथ मिलाते हुए
संवैधानिक सुधारों के द्वारा भारतीय जनमानस को संतुष्ट करे। अतः इस प्रकार मालें
मिन्टो का सुधार आया। मारले ने इन सुधारों के जोखिम के
बारे में लिखा कि यह सुधार संभवतः राज की रक्षा न कर सके, परन्तु यदि यह न कर सका
तो कोई अन्य भी नहीं कर सकेगा। इस समय वायसराय लार्ड मिन्टो तथा भारत सचिव 'जॉन
मॉरले' थे।
प्रमुख प्रावधान
1. प्रथम बार भारत में विधायिका के कुछ
सदस्यों के निर्वाचन सिद्धान्त को स्वीकार किया और भारत के वायसराय की कार्यकारिणी
परिषद् में सर्वप्रथम भारतीय सदस्यों को शामिल किया गया तथा दो भारतीय के० सी०
गुप्ता एवं सैयद हुसैन विलग्रामी को इंग्लैण्ड की भारत परिषद् में नियुक्त किया
गया।
2. इस अधिनियम में साम्प्रदायिक मताधिकार का
सिद्धान्त लागू करके मुस्लिमों के लिए पृथक् प्रतिनिधित्व तथा मतदान की व्यवस्था
की गई ।
3. प्रतिनिधित्व के आधार पर विधान परिषद्
में निर्वाचन प्रणाली लागू हुई तथा 3 प्रकार के निर्वाचक मण्डल बनाए गए।
I- साधारण
निर्वाचक मण्डल II- विशेष निर्वाचक मण्डल III- वर्ग
विशेष निर्वाचक मण्डल
4. केन्द्रीय तथा प्रान्तीय विधान मण्डलों
का आकार तथा शक्ति बढ़ा दी गई। विधान परिषद् की सदस्य संख्या 69
की गई, जिसमें 37 शासकीय तथा 32
गैर सरकारी सदस्य इन 37 सदस्यों में 27
निर्वाचित तथा 5 मनोनीत होते थे। थे!
5. प्रान्तीय परिषद् में बम्बई तथा संयुक्त
प्रान्त में 47, पंजाब में 25,
बंगाल में 52, अन्य
छोटे प्रान्तों में अतिरिक्त सदस्य संख्या 30 कर दी गई।
6. परिषद् के सदस्यों को बजट विवेचना तथा उस
पर प्रश्न करने का अधिकार दे दिया गया। परन्तु यह व्यवस्था विशिष्ट व्यक्तियों के
लिए थे।
7. वायसराय के परिषद् में पहली बार किसी
भारतीय 'एस० पी० सिन्हा'
को विधिक सलाहकार बनाया गया।
8. सदस्यों को प्रस्ताव प्रस्तुत करने की
शक्ति दी गई यद्यपि अध्यक्ष इसके लिए इनकार कर सकता था।
9. विधायी कौंसिलों में ऐसे विषय के
अतिरिक्त, जिनसे सरकार के सम्बन्ध विदेशी शक्तियों से ख़राब होते हों या भारतीय
राजाओं से ख़राब होते हों या जो विषय न्यायालयों के समक्ष हों, शेष सभी सार्वजनिक
हित के विषयों पर सदस्यों को चर्चा करने की शक्ति दी गई।
10. इस अधिनियम द्वारा बम्बई, कलकत्ता, बंगाल,
और मद्रास की कार्यकारिणी कौंसिलों में सदस्यों की संख्या बढाकर 4 कर दी गई।
दोष :
इन
सुधारों ने भारतीय राजनीति में कुछ नई समस्याएं भी उत्पन्न कीं। यह समस्याएं दोतरफा
थीं –
ब्रिटिश नज़र से -
हालाँकि
लार्ड मारले ने यह स्पष्ट करने की कोशिश की कि स्व शासन भारत के लिए उपयुक्त नहीं
है इसलिए वह भारत में संसदीय अथवा उत्तरदायी सरकार स्थापित करने के पूर्णतया
विरुद्ध था। वास्तव में उसने एक निरपवाद प्रत्याख्यापन दे दिया था जिसमें यह कहा
गया था "यदि यह कहा जाय कि सुधारों के इस अध्याय द्वारा अप्रत्यक्ष रूप से
भारत में संसदीय प्रणाली स्थापित की जा सकती है तो कम से कम मेरा इससे कोई सम्बन्ध
नहीं है।" फिर भी भारत में मताधिकार, चुनावी राजनीति और विशिष्ट संस्थाओं तक
भारतीयों की पहुँच ने अंग्रेजों के स्थायित्व के लिए चिंता की शुरुआत कर दी।
भारतीय नज़र से -
एक
ऐसी समस्या मुसलमानों के लिए पृथक मताधिकार नथा निर्वाचन क्षेत्रों की थी। जैसा कि
पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, "इससे उनके चारों ओर एक राजनीतिक प्रतिरोध बन
गए जिन्होंने उन्हें शेष भारत से अलग कर दिया जिससे शताब्दियों से आरम्भ हुए एकत्व
तथा मिलने की ओर किए गए सभी प्रयत्न पूर्ण रूप से बदल दिए गए।...आरम्भ में ये
प्रतिरोध छोटे-छोटे थे क्योंकि चुनाव मण्डल छोटे-छोटे थे परन्तु ज्यों-ज्यों
मताधिकार बढ़ता चला गया इससे राजनीतिक तथा सामाजिक मण्डल का समस्त वातावरण दूषित
हो गया, एक ऐसे रोग की नाई जो समस्त शरीर को प्रभावित
कर देता है। उनके राजनीतिक महत्त्व के लिए मुसलमानों को न केवल पृथक सामुदायिक
प्रतिनिधित्व ही दिया गया, अपितु उनकी साम्राज्य के प्रति सेवाओं के
लिए उन्हें अपनी संख्या से कहीं अधिक प्रतिनिधित्व दे दिया गया। बात यहां पर भी
समाप्त नहीं होती थी। देश में अन्य धार्मिक इकाइयां इस अन्याय को कैसे सहन कर सकती
थीं। इनमें से कुछ ने 'साम्राज्य की अधिक अच्छी सेवा' करने
का दावा किया और फिर भी उन्हें कुछ विशेष रियायत नहीं मिली थी। इस प्रकार सिक्खों
ने अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन किया और 1919
में उन्हें भी विशेष
प्रतिनिधित्व मिल गया। यह अन्य जातियों के लिए भी हरी झण्डी थी। इस प्रकार हरिजनों, भारतीय
ईसाइयों, यूरोपियों तथा ऐंग्लोइण्डियनों को भी 1935 के
अधिनियम के अनुसार पृथक प्रतिनिधित्व प्राप्त हो गया। शताब्दियों से जो लोग
सम्मिलित रूप से रह रहे थे और जिनमें राष्ट्रीय एकता की भावना बन रही थी वह एक ही
बार में समाप्त हो गयी। महात्मा गांधी ने भी यही कहा था कि मिण्टो-मॉर्ले सुधारों
ने हमारा सर्वनाश कर दिया। के० एम० मुन्शी के अनुसार, "इन्होंने
उभरते हुए प्रजातन्त्र को जान से मार डाला ।" 1918
में प्रकाशित हुई भारतीय
संवैधानिक सुधारों की रिपोर्ट में कहा गया था,
“यह (पृथक चुनाव मण्डल)
इतिहास की शिक्षा के विरुद्ध है। यह धर्मों तथा वर्गों को जीवित रखता है जिससे ऐसे
शिविर अस्तित्व में आते हैं जो परस्पर-विरोधी होते हैं और उन्हें एक नागरिक के रूप
में सोचने की शक्ति प्रदान नहीं करते अपितु पक्षपाती बनने को प्रोत्साहित करते
हैं। इससे विद्यमान परिस्थितियों को अपरिवर्तित रहने का अवसर मिलता है और स्वशासन
के सिद्धान्तों के विकास होने में रुकावट आई है।" लॉर्ड मॉरले ने सत्य लॉर्ड
मिण्टो को लिखा था, कि पृथक निर्वाचन मण्डल स्थापित करके “हम नाग
के दान्त बो रहे हैं और इसका परिणाम भीषण होगा।"
इस
प्रकार 1909 के अधिनियम से भारत की स्वतंत्रता तथा विभाजन दोनों की प्रक्रिया की
शुरुआत हो गई।
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