बुधवार, 15 फ़रवरी 2023

इल्तुतमिश की उपलब्धियां : दिल्ली सल्तनत का संस्थापक

            

इल्तुतमिश को भारत के नवस्थापित मुस्लिम राज्य को भंग होने से बचाने तथा कुतुबुद्दीन द्वारा जीते गए प्रदेशों को एक शक्तिशाली तथा ठोस राज्य के रूप में संगठित करने का श्रेय प्राप्त है। निज़ामी के शब्दों में कहें तो ऐबक ने दिल्ली सल्तनत की रूपरेखा के बारे में सिर्फ दिमागी आकृति बनाई थी, पर इल्तुतमिश ने उसे एक व्यक्तित्व, एक पद, एक प्रेरणा-शक्ति, एक दिशा, एक शासन-व्यवस्था और एक शासक वर्ग प्रदान किया।

1.    राजवंशीय राजतन्त्र के दैवी सिद्धांत में आस्था

प्रोफेसर के. ए. निज़ामी के विचारानुसार, इल्तुतमिश की आस्था एक राजवंशीय राजतंत्र में थी एवं उसने 'आदाबुस्सलातीन' तथा 'मआसिरूस्सलातीन' नामक पुस्तकें इसी उद्देश्य से बगदाद से मँगवाई थीं, कि, उसके पुत्रों को ईरानी राजतंत्रीय परम्पराओं एवं राजनय के सिद्धान्तों का ज्ञान प्रदान किया जा सके। उसने स्वयं इनका अध्ययन किया तथा भारतीय वातावरण में इन्हें समन्वित भी किया। वह शासक के दैवी सिद्धान्त में पूर्ण विश्वास रखता था एवं ऐसा आचरण करता था, जिससे स्पष्ट ही वह अपने अधीनों को सफलतापूर्वक नियन्त्रित रख सका

2.    अक्त्ता

इल्तुतमिश द्वारा निर्मित शासन व्यवस्था में अक्ताओं का प्रमुख योगदान है। अक्त्ता साम्राज्य के दूरस्त प्रदेशों को जोड़ने में सहायक रही साथ ही इससे जीते गए प्रदेशों पर नियंत्रण रखा गया।

3.   सेना  

इल्तुतमिश ने सल्तनत की शाही सेना संगठित की। इसका प्रमाण सैन्य व्यवस्था पर लिखी गई फखे मुद्दबिर की रचना आदाब उल हर्ब है जिसे इल्तुतमिश को समर्पित किया गया है।

4.   चालीसा का निर्माण

उमरा में भी तुर्क, अफ़गानों के अतिरिक्त बड़ी संख्या में ताज़िकों को भी उसने सहर्ष सम्मिलित किया था तथा उनके पूर्व प्रशासनिक अनुभव का लाभ, उसके उदार संरक्षण में दिल्ली के शैशव राज्य को प्राप्त हो सका था। समर्थन के लिए चालीसा का गठन किया।

5.    न्याय व्यवस्था

न्याय के लिए नगरों में काज़ी व अमीरे दाद नियुक्त किया गया। इब्नेबतूता के अनुसार सुलतान के महल के समक्ष गले में घंटी युक्त दो सिंह बने हुए थे, जिसे बजा कर न्याय प्राप्त किया जा सकता था। फरियादी लाल वस्त्र पहनते थे।

6.      सिक्के का प्रचलन

मुद्रा का प्रचलन तथा उसकी सर्वमान्यता किसी भी राज्य के शासन को वैधता प्रदान करती है। साथ ही यह नागरिकों की “हम बनाम वे” की भिन्नता को पाट कर एक तरह की एकता को सृजित करता है। इस प्रकार प्रत्येक सुल्तान को अपने नाम की मुद्रा प्रचलित करनी पड़ती थी। इसने शुद्ध अरबी सिक्के चाँदी का टंका तथा ताम्बे के जीतल का प्रचलन कराया जिस पर टकसाल तथा खलीफा का नाम अंकित था।

7.   दिल्ली को राजधानी बनाना-

इल्तुतमिश से पूर्व मुस्लिम बादशाहों की राजनीति की गतिविधियों का केन्द्र लाहौर था, किन्तु इल्तुतमिश पहला मुस्लिम शासक था, जिसने दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया। इसलिए उसे दिल्ली का पहला सुल्तान कहा गया। इसके बाद शताब्दियों तक दिल्ली ही मुस्लिम बादशाहों की राजधानी बनी रही।

8.     खुत्बे में नाम

'खुत्बा' अर्थात् सिंहासनारोहण के पश्चात् की विशेष शुक्रवार की दोपहर (प्रायः एक बजे के लगभग) सुल्तान के नाम से अदा की जाती थी; इस ख़ुत्बे में इल्तुतमिश का नाम भी शामिल कर लिया गया।

9.     अमीरों की निष्ठा की शपथ “बैय्यद”

बैय्यद या बैय्यत, यह अमीरों द्वारा सुल्तान के प्रति ली जाने वाली निष्ठा की शपथ थी, जिसके माध्यम से अप्रत्यक्ष चुनाव का बोध होता था; निष्ठा की यह शपथ शासक को, शासक को शासन के लिए वैधता प्रदान करती थी।

10.  दासता से मुक्ति

इल्तुतमिश को तो यह दासता मुक्ति-पत्र 1206 ई. में प्राप्त हो गया था। राज्याभिषेक के समय काजी वजीहुद्दीन काशानी के नेतृत्व में विधिवेत्ताओं ने इस पर जब सवाल उठाये तो उन्हें दासता मुक्ति प्रमाण पत्र दिखा दिया गया।

11.   खलीफा से मान्यता

इल्तुतमिश दिल्ली का प्रथम सुल्तान था, जिसे फरवरी 18, 1229 ई. को बगदाद के खलीफ़ा अत्त् मुस्तनिसर बिल्लाह से मान्याभिषेक प्राप्त हुआ था। इस अवसर पर राजधानी को सजाया गया तथा उत्सव मनाया गया।

इस प्रकार इल्तुतमिश को भारत में मुस्लिम साम्राज्य का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। उसने अपने साम्राज्य का विस्तार किया, दिल्ली को राजधानी बनाया, अपने नाम के सिक्के चलवाये व खुतवा पढ़वाया तथा खलीफा से सम्मान प्राप्त किया। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी ने लिखा है, “भारत में मुस्लिम प्रभुसत्ता का प्रारम्भ वास्तविक रूप में इल्तुतमिश के राज्यकाल में हुआ।” डॉ० ईश्वरी प्रसाद भी यही मानते हैं।

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