साम्प्रदायिकता क्या है ?
साम्प्रदायिकता
का अर्थ है एक सम्प्रदाय के लिए, भारतीयों के लिए इसका अर्थ है हिन्दुओं और
मुसलमानों के बीच के वे सामाजिक तथा धार्मिक अवरोध जिनके कारण भारत में एक
सामंजस्यपूर्ण राष्ट्र बनाने में बाधा पड़ी। सांप्रदायिकता से सांप्रदायिक राजनीति
पनपी और उससे और अधिक साम्प्रदायिकता उभरी। जिसकी चरम परिणति साम्प्रदायिक हिंसा
तथा भारत विभाजन के रूप में दिखी।
भारत
में साम्प्रदायिकता के विकास के लिए किसी एक कारण को उत्तरदायी कहना बहुत कठिन है।
भिन्न-भिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न तत्वों तथा परिस्थितियों को अपनी-अपनी
पूर्वाभिरुचि के अनुसार, न्यून अथवा अधिक उत्तरदायी बनाने का
प्रयत्न किया है। जो भिन्न-भिन्न कारण बताए गए हैं उसे हम मुख्यतः दो भागों में बाट
सकते हैं –
मुस्लिम
साम्प्रदायिकता : भारत की सामाजिक पृष्ठभूमि की विरासत
1.
दोराष्ट्र
का सिद्धान्त
कुछ
विद्वान यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि भारत कभी भी एक राष्ट्र नहीं
था अपितु यह तो भिन्न-भिन्न जातियों तथा समाजों का
समुदाय मात्र था और हिन्दू-मुस्लिम पारस्परिक क्रिया “दो सभ्यताओं की टक्कर थी, जिनकी
भाषाएं, साहित्यिक आधार,
शिक्षा के विचार तथा
दार्शनिक स्रोत सभी भिन्न-भिन्न थे।" इसके अतिरिक्त दोनों समाजों में धार्मिक
तथा सामाजिक भेद इतने तीक्ष्ण तथा मौलिक थे,
कि सात-सौ वर्षों तक साथ-साथ
रहने पर भी उनमें कुछ भी कमी नहीं आई थी।
2.
मुसलमानों
का 'आर्थिक पिछड़ापन'
मार्क्सवादी
विद्वानों ने इसके लिए मुसलमानों का 'आर्थिक पिछड़ापन' तथा
'मध्यमवर्ग
के उभरने में देरी को उत्तरदायी कहा है। नवीन मुस्लिम बुद्धिजीवियों तथा ऊपरी वर्ग
ने यह देखा कि व्यापार, वित्त तथा सरकारी पदों सब पर हिन्दुओं का
एकाधिकार था। अपने श्रेणीय हितों की रक्षा के लिए
मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने मुस्लिम जाग्रति को साम्प्रदायिक मोड़ दे दिया और अलग
निर्वाचन क्षेत्रों, अधिप्रतिनिधित्व तथा
पदों में आरक्षण की मांग की। आर्थिक प्रश्न चूँकि आधार-भूत प्रश्न होते हैं, अतएव
शोषक वर्ग ने जनता को पथभ्रष्ट कर दिया तथा उनकी कुंठा को
साम्प्रदायिक अभिव्यक्ति का रूप दिया।
3.
मुसलमानों
में आधुनिकता का अभाव तथा भय
नेहरू
साम्प्रदायिकता को वस्तुतः मध्यमवर्गीय प्रश्न ही मानते थे और वह इसका कारण
हिन्दुओं तथा मुसलमानों में 'आधुनिकता का अभाव' मानते
थे। उनके अनुसार, "हिन्दू तथा मुस्लिम मध्यमवर्ग के उभरने
में एक 'पीढ़ी'
अथवा उससे अधिक का अन्तर था
और ये अन्तर राजनीतिक, आर्थिक तथा अन्य पक्षों में अपने आप को
प्रकट कर रहे हैं। यह अन्तर है जो कि मनोवैज्ञानिक रूप से मुसलमानों में भय
उत्पन्न करता है।"
4.
विशिष्ट
वर्ग के झगड़े का सिद्धान्त
कुछ
पाश्चात्य विद्वानों ने साम्प्रदायिकता को बहुवर्गीय समाज में विशिष्ट वर्ग के झगडे
के कारण का होना बतलाया है। वे साम्प्रदायिकता को साम्प्रदायिक राजनीति के समान ही
मानते हैं। उनके अनुसार आधारभूत झगड़ा हिन्दू तथा मुस्लिम समाज में नहीं था अपितु
दोनों धर्मों में प्रतिद्वन्द्वी विशिष्ट अभिजन वर्ग के बीच था जो सत्ता के लोभी
हो चुके थे।
5.
धार्मिक
सुधारवादी आन्दोलन
यह
कहा गया है कि 19वीं शताब्दी के हिन्दू और मुस्लिम सुधार आन्दोलनों में
साम्प्रदायिकता उभरना निहित ही था। वहाबियों का सभी अमुस्लिम लोगों के विरुद्ध
धर्म-युद्ध, ताकि संसार में दारुल इस्लाम स्थापित हो जाय, हिन्दुओं
के लिए इतना ही घृणित था जितना कि स्वामी दयानन्द जी का यह कहना कि, “अहिन्दुओं
को शुद्धकरो और समस्त संसार को आर्य बनाओ",
मुसलमानों के लिये घृणित था।
विवेका- नन्द का भी प्राचीन भारतीय उपलब्धियों की ओर संकेत करना और यह कहना कि यह
ही वास्तविक भारतीय भावना है, मुसलमानों को अस्वीकृत था क्योंकि वे लोग
प्रायः पश्चिमी एशिया के इतिहास की ओर अपनी परम्परा तथा तादात्म्य के लिये देखते
थे ।
6.
राष्ट्रीय
आन्दोलन में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग
कुछ
विद्वान अपने राष्ट्रीय नेताओं की इसलिये आलोचना करते हैं कि इन्होंने धार्मिक
सूक्तियों तथा प्रतीकों का प्रयोग अपने लेखों तथा भाषणों में किया। जैसे इन लोगों
ने महाराणा प्रताप, शिवाजी और गुरु गोविन्द सिंह जैसे व्यक्तियों
को राष्ट्रीय वीर और अकबर, शाहजहां जैसे मुसलमान शासकों को विदेशी
कहना आरम्भ कर दिया। इससे मुस्लिम मन में कुछ आक्रोश उत्पन्न हुआ। इसी प्रकार
गांधी जी ने अपने भाषणों में जिन राष्ट्रीय प्रतीकों का उल्लेख किया वे प्रायः
हिन्दू स्रोतों से लिये गये थे । वे प्रायः सर्वोत्तम और आदर्श प्रशासन के लिये 'राम
राज्य' शब्द का प्रयोग किया करते थे।
मुस्लिम साम्प्रदायिकता
: ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन
1. साम्प्रदायिक त्रिकोण का सिद्धान्त
कुछ लेखकों ने साम्प्रदायिक त्रिकोण का सिद्धान्त प्रस्तुत किया और कहा कि हिन्दुओं तथा मुसलमानों के बीच अंग्रेज शासकों ने अपने आप को लाकर खड़ा कर दिया और एक त्रिभुज बना दी जिसका मुख्य आधार स्वयं थे। इस तथ्य पर बल दिया गया है कि साम्राज्यवादी शासकों ने सरकारी षड्यंत्रों तथा हस्तकौशल से साम्प्रदायिक बंटवारे को बढ़ावा दिया क्योंकि यह उनकी सुप्रसिद्ध सूक्ति "बांटो और राज्य करो" में ठीक बैठता था। अंग्रेजों ने प्लासी के युद्ध की विजय को प्लासी क्रांति कहा तथा दावा किया कि उन्होंने हिन्दुओं को मुसलमानों की गुलामी से मुक्त कराया है। लेकिन 1857 की हिन्दू मुस्लिम एकता से उन्हें घोर निराशा हुई तथा हंटर ने 1871 में इन्डियन मुसलमान नामक पुस्तक लिख कर मुसलमानों के हिन्दुओं से अलग होने के फायदे गिनवाये। अलीगढ आन्दोलन तथा मुस्लिम लीग को अंग्रेजों ने भारतीयों को बाटने के लिए प्रोत्साहन दिया।
2. संवैधानिक प्रणाली
कुछ विद्वानों ने भारतीय ढांचे में होने वाले संवैधानिक परिवर्तनों को तथा उसके साम्प्रदायिक राजनीति पर होने वाले गहरे प्रभावों को इसके लिए उत्तरदायी बतलाया है। जबसे ऐसी प्रतिनिधित्व प्रणाली आरम्भ हुई, जिसमें संख्या का महत्त्व था, तब से देश में ध्रुवीय विभाजन की प्रक्रिया आरम्भ हो गई, विशेषकर ऐसे देश में जहां बहुत-से धर्म प्रचलित थे । इस प्रकार 1909 में मिटो-मॉर्ले सुधारों द्वारा अलग चुनाव मण्डलों के प्रचलन से और इसी प्रणाली के 1919 तथा 1935 के भारत सरकार अधिनियमों द्वारा किए गए प्रसार से साम्प्रदायिक भावनाओं को प्रोत्साहन मिला।
3. भारत का इतिहासलेखन
इतिहास
के ऍग्लोइण्डियन लेखकों ने भारतीय इतिहास तथा संस्कृति को हिन्दू तथा मुस्लिम
दृष्टिकोण से पढ़ने अथवा लिखने का प्रयत्न किया । इसी का अनुसरण भारतीय विद्वान भी
करते रहे जिससे साम्प्रदायिक चिन्तन को बढ़ावा मिला। उदाहरणस्वरूप, प्राचीन
भारतीय इतिहास को 'हिन्दू युग'
तथा मध्ययुगीन भारतीय इतिहास
को 'मुस्लिम
युग' तथा आधुनिक भारत के काल को “ब्रिटिश भारत” की
संज्ञा दी गई इतिहास के सभी मानकों का उलंघन करके ऐसा समझाया गया कि समस्त
मध्ययुगीन इतिहास तथा राजनीति में केवल धर्म ही निर्देशक तत्व था। इस प्रकार भारत
के एक अतीत को दुसरे अतीत से पृथक कर दिया गया।
4. सरकारी पदों के संरक्षण का प्रयोग
भारतीय
उद्योग तथा व्यापार के नाश होने के उपरान्त सरकार ही सबसे बड़ी नियोजक थी, जहां
शिक्षित भारतीय अपनी जीविका उपार्जन के लिए पद प्राप्त कर सकते थे। सैनिक तथा
असैनिक पदों में इस महान संरक्षण का प्रशासक वर्ग ने साम्प्रदायिकता को बढ़ावा
देने के लिए उपयोग किया। इस प्रलोभन के अनिष्टकारी प्रभावों को हमारे राष्ट्रीय
नेता अच्छी तरह समझते थे परन्तु भूख के प्रश्न के सामने ये लोग निःशक्त थे।
इन
सभी व्याख्याओं में सत्य का कुछ-न-कुछ अंश अवश्य है। साम्प्रदायिक प्रश्न का रूप
समय की परिस्थितियों और नवीन राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार बदलता चलता गया। इस
प्रकार उपर्युक्त किसी एक कारण को भी आधारभूत अथवा मूलभूत कारण नहीं कह सकते ।
परन्तु इन सभी का संचित प्रभाव हुआ जिससे बहुमुखी साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिला।
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