इल्तुतमिश की कठिनाइयां
इल्तुतमिश
जब दिल्ली का सुल्तान बना तो उसका मार्ग निष्कटंक नहीं था। उसके सामने जबरदस्त
कठिनाइयां थीं और वह चारों ओर से शत्रु, विरोधियों तथा विपरीत परिस्थितियों से
घिरा हुआ था।
उसकी
प्रमुख कठिनाइयां अथवा समस्याएं इस प्रकार थीं-
1. असंगठित राज्य-
कुतुबुद्दीन
ऐबक की मृत्यु के समय भारत में तुर्की राज्य असंगठित अवस्था में था।
राज्य कर सैनिकों द्वारा एकत्रित किया जाता था। शासन-प्रबन्ध का कार्य प्रमुखतः
तुर्क सरदारों के हाथ में था, जिनमें राज्य विरोधी भावनाएं भरी हुई थीं।
राज्य-विरोधी तत्त्वों के कारण राज्य में शांति और सुरक्षा को खतरा था व दिल्ली
राज्य किसी भी समय छिन्न-भिन्न हो सकता था।
2. तुर्क सरदारों की समस्या-
दिल्ली
राज्य में मुहम्मद गोरी और कुतुबुद्दीन ऐबक के समय के अनेक तुर्क सरदार मौजूद थे, जो
अपने आपको किसी भी प्रकार इल्तुतमिश से कम शक्तिशाली व गुणवान नहीं समझते थे। वे
राजगद्दी पर अपना अधिकार मानते थे। इसके अतिरिक्त कुछ तुर्क सरदारों की यह भी
इच्छा थी कि प्रशासन के समस्त महत्त्वपूर्ण पदों पर केवल तुर्क सरदारों को ही
नियुक्त किया जाये, हिन्दुस्तानी मुसलमानों को नहीं।
3. नासिरुद्दीन कुबाचा-
नासिरुद्दीन
कुबाचा सिन्ध और मुल्तान का सूबेदार था। उसने ऐबक की मृत्यु होते ही अपने आपको
स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया। इतना ही नहीं,
उसने भटिण्डा, कोहराम, सिरसुती
और लाहौर पर भी अधिकार जमा लिया। कुबाचा ऐबक का दामाद था। इसलिए वह अपने आपको
ऐबक का उत्तराधिकारी समझता था।
4. ताजुद्दीन यल्दौज –
कुतुबुद्दीन
ऐबक की मृत्यु होते ही ताजुद्दीन यल्दीज ने फिर से अपने को गजनी तथा हिन्दुस्तान
का शासक घोषित कर दिया और इल्तुतमिश को एक सूबेदार के रूप में शासन करने का सन्देश
भेजा। इल्तुतमिश इस स्थिति को कभी सहन नहीं कर सकता था।
5. राजपूत सरदारों की समस्या-
कुतुबुद्दीन
ऐबक के शासनकाल में जिन राजपूत सरदारों ने दिल्ली की अधीनता स्वीकार कर ली थी, वे
उसकी मृत्यु होते ही विद्रोही हो गये और उन्होंने कर भेजना बन्द कर दिया। कई
क्षेत्रों के सरदारों ने तो संगठित होकर तुर्क सरदारों को मार भगाया और पुनः
स्वतंत्र हो गये। इल्तुतमिश को इन हिन्दू शासकों से निपटना था।
6. उत्तर-पश्चिमी सीमा की समस्या-
इल्तुतमिश
के सामने उत्तर-पश्चिमी सीमा की रक्षा करना भी एक भारी समस्या थी। मंगोलों ने
ख्वारिज्म के शाह जलालुद्दीन मंगबर्नी को परास्त कर दिया था। जलालुद्दीन भागकर
हिन्दुस्तान में सिन्धु नदी के किनारे आ पहुंचा था। उसने खोखरों की सहायता से कुछ
भारतीय प्रदेशों पर अधिकार भी कर लिया था। इसके अतिरिक्त मंगोल आक्रमणों से भयभीत
मध्य एशिया के बहुत से निवासी भी भागकर भारत आ रहे थे। यह सारी स्थिति चिन्ताजनक
थी।
7. वैधानिकता का प्रश्न -
इल्तुतमिश
के सामने अपने राज्याधिकार को सुदृढ़ बनाने की भी समस्या थी। वह एक दास था और
इस्लामी कानून के अनुसार उसे शासक बनने का कोई अधिकार नहीं था। इसलिए इल्तुतमिश को
मुस्लिम धार्मिक वर्ग से किसी प्रकार के सहयोग की आशा नहीं थी।
इल्तुतमिश द्वारा
कठिनाइयों का समाधान
यद्यपि
इल्तुतमिश चारों ओर से कठिनाइयों से घिरा हुआ था,
तथापि उसने असाधारण उत्साह, दृढ़
निश्चय, योग्यता तथा सैनिक कुशलता से अपनी सभी कठिनाइयों पर विजय
प्राप्त की और अपने साम्राज्य को सुदृढ़,
संगठित तथा स्वतंत्र रूप
दिया।
1. विरोधी तुर्क सरदारों का दमन-
इल्तुतमिश ने सर्वप्रथम अपने विरोधी कुतुबी तथा मुअज्जी तुर्क सरदारों के विरोध का दमन किया। इन सरदारों ने इल्तुतमिश को सुल्तान मानने से इंकार कर दिया और फिर जहांदार के नेतृत्व में दिल्ली के समीप विद्रोह कर दिया। इल्तुतमिशने इस विद्रोह को निर्ममतापूर्वक कुचल दिया। बड़ी संख्या में विरोधी सरदारों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा शेष ने इल्तुतमिश का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
2. यल्दौज का दमन-
इल्तुतमिश ने एक विशाल सेना लेकर यल्दौज की तरफ कूच किया। तराइन के ऐतिहासिक मैदान
में दोनों पक्षों के बीच घोर युद्ध हुआ,
जिसमें यल्दोज पराजित हुआ और
बन्दी बना लिया गया बाद में उसकी मृत्यु हो गई । इल्तुतमिश के लिए यह दोहरी विजय
थी। उसकी सत्ता ललकारने वाले सबसे भयंकर शत्रु का विनाश और गजनी से अन्तिम रूप से
सम्बन्ध विच्छेद, जिसके फलस्वरूप दिल्ली का स्वतंत्र अस्तित्व निश्चित हो
गया।
3. कुबाचा का दमन-
1217 ई० में इल्तुतमिश ने कुबाचा कर आक्रमण किया
और चिनाव नदी के तट पर उसे बुरी तरह पराजित किया। कुबाचा ने इस समय विवश होकर
इल्तुतमिश की अधीनता स्वीकार कर ली और उसे वार्षिक कर देना भी स्वीकार कर लिया।
फिर भी अगले 10 वर्षों तक कुबाचा एक स्वतंत्र शासक की भांति व्यवहार करता
रहा। 1227 ई० में इल्तुतमिश ने कुबाचा पर दुबारा आक्रमण किया और उसे
पराजित करके उसके प्रदेशों पर अधिकार जमा लिया। पराजित कुबाचा प्राणरक्षा के लिए
भागते समय सिन्ध नदी में डूबकर मर गया।
4. मंगोल आक्रमण के समय अभूतपूर्व तटस्थता
चंगेज
खां के नेतृत्व में मंगोलों ने मध्य एशिया के कई राज्यों को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया
था। ख्वारिज्म का अन्तिम बादशाह जलालुद्दीन मंगबर्नी उसके हाथों पराजित होकर 1221
ई० में हिन्दुस्तान की ओर भाग आया और उसने सिन्धु नदी के किनारे डेरे डाल दिये।
जलालुद्दीन ने इल्तुतमिश की सेवा में अपना राजदूत भेजकर मंगोलों के विरुद्ध सैनिक
सहायता की अपील की। इस समय इल्तुतमिश ने बड़ी दूरदर्शिता से काम लिया। उसने शाह के
राजदूतों को राजद्रोही बताकर मरवा डाला और जलालुद्दीन को कहला भेजा कि दिल्ली की
गर्म जलवायु उसके अनुकूल नहीं है। इस प्रकार इल्तुतमिश ने दिल्ली साम्राज्य को
मंगोलों के विनाश से बचा लिया।
5. राजपूत राजाओं से युद्ध –
इल्तुतमिश
ने विद्रोही राजपूतों को पुनः अधीनता स्वीकार करने हेतु विवश किया। 1226
ई० में रणथम्भौर के शासक वीर नारायण को हराकर वहां का किला अपने अधिकार में ले
लिया। अगले वर्ष उसने शिवालिक की पहाड़ियों में स्थित मंडीर के अग्रवाल शासक राहुल
को पराजित किया और वहां के दुर्ग पर अपना अधिकार जमा लिया। 1228
ई० में इल्तुतमिश ने जालौर के शासक उदयसिंह को अधीनता स्वीकार करने एवं वार्षिक कर
देने हेतु विवश किया। इन विजयों से उत्साहित होकर 1232 ई० में इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर आक्रमण
किया।
6. खलीफा द्वारा सम्मान प्रदान करना (1229
ई०)-
इल्तुतमिश
ने बगदाद के खलीफा से अपने राज्य को
वैधानिक मान्यता प्रदान करने का निवेदन किया। बगदाद के तत्कालीन खलीफा मुस्तसिर बिल्लाह ने उसे दिल्ली सल्तनत का सुल्तान स्वीकार कर लिया और इल्तुतमिश
को ‘नासिर-अमीर-उल-मौमनीन' (खलीफा का सहायक) की उपाधि से विभूषित किया और
अपने दूत द्वारा उसे एक “खिलअत” (पोशाक) भी भेजी। इस असाधारण सम्मान के कारण
इल्तुतमिश का वैधानिक सम्मान मजबूत हो गया और मुसलमानों के लिए उसकी आज्ञा की
अवज्ञा धर्म की अवहेलना के समान हो गया।
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