कारण
1. मिंटो-मार्ले सुधारों के प्रति असंतोष
मिंटो-मार्ले
सुधारों के बारे में के. एम. मुंशी ने कहा कि यह कांग्रेस के उदार
वादियों के लिए रिश्वत थी। जबकि सुरेंद्रनाथ बनर्जी ने कहा कि इसके नियमों तथा
अधिनियम ने सुधारों की योजना का लगभग नाश कर दिया। इस प्रकार इन सुधारों को लेकर
भारत में असंतोष व्याप्त था।
2. अंतरराष्ट्रीय दबाव
प्रथम
विश्व युद्ध की परिस्थितियों ने पूरे विश्व में आत्म निर्णय के अधिकार पर बल दिया।
इसी दौरान भारत सरकार का मेसोपोटामिया अभियान असफल रहा। असफलता की जांच रिपोर्ट मई
1917 में आई, जिसमें कहा गया कि "भारत सरकार
कार्य कुशलता के विषय में पूर्णतया अयोग्य है।"
3. केंद्रीय विधान परिषद के सदस्यों की मांग
केंद्रीय
विधान परिषद के सदस्यों के एक प्रतिनिधिमंडल ने मांग की कि "केवल अच्छी अथवा
दक्ष सरकार ही आवश्यक नहीं है अपितु उस सरकार की आवश्यकता है जो जनता को स्वीकार
हो क्योंकि वह उसके प्रति उत्तरदायी है।"
4. मोंटेग्यू की घोषणा
भारत
सचिव के पद पर आते हैं मांटेग्यू ने यह घोषणा की कि "महामहिम की सरकार की
नीति जिससे भारत सरकार भी पूर्णता सहमत है यह है कि भारतीय शासन के प्रत्येक विभाग
में भारतीयों का संपर्क उत्तरोत्तर बढ़े तथा स्वशासी प्रशासनिक संस्थाओं का
धीरे-धीरे विकास हो। यह प्रणाली अंग्रेजी साम्राज्य के अभिन्न अंग के रूप में आगे
बढ़े।"
1919
के भारत सरकार अधिनियम के प्रमुख प्रावधान
1. प्रस्तावना
1917 ईस्वी की मांटेग्यू घोषणा को अधिनियम की
प्रस्तावना का रूप दे दिया गया। इस प्रस्तावना के मुख्य बिंदु इस प्रकार थे पहला
भारत को अंग्रेजी साम्राज्य का अंग बने रहना है। दूसरा भारत में उत्तरदायी सरकार
की स्थापना होनी है लेकिन धीरे-धीरे।
2. भारत सचिव
अब
तक भारत सचिव तथा उसके विभाग पर होने वाले खर्च भारत के राजस्व से वसूला जाता था।
लेकिन अब यह खर्च ब्रिटिश संसद द्वारा स्वीकृत धनराशि से किया जाने लगा। भारत सचिव
के कार्य भार को कम करने के लिए हाई कमिश्नर की नियुक्ति की गई।
3. भारत परिषद
भारत
परिषद के सदस्यों की संख्या कम से कम 8 तथा अधिक से अधिक 12
कर दिया गया।
4. केंद्रीय स्तर पर द्विसदनात्मक व्यवस्था
केंद्रीय स्तर पर पहली बार द्विसदनात्मक विधानमंडल की स्थापना की गई। पहला राज्य परिषद, इसमें 60 सदस्य थे, जिसमें 27 मनोनीत किए जाते थे तथा 33 का निर्वाचन होता था। दूसरा विधान परिषद, इसमें 145 सदस्य थे, जिसमें 41 मनोनीत किए जाते थे और 104 का निर्वाचन होता था।
5. केंद्रीय विधान मंडल की शक्ति
केवल
वित्त संबंधी मामलों को छोड़कर अन्य सभी मामलों में केंद्रीय विधानमंडल के दोनों
सदनों की बराबर शक्तियां प्राप्त थी। वित्त विधेयक पारित कराने के लिए राज्य परिषद
के मत की आवश्यकता नहीं थी।
केंद्रीय
विधान मंडल के सदस्य सरकार से प्रश्न एवं पूरक प्रश्न पूछ सकते थे तथा उनके आलोचना
भी कर सकते थे।
दोनों
सदनों में गतिरोध की दशा में गवर्नर जनरल संयुक्त बैठक बुला सकता था, जहां बहुमत
से अंतिम निर्णय लिया जाता था। अध्यादेश और वीटो पर गवर्नर जनरल का अधिकार बना
रहा।
6. प्रांतों में द्वैध शासन
द्वैध
शासन का जन्मदाता लीनियस कार्टियस को माना जाता है। प्रांतों में द्वैध शासन
प्रणाली लागू की गई। इसके अनुसार प्रांतीय विषयों को दो वर्गों में विभाजित किया
गया। पहला आरक्षित विषय - जिसमें राजस्व,
न्याय, वित्त, पुलिस
आदि आरक्षित श्रेणी में रखे गए जिसका प्रशासन गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी को करना
था। जबकि दूसरा हस्तांतरित विषय- इसमें शिक्षा,
स्वास्थ्य आदि हस्तांतरित
विषय थे जिनका प्रशासन उत्तरदायी मंत्रियों के हाथों में दिया गया था।
7. चुनाव प्रणाली
प्रांतों
में प्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अपनाई गई जिसमें सांप्रदायिक आधार पर आरक्षण की
व्यवस्था थी। मत देने का अधिकार संपत्ति संबंधी योग्यता पर आधारित था। महिलाओं को
भी मताधिकार दिया गया। सांप्रदायिक आधार पर निर्वाचन प्रणाली को सिखों पर भी लागू
किया गया।
1919
के अधिनियम की समीक्षा
1. द्वैध शासन का दोष पूर्ण सिद्धांत
के.वी.
रेड्डी जो मद्रास के मंत्री रह चुके थे ने एक बार कहा था कि " मैं विकास
मंत्री था किंतु वन विभाग मेरे अधीन नहीं था मैं कृषि मंत्री था परंतु सिचाई विभाग
और भूमि सुधार विभाग मेरे अधीन नहीं था।"
2. हस्तांतरित विषयों की महत्वहीनता
सभी
महत्वपूर्ण विभाग आरक्षित विषय में शामिल थे। जबकि कम महत्वपूर्ण विभाग हस्तांतरित
विषयों में शामिल थे। हस्तांतरित विषयों पर बजट का भी सर्वथा अभाव था।
3. प्रांतीय गवर्नर की व्यापक तथा विशेष
भूमिका
प्रांतीय
गवर्नर की भूमिका व्यापक थी। उन्हें न सिर्फ आरक्षित विषयों पर पूर्ण अधिकार था
बल्कि वे विषय जो हस्तांतरित विषय में नहीं आते थे उन पर भी उनका असर था। यह लोग
सीमित आर्थिक अनुदान में भी कटौती कर लेते थे।
4. मंत्रियों तथा कर्मचारियों में तालमेल का
अभाव
राज्य
के कर्मचारियों पर प्रांतीय मंत्रियों का नियंत्रण नहीं रहता था। प्रांतीय
कर्मचारी वायसराय और उनकी कार्यकारिणी के प्रति जवाबदेह थे इसलिए कर्मचारियों और
मंत्रियों में तालमेल नहीं बन पा रहा था।
5. संयुक्त उत्तरदायित्व का अभाव
क्योंकि
प्रांतीय सरकार आरक्षित विषयों और हस्तांतरित विषय में बटी हुई थी। अतः संयुक्त
उत्तरदायित्व का अभाव था। द्वैध शासन अब एक गाली बन चुका था जैसा कि बटलर ने लिखा
है कि उसने लोगों को कहते हुए सुना था कि "अबे वो द्वैध शासन", "मैं
तुम्हें द्वैध शासन से मारूंगा"।
इस
प्रकार देखा जाए तो 1919 का अधिनियम भद्दा, भ्रममय
तथा जटिल चरित्र का था। जिस से निजात पाने के लिए गांधी ने आगे चलकर असहयोग आंदोलन
चलाया।
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