मंगलवार, 21 फ़रवरी 2023

मुस्लिम लीग की स्थापना और उद्देश्य


                               स्थापना 

मिंटो की मुसलमानों के एक महत्वपूर्ण भाग को कांग्रेस में शामिल न होने के लिए राजी करने की अपनी नीति में सफलता मिली जिसकी पृष्टभूमि का निर्माण अलीगढ़ आंदोलन तथा शिमला प्रतिनिधिमंडल के "अंग्रेजी आज्ञानुसार प्रदर्शन और मांग" ने पहले ही कर रखा था। 

इस प्रकार राष्ट्रीय एकता की दिशा में एक और कदम का बढ़ना रूक गया। वायसराय से मिलने के तुरन्त बाद शिमला प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों ने अपना पृथक कार्यक्रम बनाने के लिए आपस में परामर्श किया। आगा खां ने अपने संस्मरणों में लिखा है, "उनके लिए एकमात्र आशा इसी में थी कि वे स्वतंत्र राजनैतिक मान्यता और कार्यकलाप की राह पर चल पड़ते और ब्रिटिश सरकार से राष्ट्र के अंतर्गत स्वीकृति प्राप्त करते।"

परिणामस्वरूप जब दिसंबर 1906 में मोहम्मडन एजुकेशनल कांफ्रेंस की बैठक हुई तो नवाब सलीमुल्लाह ने मुसलमान नेताओं को ढाका में आमंत्रित किया। उनकी बैठक वकारूल मुल्क की अध्यक्षता में हुई जिन्होंने उर्दू में भाषण देते हुए मुसलमानों का एक पृथक संगठन बनाने को उचित बताया। उन्होंने कहा :

 "जब तक मुस्लिम बहुमत, जो अपनी एक समय की उंची स्थिति से गिर गया है, एक दूसरे का समर्थन करने और भारत सरकार के प्रति वफ़ादारी की एकसूत्रता में बंध कर चलने का निश्चय नहीं करता, तब तक वह खतरा बना रहेगा कि हिन्दुओं की बाढ़ उसे डुबो दे।"

नए संगठन के निर्माण के लिए प्रस्ताव सलीमुल्लाह ने रखा और हकीम अजमल खां ने उसका अनुमोदन किया। उसका नाम रखा गया आल इंडियन मुस्लिम लीग ।

                       मुस्लिम लीग का उद्देश्य

30 दिसम्बर, 1906 को अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का विधिवत् उद्घाटन किया गया। तथा इसके उद्देश्यों की व्याख्या इस प्रकार से की गई :-

(i) भारतीय मुसलमानों में अंग्रेजी सरकार के प्रति राजभक्ति की भावना को प्रोत्साहित करना तथा यदि सरकार के प्रति कोई गलत धारणा उठे तो उसे दूर करना।

(ii) भारतीय मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य अधिकारों की रक्षा करना तथा उनकी आकांक्षाओं तथा आवश्यकताओं को मर्यादापूर्ण शब्दों में सरकार के सन्मुख रखना।

(iii) उद्देश्य (i) तथा (ii) को ध्यान में रखते हुए यथासम्भव मुसलमानों तथा अन्य भारतीय सम्प्रदायों के बीच सद्भाव बढ़ाना ।

तो इस प्रकार हम देखते हैं कि आरम्भ से ही लीग एक साम्प्रदायिक संगठन था जिसका उद्देश्य केवल मुसलमानों के राजनीतिक तथा अन्य हितों की रक्षा करना था। इसका यह स्वरूप कुछ बदलाओं के साथ 1947 तक बना रहा।

लीग के वास्तविक राजनीतिक उद्देश्य अलीगढ़ में दिए गए नवाब वक्कार उल मुल्क के एक भाषण से स्पष्ट हो जाते हैं । उन्होंने कहा था : “अल्लाह न करे, यदि अंग्रेजी राज्य भारत में समाप्त हो जाए तो हिन्दू हम पर राज्य करेंगे और हमारी जान, माल तथा धर्म खतरे में होगा। मुसलमानों को इस खतरे से बचाने का एक ही उपाय है, वह है, कि वे अंग्रेजी राज्य को बनाए रखने में सहायता करें। यदि मुसलमान पूरे मन से अंग्रेजों के साथ रहेंगे, तो उनका राज्य यहां पूर्ण रूप से बना रहेगा । मुसलमानों को अपने आप को अंग्रेजी सेना समझना चाहिए जो ब्रिटिश क्राउन के लिए अपना रक्त बहाने तथा जीवन अर्पण करने को उद्यत है ।"

                       लीग की स्थापना पर प्रतिक्रिया 

अंग्रेज

लीग की स्थापना की मिश्रित प्रतिक्रियाएं हुईं। अंग्रेज समर्थक अखबारों ने कुल मिलाकर एक ऐसे संगठन के प्रति सहानुभूति व्यक्त की जो “ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी की सुरक्षित और सुदृढ़ चट्टान पर खड़ा किया गया था। 'इंग्लिशमैन' ने आशा व्यक्त की कि "यह संस्था कांग्रेस का प्रभावशाली विकल्प साबित होगी।" 'टाइम्स'  ने उसे कांग्रेस की प्रतितुलनकारी संस्था बताया लेकिन यह संदेह व्यक्त किया कि लीग शांति की राह पर चल सकेगी। 

राष्ट्रवादी

भारतीय राष्ट्रवादी समाचार पत्रों ने मुस्लिम राजनीति में इस घटना को हल्के-फुल्के ढंग से लिया और उसे साम्राज्यशाही कूटनीति की एक और चाल समझा। लीग को भूतपूर्व अधिकारियों, पेंशनयाफ्ता लोगों और सरकारी कृपा पाने के इच्छुक लोगों का एक और कमजोर ढांचा समझा गया जिसे जल्द ढह जाना था।

लीग की संभावना और सरकार की उसे सहायता को कम करके देखने वालों में केवल हिन्दू राष्ट्रवादी ही नहीं थे। स्वतंत्रताप्रिय ब्रिटिश विरोधी उलेमाओं ने भी ऐसे ही गलत अंदाज लगाए। अपने समय के एक चोटी के विद्वान और आजमगढ़ में एक अकादमी तथा संस्था कायम करने वाले शिबली नोमानी भी, जो आरंभिक जीवन में अलीगढ़ में सैयद अहमद खां के सहयोगी रह चुके थे, लीग के सदस्यों की पूर्ण वफादारी की घोषणा से भ्रम में पड़ गए और उसकी ईमानदारी पर शक करते हुए उन्होंने निम्नलिखित शब्दों में उसकी आलोचना की :

"आज़ादीए ख्याल पे तुमको है गरूर, 
तो लीग को भी शाने गुलामी पे नाज है। 
मुख्तसर उसके फजायल कोई पूछे तो ये हैं 
मुहसिने कौम भी है खादिमें हुक्काम भी है।"

जो भी हो निश्चित तौर पर राष्ट्रवादियों की इस मूल्यांकन में राजनैतिक यथार्थता की समझ और अंतर्दृष्टि का अभाव तो था ही, इससे मुसलमानों के उस प्रभावशाली समूह की भावना को भी चोट पहुंची जिसे सरकार का समर्थन प्राप्त था।

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